लेखक :  मोहम्मद खदीर बाबू   [Hindi PDF, 298 kB]
अनुवाद: भरत त्रिपाठी

विद्यार्थियों, कृपया ध्यान दें। सभी कक्षाओं के लिए आवश्यक पाठ्यपुस्तकें हमारे हाईस्कूल में आ चुकी हैं। जो लोग इन किताबों को खरीदना चाहते हैं वे इनकी कीमत अदा करके दोपहर में तीसरी घण्टी के बाद इन्हें दफ्तर से एकत्र कर सकते हैं। लेपक्षी कॉपियों के आने में अभी भी वक्त है। जो लोग इन कॉपियों का सैट लेना चाहते हैं, वे अग्रिम तौर पर अड़तालीस रुपए जमा करें। अगर कोई बाद में कॉपियों की माँग करता है, तो तब उन्हें उपलब्ध कराना सम्भव नहीं होगा।

हमारे स्कूल में दफ्तर के बगल वाली पीले रंग की दीवार पर स्थित ब्लैकबोर्ड पर सफेद चॉक से ये दो ज़रूरी बिन्दु लिखे हुए थे।
एक बात पाठ्य पुस्तकों के बारे में है: इससे हमें सरोकार नहीं है।
दूसरी बात कॉपियों के बारे में है: इससे हमें सरोकार है।
मैं कहता हूँ कि पाठ्य पुस्तकों की बात से हमें सरोकार नहीं है क्योंकि जिन माता-पिता ने मुझे जन्म दिया, उन्होंने बमुश्किल ही कभी मुझे पाठ्य पुस्तकों का नया सैट खरीदकर देने की परवाह की, चाहे छठवीं कक्षा हो या सातवीं। मुझे हमेशा ही दूसरों द्वारा उपयोग की जा चुकी पाठ्य पुस्तकों से काम चलाना पड़ता था। अभी भी, चूँकि यह कोई निश्चित नहीं था कि वे पाठ्य पुस्तकों का नया सेट खरीद देंगे, मैंने सोचा, क्यों न मैं किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करूँ जिसके पास ऐसी किताबें हों जो मेरे लिए उपयोगी हों।
इस तलाश के दौरान मेरी गाडेमसेट्टी रमेश नाम के सेट्टी लड़के से भेंट हो गई जो मेरे घर के नज़दीक रहता है। वह अब नवीं कक्षा में है। उसने हाल ही में आठवीं कक्षा उत्तीर्ण की थी। मेरा अनुमान था कि उसके पास आठवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तकें होंगी जिनकी मुझे ज़रूरत थी। मैंने तय किया कि यदि मुझे पाठ्य पुस्तकें खरीदना ही हुईं तो मैं उसकी ही खरीदूँगा।
क्यों? क्योंकि उपयोग की गई किताबों की अपनी कहानी होती है।

इन किताबों की तीन श्रेणियाँ होती हैं। पहली श्रेणी - यदि कोई उसी साल पाठ्य पुस्तकों का नया सैट खरीदता है, उनपर कत्थई रंग के कागज़ का आवरण चढ़ाता है ताकि वे मैली न हों, कपड़े की दुकान में जाकर साड़ियों को रखने के लिए इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक आवरण लेता है, फिर कत्थई कागज़ का आवरण चढ़ी पाठ्य पुस्तकों पर पिन लगाकर यह प्लास्टिक आवरण चढ़ाता है, अन्दरूनी पृष्ठों पर वर्ष भर पैंसिल या पैन का एक भी निशान बनाए बिना उन्हें सावधानीपूर्वक सुरक्षित रखता है, और फिर इन किताबों को अगले वर्ष बेचता है, तो उसे आसानी से इनकी तीन-चौथाई कीमत मिल जाती है।
इसका अर्थ यह हुआ कि आठ रुपए कीमत की पाठ्य पुस्तक छ: रुपए में बिकेगी।
पर जब कोई नई पाठ्य पुस्तकों की अच्छी देखरेख नहीं करता, उन पर कागज़ का आवरण नहीं चढ़ाता, उन्हें हर किसी को देता रहता है, और अन्दरूनी पृष्ठों को मैला कर देता है, तो ऐसी किताबें आधी कीमत में बिकती हैं।
इसका अर्थ यह हुआ कि आठ रुपए की पाठ्य पुस्तक चार रुपए में बिकेगी।

एक और श्रेणी है: जब कोई उपयोग की जा चुकी पाठ्य पुस्तकें खरीदता है, उन्हें इस हद तक रगड़ता है कि वे हाथ लगाए जाने पर बिखर जाएँ, तो ऐसी किताबें बज्जी-बज्जी श्रेणी में आती हैं।
ऐसी किताबें एक-चौथाई कीमत पर बिकेंगी।
आठ रुपए की किताब के केवल दो रुपए प्राप्त होंगे।
पर हम बज्जी-बज्जी पाठ्य पुस्तकें क्यों लें? या फिर आधी कीमत वाली गुड़ीमुड़ी पाठ्य पुस्तकें भी क्यों लें? हमारे पास केवल तीन-चौथाई कीमत वाली पाठ्य पुस्तकें होना चाहिए, और वह भी आधी कीमत पर खरीदी हुई।
चूँकि इन सभी ज़रूरतों को पूरा करने वाली किताबें सिर्फ गाडेमसेट्टी रमेश के पास थीं, अत: मैं उसके पास गया और उससे किताबों के लिए पूछा।

मेरे चेहरे की तरफ देखे बगैर ही वह बोला, “बिलकुल नहीं! हमने कितनी सफाई से इन पाठ्य पुस्तकों को रखा है! तुम इन्हें तीन-चौथाई कीमत पर खरीद सकते हो, पर आधी कीमत पर नहीं। क्या मुझे कुछ और पैसे जोड़कर नवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तकें नहीं खरीदना है?”
मुझे समझ में नहीं आया कि मैं इसका क्या जवाब दूँ, इसलिए मैं अपना सिर खुजलाते हुए उसे घूरता रहा।
वह भले ही दुबला-पतला और कृशकाय लगता हो, जैसे कि हवा में गायब होने वाला हो, पर वह एक किलो चना चट कर सकता है। वह अपनी जेबें चने से भर लेता है और दिन भर उन्हें चबाता रहता है। जब वह हँसता है तो उसके काले मसूड़ों के सामने चने के छोटे-छोटे टुकड़ों की सफेदी झलकती है।

इन टुकड़ों को देखते हुए मुझे एक तरकीब सूझी। “अरे रमेश! मेरे पिता एक दाल मिल की मोटर सुधारने के लिए नैल्लोर गए हैं। उन्होंने कहा था कि लौटते में वे पक्के में आधा बोरा चना लाएँगे। मैं उसमें से थोड़ा तुम्हें दे दूँगा। तुम मुझे कृपा करके आधी कीमत में किताबें क्यों नहीं दे देते?” मैंने दीवार की तरह मज़बूत झूठ गढ़ लिया। “अब्बा! हमारे घर में भी गुड़ से खाने के लिए चने हैं। हमें तुम्हारे चनों की ज़रूरत नहीं है,” मेरे प्रस्ताव को हवा में उड़ाते हुए उसने कहा।
मैं दूसरे तरीकों के बारे में सोच रहा था कि रमेश की माँ आईं और उससे बोलीं, “ठीक तो है! तुम इसे आधी कीमत में किताबें क्यों नहीं दे देते?” रमेश की माँ बड़ी अच्छी महिला हैं। वे नरम दिल हैं।

इसके अलावा उन्हें कहानियाँ बहुत पसन्द हैं। वे हर महीने चन्दामामा और बालमित्र लेती हैं। उन्हें मैं अच्छा लगता हूँ क्योंकि जब भी मैं उनके घर जाता हूँ, ये किताबें बड़े चाव से पढ़ता हूँ। “देखो रमेश, उसने कुछ चीज़ माँगी है, तुम उसे दे क्यों नहीं देते? हर चीज़ को पैसे से जोड़कर नहीं देखना चाहिए, बेटा!” ऐसा कहकर रमेश की माँ अन्दर चली गईं।
जहाँ उन्होंने बात छोड़ी थी वहाँ से मैंने उसे आगे बढ़ाया। “तुम्हारी अपनी माँ भी तुमसे मुझे किताबें देने को कह रही हैं। किसी को अपनी माँ की बात के विरुद्ध नहीं जाना चाहिए। यदि तुम अपनी माँ के कहे अनुसार करोगे तो तुम्हें पुण्य मिलेगा। यदि मेरी माँ ने मुझसे आधी कीमत की बजाय मुफ्त में भी किताबें देने को कहा होता, तो मैं तुरन्त दे देता,” उसकी ठोड़ी पकड़े हुए मैंने कहा।

(मेरी माँ मरते क्षण में भी ऐसा नहीं कहेगी। और यदि उसने ऐसा करने को कहा भी तो मैं कभी नहीं करूँगा। क्या मैंने सातवीं कक्षा की अपनी बज्जी-बज्जी पाठ्य पुस्तकें मुफ्त में देने की बजाय बूढ़े सेट्टी को तोलकर नहीं बेच दी थीं क्योंकि कोई और मनुष्य उन्हें खरीदने को तैयार ही नहीं था?)

उसने मुँह बनाया और बोला, “ठीक है! इस साल के लिए मैं वे किताबें तुम्हें दिए देता हूँ। मुझे पता है कि अगले साल तुम नवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तकों के लिए फिर आओगे। तब मैं उन्हें आधी कीमत पर नहीं बेचूँगा।”
“ठीक है रमेश! तुम भी खूब हो! उस समय तक, भगवान की कृपा हुई तो, मैं उन्हें पूरी कीमत में खरीदूँगा,” तीन-चौथाई कीमत वाली पाठ्य पुस्तकों को आधी कीमत पर हासिल करते हुए मैंने कहा।
अब, हालाँकि आठवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तकों को लेकर जो चिन्ता मुझे थी वह दूर हो गई थी, पर कॉपियों के बारे में मैं अभी भी चिन्तित था। सूचना पटल पर उल्लिखित लेपक्षी कॉपियाँ मन को इतना ललचाती थीं कि समझो मुँह में पानी आ जाता था।
पर क्या वे मेरे भाग्य में थीं? क्या मेरे पिता उतने सब के लिए समर्थ थे?
जब मैं सोच ही रहा था कि इस बारे में क्या किया जाए, मैंने कण्डुला मलाकोण्डाराव को देखा, जो गुलमोहर के वृक्ष के नीचे बैठे हुए अपनी उँगलियों पर कुछ गिन रहा था।

“क्या है मलाकोण्डरय्या? तुम क्या गिन रहे हो?” मैं वहाँ गया और उससे पूछा।
“कुछ नहीं। मेरे पास पाठ्य पुस्तकें खरीदने के लिए पैसा है। मेरे पास लेपक्षी कॉपियाँ खरीदने के लिए भी पैसा है। पर प्रधानाध्यापक का कहना है कि लेपक्षी कॉपियाँ आने में अभी थोड़ा समय लगेगा। तब तक, मैं सोचता हूँ कि क्या मुझे अभ्यासकार्य हेतु हर विषय के लिए एक कॉपी के हिसाब से कम-से-कम छ: कॉपियाँ खरीद लेना चाहिए?” उसने कहा।
इन शब्दों को सुनकर मेरा पेट ईर्ष्या से जल उठा।
कण्डुला मलाकोण्डाराव के पिता कण्डुला नरसिम्हन ठेकेदार हैं। मकान बनाना - यह उनका काम है। उनके अधीन दस मिस्त्री और दस कुली काम करते हैं। सुबह से शाम तक मशक्कत करने के बाद ये लोग अपना दैनिक वेतन लेकर पोट्टी श्रीमालू केन्द्र के निकट स्थित अपने अड्डे पर आते हैं। मलाकोण्डाराव के पिता पेड़ के नीचे खड़े रहते हैं और इनमें से प्रत्येक व्यक्ति उनको उनका हिस्सा देता है - मिस्त्री द्वारा अर्जित किए जाने वाले चौबीस रुपयों में से चार रुपए, तथा कुली द्वारा अर्जित किए जाने वाले बारह रुपयों में से दो रुपए।
इसलिए उसके पिता की जेब में हमेशा पैसा होता है।

और मेरे पिता?
पैसा एक दिन आता है, अगले दिन नहीं आता। इसके अलावा मेरे पिता को उनके अधीन काम करने वालों को भुगतान करना पड़ता है, वे लोग उन्हें कुछ नहीं देते।
और इसीलिए, जब हम कॉपियाँ खरीदने के लिए पैसे माँगते हैं तो पिताजी कहते हैं, “देखते हैं, देखते हैं,” और मलाकोण्डाराव के पिता कहते हैं, “हाँ, हाँ, ले लो।”
अब, मैंने सोचा कि मुझे खुश होना चाहिए कि अगर मलाकोण्डाराव को कुछ मिला तो मुझे भी कुछ मिल सकेगा। और इसलिए मैंने एक तरकीब सोची। “मलाकोण्डरय्या, तुम्हें कॉपियों के साथ होने वाली समस्याओं के बारे में नहीं पता है,” मैंने कहा। “वे श्रीनिवास में एक प्रकार की होती हैं और चेल्लपिल्ला में दूसरे प्रकार की। कुछ स्याही सोखती हैं। कुछ पर, यदि तुम एक तरफ लिखो तो वह दूसरी तरफ दिखाई देता है। तुम मुझे अपने साथ ले चलो। मैं तुम्हारे लिए अच्छी वाली कॉपियाँ चुन दूँगा।”
“अब्बा, तुमने मेरी जान बचा ली। ठीक है, चलो हम चलते हैं,” उसने कहा।
उस शाम, हम दोनों पोट्टी श्रीमालू केन्द्र गए, उसके पिता से पैसे लिए, फिर चेल्लापिल्ला किताब केन्द्र गए और छ: कॉपियाँ खरीदीं। नई कॉपियों के नए कागज़ की सुगन्ध और उनके कड़क आवरणों को देखकर खुशी मिल रही थी, पर दुख इस बात का था कि वह खुशी मेरी नहीं थी।

वापसी में मैंने उससे पूछा, “मलाकोण्डरय्या, तुमने सातवीं कक्षा में बहुत-सी कॉपियाँ खरीदी थीं न? तुम्हारे पास एक सैट स्कूल के लिए था और एक ट्यूशन के लिए। इसके अलावा मुझे याद है कि तुम प्रश्न बैंक के महत्वपूर्ण प्रश्नों के लिए अलग कॉपियाँ रखते थे। उन सब का क्या हुआ?”
“वे सब अभी भी मेरे पास हैं। मैं उन्हें तौल के बेच दूँगा।”

“ऐसा मत करना। वे सब मुझे दे दो। तुम्हारी लिखावट बहुत अच्छी है। यदि हम उन्हें सातवीं कक्षा के किसी नए विद्यार्थी को दे दें तो यह उसके लिए बड़ा उपयोगी होगा। तुम्हें पुण्य मिलेगा।” मैंने उससे कहा।
“वाह, क्या विचार है!” वह चिल्लाया। उसने घर से पुरानी कॉपियाँ निकालीं। “यह लो और ले जाकर दे दो,” कॉपियाँ मुझे सौंपते हुए उसने कहा।
वे कुल मिलाकर बारह थीं। मैं उन सब को घर ले आया, उन्हें सम्भालकर फर्श पर रखा, उनके सामने पालथी मारकर बैठ गया, प्रत्येक कॉपी में से सफाई से खाली पन्नों को फाड़ लिया, उन्हें दो भागों में बाँटा, और फिर, उनके ऊपर मोटा कागज़ रखते हुए मैंने कॉपियों को सिल दिया।
उन्हें सिलने के बाद, मैं उन्हें अपनी नाक के करीब लाया। जब मैंने उन्हें सूँघा तो उनमें से पुराने कागज़ की मोहक गन्ध आई। मैंने सोचा, “लेपक्षी कॉपियाँ भाड़ में जाएँ। हमारे लिए तो यही अच्छी हैं।”

मैं घर से बाहर निकलकर बाहर खड़ा हो गया। मैंने गाडेमसेट्टी रमेश को नवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तकों के नए सैट के साथ घर जाते हुए देखा।
मैं उसके पास गया, उसकी जेब से थोड़ा चना निकलवाकर लिया और उन नई पाठ्य पुस्तकों को यह सोचते हुए आँख भर के देखा जैसे कि वे मेरी सन्तानें हों और एक साल तक पराये घर में रहने के बाद मेरे पास लौट आएँगी। मैंने उनका और गाडेमसेट्टी रमेश का उसके घर तक साथ दिया।


मोहम्मद खदीर बाबू: इन्होंने अपनी पहली कहानी ‘पुष्पगुच्छम्’ सन् 1995 में लिखी। अपनी कहानी ‘ज़मीन’ के लिए सन् 1999 में रचनात्मक उपन्यास के लिए दिया जाने वाला ‘कथा पुरस्कार’ प्राप्त किया। वर्तमान में ‘आँध्राज्योति’ अखबार में पत्रकार हैं।
तेलगू से अँग्रेज़ी में अनुवाद: ए. सुनीता।

अँग्रेज़ी से अनुवाद: भरत त्रिपाठी: पत्रकारिता का अध्ययन। स्वतंत्र लेखन और द्विभाषिक अनुवाद करते हैं। होशंगाबाद में निवास।

सभी चित्र: सुरेश बी.वी.
यह कहानी ‘अनटोल्ड स्कूल स्टोरीज़’ किताब से ली गई है। अन्वेशी रिसर्च सेंटर फॉर विमन्स स्टडीज़ द्वारा ‘डिफरेंट टेल्स: स्टोरीज़ फ्रॉम मार्जिनल कल्चर्स एंड रीजनल लैंग्वेजेज़’ के तहत विकसित। ‘डिफरेंट टेल्स’ सीरीज़ के तहत अन्वेशी रिसर्च सेंटर ने आठ किताबें तैयार की हैं। सीरीज़ सम्पादक: दीपा श्रीनिवास। प्रकाशक: मैंगो, डी.सी. बुक्स, केरल। मूल्य: 80 रुपए।
इस  शृंखला में प्रकाशित आठों किताबें एकलव्य के भोपाल स्थित पिटारा में उपलब्ध हैं।