रिनचिन

कहानी

सबरी कन्धे के ऊपर से देखती है कि कोई देख तो नहीं रहा है। जब उसे तसल्ली हो जाती है कि आसपास कोई नहीं है, तो वह पेड़ की ओर बढ़ती है और जल्दी-जल्दी उसकी ऐंठी हुई जड़ के आसपास की मिट्टी खोदकर हटाती है। जड़ों के एकदम नीचे जहाँ जड़ें ज़मीन से निकलती हैं, वहाँ एक छोटे-से कोटर में सबरी ने एक तिजोरी (गुल्लक) बनाई हुई है। इस तिजोरी में वह सहेजती क्या है? क्या उसके अपने चित्र, वे खूबसूरत पन्ने जो वह बनाती रही है? नहीं, कागज़ तो मिट्टी में गल जाएँगे, और कहीं बारिश हो गई तो? नहीं, वहाँ उसके चित्र नहीं हैं, इतनी बेवकूफ नहीं है हमारी सबरी। तो फिर क्या है जो वह इन जड़ों के नीचे सहेजकर रखती है? क्या चीज़ है जो वह यहाँ आकर गुपचुप जमा करती है? बताती हूँ, साँस रोककर सुनो। ये शंंकर की कहानियाँ हैं। शंकर की कहानियाँ कागज़ों पर लिखी हुईं? नहीं, शंकर की कहानियाँ, साँस के साथ हवा में छोड़ी हुईं।

सबरी उन्हें पकड़ती कैसे है? जब शंकर बोलता है, तो वह सुनती है। वह कोशिश करती है कि बार-बार साँस न छोड़े, कम-से-कम अपने विचारों को तो न उड़ने दे। फिर जब वह अकेली होती है, तो एक पत्ती लेकर उसमें साँस छोड़ती है। साँस छोड़ते हुए पूरे समय वह मन-ही-मन कहानी को दोहराती जाती है। ठीक उसी तरह जैसे शंकर ने सुनाई थी।

अगला सवाल यह होगा कि सबरी ऐसा कर क्यों रही है, कहानियों को सहेज क्यों रही है। आप में से जो लोग नहीं जानते, उन्हें बता दूँ कि शंकर पूरे समूह में एक मसखरा है। वह कहानियाँ ऐसे सुनाता है जैसे हम साँस लेते हैं। कहानियाँ उसकी और हमारी। उसकी कहानियाँ हमारे आसपास रंग भर देती हैं और उन्हें सुनने में मज़ा तो आता ही है, मगर जितना वे हमारा हिस्सा हो गई हैं उतना ही ज़ोर-ज़ोर से ये बातें सुनाना उसका हिस्सा है। वह अपने लतीफों के ज़रिए ही ज़िन्दगी जीता है। हर चीज़ मज़ेदार है, वह तो आँसुओं में भी हँस सकता है। मटके से बहता (रिसता) पानी, मेरी माँ कहती है। बेशरम! कई और लोग भी यही कहते हैं। मगर शायद यह पूरा सच भी नहीं है।

हमारा गाँव छोटा होता (सिकुड़ता) जा रहा है, इतने लोग जा रहे हैं, मगर कहाँ? यहाँ-वहाँ, काम की तलाश में। चूँकि, अब हम न तो मछली पकड़ सकते हैं, न गेहूँ उगा सकते हैं, इसलिए लोग कहीं और सड़कें बनाने जा रहे हैं। इसीलिए हममें से कई अब स्कूल भी नहीं जाते। शंकर हर जगह अपने माता-पिता के साथ जाता है, इसलिए वह पहले से भी ज़्यादा गायब रहता है, स्कूल से। वह लौटता है कहानियों के साथ मगर डर है कि जल्दी ही शायद वह कभी वापिस न आए। यही कारण है कि सबरी उसकी कहानियाँ इकट्ठी करती रहती है।

सबरी उसकी सारी कहानियाँ साँस में भर लेती है। उसे लगता है कि इस तरह वे सुरक्षित रहेंगी शंकर के लिए। वह तो उन्हें लिखता नहीं, सबरी को डर है कि ये कहानियाँ गुम जाएँगी। उसे शंकर की बहुत सारी कहानियाँ मालूम हैं, उसके चुटकुले भी खूब मज़ेदार होते हैं, वह जो कल्पनाएँ करता है, वे ऐसी कहानियाँ हैं जो हमारी स्कूल की किताबों में कभी नहीं दिखतीं। स्कूल में बड़े लोग उन्हें गम्भीरता से नहीं लेते। मगर सबरी लेती है। इसलिए अब वह उन्हें पेड़ की जड़ के नीचे सहेजती है। कहानियाँ जमा करते-करते पेड़ के साथ भी उसकी दोस्ती होने लगी है, वह उससे बतियाती है, और यदि ध्यान से देखें तो लगेगा कि पेड़ सबरी को समेट लेता है।

उसकी कहानी पर लौटें। उसकी कहानियाँ उसे मुश्किल में फँसा देती हैं, कीरता मास्साब की कहानी, वही कीरता मास्साब जो खूब बेंत चमकाते हैं, या जब उसके पिता खूब सारा महुआ पी लेते हैं तो वे कैसे व्यवहार करते हैं। या माँ के आँसुओं की नदी की कहानी। सारी-की-सारी हमारे जीवन की बातें करती हैं। वे बातें जिनकी बात करते हुए हम डरते हैं। मगर जब उससे सुनते हैं तो वे उतनी अजनबी, उतनी मायूस या गन्दी नहीं लगतीं जितनी तब लगती हैं जब हम उन्हें अपने मन में रखते हैं। वे हम सबका हिस्सा हो जाती हैं और इस तरह से हम सब उनका बोझ साझा करते हैं।

आज शंकर करीब एक महीने बाद लौटा है। वह दिन भर हम सबको देख-देखकर आँख मारता रहा है। दो बार तो मास्साब ने उसे पकड़ लिया। एक बार तो सिर पर चपत भी लगाई। मगर सबको पता है कि हम आधी छुट्टी का रास्ता देख रहे हैं जब शंकर अपनी कहानियों का पिटारा खोलेगा।

आधी छुट्टी हो गई और सारे बच्चे शंकर को घेरकर खड़े हैं। सबरी उसे देख नहीं पा रही है मगर दूर से भी वह उसकी आवाज़ सुन सकती है। ऐसा लगता है कि वह किसी की नकल उतार रहा है क्योंकि उसकी आवाज़ इन्सानों जैसी नहीं है। सबरी जल्दी-जल्दी चलकर झुण्ड में पहुँचती है। हो सकता है कि वह उसकी कहानियों पर हँसे, मगर चूकना भी नहीं चाहती। उसे पता है कि शंकर माता-पिता के साथ एक महीने बाहर रहकर लौटा है। वह कल लौटा है और आज स्कूल में ऐसे आया है जैसे कभी गया ही नहीं था। सिर्फ मास्साब ने उससे कुछ बातें कही थीं, वे भी अच्छी नहीं। इस आने-जाने का नतीजा यह हुआ है कि शंकर कक्षा में बहुत पिछड़ गया है, लगता है वह कभी बराबरी पर नहीं आ सकेगा। मगर हमेशा की तरह शंकर ने इसे भी मज़ाक में लिया। “यदि मुझे डबल चौथी करनी पड़ी तो अगले साल मैं सीधा आठवीं में जाऊँगा। चार और चार कितने? तुम सबको तो वहाँ पहुँचने में और चार साल लगेंगे।” सबरी मन-ही-मन मुस्कुराई।

इस बार शंकर कौन-सी नई कहानियाँ लेकर आया है? जब तक सबरी झुण्ड तक पहुँचती, शंकर काफी जोश में आ चुका है, वह अपने हाथ इधर-उधर लहरा रहा है, सबरी को देखकर वह थोड़ा रुकता है और आँख मारता है।
“यह आई हमारी दादी अम्मा, क्यों साबरी, सबरी तुम भी कहानी सुनना चाहती हो?” सबरी ने हामी में सिर हिलाया। “मगर तुम वादा करो, बीच में कोई सवाल नहीं पूछोगी, न ही कोई कैसे, क्यों या ऐसा नहीं हो सकता बोलोगी। क्योंकि आज की कहानी सच से भी ज़्यादा सच्ची है और एकदम अविश्वसनीय है।”

सबरी आह भरकर सबके साथ बैठ जाती है, “हाँ, हाँ, मैं वादा करती हूँ, पर अब सुनाओ तो।”
तो शंकर फिर से शुरू  करता है।
“मुझे पता है कोई भी इस पर विश्वास नहीं करेगा, परन्तु यह सच है... इस बार मेरे माता-पिता जंगल के उस तरफ एक गाँव में काम करने गए थे। वही, छोटी नदी और बड़े बाँध के पास का गाँव।”

अधिकतर ने बड़े बाँध के बारे में सुना था। उन्होंने सुना था कि उस बाँध से इतनी बड़ी झील बनी है कि कई गाँव उसमें डूब गए हैं। लोग आसपास की छोटी-छोटी पहाड़ियों पर चले गए हैं। ऐसा ही एक गाँव था मगरेली। शंकर की कहानी का गाँव।
वहाँ वे एक सड़क बना रहे थे, जो जंगल में जाती थी। पिछले साल शंकर ने बताया था कि उसने देखा था कि जब पानी उतरा था तो लोग नदी तक आए थे, वहाँ बचे दलदल में गेहूँ उगाने। मगर इस साल कोई गाँव नहीं था, लोग नहीं थे और गेहूँ उगाने की तो बात ही जाने दें।

“क्या? लोग कहाँ गए?” यह सवाल था छोटी चकुली का जो उसने आँखें फाड़कर पूछा था। शंकर खुश हुआ, “हाँ, यह अच्छा सवाल है।” और उसे पता था कि सबरी कुछ कहने ही वाली है।
“हाँ-हाँ, मैंने कहा था कि कोई सवाल नहीं पूछेगा, मगर वह सिर्फ तुम्हारे लिए था, सवाल ऐसे होने चाहिए जो कहानी को आगे बढ़ाएँ, रोकें नहीं, जैसे तुम्हारे सवाल करते हैं, फच्चर जैसे। इसलिए तुम्हारे सवाल से उल्टा यह एक बढ़िया सवाल है।”

सबरी ने अपनी ज़बान को थामा, और शंकर ने बात आगे बढ़ाई, “मैं भी चकरा गया, सारे लोग कहाँ गए? तो जब मेरे माँ-बाप सड़क पर काम करने चले गए, तब मैं मगरेली की गुत्थी सुलझाने चल दिया।”

“दो दिन भटकने के बाद भी जब कोई नहीं मिला तो मैं हाथ डालने को था। तभी तीसरे दिन मेरी किस्मत ने साथ दिया और मुझे गाँव के बाहर कुछ लोग मिल गए, और उन्होंने मुझे यह किस्सा बताया।”

“मगरेली का यह नाम इसलिए पड़ा है क्योंकि उसकी नदी में बहुत सारे बहुमूल्य मगरमच्छ रहते थे। मगरमच्छ नदी में रहते थे और लोग उसके आस-पास। वे नदी में मछली पकड़ते थे, नदी के कछार में तरबूज़ उगाते थे और गर्मियों में जब पानी उतरता तो नदी की उपजाऊ मिट्टी में गेहूँ उगाते थे। गाँव की ज़मीन सख्त थी, बारिश कम होती थी, इसलिए लोग नदी पर निर्भर होते गए।

“मगरमच्छों को अण्डा देने के लिए कोई जगह नहीं थी। मगरमच्छ दुखी हो गए थे। कुछ मगरमच्छ अण्डे देते थे मगर गेहूँ की फसल और हल चलने के कारण उन्हें ढूँढ़ नहीं पाते थे। ‘हमारे अण्डे कहाँ हैं, हमारे अण्डे कहाँ हैं,’ मगरमच्छ उन्हें ढूँढ़ते फिरते थे। मगरमच्छ सोच रहे थे कि गाँव वालों से कोई समाधान करवाएँ, मगर वे गाँव वालों से कहते उससे पहले ही एक बड़ा साहब घूमते-घामते वहाँ पहुँचा। उसे जानवरों से प्यार था। उसका यही काम था, दुनिया भर में घूम-घूमकर जानवरों को बचाना। जब उसने मगरमच्छों की आपबीती सुनी तो वह पिघल गया, ‘तुम्हारे पास अण्डों के लिए कोई जगह नहीं है, तो गेहूँ को बन्द होना चाहिए।’ लोग चीखने लगे, ‘यदि गेहूँ बन्द हो गया तो हम कहाँ जाएँगे।’ ‘जंगल के किनारे पर,’ साहब बोला। ‘मगर वहाँ तो शेर रहता है, आपने जो फॉरेस्ट गार्ड तैनात किया है, वह हमें गोली मार देगा।’ ‘मगरमच्छ हमारे मित्र हैं और हमें भी उनकी चिन्ता है।’ ‘हमें अपने लिए ज़मीन दे दो, हम चले जाएँगे।’ ‘क्या आपको यकीन है कि हमारी खेती के कारण ही मगरमच्छों की संख्या कम हो रही है, और किसी कारण से नहीं?’ यह सवाल था एक युवती का, साहब ने उसे अनसुना कर दिया। मगर हैरत की बात यह थी कि वह युवती फिर कभी गाँव में नहीं देखी गई।

“उसका गायब होना सचमुच एक रहस्य ही रहा। एक अफवाह थी कि वह भागकर शहर चली गई थी। परन्तु अपनी बूढ़ी माँ को छोड़कर? किसी को बताए बिना? यह सही नहीं लगता था। मगर कठिन सवालों के सरल जवाब तो खोजने ही पड़ते हैं। तो सब लोग भागने की बात से सहमत हो गए।
“लोग गुहार करते रहे मगर साहब ने एक न सुनी। लोग गिड़गिड़ाए थे, हमें तुरन्त जाने को मत कहो, इस साल का गेहूँ काट लेने दो, फिर चले जाएँगे। साहब ने कहा ठीक है। इस तरह से वह दयालु था।”

शंकर रुका, हम सबने आँखें झपकाईं, थोड़ी देर के लिए हमें लगा कि शंकर ही वह साहब है और हम छोटे लोग हैं। उसकी मेहरबानी पर हैं। हमने आह भरी। “फिर क्या हुआ?”

“कुछ नहीं, लोगों ने उस मौसम का गेहूँ बोया और काटा। अगला मौसम शु डिग्री होने से पहले साहब ने फिर से अपने आदमी भेजना शुरू कर दिए, यह बताने के लिए कि इस साल तुम लोग न तो मछली पकड़ सकोगे और न ही नदी में गेहूँ उगा सकोगे, यही समय होता है मगरमच्छों द्वारा अण्डे देने का। तो उन्होंने न तो मछली पकड़ी, न गेहूँ उगाया। कई लोग इधर-उधर चले गए, उन्होंने महुआ के फूल बीने, तेंदू पत्ता तोड़ा, जंगल से लाख तोड़ा, और साहब के आदमियों की नज़रें बचाकर थोड़ी-बहुत मछलियाँ भी चुराईं। फिर भी उन्हें भूखे रहना पड़ा, धीरे-धीरे बच्चे सिकुड़ने लगे। लोग काम की तलाश में बाहर जाने लगे। सड़कें बनाने, तालाब बनाने, बड़े-बड़े शहरों में इमारतें बनाने, थोड़ा-बहुत पैसा और ढेर सारी कहानियाँ लेकर वे गाँव लौटते थे।”
“मगर वे कहानियाँ मेरी कहानी जैसे बढ़िया नहीं होती थीं,” शंकर की आवाज़ ने जैसे कहानी का प्रवाह रोक दिया। सबरी का दिमाग वापिस भीड़ में लौट गया। शंकर के शब्द बाकी सबके समान उसको भी नदी किनारे खींच ले गए थे, जहाँ लोग रहते थे। “शंकर ने ऐसा क्यों किया,” वह सोचती है, “हमेशा अन्दर-बाहर, कभी कहानी में, कभी असली जीवन में। हर चीज़ को गड्ड-मड्ड कर देता है।”

“फिर?” किसी ने बेसब्र होकर पूछा। “फिर...लोग वापिस बड़े साहब के पास गए, सफेद पोशाक पहने वह अपने बगीचे में बठा था, चाय पी रहा था, उसके पैरों के नीचे उसके जूते झाँक रहे थे। गाँव वालों को लगा कि जूते जाने-पहचाने लग रहे हैं मगर समझ नहीं पाए कि क्यों। उनको सारे अच्छे जूते एक-से दिखते थे। उन्होंने अनुनय-विनय की, मगर साहब टस-से-मस नहीं हुआ। लोगों ने कहा, ‘कम-से-कम हमें मछली पकड़ने दो।’ ‘तुम्हारी नाव और जाल मगरमच्छ को परेशान करते हैं।’

‘किन्तु...?’
‘किन्तु-परन्तु कुछ नहीं, तुम्हें सवाल पूछने का कोई हक नहीं है। मेरा फैसला आखिरी है, तुम कोई और काम तलाश कर लो और जब तक कोई काम नहीं मिलता, तब तक के लिए यह आधा बोरा गेहूँ तुम सबके लिए।’
‘किन्तु..।’
‘ज़्यादा किन्तु-परन्तु किया तो जेल भिजवा दूँगा,’ बड़े साहब ने शान्ति से कहा। वह कभी-कभार ही आवाज़ ऊँची करता था। परन्तु उसके आदमियों के पास बन्दूकें थीं, लोग उल्टे पाँव लौट गए, मायूस और हताश। लौटते समय किसी को खयाल आया कि बड़े साहब के जूते कुछ-कुछ मगरमच्छ की चमड़ी जैसे दिखते थे।”

“क्या! यह तो ठीक नहीं है।” सबरी खुद को रोक नहीं पाई।
“हाँ, सबरी दादी, यह ठीक नहीं है। मगर चौकीदारों के हाथों की बन्दूकों को सवाल रोकने का तरीका आता था। जब मास्साब के हाथ में बेंत होती है, तो क्या तुम कभी कोई सवाल पूछती हो?”

सबरी ने इन्कार में सिर हिलाया, सबने हिलाया। सन्तुष्ट होकर शंकर ने किस्सा आगे बढ़ाया। “इस तरह एक साल और बीत गया, छोटे लोग सिकुड़ने लगे थे। बच्चे छोटे पैदा होते थे, और जवान मर्द-औरतें बाहर जाने लगे थे। फिर एक दिन, एक शादी में, जहाँ कोई दावत नहीं हुई थी, क्योंकि दावत के लिए कुछ था ही नहीं, एक बूढ़ी औरत ने दूल्हा-दुल्हन को आशीर्वाद दिया, ‘यही एक तोहफा मेरे पास है,’ यह कहकर अपना हाथ उनके सिर पर रखकर उसने धीमे स्वर में कहा था, ‘तुम्हारे बच्चे मगरमच्छ पैदा हों।’

वहाँ उपस्थित सारे लोग सन्न रह गए। आशीर्वाद अजीब था, मगर था माकूल। जल्दी ही गाँव के सारे लोग एक-दूसरे को यही दुआ देने लगे। जब कोई छोटी बच्ची किसी बुज़ुर्ग की मदद करती, या कोई माँ किसी दूसरे के बच्चे को दूध पिलाती, तो उन्हें यही दुआ मिलती, ‘तुम मगरमच्छ बनो।’ स्कूल में बच्चे निबन्ध लिखते तो यही लिखते कि मैं बड़ा होकर मगरमच्छ बनना चाहता हूँ।

फिर एक दिन गाँव में एक अजीब-सी हवा चली, कुछ ऐसी हवा जो मनोकामनाएँ पूरी करती है और अचानक ऐसा ही होने लगा। सबसे पहले उसी जोड़े को मगरमच्छ पैदा हुए थे जिसे उस सयानी औरत ने आशीर्वाद दिया था। फिर सबके। हर नवजात शिशु मगरमच्छ पैदा होता था, और जो पहले पैदा हो चुके थे वे भी मगरमच्छ में तब्दील होने लगे। यहाँ तक कि जो बच्चे इन्सान पैदा होकर घुटने चलने लगे थे, वे भी मगरमच्छ जैसे दिखने लगे। उनकी बहुत फजीहत थी क्योंकि वे पैदा तो मगरमच्छ नहीं हुए थे मगर धीरे-धीरे, अच्छे-बुरे जैसे भी हों, सब-के-सब मगरमच्छ बन गए। जो बड़े हो चुके थे वे तो कुछ और बन नहीं सकते थे, इसलिए उन्हें जैसे थे वैसे ही रहना पड़ा। और एक-एक करके बड़े लोग तो मर-खप गए और युवा नदी में उतर गए। वहाँ वे खुशी-खुशी रहने लगे। बड़े साहब के संरक्षण में।”

शंकर ने हाथ ऊपर उठाकर एक झटके के साथ कहानी खत्म कर दी, “यही मगरेली की कथा है।”
“यह है क्या, कहानी या कुछ और? सब मनगढ़न्त है, मैं तुम्हारी बात पर भरोसा नहीं करती।” सबरी ने उठते हुए कहा।

“मैंने तुमसे कहा था कि क्यों, कैसे, यकीन नहीं आता वगैरह नहीं चलेगा। मैं तुमसे कह रहा हूँ यह सच है,” शंकर बोला।
शंकर और सबरी एक-दूसरे को घूरते खड़े रहे।

“मगर, मगर...” उनके वाक्युुद्ध के बीच में कूदती हुई यह छुटकी थी, “हमें भी तो शेर के कारण गाँव छोड़ना पड़ रहा है।” सब बच्चे छुटकी को देखने लगे। उन्हें गाँव के सयानों की आखिरी बैठक याद आई। हमारे ढोर जंगल में नहीं जाने चाहिए और जंगल के किनारे खेती भी नहीं करनी है। वहाँ शेर को बचाया जा रहा है।

“तो क्या हम...” श्रोताओं में से एक लड़का बोलने लगता है और फिर चुप हो जाता है। बच्चे एक-दूसरे को देख रहे हैं। शंकर की आँखों में कोई चीज़ चमकती है, कहानी उन्हें कहाँ ले आई है। चकुली, जो शंकर से कम मसखरी नहीं है, कहानी को वहाँ से उठाती है जहाँ शंकर ने छोड़ा था। वह अपने हाथ हवा में उठाती है और ज़ोर से घोषणा करती है, “तुम सब बड़े होकर शेर बनो।” “हा, हा, हा...।” शंकर बोला, “और रहना साहब के संरक्षण में।” “अरे क्यों, हम तो ऐसे शेर हैं जो गार्डों को काट लें, सबको भगा दें लड़ाकू शेर।”

अब कहानी शंकर के हाथ के छूट गई थी, उसने वापस लगाम को हाथ में लेने की कोशिश की, “सबरी, सबसे सयानी, मैं देख रहा हूँ कि तुम्हारी पूँछ उगने भी लगी है।” सबरी घूमकर पीछे पूँछ ढूँढ़ने लगती है तो वह हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाता है।
सबरी कहानी को रखने के लिए पेड़ की तरफ जाने लगती है। बाकी बच्चे हवा में दहाड़ने की प्रेक्टिस कर रहे थे।


रिनचिन: बच्चों व बड़ों के लिए कहानी लिखती हैं। भोपाल में रहती हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
चित्रांकन: भरत: शौकिया तौर पर चित्रकारी करते हैं।