माधव केलकर

17वीं सदी में समुद्री यात्राओं के दौरान समुद्र में अपनी स्थिति, देशांतर रेखाओं के जरिए पता करना खासा कठिन काम था क्योंकि देशांतर पता करने की प्रचलित विधियां बेहद जटिल थीं। कई यूरोपीय देशों ने देशांतर पता करने की सरल एवं व्यावहारिक विधि की खोज के लिए इनाम घोषित किए थे। इस लेख में देशांतर नापने की कुछ विधियां व ब्रिटेन द्वारा घोषित इनाम को जीतने वाले जॉन हैरीसन का किस्सा पेश किया जा रहा है।
पिछले अंक में हमने देखा कि 500 साल पहले की दुनिया में जहां आज के दौर के तकनीकी उपकरण नहीं थे, खुले समुद्र में यात्राएं करना काफी जोखिम भरा काम होता था। समुद्र में डूब जाने, भटकने या लापता हो जाने के खतरों से भरी होती थी यात्राएं। उस समय जहाज़ी अपनी यात्राओं के दौरान छोटे-से- छोटे अवलोकनों की ओर भी तवज्जो देते थे। यात्रा के दौरान दिखाई देने वाले टापू, सूरज एवं तारों की बदलती स्थिति, तटीय प्रदेशों की वनस्पति, जीव-जंतु, समुद्र की गहराई, समुद्री जल धाराएं, मौसमी हवाएं, पानी का स्वाद-गंध, घुम्मकड़ पंछी, छिपे हुए खेतरों, आदि के बारे में जहाज़ी अपने साथियों को विस्तार से बताते थे ताकि वे भी जरूरत पड़ने पर उन जगहों को पहचान सकें। विशाल समुद्र में भटक जाने के खतरों से सब वाकिफ थे इसलिए हर तिनके का सहारा लिया जाता था।

पृथ्वी पर कहीं भी अपनी जगह ठीक-ठीक तय करने के लिए दो जानकारियों की जरूरत होती है - अपना अक्षांश व देशांश। 16वीं सदी में खुले समुद्र में अक्षांश पता कर पाना तो संभव था लेकिन देशांतर पता करने के सटीक तरीके अब तक विकसित नहीं हुए थे। व्यापार-वाणिज्य, नए भू-भागों की खोज और समुद्री यातायात को बढ़ावा देने के हिसाब से समुद्री यात्राओं का महत्व बढ़ता जा रहा था, इसलिए ज़रूरी था कि ऐसी विधियां विकसित की जाएं जिनकी मदद से जहाज़ में सफर करते हुए भी समुद्र में देशांतर पता किए जा सकें।
इस समय तक जो विधियां उभरकर आई थीं उनमें कुतुबनुमा यानी चुंबकीय कंपास से देशांतर पता करना, बृहस्पति के उपग्रहों की मदद से देशांतर निकालना, चांद और किसी तारे के बीच कोणीय दूरी से देशांतर की गणना करना (किन्हीं दो स्थानों के स्थानीय समय की तुलना से) आदि थीं।

चुंबकीय दिक्सूचक का इस्तेमाल शुरू होने के बाद धीरे-धीरे यह समझ में आया कि अलग-अलग जगहों पर भौगोलिक उत्तर और चुंबकीय उत्तर के बीच का विचलन कोण, और दिक्सूचक को नमन कोण एक-सा नहीं होता। फिर कोशिश भी की गई कि चुंबकीय विचलन कोण और चुंबकीय नमन कोण की विस्तृत तालिकाएं व नक्शे* बनाए जाएं। जहां का भी देशांतर पता करना हो वहां पर इन दोनों के सटीक अवलोकन लेकर, फिर इन तालिकाओं व नक्शों की मदद से नाविक अपना देशांतर पता कर सकते थे। लेकिन पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र काफी अस्थिर है, उसमें लगातार बदलाव होते रहते हैं; इसलिए यह विधि ज्यादा लोकप्रिय नहीं हो पाई।
सन् 1610 में गैलीलियो ने अपनी दूरबीन से बृहस्पति ग्रह और उसके उपग्रहों को देखा। बाद के अवलोकनों से समझ में आया कि इन चार उपग्रहों


दिक्सूचक के विचलन कोण, नमन कोण और संबंधित तालिकाओं के बारे में और जानकारी के लिए संदर्भ के अंक 30 में प्रकाशित लेख, 'चुंबक इतिहास के आइने में', देखिए।


में से उपग्रह इवो हर 42.5 घंटे के बाद बृहस्पति की छाया में छुप जाता है यानी इसे ग्रहण लगता है। ग्रहण की यह घटना एक नियमित अंतराल से होती रहती है। उस समय किसी ने सुझाव दिया कि ग्रहण की इस घटना को आधार बनाकर एक तालिका बनाई जाए जिसमें ग्रहण की यह घटना अलग-अलग देशांतर रेखाओं से स्थानीय समय के हिसाब से किस समय दिखाई देगी यह जानकारी दी गई हो।
बृहस्पति के उपग्रह वाली विधि* के साथ प्रमुख समस्या थी कि उपग्रह को लगने वाला ग्रहण देखने के लिए काफी बड़ी परावर्तक दूरबीन इस्तेमाल करनी पड़ती थी। एक हिचकौले खाते समुद्री जहाज़ से इतने सूक्ष्म अवलोकन कर पाना खासा कठिन काम था। इसलिए यह विधि महाद्वीपीय भूमि पर व तटीय इलाकों में तो काफी लोकप्रिय थी, परन्तु समुद्री जहाज़ों पर यह अपना स्थान न बना सकी।

चांद से देशांतर
इसी तरह 16वीं सदी में एक अन्य विधि में चांद और किसी तारे के बीच की कोणीय दूरी को नापकर देशांतर पता करने का तरीका सुझाया गया था। 16वीं और 17वीं सदी में आकाशीय पिंडों के बीच कोणीय दूरी नापने के ज्यादा सटीक उपकरण विकसित किए जा रहे थे। गणितीय गणनाओं के लिए सूत्र भी बनाए जा रहे थे। इन हालातों में 1750 के आसपास जाकर चांद और तारों (या सूर्य) की आपसी दूरी वाली विधि सार्थक लगने लगी।
1750 के लगभग टोबियस मेयर ने हरेक देशांतर के लिए किसी एक निश्चित तारे और चांद के बीच की कोणीय दरी की एक तालिका पेश की। हालांकि तालिका से समुद्री प्रवास के दरमियान जहाज़ किस देशांतर पर है। यह पता किया जा सकता था; बस एक ही मुश्किल थी कि ये गणनाएं काफी जटिल किस्म की थीं। 18वीं सदी में इस विधि का इस्तेमाल करते समय किसी घड़ी और कोण नापने वाले उपकरणों की मदद से निम्न अवलोकन लिए जाते थे।
--चांद की क्षितिज से कोणीय ऊंचाई।
--चुने हुए तारे यो सूरज की क्षितिज से कोणीय ऊंचाई।
--चांद और चुने हुए तारे या सूर के बीच की कोणीय दूरी।
- -इन अवलोकनों का समय (औसत निकालने के लिए)।
--स्थानीय समय निकालना।


* इस विधि के बारे में संदर्भ के अंक 36 में कुछ चर्चा की गई है। बृहस्पति के उपग्रह, देशांतर रेखाएं और प्रकाश की गति'लेख देखिए।


इस सब के बाद कहीं जाकर आप अपना देशांतर मालूम कर सकते थे।
एक अन्य विधि थी किसी सटीक एवं दक्ष घड़ी की मदद से देशांतर मालूम करना। इस विधि का सिद्धांत काफी सरल था। इस तरीके में जहाज़ में मौजूद घड़ी को यात्रा के शुरुआती बंदरगाह पर स्थानीय समय के हिसाब से सेट किया जाता था, फिर पूरी यात्रा के दौरान यह घड़ी उस शुरुआती बंदरगाह के समय के हिसाब से चलती रहती थी। यात्रा के दौरान जहां कहीं भी देशांतर पता करना हो, बीच समुद्र में स्थानीय समय पता करते थे। अब शुरुआती बंदरगाह के समय से तुलना करके, दोनों समयों के बीच के अंतर के व शुरुआती बंदरगाह के देशांतर के आधार पर यह मालूम करते थे कि जहाज़ कितने डिग्री देशांतर पर है। (स्थानीय समय एवं देशांतर पता करने संबंधी बॉक्स पृष्ठ 64 व 66 पर)

इस विधि की सबसे प्रमुख दिक्कत थी कि ऐसी दक्ष एवं सटीक घड़ी बना पाना खासा कठिन काम था। इस विधि को सबसे पहले सन् 1524 में सुझाया गया था लेकिन ऐसी घड़ी आखिरकार सन् 1760 में कहीं जाकर बन सकी।

कुछ खगोलविद क्रॉस-स्टाफ की मदद से चांद और किसी एक निश्चित तारे के बीच कोणीय दूरी निकाल रहे हैं। ग्लोब पर अलग-अलग देशांतर रेखाओं पर यह कोणीय दूरी क्या होगी इसका अंदाज़ भी लगाया जा सकता है। क्रॉस-स्टाफ की मदद से किसी इमारत की ऊंचाई भी मालूम की जा सकती है।

चांद-तारे की दूरी वाली विधिः इस विधि में तीन जानकारियों का मालूम होना जरूरी है। एक: चांद और तय किए गए तारे के बीच की कोणीय दूरी। दोः दिख रहे क्षैतिज से चांद की ऊंचाई। तीनः दिख रहे क्षैतिज से तारे की ऊंचाई। इसके बाद गणनाओं से देशांतर पता किया जाता था। वैसे इस विधि का इस्तेमाल तभी किया जा सकता था जब अवलोकनकर्ता को क्षैतिज साफ -साफ दिख रहा हो। यह विधि अमावस्या के दिन और बादल वाले दिनों में भी उपयोगी नहीं थी।
17वीं सदी के उत्तरार्द्ध में क्रिश्चिन हाइगन ने पेंडुलम की गति को समय में तब्दील करने का तरीका खोज लिया था। लेकिन समुद्री सफर में पेंडुलम वाली घड़ियों की समय नापने की दक्षता को जहाज़ के हिचकोले, आर्द्रता, गुरुत्वाकर्षण वगैरह प्रभावित करते थे। इसलिए महाद्वीपों पर जहां ऐसी घड़ियां व्यावहारिक थीं, वहीं समुद्र में अनुपयोगी।

एक बात तो तय है कि चाहे आप बृहस्पति के उपग्रह वाली विधि अपनाएं, या चांद और तारे वाली विधि या स्थानीय समयों की तुलना वाली विधि। हरेक विधि में समय की सूक्ष्मतम एवं शुद्धतम माप बेहद महत्वपूर्ण पक्ष बन गया था। समय के माप को मद्देनज़र रखते हुए हम अगले हिस्से में देशांतर पता करने के लिए घड़ी वाली विधि पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे।

किस्सा घड़ियों को   
17वीं सदी के आखिर तक देशांतर रेखाओं की समस्या बरकरार थी। अभी भी समुद्री यात्राओं के दौरान जहाज किसी अक्षांश रेखा को पकड़कर या कुतुबनुमा के सहारे सफर तय करते थे और देशांतर रेखाओं का अंदाजा लगाते थे। 1707 में ओरफोर्ड के पास सर क्लाउडिस्ली शॉवेल का जहाज़ रास्ता भटक जाने के कारण दुर्घटनाग्रस्त
 
देशांतर व स्थानीय समय
भारत का नक्शा देखिए। पश्चिम से पूर्व का विस्तार लगभग 68 डिग्री से 98 डिग्री पूर्व देशांतर तक है। यानी यह विस्तार लगभग 30 डिग्री है। पृथ्वी अपनी धुरी के इर्द-गिर्द यानी एक चक्कर यानी 360 डिग्री 24 घंटे में घूमती है। इस हिसाब से 30 डिग्री के लिए 2 घंटे लगेंगे। समय के हिसाब से देखा जाए तो हिन्दुस्तान के एकदम पश्चिमी बिन्दु और एकदम पूर्वी बिन्दु के बीच लगभग 2 घंटे का फर्क है।
आपको मालूम ही होगा कि हिन्दुस्तान के लगभग बीच से गुजरने वाली 82.5 डिग्री वाली देशांतर रेखा के समय को भारत का मानक समय माना जाता है। यह रेखा इलाहाबाद से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी से गुजरती है। यानी 82.5 डिग्री वाली रेखा पर जब सुबह के 6 बजे हों तो पूरे भारत में वही समय माना जाएगा; भले ही भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में दिन चढ़ आया हो या भुज-कच्छ में रात को अंधियारा भी अभी नहीं छंट पाया हो।
लेकिन इस मानक समय के बावजूद किसी शहर का अपना स्थानीय समय होता है। कोई शहर मानक समय रेखा से कितने डिग्री पूर्व मे है या पश्चिम में स्थित है इससे उस शहर या गांव का स्थानीय समय मालूम कर सकते हैं। स्थानीय समय की गणना इस तरह से करनी होगी।

यदि आपका गांव या शहर 82.5 डिग्री देशांतर से पश्चिम में है तो आपका स्थानीय समय, मानक समय से पीछे चल रहा है। बतौर उदाहरण पुणे (महाराष्ट्र) का देशांतर लगभग 73 डिग्री है। यानी मानक समय रेखा से 9 डिग्री पश्चिम में है इसलिए पुणे का स्थानीय समय मानक समय से लगभग 36 मिनट पीछे चल रहा है। दूसरे शब्दों में भारतीय मानक समय जब सुबह 6 बजे का समय दिखा रहा होता है तब पुणे के स्थानीय समय के अनुसार 5 बजकर 24 मिनट हुए होते हैं।
यदि आपकी रुचि अपने गांव या शहर का स्थानीय समय पता करने में हो तो इस लेख में दिए दूसरे बॉक्स को पढ़कर या एटलस की मदद से देशांतर पता कीजिए। फिर भारतीय मानक समय रेखा से तुलना करके ऊपर बताए गए तरीके से पता किया जा सकता है कि आपके यहां का स्थानीय समय भारतीय मानक से कितने मिनट आगे या पीछे है। जमीन में गड़ी किसी लंबवत छड़ी की मदद से स्थानीय समय मालूम करने का तरीका अगले बॉक्स में दिया ही है।
 
हो गया और सभी मुसाफिर मारे गए। ब्रिटिश जहाज़ के साथ हुई इस घटना की वजह से तत्कालीन ब्रिटिश सरकार पर यह दबाव पड़ा कि सरकार भी देशांतर रेखाओं की समस्या को सुलझाने में रुचि ले।
1714 में ब्रिटिश संसद ने इस संदर्भ में किसी उपयुक्त विधि की खोज के लिए बीस हज़ार पौंड इनाम की घोपणा की। शर्त थी कि यह विधि जमीन के साथ-साथ समुद्र के लिए भी उपयोगी होनी चाहिए। इस एक्ट में कुछ और शर्ते भी थीं।
दूसरी सबसे महत्वपूर्ण शर्त थी कि विधि की जांच बोर्ड ऑफ लगिट्यूड करेगा। इसे जांच के लिए बोर्ड द्वारा निर्धारित जहाज़ इंग्लैंड से वेस्ट इंडीज़ के लिए रवाना होगा। यह सफर लगभग 60 दिन का होगा। इस दौरान परखी जा रही विधि द्वारा 2 मिनिट तक की घट-बढ़ ही माफ होगी। (यानी 2 सेकेंड प्रतिदिन)। यदि कोई भी विधि या घड़ी इतनी दक्षता से समय की नाप कर सके तो वह 20 हजार पौंड के इनाम की हकदार होगी। यदि घड़ी या विधि समय की गणना में 1 मिनिट तक की गलती करेगी तो उसे 10 हज़ार पौंड मिलेंगे।

वैसे आप देखें तो एक दिन में 86,400 सेकेंड होते हैं। यदि कोई घड़ी एक दिन में सिर्फ 9 सेकेंड की गलती भी करे तब भी घड़ी की दक्षता 99.9 प्रतिशत होगी। लेकिन इस एक्ट के मुताबिक तो जो घड़ी 4 सेकेंड प्रतिदिन की गलती करे उसे सिर्फ दस हजार पौंड को इनाम दिया जाना था। यानी समय के शुद्धतम माप को बहुत महत्वपूर्ण माना गया था।
उस समय के घड़ीसाज़ यह जानते थे यह कितना कठिन लक्ष्य है। तत्कालीन पेंडुलम घड़ियों पर तापमान, दबाव, आर्द्रता, गुरुत्वाकर्षण, जहाज़ों के हिचकोले आदि सभी का प्रभाव पड़ता था। ऐसे में इन घड़ियों से इतनी दक्षता से समय नाप पाना खासा कठिन काम था।

जॉन हैरीसन और समुद्री घड़ियां
इसी दौर में जॉन हैरीसन (1 696-1776) भी एक खोजी था जिसकी घड़ियां बनाने में रुचि थी। 1725 में उसने समुद्री जहाजों के हिसाब से घड़ियां बनाने का काम शुरू किया। चार माल बाद वह पहली भरोसेमंद घड़ी बनाने में कामयाब हुआ। अगले तीस साल वह घड़ी में सुधार और उन्हें अधिक दक्ष बनाने की कोशिश करता रहा। 1761 में उसने अपनी घड़ी के एच-4 मॉडल के तैयार हो जाने की घोषणा की।
एक बार घड़ी पूरी हो जाने के बाद बोर्ड ने जांच-यात्रा की घोषणा
 
देशांतर पता करना
किसी भी स्थान का देशांतर पता करने के लिए आपको इन तीन जानकारियों की ज़रूरत होगीः
-- किसी स्थान विशेष का देशांतर
-- उस स्थान का मानक समय
-- आप जहां रहते हैं वहां की स्थानीय समय
मान लिजिए हमें होशंगाबाद का देशांतर पता करना है। इस प्रयास में यह जानकारी महत्वपूर्ण है कि भारत का मानक समय इलाहाबाद से लगभग 50 किलोमीटर दूर से गुजरने वाली 82.5 डिग्री देशांतर रेखा के आधार पर तय होता है। लेकिन बोलचाल में इलाहाबाद का ही जिक्र करते हैं। आइए अब इस जानकारी के आधार पर आगे बढ़े और सबसे पहले ऊपर वाली तीनों चीजें पता कर लें।

1. हमें पता है कि इलाहाबाद का देशांतर लगभग 82 डिग्री है।
2. रेडियो, टेलिविजन आदि पर जो समय बताया जाता है, जिससे हम अपनी घड़ी सैट करते हैं वह दरअसल इलाहाबाद यानी 82.5 डिग्री देशांतर का स्थानीय समय है।
3. किसी भी जगह यह तय करना सबसे आसान होता है कि वहां के स्थानीय समय के अनुसार ठीक बारह कब बजते हैं। बस आपको इतना भर देखना है कि किसी भी ठीक लंबवत खड़ी छड़ी की छाया सबसे छोटी कितने बजे होती है, वही है आपके स्थानीय समय के अनुसार दोपहर के ठीक बारह।
इसके लिए आपको किसी भी लंबवत खड़ी छड़ी की छाया को दोपहर 11:00 बजे से 1:00 बजे के बीच पांच-पांच या दो-दो मिनटों के अंतराल पर देखना होगा ताकि पता लगा पाएं कि सबसे छोटी छाया कितने बजे होती है।

साल भर में किसी भी दिन प्रयोग करें, होशंगाबाद में छड़ी की सबसे छोटी छाया लगभग 12 बजकर 19 मिनट पर बनती है। यानी कि जब इलाहाबाद में 12 बजकर 19 मिनट हुए हैं, तब होशंगाबाद के स्थानीय समय के अनुसार 12 बजते हैं।
अब हमें तीनों जानकारियां पता चल गईं। होशंगाबाद और इलाहाबाद के स्थानीय समय में 19 मिनट का अंतर है। हमें मालूम है कि पृथ्वी चार मिनट में एक डिग्री घूमती है (24 घंटे में 360 डिग्री)। यानी कि इन दोनों शहरों के देशांतर में लगभग 5 डिग्री का अंतर होना चाहिए। चूंकि होशंगाबाद में बारह बाद में बजते हैं इसलिए होशंगाबाद का देशांतर इलाहाबाद से पश्चिम में या दूसरे शब्दों में 5 डिग्री कम होगा। यानी होशंगाबाद का देशांतर लगभग 77 डिग्री है। है
न तरीका आसान? आप भी यही प्रक्रिया अपनाकर अपने गांव या शहर का देशांतर पता कर सकते हैं।
 
एच-1 घड़ीः हैरीसन द्वारा तैयार की गई पहली घड़ी एच-1, इसकी कुल ऊंचाई 63 इंच और वज़ने लगभग 36 किलो था। एच-1 काफी बड़ी और भारी घड़ी थी। हैरीसन ने बाद में बनाई घड़ियों को छोटा और हल्का बनाने की कोशिश की थी।

की। इस यात्रा में एच-4 के साथ हैरीसन का बेटा विलियम था और बोर्ड ने अपने एक प्रतिनिधी के रूप में रॉबिन्सन को भी साथ भेजा था। घड़ी का समय सेट कर दिया गया था। यात्रा का पहला पड़ाव पोर्ट्समाऊथ में था जहां पोर्ट्समाऊथ रॉयल सोसायटी के खगोलविद जॉन रॉबर्टसन को एच-4 के समय की जांच करनी थी, फिर खगोलीय अवलोकनों से पोर्ट्समाऊथ के स्थानीय समय की गणना कर एच-4 को स्थानीय समय के हिसाब से सेट करना था। साथ ही उसे अपने अवलोकन, घड़ी के समय वगैरह की जानकारी सीलबंद कर लंदन भेजनी थी।
जब जहाज़ पोट्सेमाऊथ पहुंचा तो विलियम ने रॉबर्टसन को घड़ी सेट करने की अनुमति दी। आगे का सफर मेडेरा द्वीप के अक्षांश को पकड़कर शुरू हुआ और 19 जनवरी 1762 को वे लोग डिसेडा, एंटीगुआ द्वीप से होते हुए जैमेका पहुंचे। जैमेका पहुंचने पर वहां के गवर्नर ने बताया कि वापसी की यात्रा के लिए जून, 1762 से पहले कोई जहाज़ नहीं है।

अचानक स्पेन से युद्ध छिड़ जाने की वजह से विलियम और रॉबिन्सन को एक जहाज़ से तुरंत लौटना पड़ा। खराब मौसम और युद्ध के खतरे के बीच वे किसी तरह एच-4 को बचाकर लंदन पहुंचे, जहां जॉन हैरीसन ने गणना कर बताया कि घड़ी ने मात्र 1 मिनिट और 54 सेकेंड का समय खोया है। वेस्ट इंडीज़ का यह सफर 147 दिनों का था। हालांकि ये परिणाम बोर्ड ने घोषित नहीं किए थे, फिर भी एक्ट की शर्तों को पूरा करने की वजह से लोगों को एक बारगी लगा कि हैरीसन 20 हज़ार के इनाम का प्रबल दावेदार है।

इस पूरे जांच अभियान को लेकर बोर्ड का रुख कुछ फर्क था। बोर्ड ने रॉबर्टसन और रॉबिन्सन के अवलोकनों एवं गणनाओं को तीन गणितज्ञों के पास भेजा ताकि घड़ी के बारे में कोई ठोस राय कायम की जा सके। बोर्ड पोर्टसमाऊथ में रॉबर्टसन की गणनाओं को स्वीकार नहीं कर पा रहा था, साथ-ही- साथ जैमेका के देशांतर को लेकर भी बोर्ड दुविधा में फंसा हुआ था। इन सारी समस्याओं का एक ही हल दिख रहा था कि एच-4 की दोबारा जांच की जाए।
बोर्ड ने साफ-साफ घोषणा कर दी कि एच-1 ने देशांतर रेखाओं वाला कोई इनाम नहीं जीता। हां, एच-4 एक जन उपयोगी खोज है इसलिए उसे 2500 पौंड की इनाम दिया जा रहा है।

एच-1 का दूसरा जांच अभियान
पहले तो हैरीसन ने बोर्ड के दोबारा जांच के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। पहले जांच अभियान के समय से ही हैरीसन को ऐसा लग रहा था कि चांद वाली विधि एक प्रबल दावेदार बनकर उभर रही है। खगोल और गणित को समझने वाले काफी सारे विशेषज्ञ और शोधकर्ता तो बोर्ड में हैं, लेकिन उसकी अविश्वसनीय दक्षता वाली घड़ी पर कौन विश्वास करेगा। हैरीसन यह भी मानने लगा था कि बोर्ड के सदस्य चांद वाली विधि के पक्षधर हैं। खैर काफी ऊही -

इनामी घड़ी एच-4: इम घड़ी की रिपेयरिंग करने के बाद लिया गया फोटोग्राफ जिसमें घड़ी का डायल वगैरह दिखाई दे रहा है। इमका व्याम सिर्फ 13 से. मी. है जिससे स्पष्ट होता है कि हैरीमन ने इसे कितना छोटा, हल्का और उपयोगी बना दिया था।
 
पोह के बाद हैरीसन ने एच-4 की दूसरी जांच के लिए मन बना ही लिया।
हैरीमन और बोर्ड की चर्चा के बाद समुद्री यात्रा के पुख्ता इंतजाम किए गए। इस बार यात्रा का आखिरी पड़ाव जैमेका की बजाए बारबाडोस रखा गया। इस सफर में हैरीमन के बेटे विलियम के साथ दो खगोलविद नेविल मेस्केलीन और चार्ल्स ग्रीन भी थे। उन्हें बारबाडोस के देशांतर आकाशीय विधि से पता करने थे। इस सफर के शुरुआती दिन से ही मेस्केलीन ने अपनी चांद वाली विधि के प्रति विशेष प्रेम उजागर किया।

बाग्वाडोम तक सफर पहली यात्रा का दुहराव ही था। पोर्टसमाऊथ में एच-1 की जांच की गई, ममय मिलाया गया वगैरह। बारबाडोस में दोनों खगोलविदों मे विदा लेकर विलियम लंदन वापस आया।
मेस्केलीन और ग्रीन बारबाडोस में बृहस्पति के उपग्रह वाली विधि से बारबाडोस के देशांतर नए सिरे से निकाल रहे थे। उसी समय पोर्टसमाऊथ में जॉन ब्रेडली भी इसी विधि का इम्तेमाल कर रहा था। इन दोनों के अवलोकनों की तुलना करने पर पता चला कि इन दोनों जगहों के देशांतरों के बीच 3 घंटे, 5.1 मिनिट और 18.15 सेकेंड का अंतर है। इतनी गणनाएं हो जाने के बाद हैरीसन के एच-4 घड़ी के समय से मिलान किया गया। एच-4 के मुताबिक यह समयांतर 3 घंटे, 54 मिनिट और 57.27 सेकेंड था। यानी पोर्टसमाऊथ में समय मिलाने के बाद 46 दिन के सफर में एच-4 में सिर्फ 39.1 सेकेंड का फर्क आया था। अब तो हैरीसन को पूरा इनाम दिया जा सकता था।

बोर्ड अभी भी पशोपेश में था क्योंकि एच.4 की तकनीक के बारे में बोर्ड को कोई जानकारी नहीं थी। यदि और घड़ियां बनानी हों तो क्या वे एच-4 जैसी ही दक्ष होंगी, घड़ी की कीमत कितनी होगी, क्या उसे सामान्य समुद्री जहाज़ भी खरीद सकेंगे, आदि कई सवाल थे जिनके जवाब अभी तक नहीं मिले थे। अब बोर्ड ने 1714 के एक्ट में संशोधन का मन बना लिया। ब्रिटिश संसद ने एक्ट में संशोधन कर इनाम को 10-10 हज़ार के दो हिस्सों में बांट दिया। नई शर्तों के मुताबिक हैरीसन को मिर्फ 10 हज़ार पौंड का इनाम ही मिल सकता था।
इन इनामों की कड़ी में टेबियस मेयर का नाम भी था जिसने चांद वाली विधि की तालिकाएं तैयार की थीं जिनकी जांच मेस्केलीन ने बारबाडोस यात्रा के दौरान की थी। मेयर को 3,000 पौंड का इनाम दिया गया और स्विस गणितज्ञ लियोनॉर्ड ओयलर को गणितीय सूत्र बनाने के लिए तीन सौ पौंड का पुरस्कार मिला।

इनाम की प्रक्रिया
बहरहाल बोर्ड ने साफतौर पर इस बात पर जोर दिया कि हैरीसन एच4 से संबंधित तकनीक को बोर्ड द्वारा नियुक्त कमेटी के सामने प्रस्तुत करे, तब उसे इनाम की राशि दी जाएगी। आखिरकार हैरीसन ने बोर्ड को सूचित किया कि वह तकनीकी जानकारी देने के लिए तैयार है। समिति ने हैरीसन से तकनीक समझी व कुछ सवाल-जवाब किए। कमेटी की रिपोर्ट से संतुष्ट होने के बाद बोर्ड ने हैरीसन से इनाम के लिए आवेदन करने के निर्देश दिए। हैरीसन के हिस्से के 10 हजार पौंड में से 2500 पौंड की रकम काटी जानी थी क्योंकि यह रकम उसे पहले ही दी जा चुकी थी। साथ ही शर्त थी कि उसे एच-4 चालू हालत में बोर्ड को देनी होगी। आखिरकार 7500 पौंड के लिए हैरीसन ने एच-4 सौंप दी।
अब सवाल बच जाता है कि बचे दस हजार के इनाम का क्या हुआ? 1765 के संशोधित एक्ट के मुताबिक यदि हैरीसन दो और घड़ियां बोर्ड को बनाकर दे जो दक्षता में एच -4 जैसी ही हों तो उसे शेष इनाम भी मिल सकता था।

विधि संबंधी सभी शंकाओं के जवाब के लिए जरूरी था कि हैरीसन दो और घड़ियां बनाए। 1772 में अगली घड़ी पूरी तरह बनकर तैयार हो गई। हैरीसन की इस घड़ी को ब्रिटेन के सम्राट जॉर्ज तृतीय ने रिचमंड पार्क स्थित अपनी निजी वेधशाला में जांच के लिए रखा। जॉर्ज इस घड़ी से बेहद प्रभावित हुए और उन्होंने अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए संसद में एक बिल पारित करवाया जिसके अनुसार हैरीसने को बचे 10 हजार पौंड में से 8750 पौंड का इनाम बतौर प्रोत्साहन दिया गया।
वैसे अब तब हैरीसन को मिले इनाम और 1737 से बोर्ड द्वारा दी गई वित्तीय सहायता को जोड़ा जाए तो हैरीसन को लगभग 23 हज़ार पौंड की रकम मिल चुकी थी। हैरीसन अपने इनाम का दूसरा हिस्सा पाकर संतोष का अनुभव कर रहा था। आखिर उसने अपनी जिंदगी के 45 साल एक दक्ष घड़ी बनाने में जो खर्च किए थे।


माधव केलकरः संदर्भ पत्रिका से संबंद्ध।
यह लेख 'द क्वेस्ट फॉर लगिट्यूड' विलियम जे. एच. एंडस द्वारा संपादित, हार्वर्ड कॉलेज द्वारा प्रकाशित किताब में दी गई जानकारियों पर आधारित है।