शिक्षकों के लिए विज्ञान करके सीखने की कार्यशाला के अनुभव

अनीश मोकाशी, गुरिंदर सिंह और हनी सिंह

हम यहाँ स्कूली शिक्षकों के लिए आयोजित ‘विज्ञान करके सीखने' के कुछ सत्रों के अनुभव साझा कर रहे हैं। ये सत्र ऊष्मा और तापमान विषय पर केन्द्रित थे। हम विज्ञान सीखने से सम्बन्धित उभरे मुद्दों, अपने तरीके की समालोचना तथा उसमें परिवर्तन करने और कार्यशाला सत्रों के लक्ष्यों का आकलन करने की दृष्टि से इन अनुभवों पर विचार करेंगे। इन विचारों को सन्दर्भ देने के लिए हम एलीनॉर डकवर्थ के काम का हवाला भी देंगे।
यदि ज्ञान का निर्माण हर व्यक्ति को करना है, तो शिक्षण की क्या भूमिका है? मेरे ख्याल से शिक्षण के दो पहलू हैं। पहला है छात्रों को अध्ययन के विषय से सम्बन्धित परिघटनाओं के सम्पर्क में लाना – वास्तविक चीज़ों, न कि उसके बारे में किताबों या व्याख्यानों से – और उन्हें उन चीज़ों पर ध्यान देने में मदद करना जो दिलचस्प हैं; उन्हें विषय से जोड़ना ताकि वे उसके बारे में सोचना और अचरज करना जारी रखें। दूसरा है, छात्रों को चीज़ों की व्याख्याएँ देने की बजाय वे जो मतलब निकालें, उसकी व्याख्या करने में मदद करना, उस मतलब को समझने की कोशिश करना। (Duckworth, 1996 p. 173-174)


करके सीखो कार्यशाला
हम लोग महाराष्ट्र में आदिवासी समुदायों के छात्रों के लिए संचालित शासकीय शालाओं में विज्ञान करके सीखने को प्रोत्साहित करने के एक कार्यक्रम में शामिल रहे हैं। कार्यक्रम का उद्देश्य बच्चों को छोटे-छोटे समूहों में प्रयोग करने के अवसर देना है और कक्षा में ऐसे तौर-तरीकों को आगे बढ़ाना है जिनसे छात्रों के विचारों और बातचीत को जगह मिल सके। शिक्षकों के लिए विज्ञान करके सीखने की कार्यशालाएँ इस कार्यक्रम का प्रमुख हिस्सा हैं। इन कार्यशालाओं का मार्गदर्शन मददकर्ताओं (फेसिलिटेटर - जिनमें हम और अन्य लोग शामिल थे) द्वारा किया जाता है। कार्यशालाओं में उम्मीद की जाती है कि शिक्षक समूहों में विज्ञान के छोटे-छोटे प्रयोग या गतिविधियाँ करेंगे, अपने अवलोकनों और उनके कारणों पर अपने समूह में चर्चा करेंगे और फिर इन्हें सबके सामने प्रस्तुत करेंगे। ये कार्यशालाएँ शिक्षकों को विभिन्न शिक्षण विधियों का अनुभव देने के लिए संचालित की जाती हैं, जिन्हें वे अपनी कक्षा में अपना सकते हैं, कक्षा के अनुरूप ढाल सकते हैं। अलबत्ता, व्यवस्था और खर्चे की अड़चनों के चलते हर मददकर्ता को शिक्षकों के किसी भी समूह के साथ सीमित समय ही मिल पाता है, इसलिए एक अनकही माँग रहती है कि प्रत्येक सत्र के अन्त तक पाठ्यपुस्तक की विषयवस्तु का कुछ पूर्व-निर्धारित अंश पूरा हो जाए। यह माँग इसलिए भी होती है क्योंकि शिक्षकों पर यह ज़बरदस्त दबाव रहता है कि वे छात्रों को पाठ्यपुस्तक के सवालों के जवाब सिखा दें ताकि वे परीक्षा उत्तीर्ण कर सकें। लिहाज़ा, एक मायने में यह ज़िम्मेदारी मददकर्ता की होती है कि वे शिक्षकों को एक अलग तरीके पर विचार करने को तैयार करें।

काफी सारे शिक्षक तो कार्यशाला में यह मानकर आते हैं कि उन्हें भाषण पिलाए जाएँगे इसलिए उन्हें समूहों में चर्चा करने एवं अपने अवलोकनों व व्याख्याओं पर बातचीत का आदी होने में समय लगता है। ऐसा कई बार हुआ कि शिक्षकों का धैर्य जवाब दे गया और उन्होंने चर्चा के माध्यम से जवाब उभरने की प्रतीक्षा करने की बजाय माँग की कि ‘जवाब’ बता दिया जाए। शिक्षकों ने अपनी समस्याएँ भी व्यक्त की हैं, जैसे -- कक्षा में छात्रों को बातचीत करने देने में कठिनाई, अन्तत: परीक्षा के हिसाब से पढ़ाने की मजबूरी, शिक्षण की भाषा मराठी से जान-पहचान के अभाव में बच्चों को लिखने-पढ़ने में दिक्कत, छात्रों को टोलियों में बिठा कर प्रयोग करने की वजह से उपकरणों की व्यवस्था व रख-रखाव की दिक्कतें, खास तौर से शिक्षकों व प्रयोगशाला सहायकों की कमी जैसी व्यवस्थागत दिक्कतें, शिक्षकों पर तरह-तरह का प्रशासनिक बोझ क्योंकि उन्हें प्राय: नौकरशाही का सबसे निचला पायदान समझा जाता है। बिना किसी दो राय के, ये सभी समस्याएँ, सरकारी नीतियों, मूल्यांकन के मापदण्डों, शिक्षा तंत्र में शिक्षकों द्वारा किए जाने वाले काम के महत्व को मान्यता और शिक्षकों को पहचान का एहसास, स्वायत्तता व शिक्षण के तरीकों से जुड़ी हैं (Unterhalter, McCowan, & Rampal, 2015)। यह तो नहीं सोचा जा सकता कि कार्यशाला के सत्र इस व्यापक सन्दर्भ से अलग-थलग निर्वात में होते हैं।

गर्मी और तापमान के सत्र
इस पर्चे में हम ‘ऊष्मा और तापमान’ सत्र के अनुभव साझा करेंगे। ये सत्र दो अलग-अलग कार्यशालाओं में शिक्षकों के साथ किए गए थे। जुलाई 2018 में पहली कार्यशाला में शिक्षकों के पाँच समूह थे और नवम्बर 2018 में आयोजित दूसरी कार्यशाला में शिक्षकों के दो समूह थे। प्रत्येक समूह में करीब 30 शिक्षक थे। कार्यशाला में एक सत्र एक-डेढ़ घण्टे का होता था और हमें हर कार्यशाला में शिक्षकों के हरेक समूह के साथ दो ऐसे सत्र मिले थे। तीन घण्टे के लिए योजना यह थी कि शिक्षकों के साथ मिडिल स्कूल विज्ञान के ऊष्मा और तापमान के प्रमुख विषयों पर चर्चा होगी। प्रत्येक कार्यशाला में विभिन्न विषयों के सत्र समान्तर चलते थे। प्रत्येक सत्र में अलग-अलग शिक्षक शामिल होते थे। कार्यशाला में भाग लेने वाले शिक्षक मिडिल और हाई स्कूल के थे और विज्ञान में उनकी पृष्ठभूमियों में काफी विविधता थी। कुछ शिक्षकों ने विज्ञान सिर्फ 10वीं या 12वीं कक्षा तक पढ़ा था जबकि कुछ स्नातक थे और बहुत थोड़े-से स्नातकोत्तर भी थे।
शिक्षकों द्वारा किए गए अधिकांश प्रयोग और गतिविधियाँ ‘विज्ञान करके सीखो’ सम्बन्धी पाठ्यपुस्तकों के ही संशोधित रूप थे जो अतीत में किए गए इसी तरह के कार्यों से विकसित हुए थे। सत्र की कुछ योजना तो पाठ्यपुस्तकों के अनुसार बनाई गई थी जबकि कुछ योजना ज़रूरत के हिसाब से उभरती थी। हमारी टीम दिन के अन्त में इस बात पर विचार करती थी कि सत्र कैसा चला और फीडबैक तथा सुझावों के लिए इन बारीकियों को एक बड़े समूह के साथ साझा भी करती थी ताकि अगले दिन के सत्र को संशोधित किया जा सके। यहाँ हम प्रयोगों और चर्चाओं में शिक्षकों की भागीदारी – छोटे-छोटे समूहों में भी और पूरी कक्षा के साथ भी - की चर्चा करेंगे। हम खास तौर से इस विषय से सम्बन्धित कुछ अवधारणाओं के बारे में शिक्षकों के विचारों और अभिव्यक्तियों पर ध्यान देंगे – शिक्षण-विधि सम्बन्धी विचारों के उदाहरणों के रूप में भी और यह बताने के लिए भी कि लोग इन अवधारणाओं को किस तरह समझते हैं। हमें यकीन है कि शिक्षकों के साथ के इन अनुभवों से मिले सबक भविष्य में कार्यशालाओं और सत्रों को डिज़ाइन करने में मददगार होंगे।

हवा के ऊष्मीय प्रसार पर एक प्रयोग
पदार्थ की तीन अवस्थाओं में ऊष्मा के स्थानान्तरण की विभिन्न विधियों तथा प्रसार को लेकर किए गए कई प्रयोगों में से एक में शिक्षकों ने हवा के प्रसार के अवलोकन का एक प्रयोग किया था। इस प्रयोग के लिए काँच से बनी एक छोटी इंजेक्शन की शीशी का उपयोग किया गया था।
(इस प्रयोग को एक सेवानिवृत्त शिक्षक उमेश चौहान ने विकसित किया था जब वे होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से जुड़े थे।) शीशी के रबर के ढक्कन में एक सुराख किया गया और इसमें एक बॉल पेन की  खाली  रीफिल  घुसा  दी  गई (चित्र-2)। रीफिल में रंगीन पानी की एक बूँद डाल दी गई। इस शीशी को हथेली में दबाकर पकड़ने पर रीफिल की बूँद शीशी से दूर की ओर सरकती है। पहले यह प्रयोग शिक्षकों को करके दिखाया गया और फिर कहा गया कि वे इसे अपने छोटे-छोटे समूहों में करें। प्रत्येक समूह को अलग-अलग उपकरण दिए गए।
इसके बाद शिक्षकों से एक सवाल पूछा गया, “आप क्या देखते हैं और आपके खयाल से ऐसा क्यों होता है?” अपने-अपने पाँच सदस्यों के समूह में इस पर 15-20 मिनट चर्चा करने के बाद प्रत्येक समूह की चर्चा को बड़े समूह में प्रस्तुत करना था।

एक शिक्षक ने सूक्ष्म-कणों के आधार पर प्रसार की व्याख्या करने का प्रयास किया – “जब हम गर्मी पाकर हवा को फैलते देखते हैं, तो वास्तव में होता यह है कि हवा के अणु स्वयं फैल जाते हैं।” लगता है यह व्याख्या शीशी में देखे जा सकने वाले हवा के प्रसार और ‘परमाणु सिद्धान्त’ के बीच तालमेल बनाने का एक प्रयास है जो कहता है कि ‘सारे पदार्थ परमाणुओं से मिलकर बने हैं’। यह ‘निरन्तरता’ की इस मान्यता से मेल खाता है (Talanquer, 2006 p. 813) कि “पदार्थ को लगातार छोटे-से-छोटे टुकड़ों में विभाजित किया जा सकता है। पदार्थ के ये टुकड़े या कण स्थूल पदार्थ के समान वही गुणात्मक विशेषताएँ दर्शाते हैं... वे गर्म किए जाने पर फैलते हैं और उनका वज़न कम हो जाता है।” इसके अलावा, इसमें ‘समानता’ के अनुमान के आधार पर कार्य-कारण तर्क विकसित करने का प्रयास भी है: “यदि परमाणुओं और अणुओं के गुणधर्म स्थूल परिघटना का कारण हैं तो इन अदृश्य कणों में हमारे द्वारा प्रेक्षित गुण (रंग, घनत्व, गति वगैरह) भी होने चाहिए” (Talanquer, 2006 p. 814)।

रोचक बात यह है कि शिक्षक ने पदार्थ की जिस सूक्ष्म समझ की बात की, वह छात्रों में भी आम है। हो सकता है कि ऐसी कई वैकल्पिक धारणाएँ और सिद्धान्त हैं जो शिक्षकों व छात्रों के बीच प्रचलित हैं। शिक्षकों को ‘सुनना’ ऐसे विचारों को सामने ला सकता है, जिन्हें आगे चर्चा, प्रयोग व विचार के लिए उठाया जा सकता है।
हवा के प्रसार को लेकर एक अन्य शिक्षक ने कहा, “यदि हम गर्मी देते जाएँ तो क्या हवा फैलती ही जाएगी?” हमें लगता है कि यह कल्पना की एक छलांग थी, जिसमें प्रेक्षित परिस्थिति को आगे बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा था। हमारा मत है कि किसी परिघटना के अप्रेक्षित/सीमान्त व्यवहार के बारे में सोचना गहरी सोच व मनन का द्योतक है। हम इस बात से तो वाकिफ हैं कि किसी आदर्श गैस का ऊष्मीय प्रसार गुणांक तापमान का व्युत्क्रम अनुपाती है, लेकिन हममें से किसी ने भी (मददकर्ताओं में से किसी ने) इस तरह से नहीं सोचा था। हमें लगता है कि ऊष्मा के प्रवाह और परिणामी प्रसार के बारे में यह विचार-मार्ग हमें गहन और सार्थक खोजबीन तथा विचारों की ओर ले जा सकता है।

ऊष्मा स्थानान्तरण की क्रियाविधि पर विचार करते हुए एक अन्य शिक्षक ने कहा, “मैं सोच रहा हूँ कि मेरी हथेली की गर्मी शीशी के अन्दर की हवा तक कैसे पहुँची – चालन से या संवहन से?” और फिर कुछ देर बाद उन्होंने उत्तर भी दिया, “हथेली से शीशी में ऊष्मा चालन से पहुँची होगी क्योंकि हाथ के मुकाबले शीशी कम तापमान पर है। हवा शीशी के सम्पर्क में आती है और गर्म हो जाती है।”
यह दूसरी वाली परिघटना (यानी ऊष्मा का शीशी से अन्दर की हवा तक पहुँचना) संवहन का एक अमानक उदाहरण है। संवहन के पाठ्यपुस्तकीय प्रदर्शन (जो शिक्षकों ने इस प्रयोग से पहले किया था) में बीकर के पेंदे के नीचे ऊष्मा का स्रोत रखा गया था जो पानी में संवहन धाराएँ पैदा कर देता है, जबकि इस उदाहरण में ऊष्मा का स्रोत (हथेलियाँ) शीशी की दीवारों के इर्द-गिर्द है। इसलिए संवहन धाराओं का पैटर्न थोड़ा पेचीदा होगा। शिक्षक ऊष्मा के स्थानान्तरण की विभिन्न विधियों की अपनी समझ को एक पेचीदा परिदृश्य पर लागू करने की कोशिश कर रहे थे। हम शिक्षकों के साथ इन बारीकियों पर खोजबीन शुरू कर सकते थे – वैज्ञानिक परिघटनाओं की प्रकृति के एक उदाहरण के रूप में कि वे साफ-सुथरे खण्डों में बँटकर नहीं होतीं।

दूसरी कार्यशाला के एक सत्र में, जो जाड़ों में हुआ था, यह देखा गया कि शीशी को हथेलियों के बीच दबाने के फौरन बाद हवा का प्रसार शुरू नहीं हुआ। एक शिक्षक अपने समूह में चर्चा किए बगैर उठीं, और अपने समूह की शीशी को खिड़की के पास धूप में रख दिया (चित्र-6)। हम सबने उसके बाद हुए प्रसार को देखा। यह शिक्षक का स्वत:स्फूर्त निर्णय था कि ऊष्मा के आसानी-से उपलब्ध स्रोत का उपयोग किया जाए। शिक्षक के इस प्रयोग के बारे में चर्चा करना उपयोगी होता और यह चर्चा करना भी उपयोगी होता कि कैसे यह प्रयोग मददकर्ताओं की योजना से भिन्न था और कैसे इसकी तुलना करके दोनों में अन्तर देखा जा सकता था। एक मददकर्ता ने शीशी को वापिस छाया में रख दिया और धीरे-धीरे बूँद वापिस नीचे सरक गई। कुछ लोगों ने चलते-चलते यह भी सोचा कि क्यों गर्म होने पर प्रसार की अपेक्षा ठण्डा होकर संकुचन में अधिक समय लगता है।
शायद यह एक अच्छा मौका था जब विकिरण द्वारा गर्म करने की बारीकियों पर चर्चा और खोजबीन की जा सकती थी, चालन व विकिरण के द्वारा ऊष्मा स्थानान्तरण की गतियों की तुलना की जा सकती थी और ऐसे सवालों पर भी बातचीत हो सकती थी कि क्या हवा सीधे विकिरण से गर्म हो जाती है या क्या शीशी विकिरण से गर्म होती है और फिर अन्दर की हवा को यह ऊष्मा देती है, या क्या इन दोनों का मिला-जुला असर होता है।

एक अन्य सत्र में हममें से किसी एक ने दो शिक्षकों के बीच का यह वार्तालाप सुना: “शीशी को ज़्यादा ज़ोर-से मत दबाओ, टूट सकती है।” “नहीं-नहीं, मैं कसकर पकड़ूँगा तो सम्पर्क बेहतर होगा।” यह टिप्पणी शायद गर्मी से सम्पर्क के रोज़मर्रा अनुभव से उभरी थी (जैसे सिकाई या बर्फ की सिकाई जैसे अनुभव), और इस पर चर्चा शायद ऊष्मा के प्रवाह की क्रियाविधि पर विस्तार में बातचीत करने का मौका देती। जैसे प्रवाह में सम्पर्क के क्षेत्रफल का असर। हमें लगता है कि सम्भवत: हम समूहों में व्यक्त ऐसे कई विचारों को चूक गए। ये ऐसे विचार थे जिन्हें शायद लोगों ने सबके सामने व्यक्त करने लायक नहीं माना।

शीशी को हथेली में पकड़ने पर बूँद के ऊपर की ओर सरकने को समझाते हुए, एक शिक्षक ने यह व्याख्या दी: “गर्म हवा हल्की होती है, इसलिए वह ऊपर उठती है।” हमारे साथी उमेश चौहान ने शिक्षकों को एक उल्टा प्रयोग करके दिखाया – शीशी को उल्टा पकड़कर यह देखना कि बूँद नीचे की ओर जाती है, शीशी से दूर जाती है (चित्र-5 ‘क')। यह इस दावे का प्रमाण था कि शीशी के अन्दर की सारी हवा फैलती है, लेकिन हमारे पास इस प्रयोग की चर्चा के लिए समय नहीं था। तो हमें पक्का नहीं मालूम कि शिक्षकों ने इस व्याख्या के बारे में क्या सोचा।
कुछ शिक्षकों ने शीशी को लिटाकर रखा और प्रयोग को दोहराया, जो गुरुत्वाकर्षण के असर को निरस्त करने का प्रयास था (चित्र-6 ‘ख')। उन्होंने देखा कि बूँद इस स्थिति में भी सरकती है।
यह एक उदाहरण है जब शिक्षकों ने प्रयोग को विस्तार दिया ताकि गुरुत्वाकर्षण और तपाने के प्रभावों को अलग-अलग कर सकें और हममें से एक ने इसे शिक्षकों के एक समूह में देखा था। अलबत्ता, हम इसे पूरी कक्षा के सामने लाने का अवसर चूक गए, जिससे इस परिघटना की ज़्यादा विस्तृत समझ व चर्चा नहीं हो पाई। यह भी सम्भव है कि अन्य समूहों में भी शिक्षकों ने अपने तर्कों की जाँच करने के लिए प्रयोग में विभिन्न संशोधन किए होंगे लेकिन शायद उन्होंने इन्हें इतना महत्वपूर्ण नहीं माना कि सबके साथ साझा करें (या शायद हमारे रवैये ने यह भावना पैदा की कि उनके विचारों का कोई महत्व नहीं है)।

प्रयोग के विस्तार के तौर पर, हमने ठण्डा होने पर संकुचन का एक प्रयोग और किया। हमने शिक्षकों से कहा कि वे अब उस शीशी (जिसमें हवा कमरे से थोड़े अधिक तापमान पर थी) को पानी भरे एक मग में डुबा दें (पानी एक बाल्टी में से लिया गया था जिसमें ‘सादा’ पानी था क्योंकि बाल्टी को सुबह ही नल के पानी से भरा गया था और वह कमरे में रखी थी) (चित्र-8)। सारे समूहों ने देखा कि रंगीन बूँद उल्टी दिशा में गति करती है जिससे पता चलता है कि हवा हमारी हथेली में से हटाकर रखे जाने के बाद ठण्डी होकर सिकुड़ती है।
एक शिक्षक का अवलोकन था कि रीफिल में वह बूँद उस जगह से भी नीचे जाकर रुकती है जहाँ वह प्रयोग के शुरू में थी। किसी ने टिप्पणी की कि इसका मतलब है कि बाल्टी के‘सादे’ पानी का तापमान कमरे के तापमान से कुछ कम था। यह एक नई बात थी क्योंकि लगभग हम सभी इस धारणा को मानते थे कि ‘कमरे’ में रखी सारी चीज़ें कमरे के तापमान पर होती हैं। यह चर्चा इसके कारण पर अच्छी खोजबीन का रूप ले सकती थी, या इस बात पर विचार हो सकता था कि विभिन्न चीज़ों को 24 घण्टे गर्म या ठण्डा करने पर क्या होगा और उसकी क्रियाविधि क्या होगी।

पानी मिलाने पर खयाली प्रयोग
हमारे साथी कमल महेंद्रू ने शिक्षकों के समक्ष पानी मिलाने को लेकर खयाली प्रयोग पेश किए। ये साहित्य में वर्णित प्रयोगों के संशोधित/विस्तारित रूप थे (Driver, Guesne, & Tiberghien,1985, p. 62)। और इनका सम्बन्ध तापमान और ऊष्मा के बीच अन्तर से था।
एक प्रयोग इस तरह था: “हमारे पास दो बर्तन हैं जिनमें प्रत्येक में 20 डिग्री सेल्सियस पर एक-एक लीटर पानी है। यदि हम इन दोनों को मिला दें तो मिश्रण का अन्तिम तापमान और ऊष्मा की मात्रा क्या होगी?”
अधिकांश शिक्षकों ने कहा कि तापमान तो वही रहेगा। कुछ शिक्षकों ने यकीन से कहा कि उनके छात्र कहेंगे कि अन्तिम तापमान 40 डिग्री सेल्सियस होगा क्योंकि किसी भी इबारती सवाल में वे संख्याओं को जोड़ने के आदी हैं। इस परिणाम को लेकर स्टेवी और बर्कोविट्ज़ (1980) के शोध ने दर्शाया है कि कैसे
छात्र इस परिघटना को समझने के लिए अपनी ‘गुणात्मक/सहज/मौखिक’ समझ और ‘मात्रात्मक/संख्यात्मक’ समझ का तालमेल बनाने की कोशिश करते हैं।
शिक्षकों ने सुझाया कि छात्रों को इस उत्तर की दिक्कत समझने में मदद के तीन तरीके हैं –
छात्रों से वास्तव में पानी को छूकर देखने को कहा जाए कि क्या मिलाने के बाद वह अधिक गर्म लगता है।

तापमापी का उपयोग।
उनके सामने एक विपरीत-उदाहरण प्रस्तुत किया जाए: यदि हम गर्म पानी और ठण्डा पानी मिलाते हैं तो हमें गुनगुना पानी मिलता है। ऐसा तो नहीं है कि दो बर्तन में ठण्डा पानी मिलाएँ तो गर्म पानी मिल जाए।
स्टेवी और बर्कोविट्ज़ (1980) ने इस और अन्य सम्बन्धित परिदृश्यों में संज्ञानात्मक टकराव के उपयोग की प्रभाविता की बारीकियों पर चर्चा की है। तो शिक्षक न सिर्फ अपनी धारणाएँ बता रहे थे बल्कि इस बात पर भी विचार कर रहे थे कि उनके छात्र इन सवालों के बारे में किस तरह सोचेंगे और किस तरह के जवाब देंगे। यानी अवधारणा के साथ उनकी जद्दोजहद कई स्तरों पर थी।
खयाली प्रयोग के दूसरे हिस्से ‘पानी को मिलाने के बाद मिश्रण में कुल कितनी ऊष्मा होगी’, के सन्दर्भ में हमने शिक्षकों से मिश्रण में ऊष्मा की मात्रा की तुलना X से करने को कहा, जहाँ X दोनों में से किसी एक पानी (20 डिग्री सेल्सियस पर) में ऊष्मा की मात्रा है - क्या यह X के बराबर, उससे कम या उससे ज़्यादा होगी? ऐसा लग रहा था कि शिक्षक आश्वस्त हैं कि मिलाने के बाद दो लीटर पानी में ऊष्मा की मात्रा X के बराबर होगी; कम-से-कम शिक्षकों के बहुमत ने इस धारणा का समर्थन किया। कुछ लोग अनिश्चय के चलते खामोश रहे। अपने उत्तर की व्याख्या करने को कहे जाने पर, कुछ शिक्षकों ने कहा कि तापमान के समान ही ऊष्मा भी नहीं जुड़ेगी और उतनी ही रहेगी – यानी समान तापमान पर दो लीटर पानी की ऊष्मा एक लीटर पानी के बराबर ही होगी।

हमने इस निष्कर्ष को समस्याग्रस्त बनाने के लिए एक परोक्ष उदाहरण का सहारा लिया। उनके सामने यह स्थिति प्रस्तुत की – मान लीजिए, आप रोज़ाना 10 लीटर पानी (जो कमरे के तापमान पर है) को गैस के चूल्हे पर गर्म करते हैं ताकि वह स्नान के लायक हो जाए। एक दिन आपके यहाँ मेहमान आ जाता है और आपको 20 लीटर पानी गर्म करना पड़ता है। इसके बाद हमने दो सवाल रखे – किस मामले में पानी को गर्म होने में ज़्यादा समय लगेगा? तो किस मामले में आपको ज़्यादा ऊष्मा प्रदान करनी होगी? कई शिक्षकों ने कहा कि 10 लीटर और 20 लीटर, दोनों एक ही अन्तिम तापमान पर ज़रूर हैं लेकिन बीस लीटर को हमने ज़्यादा ऊष्मा दी है। दूसरा सवाल एक मायने में उत्तर की ओर धकेलने वाला सवाल था ताकि शिक्षकों को जल्दी-से मंज़िल तक पहुँचाया जा सके। हमें लगता है कि हालाँकि इसने हमें सत्र के लक्ष्य को हासिल करने में मदद की लेकिन शिक्षकों को ऊष्मा तथा ऊष्मा व तापमान के फर्क पर विचार करने तथा अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पाया। इस सन्दर्भ में हम नहीं कह सकते कि क्या शिक्षक इस बात का कुछ अन्दाज़ लगा पाए कि ऊष्मा एक ऊर्जा है।

इस बिन्दु पर आकर अधिकांश लोग खयाली प्रयोग में ऊष्मा की मात्रा को लेकर अपने पूर्व-निष्कर्षों पर सवाल उठाने लगे थे। अब समूह में लगभग आम सहमति थी कि 2 लीटर पानी में ऊष्मा की मात्रा X से ज़्यादा होगी (कुछ लोगों का कहना था कि यह 2X होगी)। इस समय एक शिक्षक, जिन्होंने अब तक चर्चा में शिरकत नहीं की थी, ने कहा कि “आम तौर पर जब हम ऊष्मा की बात करते हैं, तो हम किसी वस्तु को ऊष्मा देने या उससे ऊष्मा लेने की बात करते हैं। हम किसी वस्तु में ऊष्मा की मात्रा की बात शायद ही कभी करते हों।”
हमने सबके सामने स्वीकार किया कि यह इस सम्बन्ध में एक सूझबूझ से भरी टिप्पणी है कि मिडिल स्कूल विज्ञान पाठ्यपुस्तकों में ऊष्मा की अवधारणा को किस तरह पढ़ाया जाता है। ऊष्मा प्रदान करने या निकालने के दौरान इसे मात्रात्मक ढंग से समझा जाता है (उस सूत्र में जहाँ विशिष्ट ऊष्मा और तापमान में परिवर्तन शामिल होते हैं), जबकि ऊष्मा को अपने-आप में अवधारणा के रूप में समझाते हुए गुणात्मक विवरण दिया जाता है (‘सारे अणुओं की कुल गतिज ऊर्जा’)। यह बात सत्र के अन्त में आई थी, इसलिए हम चर्चा को ज़्यादा आगे नहीं ले जा पाए। सिर्फ यह ज़िक्र किया गया कि तापमान का एक परम शून्य होता है और साथ ही, किसी वस्तु के तापमान को परम शून्य से किसी एक निश्चित तापमान (जैसे कमरे के तापमान) तक बढ़ाने (जिस दौरान शायद अवस्था परिवर्तन भी होगा) के लिए दी गई कुल ऊष्मा पर विचार किया गया।

शिक्षकों के अन्य समूह के साथ एक अन्य कार्यशाला में, हमने उपरोक्त खयाली प्रयोग का थोड़ा परिवर्तित रूप प्रस्तुत किया था। यह इस प्रकार था: “हमारे पास दो पात्र हैं जिनमें एक-एक लीटर पानी भरा है। एक का तापमान 20 डिग्री सेल्सियस और दूसरे का 40 डिग्री सेल्सियस है। दोनों पात्रों में ऊष्मा की मात्रा किसी इकाई में क्रमश: X और Y मानी जा सकती है (चित्र-11)। यदि हम इन दोनों पानी को मिला दें, तो मिश्रण का तापमान और ऊष्मा की मात्रा कितनी होगी?”
सारे शिक्षक समूहों ने कहा कि तापमान 30 डिग्री होगा, जबकि कुछ शिक्षकों का कहना था कि तापमान ठीक-ठीक 30 डिग्री नहीं होगा बल्कि थोड़ा कम होगा (क्योंकि उन्हें लगा कि कुछ ऊष्मा मिलाने की प्रक्रिया में खो जाएगी)। अधिकांश लोगों ने माना कि दूसरे पात्र में ऊष्मा की मात्रा Y पहले पात्र की ऊष्मा की मात्रा X की तुलना में अधिक है। अलबत्ता, मिश्रण में ऊष्मा की मात्रा को लेकर कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिला। हमने तीन स्थितियाँ सामने रखीं और पूछा कि इनमें से कौन-सी सही है –

•    मिश्रण के उपरान्त दो लीटर पानी की ऊष्मा X से कम होगी,
X और Y के बीच होगी, या
Y से अधिक होगी।

यहाँ भी तर्क का सिलसिला पिछले वाले खयाली प्रयोग के समान ही चला और लोगों ने ‘X और Y के बीच’ वाला विकल्प चुना। उनका कहना था कि यह भी तापमान जैसा ही होना चाहिए। हमने उनसे पूछा कि यदि तापमान और ऊष्मा, दोनों एक ही बात हैं, तो इनके बीच अन्तर क्या है या हमें दो अलग-अलग शब्दों की ज़रूरत क्या है। तरह-तरह के उत्तर मिले। पाठ्यपुस्तकों की यह परिभाषा दोहराई गई कि इनकी इकाइयाँ अलग-अलग हैं, यह भी कहा गया कि एक कारण है और दूसरा उसका प्रभाव है (हालाँकि इस बात को लेकर विवाद रहा कि कारण कौन-सा है और प्रभाव कौन-सा)। इस चर्चा के बाद, मामले को सुलझाने के लिए, हमारे एक साथी ने एक और खयाली प्रयोग प्रस्तुत किया: “एक पात्र में 20 डिग्री सेल्सियस पर एक लीटर पानी है और एक अन्य पात्र में उसी तापमान पर एक हज़ार लीटर पानी है। प्रत्येक पात्र में ऊष्मा की मात्रा कितनी है?” इस पर शिक्षकों ने वही जवाब दिया कि दोनों में बराबर ऊष्मा (जैसे X कैलोरी) है।

इस बिन्दु पर हमने शिक्षकों से निम्नलिखित परिदृश्य पर विचार करने को कहा – “मान लीजिए हम 1000 लीटर में से एक लीटर पानी ले लेते हैं। यदि दोनों में ऊष्मा की मात्रा X है तो क्या बचे हुए 999 लीटर में ऊष्मा की मात्रा शून्य रह जाएगी? यदि ऐसा नहीं है, तो क्या हम एक-एक लीटर पानी निकालते जा सकते हैं और X कैलोरी ऊष्मा पैदा करते जा सकते हैं?” इस उदाहरण ने थोड़ा मतभेद उत्पन्न किया। एक शिक्षक ने कहा, “ऊष्मा एक किस्म की ऊर्जा है।” इसे हमने व्हाइटबोर्ड पर लिख दिया। इसके बाद, शिक्षकों ने ‘ऊष्मा ऊर्जा का एक रूप है’ के विचार की रोशनी में ऊष्मा की मात्रा को कई अलग-अलग तरह से निरूपित करने की कोशिश की। इस पड़ाव पर हमें उपयोगी लगा कि पाठ्यपुस्तक में दिया गया विवरण लिख दें:
ऊष्मा और तापमान में क्या अन्तर है? हम जानते हैं कि कोई भी पदार्थ परमाणुओं से मिलकर बना होता है। पदार्थ के परमाणु सदा गति में रहते हैं। किसी पदार्थ में परमाणुओं की कुल गतिज ऊर्जा उसमें ऊष्मा की मात्रा का माप है, जबकि तापमान का सम्बन्ध परमाणुओं की औसत गतिज ऊर्जा से है।

इस बिन्दु पर एक शिक्षक ने यह अन्तर बच्चों को समझाने के लिए एक रूपक बनाया --
मान लो 10 बच्चों की एक कक्षा में प्रत्येक बच्चे के पास 20-20 चॉकलेट हैं। तो कक्षा में कुल 200 चॉकलेट हुईं। 10 बच्चों की एक अन्य कक्षा में प्रत्येक के पास 40 चॉकलेट हैं, तो उस कक्षा में कुल 400 चॉकलेट हुईं। अब हम दोनों कक्षा के बच्चों को एक साथ बिठा देते हैं और उनसे कहते हैं कि सारी चॉकलेट मेज़ पर रख दें। इसके बाद हम सारी चॉकलेट 20 बच्चों में बराबर-बराबर बाँट देते हैं। चॉकलेटों की कुल संख्या (600) ऊष्मा की मात्रा की द्योतक है जबकि प्रति छात्र चॉकलेटों की संख्या (30) तापमान दर्शाती है।
जब हमने यह रूपक अपने कुछ साथियों को बताया, तो उनमें से एक ने शिक्षक द्वारा चॉकलेट की उपमा के उपयोग को खारिज करते हुए कहा कि यह तापमान का एक गलत व अधूरा चित्र पेश करती है और ऊष्मा तथा तापमान को लेकर, उनकी इकाइयों को लेकर गलतफहमी पैदा करती है। हालाँकि, उनका कहना सही है, लेकिन हमें लगता है कि शिक्षक द्वारा समझने तथा तत्काल एक रूपक तैयार करने की बात ‘अद्भुत विचार’ का एक उदाहरण है (Duckworth, 1996 की तर्ज़ पर)। यह शिक्षक के चिन्तन व गहरे जुड़ाव को भी दर्शाता है। हमें लगता है कि ‘प्रति बच्चा चॉकलेट’ का रूपक यह विचार उभारता है कि तापमान ‘ऊष्मा की तीव्रता’ है (जैसा कि एक शिक्षक ने कहा) या जैसा कि उनकी पाठ्यपुस्तक कहती है, ‘परमाणुओं की औसत गतिज ऊर्जा से सम्बन्धित है।’ हमारा मत है कि इस विचार की अवधारणात्मक समझ विकसित करने के लिए और बातचीत की ज़रूरत होगी।

शिक्षकों को समझाते हुए सुनना
इस पर्चे के शुरू में डकवर्थ के निबन्ध का जो अंश दिया गया है, उसमें यह कहा गया है कि सीखने वालों को परिघटना के साथ सीधे अन्तर्क्रिया का अवसर मिलना चाहिए और उसके बाद उन्हें यह समझाने का मौका मिलना चाहिए कि उन्होंने चीज़ों को कैसे समझा। ये दो शिक्षण के केन्द्रीय तत्व हैं। हम मानते हैं कि हालाँकि हमने अपने काम की शुरुआत इन मापदण्डों की पूर्ति के लिहाज़ से कहकर नहीं की थी, लेकिन ये हमारे सत्रों की डिज़ाइन व योजना के लिए प्रासंगिक रहे। शिक्षकों के जिन समृद्ध विचारों से हमारा सामना हुआ, उनके सन्दर्भ में हम उन्हें सुनने के समय के लिहाज़ से और उनके साथ वार्तालाप के लिहाज़ से न्याय नहीं कर पाए और न ही उन्हें पर्याप्त मौका दे पाए कि वे अपने अर्थ-निर्माण को विस्तार में समझा सकें। हमारी यह समझ (मददकर्ताओं के तौर पर), जो थोड़ी धुँधली-सी थी, मन्थन करते हुए, इस पर्चे को लिखते हुए तथा इन मुद्दों के बारे में पढ़ते हुए ज़्यादा स्पष्ट होती गई।

सीखने वालों को समझाने का मौका देने की वकालत करते हुए, डकवर्थ सीखने-सिखाने के तरीकों के इन परिणामों की बात करती हैं (Duckworth, 1996 p. 182-183):
“सबसे पहले, अपने विचार अन्य लोगों को स्पष्ट करते हुए, छात्र स्वयं ज़्यादा स्पष्टता हासिल करते हैं। अधिकांश सीखना तो व्याख्या करने में होता है। दूसरा, छात्र स्वयं तय करते हैं कि वह क्या चीज़ है जिसे वे समझना चाहते हैं। न सिर्फ व्याख्या उनकी तरफ से आती है बल्कि सवाल भी उन्हीं के होते हैं। तीसरा, लोग आत्मनिर्भर होने लगते हैं। वे इस बात के निर्णयकर्ता होते हैं कि वे क्या जानते और मानते हैं। चौथा, छात्रों को अपने विचारों को गम्भीरता से लिए जाने का सशक्त अनुभव मिलता है। उनका मूल्यांकन सिर्फ उस चीज़ के लिए नहीं होता जो शिक्षक चाहते हैं। पाँचवा, छात्र एक-दूसरे से बहुत कुछ सीखते हैं। और अन्तिम, कि सीखने वाले ज्ञान को एक मानवीय रचना के रूप में पहचानने लगते हैं क्योंकि वे अपने ज्ञान का निर्माण स्वयं करते हैं और वे जानते हैं कि उन्होंने ही किया है। किताब में जो कुछ लिखा होता है, उसे किसी और की रचना माना जाता है, एक ऐसी रचना जो उसी तरह उत्पन्न होती है जैसे उनकी अपनी रचना। इसकी उत्पत्ति किसी अन्य स्तर से नहीं हुई है।”
सत्रों में शिक्षकों द्वारा व्यक्त सोच और विचारों में से आगे की चर्चा और खोजबीन में उपरोक्त सार में प्रस्तुत परिणामों को साकार करने की सम्भावना है। अन्तिम बिन्दु का सम्बन्ध विज्ञान की प्रकृति से है, सिर्फ ज्ञान के भण्डार के रूप में नहीं बल्कि मानवीय खोजबीन की एक प्रक्रिया के रूप में जो लगातार चलता हुआ काम है। यह आधिकारिक व्यक्तियों द्वारा हस्तान्तरित ज्ञान नहीं है बल्कि लोगों द्वारा भौतिक और सामाजिक परिघटनाओं के साथ गहरे जुड़ाव के ज़रिए निर्मित ज्ञान है (Rose, 2006, p. 143; Singh, Shaikh & Haydock, 2019)। जो शिक्षक सबके सामने बोलने में सहज महसूस नहीं कर रहे थे, उन्हें मौका था कि वे अपने समूह के सदस्यों के साथ चर्चा कर सकें, और हमने सत्रों के दौरान उनके समझाने व सीखने की झलकें देखीं। लेकिन आगे बढ़ने के हमारे आग्रह और शिक्षकों के विचारों को पूरी तरह सुनने के लिए न रुकने ने यह सन्देश दे दिया था कि उनके विचार महत्वपूर्ण नहीं हैं या हम शायद पाठ्यपुस्तक, विशेषज्ञों की आधिकारिक हैसियत जैसी धारणा को पुष्ट कर रहे थे। जब तक हम शिक्षकों के विचार नहीं सुनते, जब तक उन्हें नहीं लगता है कि उनके विचार महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हैं, तब तक अध्यापकों के रूप में हम उनसे कोई सार्थक संवाद नहीं बना सकते।

हमें लगता है कि यदि इन सत्रों में हम शिक्षकों के लिए एक ऐसा माहौल बना पाते जहाँ वे स्वयं अपने और अन्य के विचारों को गम्भीरतपूर्वक ले पाते, तो शायद स्कूल में वे अपने छात्रों के साथ भी ऐसा करते। जब तक खुद शिक्षकों को खोजबीन की प्रक्रिया में जुटने तथा उसे सराहने का मौका नहीं मिलता, तब तक वे अपने छात्रों को भी इसका अनुभव कराने में असमर्थ रहेंगे। इसका मतलब होगा कि हम सत्र की योजना में काफी समय शिक्षकों द्वारा उनके अपने विचार समझाने के लिए, उनके साथ और काम करने के लिए रखें एवं ‘गहराई व विस्तार की खातिर समापन को थोड़ा धीमा करें’ (Duckworth, 1996 p. 76)।    

शिक्षक-अध्यापकों तथा शिक्षकों के लिए यह पहचानना ज़रूरी है कि कार्यशाला के सत्र ‘अवधारणाओं को स्पष्ट’ या ‘विषयवस्तु को पूरा’ करने वाले नहीं हैं। हमें ज्ञान के निर्माण तथा सीखने-सिखाने के तरीके में सुधार, दोनों को सतत चलती हुई प्रक्रियाओं के रूप में देखना चाहिए। इसका आशय है कि कार्यशाला सहभागी के रूप में शिक्षकों को, ज्ञान के निर्माण की धारणाओं की ओर बढ़ने (जिनका लोगों के सीखने के तरीकों से ज़्यादा सामंजस्य है) के अलावा ज़्यादा स्वायत्तता व ज़िम्मेदारी दी जाए। इसके अलावा, शिक्षकों को सोचने के लिए तथा इन प्रक्रियाओं पर काम जारी रखने के लिए समय व मदद की ज़रूरत होती है (Rodgers, 2001)।

पाठ्यपुस्तकों और ब्लैकबोर्ड से शिक्षण या वैज्ञानिक अवधारणाओं के ऐतिहासिक विकास के बारे में पढ़ना, सीखने का महत्वपूर्ण हिस्सा है। अलबत्ता, ‘विचारों को एक-दूसरे के सम्बन्ध में रखना’ (Duckworth, 1996, p. 81) और ‘विषयवस्तु को अच्छी तरह से समझ जाना..., उसके अन्दर कड़ियों के ताने-बाने और विषयवस्तु के एक क्षेत्र और दूसरे क्षेत्र के बीच सम्बन्धों के प्रति सचेत होना’ (Rodgers, 2001, p. 479) वह काम है जिसे धैर्य और आनन्द से किया जाना है। हम मानते हैं कि मूल्यांकन के मापदण्ड, शिक्षक व छात्रों की स्वायत्तता, सार्वजनिक शिक्षा को लेकर सरकारी नीतियाँ, अच्छी शिक्षा तक पहुँच में समता (NCERT, 2005) जैसे तंत्रगत मुद्दों को सुलझाना एक ऐसी लड़ाई है जिसे शिक्षकों को उनके कामकाज में स्वायत्तता में मदद के साथ-साथ लड़ा जा सकता है।


अनीश मोकाशी: स्कूल और विश्वविद्यालय स्तर पर विज्ञान शिक्षण में कार्यरत हैं। विज्ञान के इतिहास, शिक्षण-सीखने की संस्कृतियाँ, छात्रों के विचारों और उनसे जुड़े गरिमा के मामलों और करने-सोचने के बीच सम्बन्ध को समझने में रुचि रखते हैं।
गुरिंदर सिंह: वर्तमान में एक गैर-सरकारी संगठन में विज्ञान शिक्षण में कार्यरत हैं। शिक्षक और विद्यार्थियों के सवालों सम्बन्धी विज्ञान शिक्षण और विज्ञान शिक्षा अनुसंधान में विशेष रुचि।
हनी सिंह: शिक्षक और शोधकर्ता हैं। विशेष रूप से सीखने की प्रक्रियाओं, शिक्षक शिक्षा और विज्ञान शिक्षा में रुचि। वर्तमान में एक संगठन के साथ कौशल और सेल्फ लर्निंग एटीट्यूड पर कार्यरत हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
सभी फोटो: मोहित वर्मा: एकलव्य से सम्बद्ध हैं।
यह पेपर इंटरनेशनल कॉन्फेरेंस टु रिव्यु रिसर्च इन साइंस, टेक्नोलॉजी एंड मेथेमेटिक्स एजुकेशन, जनवरी 3-6, 2020 में प्रस्तुत किया गया था।