शिक्षकों की कलम से

वरुण गुप्ता

एक बार 2017 में, स्कूल खत्म होने के बाद दस वर्ष की एक छात्रा ब्लैकबोर्ड पर कुछ लिख रही थी।  कक्षा अध्यापक होने के नाते मैंने उत्सुकतावश पूछा, “बेटा, आप क्या लिखना चाहती हो?” छात्रा ने कहा, “मैं अपनी मम्मी का नाम लिख रही हूँ।” उसके द्वारा लिखा शब्द ‘राता’ को देखकर मैंने पूछा, “आपकी मम्मी का क्या नाम है?” छात्रा ने कहा, “रानी।” यह सुनकर मुझे एक धक्का-सा लगा और मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या महसूस करूँ। अभी कुछ दिन पहले ही मैं इस स्कूल से एक अध्यापक के तौर पर जुड़ा हूँ और यह ज़मीनी सच्चाई देखकर झटका लगा कि अधिकतर बच्चे, यहाँ तक कि 9 व 10 वर्ष के विद्यार्थी भी पढ़-लिख नहीं पाते हैं।

मेरा मानना है कि हर बच्चा बहुत कुछ जानता है और इस संसार को देखते हुए अपनी समझ बनाता जाता है। बस ज़रूरत है उसे आज़ादी से अपनी बात कहने-सुनाने की और अध्यापक के स्नेह व समझ के साथ-साथ अर्थपूर्ण वातावरण की।

खयालों को कागज़ पर उतारना
इस स्कूल में अपनी नई पारी शुरू करते हुए मैंने बच्चों से बातचीत द्वारा शुरुआत की – कुछ अपने बारे में बताकर, फिर उनके मन की बात सुनकर। वे अपने बारे में, अपनी पसन्द–नापसन्द, अपने खेल, अपने परिवार, दोस्तों, गाँव, दादा-दादी, गाँव के तालाब, खुदाई के दौरान मिले एक साँप, पेड़ पर चिड़िया के घोंसले, अण्डे, नन्हे चूज़े और न जाने क्या-क्या बताते थे। धीरे-धीरे मैं हर बच्चे व उसकी दुनिया के बारे में जानने लगा था। मैं उन्हें कहानियाँ सुनाता और कहानी के माध्यम से उनके अनुभवों को जोड़ता, उन अनुभवों पर बातचीत करता और उस पर उन्हें स्वतंत्र तरीके से अपनी समझ की इमारत बनाने देता था। यह प्रक्रिया इतनी मज़ेदार और अर्थपूर्ण थी कि अब बच्चे खुद से ही अपनी बात कहने के लिए काफी उत्सुक रहते थे। यह चरण इसलिए भी अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा क्योंकि इस बातचीत व विचारों के आदान-प्रदान से बच्चों और शिक्षक के बीच विश्वास, स्नेह और आत्मीयता का एक सम्बन्ध स्थापित हुआ जो किसी भी सीखने–सिखाने की प्रक्रिया के लिए बहुत ज़रूरी और नाज़ुक होता है। जैसे बच्चे अध्यापक से सीखते हैं, वैसे ही अध्यापक भी बच्चों से सीखता व अपनी समझ बनाता है। यही सम्बन्ध और लगाव की डोर आगे का मार्ग प्रशस्त करती है।
साथ ही, मैंने बच्चों से कहा कि वे अपनी बात को चित्रों के माध्यम से भी बता सकते हैं। वे अपने मन से चित्र बनाने लगे – कुछ केवल पेंसिल की लकीरें, कुछ रंगों से भरी हुई झोंपड़ी, पेड़, पहाड़, नदी, परिवार व आसपास के लोग आदि। कुछ बच्चों ने चित्रों में उन लोगों व चीज़ों के नाम भी लिखने की कोशिश की। बच्चों के चित्रों ने मुझे उनके खयालों व भावनाओं को समझने में बहुत मदद की।

तुम बोलो, मैं लिखता हूँ
कुछ बच्चे जो अभी भी बिलकुल नहीं लिख रहे थे या नहीं लिखना चाह रहे थे, मैंने उन्हें कहा, “तुम बोलो कि क्या लिखना चाहते हो और मैं उसे चित्र के साथ लिख दूँगा।” मैंने बच्चों के साथ मिलकर उनके लिए ‘शब्दकोश’ बॉक्स भी बनाए। हर बच्चे से मैं कुछ शब्द पूछता कि वे किसका नाम या क्या चीज़ लिखना या जानना चाहते हैं और फिर उसे उन बॉक्स में लिख देता। पढ़ने-लिखने की प्रक्रिया में इन ‘शब्दकोश’ बॉक्स से बहुत कम सफलता मिली (शायद किन्हीं जाने-अनजाने कारणों की वजह से या शायद मुझे ज़्यादा सब्र रखना चाहिए था), परन्तु इनसे मुझे उनके मन व दिमाग में झाँकने और उनके जिज्ञासा बिन्दुओं को जानने का मौका ज़रूर मिला।

जैसी बोली, वैसा लेखन
अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी और उसकी कद्र होना – कक्षा के इस उत्साहजनक व निष्पक्ष वातावरण ने बच्चों को प्रोत्साहित किया कि वे उन्मुक्त भाव से अपनी बात लिखकर साझा करें। हमारे देश के विभिन्न प्रान्तों – उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल आदि से उनके परिवारों की जड़ें बहुत मज़बूत और गहरी हैं। इसकी झलक उनके लेखन में दिखती थी। बच्चों से बातचीत कर मैंने समझा कि वे क्या लिखना चाह रहे थे। यह मेरे लिए भी बहुत कुछ सीखने का एक मौका था, जैसे कि कुछ बच्चे ‘बिल्ली’ को ‘बिलौटा’ बोलते व लिखते थे जबकि मैंने ‘बिलौटा’ शब्द पहली बार सुना था। पहले कुछ शब्दों से शुरू हुआ सफर, अब कुछ वाक्यों तक आ गया था। भाषा के अधिकतर बुनियादी पहलू तो उनमें मौजूद थे, पर अभी भी वे खुद अपना लिखा हुआ मुश्किल से पढ़ पा रहे थे।
दो बातों ने धीरे–धीरे उनके अक्षर ज्ञान व भाषा ज्ञान को बढ़ाने में मदद की। पहली, रोज़ कहानी सुनना व बच्चों के सन्दर्भ में चर्चा करना और दूसरी, बच्चों के द्वारा बोले गए किस्से–कहानियों को लिखकर कक्षा में प्रदर्शित करना। अपने चित्रों व साथ में शिक्षक द्वारा लिखी गई कहानी को वे बड़े चाव से देखते व पढ़ने की कोशिश करते थे। एक रस्सी से बच्चों के चित्र-कहानी को कक्षा में टाँगना और दीवार पर चिपकाना भी उनके उत्साह को बढ़ा रहा था।

दोहराव व ‘और’ का महत्व
अब अगले चरण में इनके लेखन में कुछ पैटर्न देखने को मिले, जैसे एक ही बात को बार-बार दोहराना, एक ही वाक्य का, थोड़े-से बदलाव के साथ, बार–बार इस्तेमाल करना। इसके अतिरिक्त, वे अपने लेखन में ‘और’ शब्द का बहुत ज़्यादा इस्तेमाल कर रहे थे।
अगर देखा जाए तो भाषा सीखने के सफर में यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। इससे पता चलता है कि बच्चे अपने खयालों को लिखकर बताने के लिए उत्सुकता से तैयार हैं, जो उन्हें एक प्राकृतिक अन्तःस्फूर्ति का एहसास कराता है।

बातों को दोहराने में, बच्चे वाक्य के किसी एक हिस्से का बार-बार सहारा लेते हैं, शायद अपनी बात को आगे बढ़ाने के लिए। बिना अल्प-विराम और पूर्ण-विराम इस्तेमाल किए, ‘और’ शब्द का अधिकाधिक इस्तेमाल -- शायद उनके खयालों की निरन्तरता को दर्शाता है।
साहित्य में भी हम देखते हैं कि छोटे बच्चों की कहानी-कविता में किसी बात या कुछ वाक्यों का बार-बार दोहराव किया जाता है।

बच्चों से लगातार बातचीत
हमारे इस सीखने-सिखाने के सफर में एक और बात ने बड़ी मदद की और वह थी – बच्चों के साथ सर्कल-टाइम मतलब लगातार उनसे एक-एक करके बातचीत करते रहना। मैंने यह महसूस किया और पाया कि एक शिक्षक के बच्चों से लगातार बातचीत करते रहने से दोनों के बीच का सम्बन्ध और मज़बूत होता है। अधिकतर बच्चे अपने निश्छल व निर्मल मन को साझा करने के लिए तैयार रहते हैं, बस ज़रूरत होती है एक ऐसे शिक्षक या इन्सान की जो उनकी बातें ध्यान से सुने व भावनाएँ समझ सके। दूसरी बात यह है कि कुछ अन्य बच्चे जो शुरुआत में कम खुलते हैं, कम बात करते हैं, वे पता नहीं कब आपके प्रयासों से अपने मन के द्वार खोलने लगें। एक बार जब किसी भी बच्चे को शिक्षक पर भरोसा हो जाता है और वह अपने मन की बात बोलने लगता है, तब उसके सीखने- सिखाने के सफर में तेज़ी व आत्मविश्वास आ जाते हैं। यह इस कथन को भी चरितार्थ करता है कि शिक्षक व बच्चे, दोनों एक-दूसरे से सीखते हैं।

मेरे अनुभव में, बच्चों से बातचीत करने के दोनों तरीके, समूह में एक गोला बनाकर व एक–एक से अलग बातचीत, ज़रूरी हैं और ये एक-दूसरे के पूरक भी हैं। समूह में गोला बनाकर बैठने की बड़ी उपयोगिता और महत्ता है। इससे सभी बच्चों को एक समान जगह उपलब्ध होती है, कोई आगे-पीछे नहीं होता और बीच की खाली जगह एक सुरक्षित दूरी का एहसास कराती है। गोले में सभी बच्चे और शिक्षक एक-दूसरे को अच्छे से देख, बोल व सुन पाते हैं। अनेक बार बच्चों के साथ गोले में बैठकर स्कूल व कक्षा के कई मुद्दों पर बातचीत हुई – क्या अच्छा लग रहा है, क्या अच्छा नहीं लग रहा है, कहाँ क्या दिक्कत है, आज खेल के मैदान में झगड़ा किस बात पर हुआ, हम दूसरों को भला-बुरा क्यों कहते हैं, जब हमें गुस्सा आता है, तब हमारे अन्दर क्या चल रहा होता है, दूसरों से मार-पीट करके क्या किसी को अच्छा लग सकता है, गुस्से में हम अपनी बात दूसरों तक कैसे बेहतर तरीके से पहुँचा सकते हैं आदि। इस गतिविधि ने बच्चों को सभी के सामने ज्वलन्त मुद्दों पर अपने विचार रखने और सुनने का मौका दिया। साथ ही, उनका आत्मविश्वास भी बढ़ा। मुझे लगता है कि इसने बच्चों को भविष्य के लिए तैयार करने के बीज भी डाले कि मुद्दा कुछ भी हो, हम उसके बारे में बातचीत कर सकते हैं।

बच्चों से एक–एक कर अलग से बातचीत करने के कारण मुझे उन्हें और नज़दीक से जानने का मौका मिला -- उनकी अपनी ज़िन्दगी में क्या चल रहा है, उनका मन कहाँ व्यस्त है, कौन-सी बात उन्हें परेशान कर रही है, क्या कोई उनके पास है जिसके साथ वे अपनी बातें, उलझनें, दिक्कतें साझा कर सकें आदि। बातचीत के इस धागे ने शिक्षक व छात्र के सम्बन्ध को मज़बूती देते हुए कक्षा के माहौल को सँवारने में मदद की है और सँवरे हुए कक्षा के इस वातावरण ने भाषा के सीखने-सिखाने के सफर को गति देने का काम किया।

‘अच्छा प्रयास’ का कमाल
भाषा सीखने–सिखाने के इस सफर में बच्चों की भागीदारी व चुस्ती जागृत होने के बाद भी मुझे कुछ कमी महसूस हुई। इसका एहसास  मुझे बच्चों के कथन, उनके भ्रम व माँगों से भी हुआ। चूँकि कुछ बच्चे अब लिखने लगे थे और मैं उनको प्रोत्साहित करने के लिए अक्सर ‘अच्छा’ कहता था, इसलिए अब वे मुझसे अपनी कॉपी में ‘गुड’ लिखने की माँग करने लगे। इससे मुझे खुशी तो थी पर मैं आगे के लिए थोड़ा चिन्तित और खबरदार भी था कि उन्हें उचित व काम के अनुसार ही प्रोत्साहन मिलना चाहिए। कहीं ज़्यादा प्रोत्साहन के कारण उन्हें भ्रम न हो जाए और उनके प्रयासों में कमी न आ जाए। मैंने कुछ बच्चों को कक्षा व स्कूल के बरामदे में यह कहते हुआ सुना था कि “अब मुझे लिखना आ गया है”, “मैं तो अब लिख लेता हूँ” आदि।

ऐसी परिस्थिति में अध्यापक के लिए कोई भी निर्णय लेना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। एक तरफ तो बच्चों की कोशिशें, उनके और मेरे लिए खुशी की बात थी तो दूसरी ओर बिना भ्रमित हुए इस दिशा में आगे बढ़ते रहना भी आवश्यक था। इसके अलावा एक और बड़ी समस्या थी कि कुछ बच्चे जो थोड़ी कम कोशिश कर रहे थे या कभी-कभी ही काम करते थे, उनकी पुस्तिका में क्या लिखूँ। कुछ सोचने के बाद मुझे एक हल मिला – ‘गुड’ मैं उन बच्चों के लिए लिखने लगा जो लगातार अच्छी कोशिश कर रहे थे और जो बच्चे कम मेहनत कर रहे थे, उनके लिए ‘Good effort’ (अच्छा प्रयास) लिखने लगा। यह हल शायद काम कर गया क्योंकि इससे बच्चे सन्तुष्ट लगे और फिर उन्होंने इस बारे में कोई माँग नहीं की। हालाँकि, बच्चे तो बच्चे होते हैं, इसलिए कभी-कभी कुछ बच्चे एक-दूसरे को चिढ़ाते भी थे कि “तुमने कम लिखा है, कम काम किया है और मैंने ज़्यादा, इसलिए मुझे तो ‘गुड’ मिला है।” मुझे सुनकर थोड़ा अजीब-सा लगता था लेकिन इसका समाधान भी बच्चों ने खुद ही निकाल लिया। ऐसे समय में दूसरा वाला बच्चा कहता कि “कोई बात नहीं, कम-से-कम मुझे ‘Good effort’ मिला है, कुछ दिन बाद मुझे ‘गुड’ भी मिल सकता है।” उसका उत्तर और विश्वास मेरे लिए बहुत सुखदायक थे।

मेरे लिए यह एक बहुत महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक कदम था। मैं मानता हूँ कि हर बच्चे को उसके प्रयासों और कोशिशों के बाद सफलता का स्वाद चखने देना चाहिए। यह उनके आत्मविश्वास के लिए भी अत्यन्त ज़रूरी है।
बहरहाल, इसके बाद बच्चों के प्रयासों और लिखने की मात्रा में काफी इज़ाफा हुआ। इसके साथ-साथ मैं उनके सही शब्द लेखन और वाक्य संरचना पर भी काम करता रहा।

लिखने व पढ़ने का चस्का
बच्चों के साथ काम करते हुए इस सफर में मैं भी सीख रहा था कि  उनके लिए एक उचित वातावरण और परिस्थितियाँ कैसे बना सकता हूँ। इसमें मुझे प्रो. कृष्ण कुमार की किताब बच्चे की भाषा और अध्यापक से बहुत मदद मिली जिसमें बच्चे स्कूल व घर में क्या करते हैं, देखते हैं, महसूस करते हैं, गाँव में कहाँ-कहाँ घूमते हैं, कौन-से नए दोस्त बनाते हैं, दोस्तों के साथ कैसे खेलते, हँसते, लड़ते हैं, बच्चों की इच्छाएँ, अपेक्षाएँ, डर, समूह में किए जाने वाले कार्य, क्या अच्छा लगा, क्या बुरा लगा, क्यों-कैसे आदि विषयों पर बात की गई है। साथ ही, इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि पढ़ना-लिखना अर्थपूर्ण व अनुभव से जुड़ा होना चाहिए तभी उस पर समझ की इमारत बनाना व भविष्य के कौशल का विकास सम्भव है।
अब वे कक्षा में मौजूद छोटे पुस्तकालय से अपनी मर्ज़ी से किताबें उठाकर पढ़ने लगे थे। लाइब्रेरी में जाना व वहाँ की अनगिनत पुस्तकों को उत्सुकता से उलट-पलट कर देखना, अब उन्होंने शुरू कर दिया था। दीवारों पर लगे पोस्टरों, अखबार की खबरों को भी वे बार-बार देखते-पढ़ते थे।

लिखने में अब और विविधता आ रही थी। जैसे आसपास के पेड़-पौधों के बारे में जानते-सीखते हुए, चार-पाँच के छोटे समूह में, उन्होंने एक चार्ट बनाकर, उस पर चित्रों के साथ कहानी व जानकारी लिखी। कहानियाँ पढ़ने के बाद, उन पर समीक्षा लिखना, कहानी में क्या अच्छा लगा या नहीं लगा व क्यों, कौन-सा पात्र सबसे अच्छा लगा व क्यों, कहानी का अन्त कैसे अलग हो सकता था, इन सब विषयों पर भी उन्होंने लिखना शुरू किया। बच्चों की आपसी चर्चा से उनके बौद्धिक विकास, तर्क, भावनाओं से ओत-प्रोत बच्चों के निश्छल खयालात, उनके सपने आदि अब बहुत खुलकर उनके लेखन में भी झलकने लगे थे। यहाँ तक कि इन्सानों या जानवरों पर होने वाले अन्याय, अत्याचर से कभी-कभी उनका बाल सुलभ मन पिघल भी जाता था। ऐसे ही एक बार कक्षा में जब पाउलो फ्रैरे की पेडागोजी ऑफ द ओप्रेस्ड किताब से ‘सत्रह ताकतवर शब्दों' पर चर्चा हो रही थी तो बच्चों ने बहुत स्वच्छन्द रूप से अपने–अपने विचार, भाव व तर्क रखे। तभी एक बच्चे ने एक वाक्या सुनाया, “बहुत समय पहले मैंने एक बार एक मज़दूर को मकान बनाते हुए देखा था। गर्मी के दिन थे, मज़दूर को काम करते-करते दोपहर का समय हो गया था और वह थोड़ा आराम व भोजन करना चाहता था। लेकिन उसके मालिक ने उसे काम खत्म करने का हुक्म दिया। वह बेचारा मज़दूर खाना भी नहीं खा पाया।”

तब कक्षा में उसके दोस्तों ने कहा, “इस किस्से को हम कहानी की तरह लिखेंगे।” फिर 7-8 बच्चों ने चित्रों के साथ उस कहानी को अच्छे से लिखा। नवम्बर 2019 में बाल-पत्रिका चकमक में पहली बार हमारे स्कूल के बच्चों का काम, यानी कि यह कहानी छपी। बच्चों, स्कूल, माता-पिता और शिक्षकों – सभी के लिए यह हर्ष व गौरव का क्षण था। तब से लेकर अब तक, लगातार, बच्चे चकमक की विभिन्न गतिविधियों में हिस्सा ले रहे हैं – मज़ेदार प्रश्नों के उत्तर, कहानियों की समीक्षा, नई कहानी आदि लिख रहे हैं। अब बच्चे एकलव्य और इकतारा की विभिन्न किताबों, कविता कार्ड, पत्रिका व एन.बी.टी., कथा, तूलिका, प्रथम आदि की भी किताबों को बड़े चाव से पढ़ते हैं। दो साल का बच्चों का यह सफर वाकई में चुनौतीपूर्ण था क्योंकि भले ही जीवन की शुरुआत में तीन से छ: साल तक शायद अच्छी नींव न बनी हो, लेकिन अब अपने प्रयासों और लगन से वे आत्मविश्वास के साथ अपने विचार व भाव लिखकर व्यक्त कर रहे हैं। अभी सफर खत्म नहीं हुआ है, यह चलता रहेगा और आशा है कि भाषाई ज्ञान के अर्जन से वे सशक्त बनेंगे और भावी जीवन में अर्थपूर्ण व सक्रिय भागीदारी निभा सकेंगे।


वरुण गुप्ता: अपनी संस्था, I Am A Teacher, गुरुग्राम, हरियाणा की तरफ से 2017 से दिल्ली में एक सरकारी प्राइमरी स्कूल में कार्यरत हैं। पेशे से मैकेनिकल इंजिनियर। लगभग दस साल ऑटोमोबिल इंडस्ट्री में काम करने के बाद, अपने स्वभाव व शिक्षक बनने के बचपन के सपने को पूरा करने के लिए वे सन् 2016 में दोबारा शिक्षा के क्षेत्र में आए। 2017 से कक्षा चौथी व पाँचवीं के बच्चों के साथ कार्य करते हुए बच्चों के भाषाई ज्ञान विकास के सफर के अपने अनुभवों को उन्होंने इस लेख में साझा किया है।
मार्गदर्शन: स्मृति जैन, डॉ. तपस्विनि साहू, डॉ. सोनिका कौशिक
सभी फोटो: वरुण गुप्ता।