कालू राम शर्मा

बच्चे जैसे ही प्रारम्भिक कक्षाओं में स्कूल में भर्ती होते हैं वैसे ही गिनती सिखाने की जद्दोजहद शुरू हो जाती है। गिनती को बोर्ड पर लिखा जाता है और बच्चों को उसे दोहराने के लिए कहा जाता है। शिक्षक की अपेक्षा होती है कि बच्चे रट लें और फर्राटे से गिनती बोल सकें। इसके लिए गिनती के कुछ गीत भी आजकल व्हॉट्सएप पर खूब प्रसारित होते हुए मिल जाएँगे। कुछ बच्चे गिनती फर्राटे से बोल पाते हैं और उन्हें मिलती है शाबाशी। और जो बच्चे फर्राटे से नहीं बोल पाते, वे हिकारत भरी नज़रों के शिकार बन जाते हैं।
पट्टी-पहाड़ा नामक एक पतली-सी किताब होती है, उसमें से देखकर बच्चों को गिनती लिखने को कहा जाता है। यह प्रक्रिया अधितकर स्कूलों की प्राथमिक कक्षाओं में दिन-दर-दिन ही नहीं, महीनों-दर-महीनों चलती रहती है। इन सबके बावजूद बच्चे गिनती की पर्याप्त समझ नहीं बना पाते। जब बच्चे आगे की कक्षाओं में जाते हैं तो इस समस्या से जूझना शिक्षक की मजबूरी बन जाती है।
समस्या तब आती है जब आप बच्चों से कुछ गिनने को कहते हैं और वे गिन नहीं पाते। यहाँ गिनने से आशय है कि वे चीज़ों को गिनते हुए एक-एक चीज़ को उठाते हैं और अलग रखते जाते हैं लेकिन वे संख्या नाम भूल जाते हैं। जैसे कि चौंतीस के बाद वे छत्तीस या बयालीस बोलते हैं। और फिर गिनना रुक जाता है।

बच्चों के साथ काम करते हुए जब मैंने उनसे बासठ लिखने का बोला तो उन्होंने बहत्तर लिख दिया। या जब उनसे पूछा गया कि तैंतीस के बाद क्या आएगा तो वे अपेक्षित जवाब नहीं दे पाए।
कुल मिलाकर बच्चों के साथ शिक्षक मेहनत तो खूब करते हैं लेकिन बच्चे फिर भी अपेक्षित नहीं सीख पाते। ऐसे में शिक्षक बच्चों को लेकर धारणाएँ बनाने लगते हैं। जैसे घर पर माता-पिता बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान नहीं देते, ये बच्चे तो ऐसे ही हैं, सीखने में कोई दिलचस्पी ही नहीं है इनमें। शिक्षकों को तो निराशा हाथ लगती ही है, साथ ही बच्चों के ज़हन में भी यह बात बिठा दी जाती है कि गिनती एक कठिन चीज़ है।

कक्षा पहली में आने वाले बच्चे के साथ पूरे सत्र के दौरान गिनती पर काम करने पर भी वह समझ नहीं पाता तो यह बच्चे की अक्षमता है या सिखाने की प्रक्रिया में खामी का परिणाम?
मेरा अनुभव है कि बच्चों को गिनती का भान होता है। जैसे कि एक ढाई साल की बच्ची दो और तीन चॉकोबार में से तीन वाले समूह को हथियाना चाहती है। जब ढाई बरस की बच्ची को स्कूटी पर एक अन्य सदस्य उसके पीछे बिठाकर कहीं ले जाता है तो वह कहती है कि अब जगह नहीं है। उसे यह भान होता है कि स्कूटी पर अधिक-से-अधिक तीन ही बैठ सकते हैं।
ऐसे तमाम उदाहरण आप खोज सकते हैं जिनसे समझा जा सकता है कि बच्चे गिनती की समझ रखते हैं। बच्चों में यह क्षमता नैसर्गिक होती है जिसे वे अपने परिवेश से अन्तःक्रिया करते हुए तराशते जाते हैं।
वैसे प्रयोगों से पता चलता है कि जीवजगत में कौए भी तीन तक की गिनती कर पाते हैं। अगर गैर-मानव स्तनधारियों की बात की जाए तो चिम्पांज़ी एवं गोरिल्ला में भी गिनने की क्षमता के प्रमाण मिलते हैं। तो सवाल यह है कि बच्चों को स्कूल में गिनती सीखने में इतनी दिक्कत क्यों आती है?

गिनने की समस्या
मैंने पिछले सालों में शिक्षकों के साथ गिनती पर काम किया तो पाया कि पहले वे बच्चों को गिनती रटवाना प्रारम्भ करते हैं और जल्द ही, उन्हें गिनती लिखवाने लगते हैं। यह लिखना बोर्ड या किताब के सहारे होता है। बच्चे गिनती की नकल करते रहते हैं। फिर अगले चरण में बच्चों से अपेक्षा की जाती है कि वे फर्राटे से गिनती बोल सकें और किताब या बोर्ड पर देखे बिना गिनती लिख सकें।
मैंने कक्षाओं में देखा है कि बच्चे मंत्र या कथा की भाँति फर्राटे से गिनती बोलते हैं और किसी निश्चित संख्या तक पहुँचकर ही दम लेते हैं। अगर बीच में उन्हें रोक दिया जाए तो वे फिर से शुरुआत कर देते हैं। बीच में रोकने पर आगे न बोल पाना दर्शाता है कि बच्चों में संज्ञानात्मक स्तर पर गिनती की समझ नहीं बन पाई है। इसी प्रकार से जब बच्चों को गिनती को एक तयशुदा फॉर्मेट में लिखने को कहा जाता है तो वे लिख तो पाते हैं लेकिन यह कतई ज़रूरी नहीं है कि गिनती के बारे में उनकी समझ बन गई हो। अक्सर बच्चे काॅपी या स्लेट पर एक काॅलम बनाकर एक से दस तक की संख्या लिखते हैं। अगले काॅलम में वे 11 से 20 तक लिखते हैं। और फिर आगे 21 से 30 तक...। उन्हें यह भान होता है कि काॅलम में यांत्रिक तौर पर क्या भरना है।
इसमें वे एक खास बात को पकड़ लेते हैं कि जब अगली लाइन में लिखना है तो बाईं ओर 1 लिख दिया जाए और फिर पहले खाने के मुताबिक दाईं ओर 1 से 9 तक लिख दिया जाए। कई बार मैंने देखा कि जब 20 लिखने की बारी आती है तो वे गफलत में पड़ जाते हैं।
जब मैंने उपरोक्त प्रक्रिया से गुज़रे बच्चे से पूछा कि 26 कहाँ लिखा है तो वह बता नहीं पाया। यह मैं उस बच्चे की बात कर रहा हूँ जो फर्राटे से गिनती बोलता है और उसने कई दफे अपनी स्लेट व काॅपी में गिनती की नकल की है और उसे शिक्षक की ओर से ‘गुड' मिला है।

गिनती क्यों?
इस पूरे मामले में मैंने शिक्षकों से बातचीत की कि इस स्थिति से कैसे निपटा जाए। मेहनत तो काफी हो रही है लेकिन अगर बच्चे नहीं बता पाते तो यह शायद सिखाने के तरीकों में चूक व खामी का मामला है।
शिक्षकों के साथ बातचीत में मैंने पूछा कि हम थोड़ा तसल्ली से सोचें कि आखिर हमें गिनती सीखने की ज़रूरत क्यों है। इस पर जवाब मिला कि गिनती इसलिए आनी चाहिए कि हम चीज़ों को गिन सकें। जैसे कि अगर किसी कार्यशाला में शिक्षक शामिल हुए हैं और उनके लिए चाय-समोसे की व्यवस्था की जानी है तो हमें गिनने की ज़रूरत होगी। सबसे पहले कुल शामिल लोगों को गिन लेंगे और फिर हम उतने ही समोसे-चाय का आॅर्डर देंगे। आम तौर पर दैनिक जीवन में हम गिनती का इस्तेमाल एटीएम या बैंक से पैसे निकालने के दौरान करते हैं। अगर मैंने दो हजा़र रुपए निकाले हैं तो क्या उतने नोट मुझे मिले हैं या नहीं। अगर कक्षा में बच्चों के लिए आम खरीदना है और प्रत्येक को एक-एक आम मिलना है तो हम बच्चों की संख्या को गिनेंगे व उतने आम खरीदेंगे। या कि अगर बारात जानी है तो बारात में कितने लोग हैं, उसके मुताबिक हम बारात जाने के लिए वाहन की व्यवस्था करते हैं ताकि उतने लोग बस में बैठ सकें। ऐसे और भी तमाम उदाहरणों पर बातचीत की।
“तो फिर क्या किया जाए?” शिक्षक का सवाल था। मैंने उनसे प्रति-प्रश्न किया कि “अब हमें क्या करना चाहिए, आप ही सोचिए।”
शिक्षक का कहना था कि “बच्चों को गिनना सिखाना होगा।” लेकिन उन्होंने तुरन्त ही प्रश्न किया कि “कब तक गिनवाएँगे?” मैंने कहा, “जब तक गिनना न आ जाए।”
ऐसा लगता है कि हम बच्चों को गिनती सिखाने की हड़बड़ी में होते हैं। हम एक बार बता दें और वे सीख जाएँ। दरअसल, ऐसा होता नहीं है।

एक बात और है। जब हम किसी चीज़ को सीखते हैं तो ट्रायल एंड एरर से सीखते हैं। जैसे कि एक छोटी बच्ची सायकिल चलाने के दौरान सायकिल चलाने का आनन्द भी लेती जाती है और उसकी जटिलता को सीखती भी जाती है। ऐसा ही तैरने में भी होता है। मैंने छोटे बच्चों को तैरना सीखते हुए देखा है और पाया है कि उनका कौतूहल चरम पर होता है। वे तैरते हुए हाथ-पैर पटकते हैं, छप-छप करते हैं, थोड़ा तैरते हैं और कभी वे पानी में खड़े हो जाते हैं। इस दौरान वे गलतियाँ भी खूब करते हैं। जैसे कि सायकिल चलाने के मामले में बच्चे कई बार गिरते हैं और फिर धूल झाड़कर खड़े होकर फिर से सायकिल चलाना शुरू कर देते हैं। आखिरकार बच्चे सायकिल चलाना सीखकर ही दम लेते हैं। ऐसा इसलिए कि बच्चों के पास गलतियाँ करने व उनसे सीखने के भरपूर मौके होते हैं।

अर्थपूर्ण माहौल की ज़रूरत
गिनती सिखाने के मामले में कक्षाओं में जो माहौल होता है, वह नीरस होता है। अचानक ही शिक्षक बच्चों को गिनती बुलवाना एवं लिखवाना प्रारम्भ कर देते हैं। कहीं-कहीं कंकड़, बीजों वगैरह से उन्हें गिनने को कहा जाता है। काफी हद तक बच्चे गिन तो पाते हैं लेकिन वे उन संख्याओं को पहचान नहीं पाते। यह वैसी ही बात है जैसे पढ़ने की प्रक्रिया में होता है। मैंने पाया है कि बच्चे पेड़-पौधों, जन्तुओं को सामने देखकर पहचान जाते हैं। उन्हें चित्रों में भी पहचान पाते हैं। लेकिन अगर उस पेड़ या जन्तु का नाम लिखा हो तो वे नहीं पढ़ पाते। तो यह अगले स्तर की समस्या है। वैसे ही बच्चे स्कूल आने के पहले कुछ हद तक गिन पाते हैं। इससे आगे कैसे बढ़ा जाए, यह समझने के लिए कुछ शिक्षकों द्वारा अपनाए जाने वाले उदाहरण देखते हैं।
यह वाकया आदिवासी इलाके की प्राथमिक कक्षाओं के बच्चों की एक आवासीय आश्रमशाला का है। आश्रमशाला के मैदान में दो झूले लगे हैं। इन झूलों पर बच्चे छुट्टी के समय में झूलते हैं। शिक्षक ने ऐसा इन्तज़ाम किया था कि सभी बच्चे झूला झूल सकें। जब एक बच्चा झूला झूलेगा तो उन्हीं में से एक बच्चा झूला झूलने की गिनती करेगा। जब पच्चीस हो जाएगा तो दूसरा बच्चा झूला झूलेगा।
जब कम बच्चे होते हैं तो झूलों की संख्या बढ़ा दी जाती है जैसे कि चालीस या पचास। इस प्रक्रिया में वे बच्चे भी सहजता के साथ गिनती सीख पाते हैं जिन्हें गिनती नहीं आती। अगर बीच में कोई नया बच्चा झूले की गिनती करता है और गड़बड़ करता है तो पास खड़ा हुआ अन्य बच्चा टोक देता है। यह दिलचस्प है कि इस स्कूल में आने वाले पहली के बच्चे भी झूले की गिनती करना सीख गए।
आश्रमशाला में कुछ सब्ज़ियाँ उगाई जाती हैं। शिक्षक क्यारियों में उगे बैंगन तोड़कर उन्हें गिनने को कहते। बच्चे जब बैंगन तोड़कर लाते तो शिक्षक भी वहाँ मौजूद होते और बच्चे बैंगन गिन पाते।
एक स्कूल में शिक्षक ने पहली कक्षा के बच्चों के समूह बना दिए और उन्हें मैदान में से मुट्ठी भरकर कंकड़ लाने को कहा। अब उन्होंने बच्चों से कहा कि “इसमें से दस कंकड़ गिनकर अलग रख लो।” बच्चे गिनने लगे। शिक्षक ने उन पर नज़र रखी। जो बच्चे नहीं गिन पा रहे थे, उन्हें दोबारा-तिबारा गिनने को कहा।

शिक्षक ने कहा कि “जब गिन लोगे तो इससे आगे का खेल आसान होगा।” अब उन्होंने कहा कि “इन दस कंकड़ों को छोटे-से बड़े क्रम में जमाना है।” दरअसल, बच्चे क्रम का अर्थ नहीं समझ पा रहे थे। इसलिए शिक्षक ने ही इसे एक बार करके दिखा दिया। अब बच्चे भी छोटे से बड़े के क्रम में कंकड़ों को जमाने लगे।
एक शिक्षक ने बच्चों को कनेर के पाँचे दिए अौर उनसे कहा कि वे उनके साथ खेलें। बच्चों को पाँचे के साथ खेलने का अनुभव था, सो वे खेलने लगे और उछालों को गिनने लगे।
शिक्षक ने ऐसे तमाम खेल खोज रखे थे जिनमें बच्चों को गिनती का इस्तेमाल सहजता के साथ करने को मिलता है।

संख्या नाम व गिनने का सिद्धान्त
गिनती के संख्या नामों से परिचय और चीज़ों को गिनना दरअसल, साथ-साथ चलने वाली प्रक्रिया है। बच्चे स्कूल आने से पहले इन संख्या नामों और गिनने की प्रक्रिया से कुछ हद तक परिचित होते हैं। केवल संख्या नामों का उच्चारण करने व उन्हें रट लेने से बात नहीं बनती। मैंने यह भी देखा है कि बच्चे अक्सर इन संख्या नामों को अपनी बोली में जानते हैं। जैसे कि ग्यारह को ग्यारा, तेरह को तेरा, पन्द्रह को पन्दरा और उन्नीस को ओगणीस बोलते हैं। बच्चों की इस शब्दावली को कक्षा में स्वीकार करना होगा। अगर बीच में टोंका-टाकी की जाए तो बच्चे सहम जाते हैं।
एक कक्षा में शिक्षक ने बच्चों द्वारा बोले जाने वाले इन संख्या नामों को सही उच्चारित करने पर ज़ोर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि बच्चे सीखने से विमुख होने लगे। फिर शिक्षक को सुझाव दिया गया कि शुरुआती तौर पर बच्चे इन संख्या नामों को जैसा भी बोलते हैं, उसे स्वीकार्यता मिलनी चाहिए। शिक्षक ने ऐसा प्रयास किया। बच्चे उन संख्या नामों को बोलते और शिक्षक उन्हें अपनी ओर से ग्यारह, तेरह, पन्द्रह आदि बोलकर दोहराते। बच्चे शिक्षक से सुनकर बड़ी सहजता के साथ उनका अनुसरण करने लगे।

गिनती का दूसरा सिद्धान्त है एक से एक की संगति। यह अहम है कि जब हम किसी चीज़ को गिनते हैं तो उस चीज़ को उठाते हैं और उसके साथ संख्या नाम बोलते हैं। जैसे कि अगर हमें बैंगन के ढेर की गिनती करना हो तो एक बैंगन को उठाकर बोलते हैं ‘एक'। फिर दूसरा बैंगन उठाकर उसे अलग रखते हैं, और अब हो गए ‘दो'। और यह क्रम जारी रहता है।
मेरा अनुभव है कि इस प्रक्रिया में बच्चों के बोलने और अपने हाथों से उस चीज़ को उठाकर रखने के बीच के तालमेल में थोड़ा वक्त लगता है। लेकिन यह भी कहूूँगा कि बच्चे इस तालमेल को अभ्यास से जल्द ही पकड़ पाते हैं। एक से एक की संगति को बिठाने का अभ्यास अगर ठीक से हो जाए तो फिर वे उसे आत्मसात कर पाते हैं। आपने देखा होगा कि बैंक कर्मी नोटों की गड्डी को काफी तेज़ी-से गिन पाता है। इतनी जल्दी मैं नहीं गिन सकता। यह उस बैंक कर्मी के अभ्यास का परिणाम ही है।
जब हम गिनते हैं तो दो काम एक साथ करने होते हैं। एक-एक चीज़ को अलग-अलग करना और हरेक को एक अंक से जोड़ना। आम तौर पर वयस्क इस प्रक्रिया को अपने अनुभव से सीख लेते हैं और अमूर्त रूप से भी कर पाते हैं। लेकिन बच्चों के पास यह अनुभव अपेक्षाकृत सीमित होता है। कक्षाओं में बच्चों के साथ काम करने के दौरान समझ में आया कि बच्चों को संख्याओं के नाम पता हैं लेकिन कभी-कभी किसी चीज़ को उठाते समय या इंगित करने से पहले ही वे संख्या बोलना शुरू कर देते हैं। या कई बार उल्टा होता है कि चीज़ को उठा लेते हैं या इंगित तो कर देते हैं लेकिन संख्या नाम बोलने में देरी कर देते हैं। इन दोनों ही मामलों में वे सही गिनती नहीं कर पाते। ऐसा इसलिए होता है कि बच्चे चीज़ व संख्या में संगति नहीं बिठा पाते। बच्चे इस बात को नहीं पकड़ पाते कि कब गिनती बोलना और कब बन्द करना है। दरअसल, यह एक हुनर है जो बारम्बार अभ्यास से ही आता है।

अन्तिम चीज़ का संख्या-नाम ही उस समूह की चीज़ों की कुल संख्या होती है। एक बात और कि जब शुरुआती तौर पर गिनते हैं तो सभी की गिनती में फर्क होता है। इस फर्क का अर्थ है कि बच्चों का संख्या-नाम बोलना और चीज़ के साथ संगति बिठाने का अनुभव अभी पुख्ता नहीं हुआ है। ऐसे बच्चों की पहचान करके, उनके साथ और काम करने की ज़रूरत होती है।
कुल मिलाकर, बच्चों के साथ संख्या-नाम व एक-के-साथ-एक की संगति का अभ्यास करवाने पर उनमें गिनने का आत्मविश्वास पैदा होता है और वे इसमें उस्ताद बनते जाते हैं।
आम तौर पर गिनती को हम एक उत्पाद के रूप में ही देखने के आदी हो चुके हैं। दरअसल, गिनना एक प्रक्रिया है, न कि उत्पाद। इस पूरी प्रक्रिया में और बहुत-सी बारीकियाँ हैं। जैसे कि जो चीज़ गिनी गई, उसमें दो और चीज़ों को मिला दें तो कुल कितनी होगीं। या एक चीज़ को कम कर दिया जाए तो कितनी होगी जैसी कवायदें गिनने की प्रक्रिया को समझने में बेहतरी प्रदान करती हैं।

कहाँ से गिनना शुरू करें?
मैंने कक्षा में बच्चों के साथ गिनती पर काम करते हुए बोर्ड पर चिड़ियों के चित्र बनाए और उन्हें गिनने को कहा। बारी-बारी से बच्चे बोर्ड के पास आते और उन्हें गिनते।
फिर मैंने बच्चों से पूछा कि “बोर्ड पर बनी चिड़ियों में से पाँच चिड़िया उड़ गईं तो बताओ कि कुल कितनी बचीं?” यह अभ्यास कई बार किया गया। फिर बच्चों से कहा, “अब अगर यहाँ तीन मछलियाँ और बना दी जाएँ तो कुल कितनी हो जाएँगी?”
फिर मैंने बोर्ड पर गुड़ियों के चित्र बनाए और बच्चों से कहा, “मछलियों, चिड़ियों और गुड़ियों को एक साथ गिनो। और फिर इन्हें जोड़कर दिखाओ। क्या गिनती करने पर भी यही संख्या आती है?” बच्चे यह कर पाए।
अब मैंने पूछा, “अगर नीचे से गिना जाए तो क्या संख्या वही आएगी?” बच्चे चुप थे। मैंने फिर कहा कि “अगर कोई बच्चा ऊपर से गिने और कोई नीचे से गिने तो क्या वही संख्या आएगी?” बच्चे अब भी चुप थे। मैंने कहा, “गिनकर देख सकते हैं।” एक बच्चे ने ऊपर से गिना, एक ने नीचे से गिना। बच्चों को यह दिलचस्प लगा कि चाहे कहीं से भी गिनो, वही संख्या आती है।  
अगले चरण में मैंने एक बरनी बनाई और उसमें कुछ गेंदें बनाईं। दिलचस्प बात जो मैं देख पाया कि हर बच्चे का बरनी में गेंदें गिनने का तरीका अलग था। एक बच्चे ने बरनी के पैंदे से दाएँ से गिनना शुरू किया। दूसरे ने बरनी के लम्बवत गिनना शुरू किया।  

दरअसल, अलग-अलग चीज़ों को कहीं से भी गिनने पर संख्या में कोई फर्क नहीं आता, इसका अभ्यास देना ही मेरा मकसद था। यह एक खेल से कम नहीं था।
इस अभ्यास से बच्चों ने ‘करके' सिद्ध किया कि कहीं से भी गिनो, संख्या वही आएगी।
गिनती को लेकर एक और गतिविधि बच्चों के साथ की जो उन्हें बेहद पसन्द आई। एक बच्चे से कहा कि वह कक्षा के बाहर जाए और बिल्ली की आवाज़ ‘म्याऊँ' निकाले। कक्षा के बच्चे ‘म्याऊँ' आवाज़ की गिनती करेंगे। वह बच्चा कक्षा के बाहर गया और ‘म्याऊँ' की आवाज़ निकालने लगा। अन्दर बच्चे उसकी ‘म्याऊँ' को गिन रहे थे। उस बच्चे ने 17 बार आवाज़ निकाली जो बच्चों ने गिनी। फिर तो क्या था। हर किसी को एक और खेल हाथ लग गया था।

अमूर्त घटनाओं की गिनती
तो यह तो मूर्त चीज़ों को गिनने की बात हुई। क्या ऐसी चीज़ों की गिनती भी हो सकती है जिन्हें हम देख नहीं पाते? जैसे कि हम अपनी साँस को देख नहीं पाते, केवल महसूस कर पाते हैं। मैंने दूसरी के बच्चों के साथ इसे आज़माया। और उनसे पूछा, “क्या तुम साँस लेते हो?” बच्चे कुछ समझ नहीं सके। मैंने उनसे कहा, “तुम अपनी नाक के पास हथेली को लाओ। क्या कुछ महसूस होता है?” बच्चे ठीक से समझ नहीं सके। फिर मैं अपनी हथेली को नाक के पास लाया और प्रदर्शित किया। बच्चे भी ऐसा करने लगे, हालाँकि, वे समझ नहीं सके। मैंने काफी कोशिश की तो कुछ बच्चों को यह समझ में आया कि नाक में से हवा निकलती है। अब मैंने पूछा, “क्या इसे तुम गिन सकते हो?” दूसरी के बच्चों को साँस को महसूस करने में दिक्कत हो रही थी। हालाँकि, इस तरह का निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगा कि दूसरी कक्षा के बच्चे साँस को नहीं गिन पाते। हमें इसे और भी आज़माना होगा। एक अनुभव याद आता है जब कक्षा पाँचवीं के बच्चों के साथ साँस गिनने का प्रयोग किया था। मैंने उन बच्चों को समझाया कि एक साँस का मतलब क्या होता है। वे फिर अपनी साँस गिन पाए थे। इसी प्रकार से मैंने कक्षा पाँचवीं के बच्चों के साथ दिल की धड़कन को गिनने का प्रयोग भी किया था जिसमें वे धड़कन को गिन पाए थे।

और अन्त में
अनुभव बताते हैं कि बच्चे अनौपचारिक माहौल में गिनती बेहतरी से सीखते हैं जहाँ उन्हें पता ही नहीं होता कि गिनती सिखाई जा रही है। अपने सीमित अनुभवों के आधार पर यह कह सकता हूँ कि बच्चे खेलते हुए सीख पाते हैं। दरअसल, खेल में संवाद और सहयोगी रवैये को अपनाना होता है। साथ ही, अपने साथियों के बीच उत्पन्न चुनौतियाँ सीखने में अधिक सहायक होती हैं। जैसे कि गिल्ली-डण्डे के खेल में बच्चों को उछाली गई गुल्ली से गुच्ची तक डण्डों से मापना होता है। इस दौरान बच्चे पर गिनती सीखने का दबाव नहीं होता। झूले झूलने का जो उदाहरण दिया, वहाँ भी बिना किसी दबाव के बच्चे गिनती सीख रहे हैं।
एक और बात जो प्राथमिक कक्षाओं में गिनती सिखाने के लिए ज़रूरी है। दरअसल, इस दौरान अभ्यास व सुधार ज़रूरी है, इसलिए गिनती सिखाने के दौरान काफी धैर्य रखने की ज़रूरत होती है।


कालू राम शर्मा (1961-2021): अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, खरगोन में कार्यरत थे। स्कूली शिक्षा पर निरन्तर लेखन किया। फोटोग्राफी में दिलचस्पी। एकलव्य के शुरुआती दौर में धार एवं उज्जैन के केन्द्रों को स्थापित करने एवं मालवा में विज्ञान शिक्षण को फैलाने में अहम भूमिका निभाई।
यह लेख उन्होंने सन् 2020 में संदर्भ समूह के साथ साझा किया था।
सभी फोटो: कालू राम शर्मा।