उमा सुधीर

मैं बच्चों और शिक्षकों, दोनों के साथ विज्ञान की कुछ बुनियादी अवधारणाओं पर काम करने के अपने अनुभव साझा करना चाहूँगी। और यह लेख मुख्य रूप से इस बारे में है कि हम विज्ञान पढ़ाते वक्त किस तरह की भाषा का उपयोग करते हैं। मुझे यकीन है कि गणित और सामाजिक विज्ञान पढ़ाते हुए भी यही दिक्कतें उभरेंगी, लेकिन मैं उनके बारे में अपने प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर कुछ नहीं कह सकती। और यह लेख खास तौर से हिन्दी के बारे में है क्योंकि मेरा काम हिन्दी-भाषी क्षेत्र में रहा है। हो सकता है कि ऐसी समस्याओं पर देश-भर में बातचीत हो रही है, लेकिन, एक बार फिर, मैं हिन्दी के उपयोग या दुरुपयोग को लेकर चिन्ता साझा करना चाहती हूँ।

लोकप्रिय लेखन बनाम पाठ्यपुस्तकें
शुरू करती हूँ यहाँ से कि मैंने हिन्दी में आलेख पढ़ना शुरू कैसे किया था। मैं दक्षिण भारतीय हूँ और अँग्रेज़ी माध्यम से पढ़ी हूँ, तो जब तक मैं एकलव्य से नहीं जुड़ी थी, किसी भी अन्य भाषा के तकनीकी शब्दों से मेरा परिचय शून्य था। हिन्दी की ओर मेरे कदमों में एकलव्य के प्रकाशनों ने बहुत मदद दी क्योंकि उनमें जिस भाषा का उपयोग किया गया है, वह बहुत दोस्ताना है। और फिर आईं पाठ्यपुस्तकें – बाप रे! न सिर्फ वे उन जगहों पर भी पारिभाषिक शब्दों का उपयोग करती हैं जहाँ परिचित व सरल शब्द उपलब्ध हैं, बल्कि उनकी लेखन शैली भी रूखी और औपचारिक होती है। मुझे याद है कि मैं ‘क्वथनांक’ (जो स्वर-व्यंजन विश्लेषण के आधार पर ccvccvcc है) शब्द पर अटक गई थी। ऐसा नहीं है कि विभिन्न भाषाओं में व्यंजनों की ऐसी लड़ियाँ नहीं होतीं किन्तु यह शब्द न सिर्फ दुष्कर था बल्कि व्यंजनों का एक ऐसा संयोजन था कि ज़ुबान लड़खड़ा जाए। यह शब्द बॉइलिंग पॉइन्ट या उबलने के तापमान के लिए था। कई व्यंजनों के ऐसे समूह मुझे हर बार परास्त करते रहे और मैं सोचती रही कि कक्षा 6 व 7 में हम ‘उबलने का तापमान’ शब्द का उपयोग क्यों नहीं कर सकते और सटीक शब्द बाद में कभी जोड़ दें?
जैसा कि पहले कहा गया, कठिनाई सिर्फ तकनीकी शब्दों की नहीं है, आम वाक्यों में भी ऐसे शब्दों का उपयोग किया जाता है जो आम तौर पर इस्तेमाल नहीं किए जाते। और इस वजह से छात्रों के लिए इबारत को पढ़ना और समझना मुश्किल हो जाता है।

छात्र कुछ सीख कैसे पाएँगे?
यह बात मन में आती है क्योंकि नीतिगत दस्तावेज़ों में हमेशा मातृभाषा यानी परिचित भाषा के उपयोग पर ज़ोर दिया गया है। NCF 2005 के भाषा सम्बन्धी अनुच्छेद (पृष्ठ 36) में:
“भाषाएँ स्मृतियों और संकेतों का भण्डार भी उपलब्ध कराती हैं, जो अपने हमज़ुबान लोगों से विरासत में मिलता है और अपने जीवन काल में निर्मित किया जाता है। भाषाएँ वे माध्यम भी हैं जिनके ज़रिए अधिकांश ज्ञान का निर्माण होता है, इसलिए वे व्यक्ति के विचारों और पहचान से नज़दीकी से जुड़ी होती हैं। दरअसल, वे पहचान के साथ इतनी करीब से बँधी होती हैं कि किसी बच्चे की मातृभाषा को नकारना या खत्म करना उसके स्व के एहसास के साथ खिलवाड़ करने के बराबर है।”
ज़रा सोचिए, इन बच्चों के साथ कैसी हिंसा हो रही है। स्थिति और भी संगीन हो जाती है क्योंकि इनमें से अधिकांश बच्चे ‘मानक हिंदी भाषी’ नहीं हैं बल्कि छत्तीसगढ़ी तथा हल्बी, बैगानी, भूलिया, कलंग, सरगुजिया भाषी हैं।

छात्रों को हिन्दी के पारिभाषिक तकनीकी शब्दों से परिचित कराने के लिए मिडिल स्कूल में ही ऐसे शब्द शामिल करने के प्रयास भी सफल नहीं रहे हैं क्योंकि कॉलेज शिक्षकों ने मुझे बताया है कि उनके छात्र जवाब तो हिन्दी में लिखते हैं लेकिन अँग्रेज़ी तकनीकी शब्दों का उपयोग करते हैं। मसलन, वे प्रकाश संश्लेषण नहीं बल्कि फोटोसिन्थेसिस शब्द का उपयोग करेंगे।


सहज भाषा क्यों नहीं?
जैसे-जैसे हिन्दी से मेरा सम्पर्क बढ़ा, मैं इस अन्तर को समझने लगी। पाठ्यपुस्तकें ऐसी किसी भी चीज़ के उपयोग से कतराती हैं जो शुद्ध हिन्दी न हो, जिसे मैं ‘शुद्ध शाकाहारी हिन्दी’ कहने लगी हूँ। तो, किसी भी हिन्दी-भाषी प्रान्त में जाइए और अखबार पढ़िए, आपको ‘कोशिश’ जैसे शब्द पढ़ने को मिलेंगे, लेकिन क्या ऐसे शब्द पाठ्य पुस्तकों में मिलेंगे? कदापि नहीं! क्योंकि ‘कोशिश’ को हिन्दी नहीं, उर्दू माना जाता है। अर्थात जो शब्द किसी क्षेत्र के लोगों की ज़ुबान पर सहजता से आते हैं, वे उन लोगों को बिलकुल नहीं सुहाते जो पाठ्यपुस्तकों को मंज़ूरी देते हैं और इसी बिला पर तय करते हैं कि उन्हें कैसे लिखा जाएगा।

तकनीकी शब्दों की समस्या

मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि मूल अँग्रेज़ी-भाषियों को भी यही दिक्कत होती है। एक बार एक पुर्तगाली पोस्ट-डॉक छात्र मेरी मेहमान रही थी जो पुर्तगाल में स्नातकोत्तर शिक्षा के बाद पीएच.ड़ी. के लिए इंग्लैंड गई थी। उसने मुझे बताया कि उसे अँग्रेज़ी में तकनीकी शब्दों से कोई दिक्कत नहीं होती क्योंकि ऐसे अधिकांश शब्द यूनानी और लैटिन मूल के हैं (जैसे हिन्दी में वैज्ञानिक शब्द संस्कृत मूल के होते हैं), जो उसकी मातृभाषा के करीब हैं। उसने आगे बताया कि अँग्रेज़ी-भाषी छात्रों को यही तकनीकी शब्द अपरिचित और भारी-भरकम लगते हैं। मेरे लिए, सारे अँग्रेज़ी शब्द ‘विदेशी’  हैं जिन्हें सीखना पड़ता है। विज्ञान के शब्दों का मूल लैटिन और यूनानी होने की बात इसी हद तक महत्व रखती है कि इससे उनके उच्चारण का सुराग मिलता है (उदाहरण के लिए ‘chiral’  यूनानी से निकला है, इसलिए शुरुआती ध्वनि ‘च' नहीं बल्कि ‘क' होगी)।


  यह चीज़ लोगों को दूर करती है और उन्हें यह सोचने को मजबूर करती है कि पाठ्यपुस्तकों में जो बातें लिखी हैं वे रोज़मर्रा के जीवन से अलग हैं। यह बात मेरे एक पसन्दीदा उपाख्यान से उभरी है जिसका सम्बन्ध इस बात से है कि शब्दों में हमारी सोच को बदलने की ताकत होती है। तो हम पानी जैसी एक साधारण-सी चीज़ पर बात करते हैं। आप कहीं भी जाइए लोग (अपने वाक्य में अलग-अलग स्तर का सम्मान घोलकर) आपसे पूछेंगे, “पानी पीओगे?” लेकिन पाठ्यपुस्तकों में (और मैं फिर से दोहरा दूँ कि मैं सिर्फ विज्ञान पाठ्यपुस्तकों की बात कर रही हूँ) लगातार ‘जल’ शब्द का उपयोग किया जाता है। हम शिक्षकों की एक कार्यशाला में थे जहाँ शुद्ध पदार्थों और मिश्रणों की बात कर रहे थे (जो रसायन शास्त्रियों के लिए महत्वपूर्ण भेद है), और हम इस बात पर चर्चा करना चाहते थे कि पानी एक शुद्ध पदार्थ है या नहीं। शिक्षकों के बीच आम सहमति बनी कि पानी में आम तौर पर ऑक्सीजन व अन्य गैसें घुली होती हैं और साथ में तमाम किस्म के लवण और (छि:!) सूक्ष्म जीव होते हैं। तो हमने पूछा कि “लेकिन क्या पानी शुद्ध रूप में मिल सकता है?” इससे गर्मागरम बहस छिड़ गई कि लवणों, गैसों वगैरह को कैसे हटाया जा सकता है। लेकिन यह सब अचानक थम गया, जब एक शिक्षक ने खड़े होकर घोषणा की – “अगर वह शुद्ध है तो पानी नहीं है, वह जल है!!!” अर्थात जल की वही ‘पवित्रता’ है जो पानी के सूत्र ‘H2O’ की है।

सरल भाषा सीखने के लिए ज़रूरी
विज्ञान पढ़ाते हुए छात्रों को हम ऐसी अवधारणाएँ सिखाने की कोशिश करते हैं जो मुश्किल तथा प्राय: सहज-बोध के विपरीत होती हैं। ऐसे में हम ऐसे शब्दों का उपयोग करके इसे और मुश्किल बनाने पर क्यों अड़े रहते हैं, जिनका उपयोग छात्र कक्षा के बाहर कभी नहीं करेंगे? मैंने यह सब अँग्रेज़ी में पढ़ा था और मुझे सिर्फ अवधारणाओं से जूझना पड़ा था क्योंकि मैं खूब पढ़ती थी, इसलिए भाषा कभी बाधा नहीं बनी। लेकिन मैं समझ सकती हूँ कि इन पाठ्य-पुस्तकों के अँग्रेज़ी संस्करण भी इतने ही दुरूह होंगे। इसका कारण विचित्र है।
NCF 2005 और इसके आधार पर  पाठ्य पुस्तकों को बनाने में जो काम हुआ, उसमें संवाद की अजीब-सी दूरियाँ थीं। सिर्फ विषयों के बीच नहीं, बल्कि विभिन्न कक्षाओं के लिए एक ही विषय पर काम करने वाले लोगों के बीच (वह एक अलग कहानी है)। लेकिन तथ्य यह था कि अलग-अलग विषय के लोग अपने-अपने स्वतंत्र महलों में काम कर रहे थे, जिसका मतलब यह रहा कि जो लोग भाषा के लिए मानकों की चर्चाएँ कर रहे थे, वे गणित, विज्ञान या सामाजिक विज्ञान में काम कर रहे लोगों से वार्तालाप नहीं कर रहे थे। तो किसी भी कक्षा की पाठ्यपुस्तक उठा लीजिए, अँग्रेज़ी और हिन्दी की पाठ्यपुस्तकें जिस स्तर की भाषाई दक्षता की मांग करती हैं, वह गणित, विज्ञान और सामाजिक विज्ञान की पुस्तकों में इस्तेमाल की गई भाषा (और अपेक्षा) से एकदम अलग है।

यकीनन, आप किसी भाषा में दक्षता मात्र भाषा की निर्धारित पाठ्य-पुस्तक पढ़कर हासिल नहीं करते। जैसा कि NCF 2005 में पृष्ठ 38 पर कहा गया है: “भाषा का शिक्षण मात्र भाषा की कक्षा तक सीमित नहीं होता। विज्ञान, सामाजिक विज्ञान या गणित की कक्षा भी वस्तुत: भाषा की कक्षा होती है। विषय सीखने का मतलब होता है तकनीकी शब्दावली सीखना, अवधारणाओं को समझना, और उनके बारे में आलोचनात्मक ढंग से चर्चा कर पाना और लिख पाना।”
लेकिन आपको किसी अवधारणा को पहले अपने दिमाग में निर्मित करना पड़ता है, उसके साथ ‘सही’ शब्दों को जोड़ना तो बाद में आता है। और यदि छात्र यही न समझ पाएँ कि चल क्या रहा है तो ज्ञान का यह निर्माण बाधित ही हो सकता है।

निष्कर्ष
मेरा दृढ़ विश्वास है कि जितने विविध विषय आप पढ़ते हैं, आप उतने ही अधिक शब्दों के सम्पर्क में आते हैं और उन्हें इस्तेमाल करना सीखते हैं। विज्ञान की कक्षा में भी आप नए-नए शब्द और उनका उपयोग करना सीखते हैं। लेकिन यदि पाठ्य पुस्तक समझ से परे होगी, तो आप कुछ नहीं सीखेंगे – न शब्द, न अवधारणा। हमें उस तरह के लेखन की कोशिश करनी चाहिए जो लोकप्रिय (सर्व-सुलभ) विज्ञान लेखन में होता है, जहाँ बातें ऐसी भाषा में समझायी जाती हैं जिन्हें एक आम नागरिक समझ सके। ऐसा होगा तो शायद हमारे बच्चे विज्ञान व अन्य विषयों में भी आगे बढ़ सकेंगे।


उमा सुधीर: एकलव्य के साथ जुड़ी हैं। विज्ञान शिक्षण के क्षेत्र में काम कर रही हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
यह लेख अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी द्वारा प्रकाशित पत्रिका Language and Language Teaching, vol. 6 (2) अंक 12, जुलाई 2017 से लिया गया है।
संदर्भ
1. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, कक्षा 6, एस.सी.ई.आर.टी. छत्तीसगढ़
2. एन.सी.ई.आर.टी. (2005)। नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क, नई दिल्ली: एन.सी.ई.आर.टी.