अश्विन साई नारायण सेशासायी

फायलोजेनेटिक्स वर्तमान जीवों के जीनोमों की तुलना करता है जिससे उनके अनुवांशिक इतिहास का पुनर्निर्माण किया जा सके और मनुष्यों पर उनके प्रभाव को समझा जा सके। यह वैसा ही है जैसे हम समान या भिन्न मूल खोजने के लिए भाषाओं की तुलना करते हैं।

हम आज एक ऐसे काल में रह रहे हैं जहाँ जीवविज्ञान समेत सभी कुछ बिग  डाटा  है।  जीवविज्ञान  में जीनोमिक्स बिग डाटा विज्ञान की सबसे प्रमुख शाखा है। जीनोमिक्स, जीव की सम्पूर्ण अनुवांशिक सामग्री को पढ़ पाने का विज्ञान है। इससे बीमारियों/रोगों के प्रति हमारी कमज़ोरी (predisposition) की भविष्यवाणी सम्भव बनी है, परिष्कृत दवाइयों के लिए टारगेट तय कर पाए हैं और कुछ हद तक खानपान के बारे में कुछ कह सकते हैं। इतना ही नहीं, प्राचीन इतिहास की खोज के शास्त्रागार में एक और नया तरीका जुड़ गया है। जी हाँ, प्राचीन इतिहास।

शुरुआती कदम
1970 के दशक का सबसे पहला पूर्ण जीनोम बैक्टीरियोफागे डिकोड किया गया, और उसके बाद से जीनोमिक्स के माध्यम से मानव जीनोम को लिपिबद्ध कर पाने तक के महत्वपूर्ण कदम उठाए गए। यह एक ऐसी परियोजना थी जिसमें सैकड़ों वैज्ञानिकों ने पन्द्रह वर्ष तक निरन्तर परिश्रम किया। इस परियोजना के साथ-साथ बैक्टीरिया, कवक, मक्खियों और चूहों सहित अन्य सभी प्रकार के जीवों के जीनोम को अनुक्रमित (sequence) किया गया।

इस खोज के दौरान यह भी स्पष्ट हो गया कि केवल एक जीनोम अनुक्रम, जीवविज्ञान की समझ एवं अन्य जीवों के अनुवांशिक अनुक्रमों के ज्ञान की अनुपस्थिति में, बिलकुल भी उपयोगी नहीं है। लेकिन इस मिश्रण में अगर अन्य जीवों का अनुवांशिक डाटा जोड़ दिया जाए तो जीनोम अनुक्रम एक जादू की छड़ी में तब्दील हो जाता है। वह क्षेत्र जो कई जीनोम अनुक्रमों का विश्लेषण और व्याख्या करने की ताकत को सबसे अच्छी तरह से दर्शाता है, वह फायलोजेनेटिक्स है। विभिन्न जीनोम की तुलना की जाती है ताकि जैव-विकास के सिद्धान्तों का उपयोग करके पूर्वजों और उनकी उत्पत्ति का पता लगाया जा सके।

विकास का एक मूलभूत सिद्धान्त है कि पृथ्वी पर जीवन का ‘जेनेटिक पूल’ अक्सर समय के साथ बदलने वाली परिस्थितियों के कारण बदलता रहता है। यह जीनोम में परिलक्षित होता है। एक उदाहरण जिसको हमेशा उद्धृत किया जाता है वह फ्लू विषाणु का तेज़ी-से उत्परिवर्तन है: यह इतनी तेज़ी-से बदलता है कि इस वायरस के खिलाफ टीकाकरण का असर भी सिर्फ मौसमी ही हो सकता है। साल-दर-साल, इन वायरस के जीनोम इस बदलाव को दर्शाते हैं। इसी तरह, मनुष्यों के बीच भिन्नता, या फिर, मनुष्यों और चिम्पांज़ियों के बीच भिन्नता उनके जीनोम में भी दिखाई देती है।

तुलना से ज्ञान
फायलोजेनेटिक्स में अक्सर वर्तमान जीवों के बीच सम्बन्धों को जानने के लिए डीएनए या जीनोम अनुक्रमों की तुलना करते हैं और इससे वे उनके वंश का पुनर्निर्माण करने यानी पूर्वजों का पता लगाने का भी प्रयास करते हैं। यह भाषाओं की तुलना करने और उनके बीच समान या भिन्न मूल खोजने जैसा ही है। एक महत्वपूर्ण अन्तर जो डीएनए लिपि को आसान बनाता है, वह यह है कि जीवन के सभी ज्ञात रूपों के लिए जीनोम डीएनए की भाषा केवल चार अक्षरों तक सीमित है। वंश पुनर्निर्माण की हमारी क्षमता तब और बेहतर हो जाती है जब उन जीवों की तुलना की जा रही हो जिनका सम्बन्ध एक-दूसरे से काफी करीब हो। जैसे-जैसे दो तुलनात्मक  जीनोम  के  बीच विकासमूलक  दूरी  बढ़ती  है, परिणामस्वरूप परमाणु घटनाएँ जिनसे फर्क पैदा हुए, धुँधली पड़ने लगती हैं और उनके बीच सटीक सम्बन्ध खोजना मुश्किल हो जाता है। और इसी के साथ पूर्वजों की अनुवांशिक संरचना का पता लगाना भी मुश्किल होता जाता है।

चित्र 1 : नियंडरथल और वर्तमान मानव के सर की संरचनात्मक तुलना।

ऐतिहासिक खोज
हालिया दिनों में, नई तकनीकों और प्रौद्योगिक विकास ने न केवल बड़ी संख्या में जीवों के जीनोमों को तेज़ी और किफायत से लिपिबद्ध करने की सम्भावनाएँ पैदा कर दी हैं, बल्कि हमें लम्बे समय से लुप्त हो चुके जीवों के जीवाश्मों और अन्य अवशेषों से अनुवांशिक सामग्री को खोद निकालने (शाब्दिक अर्थ में भी!) को भी सम्भव बना दिया है। दूसरे शब्दों में, अब हमारे पास लम्बे समय से लुप्त हो चुके कुछ पूर्वजों के डीएनए को सीधे लिपिबद्ध करने का साधन भी उपलब्ध है। उदाहरण के लिए, कुछ साल पहले वैज्ञानिकों ने निएंडरथल महिला के 38,000 वर्ष पुराने अवशेषों के जीनोम को लिपिबद्ध किया था। मनुष्यों के साथ निएंडरथल के इस जीनोम की तुलना करने पर, मानव के यूरेशिया प्रवासन  से  पहले,  मनुष्यों  और निएंडरथल के बीच मेलजोल एवं प्रजनन के सबूत मिले। इस प्रकार यह पता चला कि निएंडरथल ने आधुनिक मनुष्यों की अनुवांशिक बनावट में योगदान दिया है। यह दूरस्थ अतीत का अध्ययन करने में लिपिबद्ध डीएनए जीनोम के इस्तेमाल का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण उदाहरण है।

इतिहास एक अस्पष्ट विषय है। मनुष्य कभी अकेले नहीं रहते थे। वे न केवल जानवरों और पौधों के बीच पनपे हैं बल्कि सदैव सूक्ष्मजीवन के विशाल सर्वव्यापी फैलाव के बीच रहे हैं। ये अदृश्य छिपे हुए खिलाड़ी भी अक्सर इतिहास की दिशा को बदलते रहे हैं। हम जानते ही हैं कि सूक्ष्मजीवन के बिना जिस स्वरूप में हम मानव जीवन को जानते हैं वह मुमकिन नहीं है, परन्तु साथ ही सूक्ष्मजीव के कारण होने वाली संक्रामक बीमारियों की बहुलता ने इतिहास की दिशा को अपरिवर्तनीय रूप से बदला है। इन्हें दो पुस्तकों में बहुत ही सुन्दरता से प्रस्तुत किया गया है: विलियम मैकनील की Plagues and People (एंकर बुक्स) और इरविन शेरमेन की  Twelve Diseases that changed our world (एएसएम प्रेस)।

महामारी और इतिहास
मानव इतिहास पर बीमारी के अविश्वसनीय प्रभाव का सबसे प्रमुख उदाहरण शायद वह चेचक महामारी है जिसने बहुत सारे एज़्टेक योद्धाओं को मार दिया था। ये वही एज़्टेक योद्धा थे जिन्होंने पूर्व में स्पेनिश विजेताओं के हमलों को विफल कर दिया था। दक्षिण अमेरिकी लोगों की प्रतिरक्षात्मक कमज़ोरी के परिणामस्वरूप यह संक्रमण काफी तेज़ी-से फैला जिसने अन्तत: लगभग एक-चौथाई से अधिक आबादी का सफाया कर दिया। मैकनेल द्वारा   चिन्हित   महामारी   का ‘मनोवैज्ञानिक निहितार्थ’, जिसने स्पेनिश आक्रमणकारियों को छोड़कर स्वयं के लोगों को मार डाला, ‘विचार करने लायक’ है। यह केवल ‘अलौकिक शक्ति’ और ‘उन देवताओं की श्रेष्ठ शक्ति जिसे स्पेनिश पूजते थे’ द्वारा समझा जा सकता था। हो सकता है, इसके फलस्वरूप दक्षिण अमेरिकियों के बीच ईसाई धर्म की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ हो!

चित्र 2: यार्सिनिया  पेस्टिस चित्र 3: स्लाइड में लगाया हुआ ओरिएंटल रैट फ्ली जो यार्सिनिया  पेस्टिस से संक्रमित है।

दूसरी विकराल महामारी प्लेग संक्रमण के रूप में सामने आई जिसने शायद ईसाई धर्म के उस स्वरूप की गति को कम किया जो यूरोप को अन्धकार युग (Dark Ages) की ओर ढकेल रहा था। ‘ब्लैक-डेथ’ नाम से जाने गए इस प्लेग संक्रमण ने 14वीं शताब्दी में यूरोप को तबाह कर दिया और जनसंख्या रजिस्टर से लाखों लोगों का नाम साफ कर दिया। प्लेग पीड़ितों का अन्तिम संस्कार करने वाले कई पादरी भी इस बीमारी से बच न सके, जिससे एक ‘दुष्ट’ संक्रमण से लड़ने में अक्षम उनकी धार्मिक शक्ति पर व्यापक सन्देह पैदा होना स्वाभाविक था।

ऐसा माना जाता है कि अभी तक विश्व में कम-से-कम तीन बड़ी प्लेग महामारी हुई हैं (अगर महामारी के वैश्विक प्रभाव को देखा जाए)। महामारी का  सबसे  पहला  प्रकोप  सम्राट जस्टिनियन के शासन के दौरान छठी शताब्दी में पूर्वी रोमन साम्राज्य पर हुआ। दूसरा ब्लैक-डेथ के रूप में, और तीसरा सम्भवत: चीनी मूल का रहा जो 19वीं-20वीं सदी के दौरान सामने आया। 18वीं शताब्दी तक यूरोप में स्थानीय प्लेग महामारी के कई मामले सामने आते रहे। भारत में भी सन् 1994 में प्लेग का प्रकोप लगभग दो हफ्ते तक अनियंत्रित रहा और सूरत से लाखों लोग विस्थापित हुए।

आज हम जानते हैं कि प्लेग बैक्टीरियम यर्सिनिया पेस्टिस के कारण होने वाली एक बीमारी है। यह बैक्टीरिया कृन्तक (चूहे आदि रोडेन्ट्स) को संक्रमित करता है और रक्त पिस्सुओं द्वारा अन्य कृन्तकों और मनुष्यों के बीच संचारित होता है। वास्तव में, लुइस पाश्चर एवं रॉबर्ट कोच द्वारा बीमारी के कारण और उसके फैलने के माध्यम  पर  कार्य,  संक्रामक  रोग जीवविज्ञान के इतिहास की आधारशिला है। आज जीनोमिक्स के आगमन की वजह से प्लेग बैक्टीरिया के अनुवांशिक पूर्वजों की एक रुचिकर कहानी हमारे सामने खुल रही है, जिससे पहली दो महान प्लेग महामारियों से इसका सम्बन्ध समझ में आ रहा है।

प्लेग का पूर्वज
2011 में कर्स्टन बोस एवं सहकर्मियों ने ब्लैक-डेथ के शिकार चार पीड़ितों को खोद निकालकर यर्सिनिया पेस्टिस के जीनोम का पता लगाया। वर्तमान में मौजूद बैक्टीरिया के डीएनए की इस ऐतिहासिक जीनोम से तुलना करने पर शोधकर्ताओं को चौंकाने वाले परिणाम मिले। 14वीं शताब्दी की ब्लैक-डेथ के कारक और यर्सिनिया पेस्टिस के मौजूदा जीवाणु की 45 लाख अक्षरों लम्बी डीएनए लड़ी में केवल 100 अक्षर का ही फर्क था। इससे यह स्पष्ट होता है कि ब्लैक-डेथ का कारक जीवाणु  ही,  आज  मौजूदा  प्लेग बैक्टीरिया का पूर्वज रहा होगा।

बॉस द्वारा कार्य जारी रखते हुए यूरोपीय महामारी के आगे के दौर में उत्पन्न प्लेग बैक्टीरिया का जीनोम ढूँढ़  निकालने  से  पता  चला  कि यर्सिनिया पेस्टिस जिसके कारण यूरोप में ब्लैक-डेथ फैला, एशिया में फैलने के बाद अन्तत: हमारे महाद्वीप में महामारी का कारण बना। लेकिन आखिरकार जस्टिनियन रोमन साम्राज्य में फैला प्लेग बैक्टीरिया कौन-सा था? हेनरिक पोइनर, जो बॉस के सबसे पहले अध्ययन में शामिल थे, और उनके सहयोगियों ने पता लगाया कि यह कारक ब्लैक-डेथ के कारक से अलग था और ऐसी आशंका है कि यह या तो विलुप्त हो चुका है या मौजूदा आबादी में इसका कोई नमूना नहीं बचा है।

आज के समय में देखा जाए तो, तेज़ी-से जीनोम को पता कर पाने वाली तकनीकों के चलते हम वर्तमान में फैल रही महामारियों की उत्पत्ति (origin) का पता लगा पाते हैं। और कई बार तो यह इतनी तत्परता से हो पाता है कि उससे महामारी रोकने से सम्बन्धित बचाव-कार्य में मदद मिल पाए। जैसे-जैसे डीएनए जीनोम पता करने का कार्य सस्ता और अधिक सुलभ होता जा रहा है, वो दिन भी दूर नहीं जब एक ‘जीनोम अनुक्रमक टेस्ट’  देश  की  मान्य  पैथोलॉजी प्रयोगशालाओं की टूलकिट का हिस्सा होगा।


अश्विन साई नारायण सेशासायी: नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसिज़, बेंगलु डिग्री में जीवाणु जीवविज्ञान शोध करने वाली एक प्रयोगशाला चलाते हैं। विज्ञान से परे, उनकी रुचि शास्त्रीय कला, संगीत और इतिहास में है।

अँग्रेज़ी से प्राथमिक अनुवाद: ज़ुबौर सिद्दकी: स्रोत पत्रिका से सम्बद्ध हैं।