रुबीना खान

अक्सर यह कहा जाता है कि स्कूल और घर वे जगह हैं जहाँ बच्चे सबसे ज़्यादा सीखते हैं। पढ़ाई-लिखाई, लेन-देन, लोक-व्यवहार और ज़िन्दगी के तौर-तरीके सिखाने वाली जगहों के रूप में भी इन्हीं संस्थाओं का परचम लहराता है। इसके परे, स्कूल नहीं जाने वाले या कभी-कभी स्कूल जाने वाले जो कामकाजी बच्चे घूमते-फिरते दिखते हैं, उनके बारे में लोगों की यही राय रहती है कि ये कहाँ कुछ सीखते होंगे। इन्हें तो एक जगह बैठने की आदत भी नहीं, फिर ये कैसे सब बातें दिमाग में रख पाते होंगे।

दरअसल, हमारे काम, हुनर और लोगों के साथ व्यवहार में हमारे परिवेश की झलक मिलती है। इस बात को मैंने तब और करीब से महसूस किया जब मैंने ऐसे ही कामकाजी बच्चों को पढ़ाने का काम शुरू किया था। मैंने देखा कि कुछ बच्चों का हिसाब-किताब, बातचीत का तरीका अन्य से काफी अलग है। जब थोड़ी पड़ताल की तो समझ आया कि उनके इस अलग हुनर के पीछे उनकी बस्ती के पास लगने वाले साप्ताहिक बाज़ार की बहुत अहम भूमिका है। बापूनगर ऐसी ही एक बस्ती है, जहाँ बच्चों ने अगर सबसे ज़्यादा कहीं से सीखा है तो वो है उस बस्ती में लगने वाला साप्ताहिक बाज़ार। इन बच्चों द्वारा अलग-अलग समय के कई अनुभव मुझे कक्षा के दौरान सुनने को मिले।

बस्ती का परिचय
यह बस्ती भोपाल में नेहरू नगर और मैनिट चौराहे के बीच कमला नगर थाने से लगी है, जिसमें अगरिया झारा समुदाय के लोग लगभग 35 वर्षों से निवास कर रहे हैं। इसके आसपास बड़ी-बड़ी दुकानें, इमारतें बनी हैं जिनकी ऊँचाई से पूरी बस्ती को देखा जा सकता है। ये लोग पेशे से लोहार हैं और लोहे से जुड़ा काम करते आए हैं। ये मुख्य रूप से झारा, छन्नी, चाकूू बनाते हैं। समुदाय के कुछ लोग वेल्डिंग का काम करते हैं, तो कुछ अपने दो पहिया वाहन में वेल्डिंग मशीन रखकर फेरी लगाते हुए काम की तलाश करते हैं। इस समुदाय की महिलाएँ बारिश के समय वन विहार में घास काटने का काम करती हैं। इसके अलावा धान, गेहूँ, सोयाबीन, प्याज़ आदि की कटाई का काम भी करने जाती हैं। इस बस्ती के बारे में खास बात यह है कि पिछले 35 सालों से यहाँ बसी होने के बावजूद आज भी गंदा पानी बहने की नालियों के अन्दर ही पाइप लगे हैं जिनसे पीने का पानी आता है। इस तरह पीने से पहले ही वो पानी दूषित हो जाता है। मॉनसून के महीनों में थोड़ी-सी ज़्यादा बारिश ही तरह-तरह की मुश्किलें पैदा कर देती है।

बस्ती में बाज़ार
बस्ती से आगे की तरफ खाली जगह है। यही वह जगह है जहाँ पर बच्चे खेलते हैं, समुदाय के लोग बैठते हैं और समुदाय से जुड़े विभिन्न कार्यक्रम करते हैं। इसी जगह पर हरेक बुधवार को मछली एवं मुर्गा बाज़ार लगता है। मुख्य सड़क जो बस्ती के सामने से होकर गुज़रती है वहाँ पर बाकी का बाज़ार लगता है जिसमें फल-सब्ज़ी, कपड़े, बर्तन आदि ज़रूरत का सामान बिकता है। हर बुधवार यह नज़ारा देखने को मिल जाता है। इस दिन सुबह से ही बस्ती और उसके आसपास चहल-पहल दिखने लगती है। ठेलों, लोडिंग ऑटो आदि में सुबह से सामान आना शुरू हो जाता है। सामान को छाँटने, जमाने का काम भी साथ-साथ शुरू हो जाता है।

बाज़ार और कमाई
बस्ती के अधिकांश बच्चे बाहर काम करने नहीं जाते क्योंकि उनके माता-पिता, दोनों ही काम पर जाते हैं। तब घर, परिवार और घर के पालतू जानवरों की ज़िम्मेदारी इन बच्चों पर आ जाती है। लेकिन बुधवार बाज़ार उन्हें सप्ताह में एक दिन पैसे कमाने का मौका देता है। तकरीबन 6 से 12 वर्ष की उम्र के बच्चे जिनमें लड़का-लड़की, दोनों ही शामिल हैं मछली एवं सब्ज़ी बेचने वालों को नलों से कुप्पी में पानी भरकर लाकर देते हैं। बच्चों को एक कुप्पी के 5 से 7 रुपए मिल जाते हैं। दुकानदारों के आने से पहले ही बच्चे कुप्पियाँ भरकर घरों के बाहर रख लेते हैं। फिर जल्दी-जल्दी दुकानों पर देने का काम करते हैं। इसके बाद दुकानदारों के साथ सामान जमाने का काम भी ये आसानी-से और सुरक्षित रूप से कर पाते हैं। बच्चे यह जानते हैं कि एक काम खत्म करके उन्हें दूसरे काम पर कहाँ लगना है। यह वोे जगह है जहाँ दुकानदार बच्चों के ग्राहक हैं।

कई सालों से यह सिलसिला चला आ रहा है। बाज़ार से एक दिन में बच्चे 100 से 150 रुपए तक कमा लेते हैं। सावन में जंगल से बेलपत्ती लाकर बेचना और तोरण आदि सामान की अपनी छोटी दुकानेें भी बच्चे इस बाज़ार में लगाते हैं। यहाँ बच्चे हिसाब-किताब के साथ ही तत्परता से काम करना भी सीख रहे होते हैं। 12 बरस का समीर 5 साल पहले से बाज़ार में काम कर रहा है। वह कहता है, “मैंने बाज़ार से काम-धन्धा सीखा है। मैं बाज़ार के दिन के अलावा भी कहीं-न-कहीं कुछ काम तलाश कर लेता हूँ। जैसे मम्मी के हाथ से बने कण्डे लोगों को 5-10 रुपए में बेच देता हूँ, साइकिल ठीक कर लेता हूँ, घर से आलू, बेर उबालकर बस्ती में बच्चों को बेच देता हूँ।” समीर के इस आत्मविश्वास और लोगों के साथ बातचीत में बाज़ार से उसका सीखा हुआ हुनर साफ तौर पर दिखाई देता है।

बाज़ार और बच्चों का रिश्ता
आपस में लगातार मिलने   से   कई दुकानदारों और बच्चों के  बीच  दोस्ती  का रिश्ता कायम हुआ है। वे बच्चों को उनके नामों से बुलाते हैं, न कि ‘छोटू’  या  ‘ओए’ कहकर। यह बात बच्चों को खुशी देती है। यह रिश्ता सिर्फ बाज़ार तक ही सीमित न होकर, बाहर तक भी जा पाया है। बाज़ार के बाहर भी वे एक-दूसरे से मिलते हैं और बातचीत करते हैं। दुकानदार इस बात का भी ख्याल रखते हैं कि बच्चे ज़्यादा परेशान न हों। कई बार वे उन्हें कुछ खाने-पीने को भी दे देते हैं। बच्चों में नए रिश्ते बनाने के साथ ही, ताल-मेल बैठाने की आदत भी यहाँ से आती है जिसे वे अपने व्यक्तिगत जीवन में भी आत्मसात कर रहे होते हैं। कक्षा में उनका अन्य समुदाय के बच्चों से दोस्ती करना और अनजान व्यक्ति की मदद के लिए आगे आना जैसी बातों में उनके इस हुनर को देखा जा सकता है।
यही वो दिन होता है जब बच्चे अपने दोस्तों एवं आसपास बस्तियों में रहने वाले अपने रिश्तेदारों से मिलते हैं। देर रात तक बेफिक्री से बाज़ार में घूम लेते हैं और साथ ही बाज़ार उठने के समय खरीददारी करते हैं क्योंकि उस समय उन्हें सामान कम दामों पर मिल जाता है।

कक्षा में बाज़ार और कुछ चर्चाएँ
एक दिन मैंने पुस्तकालय के समय गाँव का बच्चा नामक किताब कक्षा में  सुनाई। किताब में बने चित्र बच्चों को भा गए। वे चित्रों पर हाथ फेरकर किरदारों को महसूस कर रहे थे। यह कहानी उन्हें अपने बीच की लगी जो हर वक्त उन्हें बस्ती की याद दिला रही थी। जिस तरह कहानी में छोटे बच्चे के खो जाने पर बस्ती एवं बाज़ार के लोग उसका ख्याल रखते हैं, उसी तरह उनकी बस्ती में भी मम्मी के काम पर जाने के बाद वे किसी के घर भी आसानी-से खाना खा लेते हैं, खेल लेते हैं और कभी-कभी तो सो भी जाते हैं, ऐसा मुस्कान ने बताया।

कहानी पर बातचीत के दौरान समीर ने कहा, “क्या अपन कभी क्लास में बाज़ार लगा सकते हैं?” सबकी सहमति के साथ बच्चों ने कक्षा में बाज़ार लगाना तय किया। इस गतिविधि के लिए उन्होंने कक्षा के बाहर का हिस्सा इस्तेमाल में लिया। छोटे-से चबूतरे को सिर्फ मछली एवं मुर्गा बाज़ार के लिए इस्तेमाल किया गया। ज़मीन पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर सब्ज़ी की दुकानें लगाईं। बच्चे आसपास से फूल, पत्ती तोड़कर लाए जिन्हें सब्ज़ी की जगह इस्तेमाल में लिया गया। इसी तरह मिट्टी से मुर्गे और मछली की आकृति देकर दुकान में रखा गया। नकली नोट जो गणित की क्लास में इस्तेमाल किए जाते हैं, वे काफी काम में आए।

ज़ोर की आवाज़ों के साथ सामान बेचना शुरू किया गया। अन्य क्लास के बच्चे इनके ग्राहक बनकर आए। इन बच्चों ने उन्हें पानी देने, सामान जमाने में मदद की। बोरे के नीचे बच्चे उसी तरह पैसे रख रहे थे जैसे कि उन्होंने बाज़ार में दुकानदारों को रखते देखा था। बच्चों ने नोट और खुल्ले पैसों को अलग करके रखा। इसी तरह जिन चीज़ों को उन्होंने सब्ज़ी के रूप में इस्तेमाल किया उन्हें साफ करके सलीके से जमाया जिससे वे खराब न हों। बाज़ार उठने के समय इन नन्हें दुकानदारों ने भी दाम कम करते हुए सामान बेचा। इसके बाद बाज़ार की सफाई की गई, फिर पैसों का हिसाब हुआ। यह दिन उन्हें खुशी देने वाला दिन था जिसे बाद में याद करके वे मुस्कुराते हुए कह रहे थे, “हम अपना बाज़ार तो किसी भी दिन लगा सकते हैं।”

कक्षा से बाज़ार तक
एक दिन कक्षा में स्वयं व आसपास की सफाई को लेकर हुई चर्चा में मक्खी का खाने के सामान पर बैठना और उससे होने वाले नुकसान को लेकर बात हुई। इस पूरी चर्चा को समझते हुए संजना और राजीव ने बस्ती के बाज़ार में पहुँचकर, समोसे वाले अंकल को समोसे खुले न रखने की सलाह दी और उससे होने वाले नुकसान भी बताए। अंकल ने उनकी बात मानते हुए कहा, “लो, तुम ही जाली से समोसे ढँक दो और अगली बार कोई नई बात सीखकर आना।” राजीव और संजना जब इस बात का ज़िक्र कक्षा में कर रहे थे तो उनके चेहरों पर खुशी की झलक साफ तौर पर देखी जा सकती थी।

बस्ती में हर साल गणेशजी बैठाए जाते हैं जिसकी तैयारियों में युवाओं के साथ बच्चे भी रहते हैं। छोटे-मोटे कामों में युवा बच्चों को साथ रखते हैं जैसे चन्दा इकट्ठा करना, झाँकी की देख-रेख करना आदि। लेकिन गणेशजी खरीदने और विसर्जन में बच्चों को शामिल नहीं किया जाता। इसलिए इस साल बच्चों ने अपने गणेशजी अलग बैठाना तय किया। उन्होंने समूह में जाकर बाज़ार से पैसे इकट्ठा करना शुरू किया। पहचान होने की वजह से उन्होंने कुछ ही दिन में 3000 रुपए इकट्ठे कर लिए। इन पैसों को 11 दिन के हिसाब से बाँटकर बच्चों ने अलग किया। देखा जाए तो चन्दा इकट्ठा करना नई बात नहीं है। पर जिस उम्र के ये बच्चे हैं, उनके लिए कम वक्त में इतने पैसे इकट्ठे करना काफी विशेष है। यह सब बच्चों द्वारा बाज़ार के साथ बनाए रिश्तों के चलते सम्भव हो पाया था।

सड़क और सँकरी जगह पर बाज़ार लगने से होने वाली व्यवस्थागत मुश्किलों को देखते हुए, लम्बे वक्त से बस्ती को हटाकर वहाँ बाज़ार शिफ्ट करने की बात होती आ रही है। इसके लिए कई बार नगर निगम से लोग भी आए हैं लेकिन बस्ती के लोगों की कोशिश की वजह से ऐसा नहीं हो पाया। इस तरह की बातें जब भी बच्चे सुनते हैं, वे सहम जाते हैं। अगर ऐसा हुआ तब बच्चों से सिर्फ उनका घर ही नहीं, उनसे जुड़ा बाज़ार जो उनके सीखने की जगह है वह भी छिन जाएगा।


रुबीना खान: मुस्कान संस्था के साथ पिछले 7 वर्षों से जुड़ी हैं जिसमें से 3 साल बस्ती में रहने वाले, खासकर कामकाजी बच्चों के साथ शिक्षा पर काम किया। और अब 4 सालों से बस्ती के बच्चों और युवाओं के साथ उनकी सुरक्षा एवं अधिकारों को लेकर यूनीसेफ के माध्यम से काम कर रही हैं।

सभी फोटो: रुबीना खान।