कालू राम शर्मा

गीत गाया पत्थरों ने...
भुनसार  में  ही  कुछ  शिक्षक  और  अज़ीम  प्रेमजी  फाउण्डेशन, खरगोन के साथी बस से एक खास यात्रा के लिए रवाना हो चुके थे। उनका मकसद नर्मदा घाटी के उन पत्थरों का अध्ययन करना था जो करोड़ों बरस पहले सजीव थे और अब जीवाश्म बन चुके थे। उन्हें उलट-पलटकर शैक्षिक नज़रिए से जाँचना-परखना ही प्रमुख मकसद था। हममें से अधिकांश ने पहले कभी जीवाश्म नहीं देखे थे। नर्मदा घाटी में ये खास तरह के पत्थर, जिन्हें जीवाश्म कहते हैं, क्यों मिलते हैं? ये किसी के लिए पत्थर हैं तो किसी के लिए उद्विकास को दर्शाने वाला इतिहास जो उस इलाके और पृथ्वी पर जीवन के इतिहास की गाथा सुनाते हैं।

एक शिक्षक और शैक्षिक कार्यकर्ता के रूप में हम नर्मदा घाटी के इतिहास  को समझना चाहते थे। हमारा उद्देश्य अपने परिवेश की चीज़ों व घटनाओं को समझकर, उन्हें कक्षा शिक्षण का हिस्सा बनाना है। शिक्षा के दस्तावेज़, एनसीएफ-2005 में इस बात को तल्खी के साथ कहा गया है कि शिक्षण को सन्दर्भ से जोड़ा जाए। इसलिए एक शिक्षक के लिए यह नितान्त ज़रूरी है कि वह अपने परिवेश की चीज़ों को समझे और अपने शिक्षण के दौरान इस सन्दर्भ को छात्रों के सम्मुख रखे।  इस तरह के संसाधनों के अध्ययन के लिए छात्रों को सैर पर ले जाना भी इसी का हिस्सा है। ज़ाहिर है कि शिक्षक अगर समझेंगे तो उन्हें अपने कक्षा-शिक्षण का हिस्सा भी बना सकेंगे।  कोठारी आयोग (1964-66) में बखूबी कहा गया है कि शिक्षक को जिस प्रक्रिया से गुज़ारा जाता है उसी प्रक्रिया से वे अपने छात्रों को भी गुज़ारते हैं। कुछ यही सोच हमारी भी है कि शिक्षक साथियों के साथ इस प्रक्रिया को अपनाएँ और इस विचार को कक्षा शिक्षण का हिस्सा बनाएँ।

नर्मदा घाटी में खज़ाना
नर्मदा घाटी विविधताओं से लबरेज़ रही है। यहाँ जीव-जन्तु, कीट-पतंगे इफरात में हैं। नर्मदा नदी के प्रति यहाँ के लोगों में अपार श्रद्धा है। आखिर एक जीवन्त नदी हर किसी को जीवन्त बनाती है। नर्मदा नदी के उत्तर में विंध्याचल और दक्षिण में सतपुड़ा पर्वतमाला और दोनों पर्वत  शृंखलाओं के बीच पूर्व से पश्चिम की ओर लहरदार अन्दाज़ में बहती नर्मदा की कलकल!

विशाल वर्मा और उनके साथ दिल्ली विश्वविद्यालय के जीवाश्म विज्ञानी प्रोफेसर राघव ने शिक्षकों के साथ नर्मदा घाटी और खासकर मनावर-जिराबाद-बाग इलाके के जीवाश्मों और यहाँ के भौगोलिक व भूगर्भीय इतिहास पर रोशनी डाली। गौरतलब है कि विशाल वर्मा शिक्षक हैं जो नर्मदा घाटी में स्थित धार ज़िले के एक उच्चतर माध्यमिक स्कूल बाकानेर में भौतिकी पढ़ाते हैं। तकरीबन दो घण्टे नर्मदा घाटी के जीवाश्मों की पड़ताल और इसके विज्ञान व समाजशास्त्र पर चर्चा हुई। जीवाश्म बनने के लिए आवश्यक शर्तें क्या हो सकती हैं, इस इलाके में जीवाश्म कहाँ मिलेंगे, जीवाश्मों की कहानी क्या है, कैसे जीवाश्मों का अध्ययन करके उस समय के हालात का पता लगाया जाता है, यहाँ की मिट्टी-पत्थर क्या बयाँ करते हैं -- इन सभी सवालों के साथ ही यहाँ पर डायनोसॉर के एकछत्र राज जैसे मसलों पर चर्चा की गई। इस पर भी बात हुई कि कैसे पता चलता है कि यहाँ पर एक वक्त में मांसाहारी डायनोसॉर भी मौजूद थे। मांसाहारी व शाकाहारी डायनोसॉर के दाँतों की कहानी जीवाश्मों के ज़रिए समझने को मिली।

नर्मदा घाटी भूगर्भीय मामले में काफी उथल-पुथल वाला इलाका रहा है। कभी यहाँ समन्दर हिलोरे लेता था तो कभी यहाँ से वापस विदाई ले लेता था। नर्मदा घाटी में दो बार समन्दर ने अपनी मौजूदगी दर्ज की है। कभी यहाँ डायनोसॉर खूब पाए जाते थे। नर्मदा  घाटी  में  शाकाहारी  और मांसाहारी, दोनों तरह के डायनोसॉर जीवाश्म मिलते हैं। यहाँ कुछ इलाकों में इनकी नेस्टिंग साइट्स भी मिली हैं जहाँ एक साथ अनेक डायनोसॉर अण्डे देते थे।

जीवाश्म कैसे बनते हैं?
जब कोई मृत जीवधारी का शरीर मिट्टी में दब जाता है तो उसके शरीर के नरम भाग गल जाते हैं और कठोर भाग धीरे-धीरे करोड़ों सालों में पत्थर में बदल जाते हैं। जब ये पत्थर किसी कारण से पृथ्वी की सतह पर आ पहुँचते हैं तो उनके अध्ययन से उस जीवधारी की शरीर रचना के बारे में बहुत-सी जानकारियाँ मिल जाती हैं। जिन जन्तुओं में हड्डियाँ होती हैं उनकी हड्डियाँ आम तौर पर जीवाश्मों के रूप में मिलती हैं। इनके अलावा अण्डे, और घोंघों एवं शंखों के कवच भी जीवाश्मों के रूप में पाए जाते हैं।

जब बोरलाय, सीतापूरी और चाकरूद के आसपास घूमे तो हमें पेड़ों के जीवाश्मों की भरमार दिखी। इस इलाके में खेतों, जंगल और उजाड़ ज़मीन पर भी पेड़ों के जीवाश्म देखने को मिले। यह सवाल उठना लाज़मी है कि आखिर जीवाश्म बनते कैसे हैं। आम तौर पर पेड़-पौधे या जन्तु अगर ज़मीन में दब जाएँ या पड़े रहें तो वे सड़ जाते हैं और मिट्टी में मिल जाते हैं। मगर ऐसा क्या हुआ होगा कि करोड़ों वर्ष पहले ये ज़मीन में दब गए और जीवाश्म में बदल गए? दरअसल, इस इलाके में पाए जाने वाले जीवाश्म पेट्रिफाइड किस्म के हैं। सरल शब्दों में कहें तो जीव पत्थर बन गए।

पेट्रिफाइड जीवाश्म में हमें उस जीव या पेड़ की बाहरी आकृति या उसका स्वरूप वैसा-का-वैसा ही दिखाई देता है। मसलन, पेड़ के तने का टुकड़ा हमें वैसा ही आभास देता है जैसा कि वह अपने मूल स्वरूप में रहा होगा। इस तरह के जीवाश्मों में हमें कई संरचनाएँ भी साफ तौर पर दिखाई देती हैं। जैसे कि तने के टुकड़े में हम सन्धियाँ यानी कि नोड्स आसानी-से देख सकते हैं। तने पर हमें छाल दिखाई देती है। इतना ही नहीं, यहाँ पर पाए जाने वाले पेड़ों पर करोड़ों वर्ष पहले जो कीटों ने हमला किया उसका एहसास भी तने पर कीटों द्वारा किए गए छेदों से किया जा सकता है। अगर हम जन्तुओं के जीवाश्मों की बात करें तो उनमें अन्दर के ऊतक वगैरह सब कुछ पथरा गए यानी कि उनका बाहरी आकार वैसा-का-वैसा ही संरक्षित रहा मगर वे पत्थर में तब्दील हो गए। फर्ज़ कीजिए कि किसी काल में कोई जीव या पेड़ ज़मीन में दब गया और वहाँ बिलकुल भी ऑक्सीजन नहीं है। ऑक्सीजन रहित वातावरण होगा तो वहाँ सड़ने की कोई गुंजाइश भी नहीं होगी। चूँकि जीवाश्म अधिकांशत: समुद्र के नीचे तलछटी में दबकर बनते हैं इसलिए वहाँ पर न तो कोई बैक्टीरिया होते हैं, न ही कोई सड़ाने वाली फफूँद या जीव। जब ये जीव ज़मीन में दब गए तो उनका स्वरूप तो वैसा-का-वैसा ही बना रहा, बस जीवों के मृत शरीर के ऊतकों की जगह धीरे-धीरे सिलिका यानी कि रेत, कैल्साइट या पायरायट जैसे खनिजों ने ले ली। और शरीर का मूल रूप ठोस पत्थर में परिवर्तित हो गया।

पेड़ों के हिस्से खासकर तने, इकाइनोडर्मस, गेस्ट्रोपोड, एमोनाइट इत्यादि पेट्रिफाइड जीवाश्म का ही एक रूप है।

नर्मदा घाटी में पेड़ों के जीवाश्म
नर्मदा घाटी के मनावर-जीराबाद क्षेत्र में पेड़ों के बड़े-बड़े जीवाश्म देखने को मिलते हैं। इन क्षेत्रों से पेड़ों के काफी सारे जीवाश्म ऐतिहासिक स्थल माण्डव में निर्मित जीवाश्म म्यूज़ियम में रखे गए हैं। ऐसी चर्चा है कि इस इलाके  में  जिम्नोस्पर्म  यानी  कि नग्नबीजी पेड़ों के जीवाश्म हैं।
इन पेड़ों के जीवाश्मीय तनों पर स्पष्ट तौर पर पर्वसन्धियाँ दिखाई देती हैं जो तने का एक प्रमुख लक्षण होता है। इसी प्रकार से इन तनों पर लेंटिसेल यानी वातरन्ध्र भी देखे जा सकते हैं जिनके ज़रिए तने बाहरी वातावरण से हवा का आदान-प्रदान करते हैं। तनों पर कीटों द्वारा किए गए छेद भी जीवाश्मों में देखे जा सकते हैं।

नर्मदा घाटी के इस इलाके में अकशेरुकी जन्तुओं के जीवाश्म भी बहुतायत में मिलते हैं। यहाँ करोड़ों साल पहले के (13.5 करोड़ से 6.5 करोड़ वर्ष पूर्व के बीच) समुद्री कार्बोनेट के जमाव पाए जाते हैं। क्रिटेशियस काल के उत्तरार्द्ध में समुद्री तलछट के जमाव से बनी और समुद्री जल के पीछे हट जाने से उभरी चट्टानें नर्मदा नदी के उत्तरी किनारे पर यहाँ-वहाँ मिलती हैं जिनमें विविध प्रकार के अकशेरुकी जीवों के जीवाश्म बड़ी तादाद में मिलते हैं। इन जीवाश्मों को ‘बाग संस्तरण के जीवाश्म’ यानी कि ‘बाग बेड्स फॉसिल्स’ कहा जाता है। क्रिटेशियस युग के उन समुद्री जमावों में मिलने वाले जीवाश्म खरगोन ज़िले के बड़वाह तक मिलते हैं। इन जीवाश्मों के अध्ययन से पता चलता है कि यहाँ पर किसी समय समुद्र रहा होगा।

नर्मदा घाटी में ब्रयोजोआ (सिलेंडर के आकार की नलियों के माफिक), गेस्ट्रोपॉड (घोंघे जैसे जीव), सेफेलोपोड (शीर्षपाद जो कि कुण्डलीनुमा होते हैं - मोलस्का  संघ  के  सदस्य), इकाइनोडर्मस  (इकीनायड  जिनमें रेडियल सिमेट्री होती है), ब्रेकियोपॉड (कड़े खोलयुक्त दो असमान फलक वाले समुद्र की तलहटी में रहने वाले जीव) और पेलिसीपोडा (एक समान फलक वाले दो कड़े खोल युक्त) इत्यादि के जीवाश्म मिलते हैं।

जब हम इस इलाके में जीवाश्मों का अवलोकन कर रहे थे तो कुछ  हमें (खासकर पेड़ों के तने के जीवाश्म) ज़मीन पर यहाँ-वहाँ बिखरे हुए दिखाई दे रहे थे। और कुछ जीवाश्मों, खासकर जन्तुओं के जीवाश्मों को खोजने के लिए हमें ढलानदार पहाड़ियों पर थोड़ी खुदाई करनी पड़ी।
इस सन्दर्भ में जीवाश्मविज्ञानियों के अनुसार नर्मदा घाटी के भूगर्भ को समझने के लिए पहले दक्कन ट्रैप्स को समझना बेहतर होगा।

मध्यभारत के पश्चिमी भाग में लगभग 6 करोड़ 90 लाख वर्ष पहले ज़मीन की सतह फटने से बनी ज्वालामुखी दरारों से पिघली चट्टानें या लावा निकल-निकलकर आग की नदियों की तरह बहता था। जिन जगहों से होकर ये आग की नदियाँ गुज़रतीं वहाँ ठण्डा होकर परत-दर-परत चट्टानें जमती चली गईं। जब धरती के इस हिस्से पर ज्वालामुखी हलचल बन्द हुई तो सीढ़ीदार पहाड़ों जैसा दिखने वाला एक विशाल चट्टानी भू-भाग अस्तित्व में आया जिसे दक्कन का पठार या दक्कन ट्रैप्स कहते हैं। दक्कन ट्रैप्स पश्चिमी और मध्य पश्चिमी भारत में मौजूद आग्नेय चट्टानों से बना एक विशाल पठारी भू-भाग है जो करोड़ों साल पहले धरती की दरारों के फटने से सतह पर बह आए गाढ़े लावा के ठण्डे होने से बना। दक्कन ट्रैप्स की परतें हमें माण्डव में खासकर रानी रूपमती के पहाड़ों में खूब देखने को मिलती हैं। इसी प्रकार से जब हम मानपुर से धामनोद की सड़क के दोनों ओर देखते हैं तो काटे गए पहाड़ों में दक्कन ट्रैप्स की मज़बूत परतें नज़र आती हैं।

ज़ाहिर है कि दक्कन टै्रप्स के नाम से जानी जाने वाली इन चट्टानों के नीचे जो जीवाश्म मिलते हैं वे इन दक्कन टै्रप्स से पुराने ही होंगे। इन जीवाश्मों को इंफ्राट्रेपन जीवाश्म कहते हैं। पेड़ों के जीवाश्म इसी श्रेणी में आते हैं। जब फिर से पृथ्वी में हलचल मची होगी तो ये ऊपर को आ गए और आज हमें इस इलाके में दिखाई देते हैं।
अकशेरुकी जीवों के जीवाश्म हमें इन चट्टानों में नहीं मिलते बल्कि इनके नीचे जो चूना पत्थर या भुरभुरी मिट्टी है, उनमें दबे हुए मिलते हैं।

जनजीवन और जीवाश्म
इस इलाके में प्रमुखत: आदिवासी निवास करते हैं जो पूरी तरह से खेती और मज़दूरी पर निर्भर रहे हैं। हालाँकि, जंगलों के विनाश और कथित विकास के चलते यहाँ के लोगों का जीवन काफी कष्टदायक बन चुका है।
इस इलाके में कथित विकास के नाम पर कुछ निजी सीमेंट कारखानों ने कब्ज़ा कर लिया है जो चूना पत्थर की खुदाई करके सीमेंट बनाते हैं। बोरलाय क्षेत्र में सैकड़ों एकड़ ज़मीन को एक निजी कम्पनी ने अपने कब्ज़े में कर लिया है और इस इलाके में तेज़ी-से खनन का कार्य जारी है।

नर्मदा घाटी के अधिकतर लोग  यहाँ के जीवाश्मों को पत्थर के रूप में ही देखते हैं। जो लोग इस इलाके में बाहर से आते हैं वे उन्हें रहस्यमयी नज़रों से देखते हैं। इकाइनोडर्मस के जीवाश्म को जिनमें रेडियल सिमेट्री मिलती है और गोल-गोल होते हैं, यहाँ के लोग ‘सीता माता के पाँचे’ के नाम से जानते हैं। ऐसा माना जाता है कि इन गोल-गोल पत्थरों को सीताजी ने वनवास के दौरान हाथों से छुआ और ये निशान पत्थरों पर बन गए। घोंघे के शंखों को पूजा घरों में रखने का रिवाज़ है।

यहाँ  के  उच्चतर  माध्यमिक विद्यालयों के छात्र-छात्राएँ जो कि विज्ञान का अध्ययन करते हैं, उन्हें भी जीवाश्मों के बारे में कुछ पता नहीं है। यह अचरज की बात है कि हमारी शिक्षा में स्थानीय संसाधनों का कहीं भी ज़िक्र नहीं है।
कुल मिलाकर हमने इस क्षेत्र में एक दिन व्यतीत किया। सूरज अब एक पहाड़ी की ओट में धँसता जा रहा था और पक्षी अपने-अपने ठिकानों की ओर लौटने लगे थे। हम भी इस इलाके से एक समझ और याद को लेकर लौट रहे थे। यह एक शुरुआत थी।


सन्दर्भ: प्रकृति के रहस्य खोलते नर्मदा घाटी के जीवाश्म, लेखक - पंकज श्रीवास्तव एवं गंग विशाल वर्मा।

कालू राम शर्मा: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, खरगोन में कार्यरत। स्कूली शिक्षा पर निरन्तर लेखन। फोटोग्राफी में दिलचस्पी।

सभी फोटो: कालू राम शर्मा।