विपुल कीर्ति शर्मा

मई  का  आखिरी  सप्ताह  था। मैं महाराष्ट्र के इगतपुरी घाट पहुँच चुका था और इसके साथ ही जुगनू फेस्टीवल में शामिल होने का इन्तज़ार भी अब खत्म होने को था। अपने होटल से कच्ची-पक्की सड़कों को पार करते हुए हम घने जंगल में पहुँच चुके थे। सूरज ढल गया था और टॉर्च की रोशनी में हमारा गाइड पगडण्डी दिखाते हुए आगे बढ़ता जा रहा था। 10 मिनट चलने के बाद ही हम अचानक रुक गए और वहाँ का नज़ारा देखकर सब आश्चर्यचकित थे। ऐसा लग रहा था मानो पूरा तारा मण्डल धरती पर उतर आया हो। छोटे-छोटे बल्ब एक लय में जल एवं बुझ रहे थे। जंगल में जुगनुओं का सामूहिक विवाह चल रहा था।
नर जुगनू अपनी मादा को आकर्षित करने के लिए लय-बद्ध तरीके से प्रकाश उत्पन्न करता है। जुगनू मादा मनुष्य के समान रूप-रंग या शरीर देखकर आकर्षित नहीं होती। वह नर द्वारा प्रकाश उत्पन्न करने के लय बद्ध तरीके पर रीझती है। बरसात प्रारम्भ होने के दो-तीन सप्ताह पूर्व ही सभी जुगनू प्रजातियों में प्यार के इज़हार का मौसम आ जाता है। कुछ प्रजातियों में दमकना-चमकना थोड़े समय के लिए होता है तो कुछ में यह काफी  देर तक चलता रहता है। और कुछ तो चमकते-चमकते उड़कर एक विशिष्ट पैटर्न भी बनाते हैं।

जुगनू की प्रजातियाँ
पूरे संसार में 2000 प्रकार के जुगनू पाए जाते हैं। भारत में भी जुगनुओं की अनेक प्रजातियाँ पाई जाती हैं। जुगनू को अँग्रेज़ी में फायर फ्लाइ या लाइटनिंग बग भी कहते हैं। ये एक प्रकार के बीटल होते हैं। इन्हें लेम्पिरिडी फैमिली तथा कोलिओप्टेरा ऑर्डर में रखा गया है। कोलिओप्टेरा का मतलब है आवरण या खोल के समान कड़े पंख वाले। इन सभी में दो जोड़ी पंख होते हैं। इनमें अगले पंख ‘एलिट्रा’ कहलाते हैं जो कठोर कवच के समान कीट को ढँकने में सहायक होते हैं। एलिट्रा के नीचे छुपे हुए कोमल पंख ही वास्तव में उड़ने का कार्य करते हैं। एलिट्रा उड़ते समय फैलकर केवल सन्तुलन बनाए रखने का कार्य करते हैं।
एक ही स्थान पर रहते हुए भिन्न प्रकार की लय में प्रकाश को उत्पन्न करना विभिन्न जुगनू प्रजातियों में अपने जैसे सदस्यों को पहचानने का तरीका है। ये वैसा ही है जैसे विपरीत सेक्स को आकर्षित करने के लिए एक ही तालाब में अनेक प्रकार के मेंढक भी अलग-अलग प्रकार की आवाज़ तथा लय में टर्राते हैं। विभिन्न प्रकार की चिड़ियाँ भी अलग-अलग प्रकार के गाने गाती हैं। तो वैसे ही जब एक नर जुगनू दमकता है तो वह मादा को अपने बारे में कुछ जानकारियाँ देता है। दूर बैठी मादा प्रकाश के संकेतों से पसन्दगी-नापसन्दगी तय करके वापस प्रत्युत्तर में दमकती है।

जुगनू में समागम  
उत्तरी अमेरिका में पाई जाने वाली जुगनू की एक प्रजाति फोटिनस पायरेलिस कई घण्टों तक बगैर हिले-डुले समागम करती है। समागम में मशगूल अनेक जोड़ों को सारा लेविस नामक अमेरिकी शोधार्थी ने पकड़कर फ्रीज़र में जमा दिया। वह जानना चाहती थी कि समागम में व्यस्त जोड़ों के शरीर में अन्दर क्या चल रहा है। इसलिए समागम प्रारम्भ होने से खत्म होने तक की घटना को कैद करने के लिए उन्होंने निश्चित अन्तराल में समागम में व्यस्त जोड़ों को ठण्डा कर जमा दिया और फिर उनका विच्छेदन कर रहस्य से पर्दा उठाने वाला प्रयोग किया। उन्होंने पाया कि नर फोटिनस मादा को समागम के अवसर पर एक असाधारण पुलिन्दा उपहार स्वरूप देते हैं। जुगनू में समागम कोई साधारण कार्य न होकर एक जटिल लेन-देन है जिसमें आर्थिक पहलू भी महत्वपूर्ण है। समागम के पूर्व नर जुगनू की प्रजनन ग्रन्थियाँ एक पुलिन्दे को बनाने में लगी रहती हैं। समागम के दौरान सजा-सँवरा पुलिन्दा मादा के लिए शुक्राणु के साथ-साथ ऊर्जा रसायनों से भरा उपहार होता है। उपहार के पुलिन्दे को स्परमेटोफोर कहते हैं। अर्द्धपारदर्शी पुलिन्दे के साथ एक स्पिं्रग के समान संरचना भी समागम के दौरान मादा जननांग में प्रविष्ट करा दी जाती है। स्परमेटोफोर से शुक्राणु मादा जननांग के स्पर्म स्टोर करने वाले अंग स्परमेथिका में चले जाते हैं। नर के शरीर का लगभग 25 प्रतिशत भाग मादा जननांग में स्परमेटोफोर के साथ पहुँच जाता है। पोषण तत्वों  का यह उपहार अगली पीढ़ी के स्वास्थ्य को सुनिश्चित करता है।

प्रकाश उत्पन्न होने की प्रक्रिया
जुगनू के पेट के आखिरी भाग में कुछ रसायनिक क्रिया चलती हैं जिससे प्रकाश उत्पन्न होता है। इस प्रकार से जीवों द्वारा उत्पन्न प्रकाश को बायो-ल्यूमिनिसेन्स कहते हैं। स्तनधारियों जैसे विकसित प्राणियों के समान कीट में श्वसन के लिए फेफड़े नहीं होते। इनके शरीर की बाह्य सतह के नीचे जटिल  ाृंखला के रूप में अत्यन्त बारीक नलिकाओं का जाल-सा फैला होता है जिन्हें ट्रेकिओल्स कहते हैं। ट्रेकिओल्स ही ऑक्सीजन को शरीर के अन्दर पहुँचाने का कार्य करती हैं। ऑक्सीजन जब कैल्शियम, एडेनोसिन ट्रायफॉस्फेट (एटीपी)  तथा  ल्यूसिफेरिन  नामक रसायन के साथ अभिक्रिया करती है तो ल्यूसिफरेज़ नामक एंज़ाइम प्रकाश उत्पन्न करता है।
जुगनू बायोल्यूमिनिसेन्स की पूरी प्रक्रिया को ऑक्सीजन की मात्रा के द्वारा निपुण तरीके से नियंत्रित करते हैं। जब ऑक्सीजन मिलती है तो वे दमकते  हैं  और  ऑक्सीजन  को रसायनिक क्रिया से रोककर प्रकाश फैलाना बन्द कर देते हैं। बिजली के बल्ब प्रकाश उत्पन्न करने के साथ गर्म  भी  हो  जाते  हैं,  किन्तु बायोल्मूमिनिसेन्स में दमकते जुगनू का पेट गर्म नहीं होता क्योंकि इनमें प्रकाश गर्मी के रूप में खर्च नहीं होता।
लम्बे समय तक यह एक रहस्य ही था कि कैसे कुछ जुगनू की प्रजातियाँ ज़्यादा  बार  दमकती  हैं  जबकि ऑक्सीजन की मात्रा को नियंत्रित करने वाली पेशियाँ उतनी तीव्र गति से कार्य नहीं करतीं। शोधकर्ताओं ने हाल ही में पता लगाया है कि मानव में वियाग्रा लेने के बाद उत्तेजना बढ़ाने वाली गैस, नाइट्रिक ऑक्साइड जुगनुओं में भी दमकने की दर को नियंत्रित करती है। जब जुगनू का दमकना बन्द  हो  जाता  है  तब  नाइट्रिक ऑक्साइड का उत्पादन भी बन्द रहता है। इस स्थिति में ऑक्सीजन प्रकाश के अंग से होते हुए कोशिका के पॉवर हाउस कहे जाने वाले माइटोकॉण्ड्रिया की सतह से बन्ध जाती है और प्रकाश उत्पन्न करने वाले अंग में भीतर नहीं पहुँचती। जब नाइट्रिक ऑक्साइड माइटोकॉण्ड्रिया से जुड़ती है तो ऑक्सीजन को प्रकाश अंग में जाने का रास्ता मिल जाता है जहाँ ऑक्सीजन आवश्यक रसायनों से क्रिया करके बायोल्यूमिनिसेन्स उत्पन्न करती है। चूँकि नाइट्रिक ऑक्साइड तुरन्त ही  नष्ट  हो  जाती  है  अत: माइटोकॉण्ड्रिया  की  सतह  पर ऑक्सीजन फिर से बँधने लगती है और दमकने की प्रक्रिया रुक जाती है।

जुगनू का जीवन-चक्र
सभी बीटल्स के समान, जुगनू में भी कायान्तरण पूर्ण प्रकार का होता है। अर्थात् अपूर्ण कायान्तरण के विपरीत इनमें अण्डे, लार्वा, प्यूपा और वयस्क -- ये सभी अवस्थाएँ पाई जाती हैं। जुगनू का जीवन-चक्र अण्डे से प्रारम्भ होता है। ग्रीष्म ऋतु के अन्त तक सम्भोग कर चुकी मादा 100 गोलाकार अण्डों के समूह को ज़मीन में छुपा देती है। अण्डों के विकास के लिए नमी आवश्यक है इसलिए भीषण गर्मी के अन्त में अक्सर मादा जुगनू जंगल में नम ज़मीन पर पड़े पत्तों के नीचे अण्डे देती है। कुछ प्रजातियों की मादा जुगनू पत्तों की बजाए अण्डों को सीधे मिट्टी में ही छिपा देती हैं। अण्डों से लार्वा निकलने में तीन-चार सप्ताह लगते हैं। तब तक मध्य भारत में मॉनसून दस्तक देने लगता है या मॉनसून की गतिविधियाँ प्रारम्भ हो चुकी होती हैं। कुछ प्रजातियों में जुगनू के अण्डे भी बायोल्यूमिनिसेन्ट होते हैं। अमावस्या की रात में प्रशिक्षित निगाहें ही इन्हें खोज पाती हैं।
जैसा कि अनेक बीटल में होता है जुगनू के लार्वा बेलनाकार लटों की बजाए चपटे कीड़ों के समान दिखते हैं। इनके शरीर का प्रत्येक खण्ड चपटा होता है और उसके बाद के खण्ड के किनारों को ढँके रहता है। लार्वा भी दमकते हैं इसलिए इन्हें ग्लोवर्म भी कहते हैं।
बरसात प्रारम्भ होते ही जुगनू के लार्वा को मिट्टी में खाने के लिए स्लग, घोंघे, निमेटोड, कीट के लार्वा आदि  जैसे शिकार रूपी व्यंजन मिलने लगते हैं। इन्हें पकड़कर, पाचक एंज़ाइमों से उसे अचेत किया जाता है और शिकार कुछ ही समय में सफाचट हो जाता है। पूरी शीतऋतु तक यही कृत्य चलता है और भोजन की भरपूरता से अण्डे में योक की कमी को पूरा किया जाता है। वृद्धि के साथ लार्वा अपनी पुरानी त्वचा को उतार फेंकता है और नई त्वचा उसका स्थान ले लेती है। प्यूपा में बदलने के पूर्व ये तीन चौथाई इंच तक वृद्धि कर लेते हैं।

जब लार्वा प्यूपा बनने के लिए तैयार हो जाता है तो सबसे पहले वह मिट्टी में एक छोटा-सा कक्ष बना लेता है। जुगनू की कुछ प्रजातियों में लार्वा स्वयं को पिछले सिरे से पेड़ों की छाल पर चिपकाकर उलटे लटक जाते हैं। प्यूपा किसी भी कीट की परिवर्धन अवस्था का महत्वपूर्ण भाग है क्योंकि इस अवस्था में उल्लेखनीय परिवर्तन होते हैं। हिस्टोलिसिस प्रक्रिया से लार्वा के पूरे आन्तरिक अंग गलने लगते हैं और विशिष्ट प्रकार की कोशिकाओं का समूह पूरे शरीर को बदलने की प्रक्रिया में जुट जाता है। इन कोशिकाओं को ‘हिस्टोब्लास्ट’ कहते हैं। अन्त में, अनेक परिवर्तनों जिन्हें हिस्टोजेनेसिस कहते हैं, से लार्वा वयस्क में बदल जाता है। रूपान्तरण पूर्ण होते ही वयस्क जुगनू प्यूपा की खोल से बाहर आने को तैयार रहता है। प्यूपेशन की अवस्था 10 दिन से अनेक सप्ताह तक चल सकती है।
जब वयस्क जुगनू बाहर आते हैं तो उनके मस्तिष्क में केवल एक ही कार्य का जुनून होता है और वह है प्रजनन। विपरीत सेक्स के दिलों में जगह बनाने के लिए वे अपनी प्रजाति के नियमानुसार दमकते हैं। ज़मीन के पास बैठकर नर जुगनू पेट के निचले सिरे से प्रकाश उत्पन्न करने वाले अंग को दमकाता है और दूर बैठी मादा जुगनू बदले में प्रेम सन्देश भी दमककर ही देती है। सकारात्मक सन्देश मिलते ही नर मादा से मिलने आ जाता है।
सभी जुगनू माता-पिता नहीं बन पाते। कई को शिकारी खा जाते हैं। कुछ ही सौभाग्यशाली अपने जीन्स को अगली पीढ़ी में पहुँचा पाते हैं। नर और मादा को प्रजनन के लिए केवल दो सप्ताह का समय ही मिलता है। इसके बाद जीवनकाल समाप्त हो जाने के कारण वे मर जाते हैं। इतने कम समय में नर और मादा का मिलना, एक-दूसरे को पसन्द आना, प्रजनन होना और सफलतापूर्वक अण्डे देना वास्तव में बेहद कठिन है। प्रणय के इस संक्षिप्त काल के कारण कुछ जुगनू प्रजातियों के सदस्य तो बगैर खाए-पिए केवल प्रजनन का ही इन्तज़ार करते हैं और प्रजनन के बाद मर जाते हैं। कुछ-एक प्रजातियों के सदस्य इस महत्वपूर्ण समय में भी अन्य कीट का शिकार करके अपनी शारीरिक ऊर्जा के स्तर को बनाए रखते हैं।
प्राय: मादा जुगनू अन्य प्रजाति के नरों को झूठे सन्देश देकर अपने पास बुला लेती हैं और उनका शिकार कर लेती हैं। हालाँकि वयस्क जुगनू के खाने की आदतों पर शोध बहुत कम हुआ है, लेकिन ऐसा अनुमान है कि वयस्क जुगनू जंगली फूलों के परागकण एवं शकर्रा खाते हैं। मादा को अगली पीढ़ी को स्वस्थ रखने के लिए अधिक भोजन की आवश्यकता होती है। अधिक भोजन की आपूर्ती लार्वा अवस्था में हो या वयस्क में किन्तु मादा को नर जुगनू की अपेक्षा अगली पीढ़ी के लिए ज़्यादा भोजन तो जुटाना ही होता है।

क्यों जगमगाते हैं जुगनू?
जुगनू में बायोल्यूमिनिसेन्स अनेक कारणों से होता है। इनके लार्वा भी मन्द-मन्द  दमकते  हैं।  अधिकांश प्रजातियों के लार्वा ज़मीन के नीचे रहते हैं और कुछ तो अर्ध-जलीय होते  हुए भी दमकते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि लार्वा द्वारा जगमगाना शिकारियों को यह चेतावनी है कि उनका स्वाद अरुचिकर है क्योंकि लार्वा शिकारियों से बचाव के लिए शरीर में बेस्वाद रक्षात्मक स्टेरॉइड भी संश्लेषित करते हैं। इन स्टेरॉइड को लुसिबुफागिन्स कहते हैं। इन्हें खाने से शिकारियों को उल्टी होने लगती है। एक बार इन स्टेरॉइड को चख लेने के बाद शिकारी, जुगनू को दूसरी बार खाने की गलती नहीं करता।
जुगनू के जवान होते ही जगमगाने का कार्य बदल जाता है। बहुत कम अन्तराल में ही मुख्य ध्येय प्रजनन हो जाता है। विपरीत सेक्स को पहचानने एवं आकर्षित करने के लिए निश्चित क्रम में दमकना पड़ता है। अनेक अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि मादा जुगनू अपने प्रेमी का चयन दमकने के विशिष्ट तरीके से ही करती है। नर में प्रकाश की ज़्यादा तीव्रता और दमकने की उच्च दर मादा के लिए स्वस्थ एवं श्रेष्ठतम जीन वाले नर का विज्ञापन है।
कुछ जुगनू प्रजातियों में जहाँ जुगनू दमकते ही नहीं हैं वहाँ विपरीत सेक्स का  चयन  वातावरण  में छोड़े  गए फेरामोन्स से होता है। वैज्ञानिकों को लगता है कि कीट-पतंगों में विपरीत सेक्स को पहचानने तथा प्रेम का प्रस्ताव रखने का आदिम तरीका फेरामोन्स से सन्देश देना वैसा ही है जैसा वर्षों पूर्व मानव कबूतरों तथा पत्थरों का उपयोग प्रेम पत्र भेजने के लिए करते थे। समय के साथ जुगनू का स्वभाव परिवर्तित हुआ और वर्तमान में पाए जाने वाले अधिकांश जुगनू जगमगाकर प्रेम सन्देश देते हैं जैसे कि आज की युवा पीढ़ी डेटिंग पार्टनर का चुनाव इन्टरनेट के माध्यम से करती है।
कुछ जुगनू प्रजातियाँ ऐसी भी होती हैं जो जोड़ा बनाने के लिए फेरामोन्स एवं प्रकाश, दोनों का उपयोग करती हैं। ऐसी प्रजातियाँ उद्विकास की यात्रा में बीच की अवस्था दर्शाती हैं, बिलकुल वैसे ही जैसे कोई प्रेमी सन्देश पत्थर को कागज़ में लपेटकर भी फेंके और वॉट्सअप, ट्विटर और फेसबुक का उपयोग भी करे।

जुगनू की पहचान
जुगनू लम्बे, सामान्यत: काले, पीले या भूरे रंग के होते हैं। रात में दमकते हुए इन्हें आप आसानी-से पकड़ सकते हैं। अन्य प्रकार के बीटल के विपरीत ये  काफी  नरम  प्रतीत  होते  हैं। असावधानी-से ये दबकर मर भी सकते हैं। ऊपर से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि ये अपना सिर किसी बड़े-से कवच में घुसाए हुए हों। धड़ को ढँकने वाले अतिरिक्त बड़े भाग को प्रोनोटम कहते हैं। यह जुगनू फेमिली की पहचान है। जुगनू को पेट की निचली सतह से देखने पर इनका प्रथम उदर खण्ड ज़मीनी बीटल के विपरीत पूरा या अविभाजित होता है। अधिकांश जुगनुओं में अन्तिम दो या तीन उदर के खण्ड अन्य खण्डों की अपेक्षा बिलकुल भिन्न, प्रकाश उत्पन्न करने वाले होते हैं।
यदि आपको कोई जुगनू मरा हुआ मिले तो सूक्ष्मदर्शी से उसके अन्दर की संरचना को देखने का मौका न छोड़ें। नर और मादा जुगनू का उदर प्रजनन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए जननांगों से ठसाठस भरा होता है। जहाँ एक ओर नर को असंख्य मात्रा में शुक्राणुओं का उत्पादन करना होता है, तो मादा को अनेक अण्डों का। संरचना देखते समय शुक्राणुओं का उत्पादन करने वाले वृषण को चमकीले गुलाबी रंग से पहचाना जा सकता है। इन्हें बड़ी स्पिं्रग के समान घुमावदार एवं लम्बी प्रजनन ग्रन्थियों से भी पहचाना जा सकता है। कुछ प्रजनन ग्रन्थियाँ बेहद लम्बी होती हैं। इनकी ऐंठन खोलने पर वे जुगनू जितनी लम्बी हो सकती हैं।


विपुल कीर्ति शर्मा: शासकीय होल्कर विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर में प्राणिशास्त्र के वरिष्ठ प्रोफेसर। इन्होंने ‘बाघ बेड्स’ के जीवाश्म का गहन अध्ययन किया है तथा जीवाश्मित सीअर्चिन की एक नई प्रजाति की खोज की है। नेचुरल म्यूज़ियम, लंदन ने इस नई प्रजाति का नाम उनके नाम पर स्टीरियोसिडेरिस कीर्ति रखा है। वर्तमान में वे अपने विद्यार्थियों के साथ मकड़ियों पर शोध कार्य कर रहे हैं। पीएच.डी. के अतिरिक्त बायोटेक्नोलॉजी में भी स्नातकोत्तर किया है।
सभी रेखाचित्र: विपुल कीर्ति शर्मा।