सुशील जोशी

जन्तुओं के विपरीत पौधों में लिंग की बात कहीं अधिक जटिल और रोमांचक है। यदि हम यह मानें कि मोटे तौर पर दो लिंग होते हैं, तो जन्तुजगत में लगभग सारे जन्तु एकलिंगी होते हैं। हाँ, यह ज़रूर है कि  कुछ  प्रजातियों  में  लिंग  का प्रकटीकरण समयानुसार होता है और उसमें लचीलापन होता है। मगर अब ज़रा पौधों को देखिए।

कितनी तरह के फूल?
जन्तुओं के विपरीत पौधों में बहुत अधिक लैंगिक विविधता पाई जाती है। मोटे तौर पर पौधे दो तरह के होते हैं - एकलिंगी और द्विलिंगी। एकलिंगी पौधे उन्हें कहते हैं जिनमें या तो नर फूल लगते हैं या मादा फूल लगते हैं। दूसरी ओर द्विलिंगी पौधे दो तरह के हो सकते हैं। एक तरह के द्विलिंगी पौधे वे हैं जिनमें हर फूल द्विलिंगी होता है। जीव विज्ञान की भाषा में ऐसे फूलों को पूर्ण पुष्प कहते हैं। दूसरी तरह के द्विलिंगी पौधे वे हैं जिनमें एक ही पौधे पर कुछ फूल नर होते हैं जबकि कुछ फूल मादा होते हैं। यानी इनमें अपूर्ण पुष्प पाए जाते हैं। इनमें ऐसा भी हो सकता है कि कुछ फूल तो द्विलिंगी हों और कुछ फूल एकलिंगी (नर या मादा) हों।
मात्र करीब 4-6 प्रतिशत फूलधारी पौधे (एंजियोस्पर्म) एकलिंगी होते हैं - अर्थात् ऐसे पौधे जिनमें नर व मादा फूल अलग-अलग पौधे पर उगते हैं। 1922 में एक अनुमान व्यक्त किया गया था कि मात्र 7 प्रतिशत द्विबीजपत्री तथा 6 प्रतिशत एकबीजपत्री वंश (जीनस) ऐसे हैं जिनमें कुछ प्रजातियों में अलग-अलग पौधों पर अलग-अलग किस्म के (यानी एकलिंगी) फूल पाए जाते हैं। शेष में सारे फूल एक ही किस्म के (यानी द्विलिंगी) होते हैं। यहाँ हम शेष वनस्पतियों (ब्रायोफाइट, फर्न वगैरह) की बात नहीं कर रहे हैं।
जन्तुओं में जब लिंग की बात करते हैं तो उनके गुणसूत्रों पर ध्यान दिया जाता है। गुणसूत्र यानी क्रोमोसोम कोशिका के केन्द्रक में पाए जाते हैं और  आनुवंशिक  पदार्थ  (डीएनए) गुणसूत्रों के रूप में गुँथा होता है। मोटे तौर पर कह सकते हैं कि गुणसूत्रों से ही किसी जीव के गुणधर्म निर्धारित होते हैं। किसी जन्तु का लिंग भी यही गुणसूत्र तय करते हैं।

लिंग और गुणसूत्र में सम्बन्ध
मनुष्यों का उदाहरण लेंगे तो बात जानी-पहचानी लगेगी। मनुष्यों की प्रत्येक कोशिका में 23 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं। इनमें से 22 जोड़ियों में दोनों गुणसूत्र समकक्ष होते हैं। इन्हें ऑटोसोम कहते हैं। किन्तु 23वीं जोड़ी के दोनों गुणसूत्र एक जैसे नहीं होते - एक थोड़ा बड़ा होता है (X) और दूसरा थोड़ा छोटा होता है (Y)। ये लिंग-निर्धारक गुणसूत्र या सेक्स क्रोमोसोम कहलाते हैं। यदि किसी व्यक्ति में ये दोनों सेक्स क्रोमोसोम X (X X) हों तो वह स्त्री होगी और यदि एक Y व दूसरा X हो (XY) तो वह पुरुष होगा। यह एक उदाहरण है। जन्तुओं में लिंग निर्धारण की और भी व्यवस्थाएँ होती हैं। किन्तु एक बात तय है कि अधिकांश जन्तुओं का लिंग गुणसूत्रों से तय होता है।
अब पौधों को देखें। यदि हम यह देखें कि बड़ी संख्या में फूलधारी पौधों पर पूर्ण फूल (द्विलिंगी फूल) लगते हैं तो कहा जा सकता है कि इन पौधों के गुणसूत्रों में उपस्थित आनुवंशिक सूत्र (जेनेटिक कोड) में प्रत्येक फूल में सारे अंग (अंखुड़ियाँ, पंखुड़ियाँ, पुंकेसर और स्त्रीकेसर) बनाने की सूचना होती है। दूसरे शब्दों में, पूरा पौधा एक ही जेनेटिक कोड से संचालित होता है। इसी प्रकार से यदि हम एकलिंगी पौधों की बात करें जिनमें या तो नर फूल लगेंगे या मादा फूल लगेंगे तो भी कहा जा सकता है कि जन्तुओं के समान इन प्रजातियों में दो तरह के जेनेटिक कोड पाए जाते हैं - एक कोड नर फूलों को जन्म देता है, जबकि दूसरा कोड मादा फूलों को। अर्थात् गुणसूत्रों में ही भेद होता होगा।

समान जेनेटिक कोड से मादा और नर फूल
मगर जब हम उन द्विलिंगी पौधों की बात करते हैं जिनमें कुछ फूल नर, कुछ मादा, और कभी-कभी कुछ द्विलिंगी भी होते हैं, तो स्थिति की व्याख्या मुश्किल हो जाती है। आखिर एक ही पौधे पर कुछ फूल नर और कुछ फूल मादा होने के लिए उस पौधे में दो अलग-अलग जेनेटिक कोड होना चाहिए। कोई भी पौधा ऐसे दो कोड लेकर तो पैदा नहीं होता। पूरा का पूरा पौधा जेनेटिक रूप से एक जैसा होता है।
जैसे मक्का का उदाहरण लें। मक्का के प्रत्येक पौधे का एक जेनेटिक कोड होगा। किन्तु मक्का में दो तरह के फूल लगते हैं। शीर्ष पर नर फूल लगते हैं जबकि तने पर नीचे की ओर मादा फूल (जिनसे भुट्टे बनते हैं)। यानी मक्का में एक ही जेनेटिक कोड शीर्ष पर कुछ और गुल खिलाता है तथा नीचे की ओर कुछ और। क्या इसका मतलब है कि मक्का के पौधे के शीर्ष को एक जेनेटिक कोड नियंत्रित करता है और निचले हिस्से को दूसरा?
कुछ पादप प्रजातियों में ऐसा भी देखा गया है कि लिंग समय या उम्र या साइज़ के साथ भी जुड़ा होता है। इन प्रजातियों के पौधे जब युवा होते हैं तो नर होते हैं किन्तु बड़े होकर वे मादा बन जाते हैं। जैसे एरम की एक किस्म ककू पाइंट (jack-in-the-pulpit) के मामले में छोटे पौधे नर होते हैं और बड़े पौधे मादा।

कुछ प्रजातियों में एक अनोखा एकलिंगी व्यवहार देखा गया है। नर-द्विलिंगी तथा मादा-द्विलिंगी, दोनों किस्म की प्रजातियाँ देखी गई हैं। इनमें पौधे दो तरह के फूल पैदा करते हैं - नर और द्विलिंगी या मादा और द्विलिंगी।
तो सेक्स के मामले में वनस्पति जगत में कहीं अधिक विविधता नज़र आती है। इसी वजह से पौधों में लिंग निर्धारण का अध्ययन करना काफी मुश्किल और रोमांचक काम है। इनमें भी खास तौर से रोचक वे प्रजातियाँ हैं जिनके पौधे द्विलिंगी होते हैं किन्तु फूल एकलिंगी। इतनी विविधता को देखते हुए कई वैज्ञानिकों का विचार रहा है कि पौधों में लिंग का निर्धारण मात्र जेनेटिक कोड के आधार पर नहीं हो सकता।
यहाँ थोड़ा यह देख लें कि जेनेटिक कोड होता क्या है। वैसे तो इस पुरानी कहानी को दोहराने की ज़रूरत नहीं है किन्तु दोहरा लेने में कोई बुराई भी नहीं है। सजीवों के गुणधर्मों का निर्धारण करने का काम जिस पदार्थ द्वारा किया जाता है उसे डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल कहते हैं। संक्षेप में इसे डीएनए कहते हैं और यह काफी मशहूर अणु है। दरअसल, यह चार छोटी-छोटी इकाइयों से बना एक बहुलक यानी पॉलीमर होता है। ये छोटी-छोटी इकाइयाँ न्यूक्लिओटाइड कहलाती हैं - इन्हें क्षार भी कहते हैं। डीएनए को बनाने में चार इकाइयों का उपयोग होता है - संक्षेप में इन्हें A, T, C तथा G कहते हैं। इन्हें अलग-अलग क्रम में तिकड़ियों में जोड़ा जाए तो 64 अलग-अलग तिकड़ियाँ बन सकती हैं, जैसे ATG, ATC, ATA वगैरह। इस अणु का कमाल इसी क्रम में होता है। इसी क्रम से तय होता है कि डीएनए का वह हिस्सा कौन से प्रोटीन को बनाने का निर्देश बनेगा। और प्रोटीन ही तय करते हैं कि किसी जीव की कोशिका कैसी होगी, कौन-से कार्य करेगी। मोटे तौर पर कहें तो डीएनए का जो हिस्सा एक प्रोटीन बनाने का निर्देश देता है, उसे एक जीन कहते हैं।

कैसे तय होता है कि फूल नर बनेगा या मादा?
तो सवाल यह है कि जब सारी कोशिकाओं में एक-से निर्देश हैं तो कैसे कहीं नर तो कहीं मादा फूल बनते हैं। कैसे तय होता है कि कहाँ कौन-सा फूल बनेगा? इसी सवाल का जवाब पाने की कोशिश में वैज्ञानिकों ने काफी छानबीन की है। एक बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी है। यह लेख लिखते हुए मैं स्वयं इस मसले को पहली बार समझने की कोशिश कर रहा था। इसे इसी रूप में पढ़ें और समझ को आगे बढ़ाने में शरीक हों। इस कोशिश में मुझे दो समीक्षा पर्चों से काफी मदद मिली है। पहला पर्चा 1989 में दी प्लांट सेल नामक पत्रिका में छपा था। इसके लेखक एरिन आइरिश और टिमोथी नेल्सन थे। दूसरा पर्चा मोनिका मिलेविक्ज़ और जेकब साविकी का है जो cas. Slez. Muz. Opava (A) में 2012 में प्रकाशित हुआ था।
छानबीन का पहला हिस्सा तो यह समझने का रहा है कि फूलों का विकास किस तरह से होता है। द्विलिंगी फूलों की बात तो आसान है - पुष्प कलिका बनेगी और उसमें अंखुड़ियाँ, पंखुड़ियाँ, पुंकेसर और स्त्रीकेसर उपस्थित होंगे। मगर एकलिंगी फूलों की बात थोड़ी अलग है। उनमें यह देखना होगा कि क्या शुरु में सारे फूल एक-जैसे होते हैं और फिर कुछ में पुंकेसर का विकास रुक जाता है और कुछ में स्त्रीकेसर का। या क्या एकलिंगी फूलों की पुष्प कलिका में पुंकेसर या स्त्रीकेसर होते ही नहीं हैं?
कई अध्ययनों के आधार पर कहा जा सकता है कि एकलिंगी फूलों के विकास के दो रास्ते हैं।
पहला रास्ता अधिकांश एकलिंगी फूलों में देखा गया है। शुरुआत में फूलों में नर व मादा, दोनों जननांग बनते हैं। कुछ समय तक दोनों का विकास भी होता है किन्तु एक समय के बाद दोनों में से एक का विकास रुक जाता है। यह स्थिति मेलेंड्रियम एलबम (Melandrium album), रुमेक्स एसिटोसा (Rumex acetosa) और पिस्ता (पिस्टासिया वेरा, Pistacia vera) में देखी गई है।
नर या मादा जननांग का विकास रुकने के भी दो तरीके हैं - या तो उस जननांग को बनाने वाली कोशिकाओं में विभाजन होना बन्द हो जाता है या उन कोशिकाओं की मृत्यु हो जाती है। सतावर (Asparagus officinalis) जैसी कुछ प्रजातियों में किसी फूल के नर या मादा होने का निर्धारण बहुत देर से होता है और काफी समय तक दोनों फूल एक जैसे दिखते हैं।
दूसरी ओर, कुछ प्रजातियों (जैसे मर्क्यूरिएलिस एनुआ, Mercurialis annua, केनेबिस सटाइवा, Cannabis sativa, और ह्यूमलस Humulus वंश की प्रजातियों) में शुरु से ही उस फूल के विशिष्ट जननांग बनते हैं। अर्थात् यदि मादा फूल का विकास होना है तो शुरु से ही उसमें पुंकेसर नहीं होंगे जबकि नर पुष्प कलिका में स्त्रीकेसर शुरु से ही नहीं होगा।

छानबीन का अगला कदम यह रहा कि किसी एकलिंगी फूल के विकास पर किन बातों का असर पड़ता है। जन्तुओं में हम जानते हैं कि गुणसूत्रों से तय हो जाता है कि कोई जन्तु नर बनेगा या मादा। कुछेक अपवादों को छोड़कर यह एक सामान्य नियम है। मगर जिन पादप प्रजातियोंें में एक ही पौधे पर नर व मादा, दोनों तरह के फूल लगते हैं, उनमें मात्र गुणसूत्रों से तय नहीं हो सकता कि किसी फूल का लिंग क्या होगा या किसी पौधे पर मादा व नर फूलों का अनुपात क्या होगा क्योंकि पूरे पौधे में तो एक समान गुणसूत्र मौजूद हैं। इसलिए कई वैज्ञानिकों ने कयास लगाया है कि अवश्य ही इस मामले में पर्यावरण की महत्वपूर्ण भूमिका होती होगी। लिंग निर्धारण पर पर्यावरण के विभिन्न कारकों के असर को परखना छानबीन का अगला कदम है। पहले आसान चीज़ को देखते हैं।
मज़ेदार बात यह है कि 95 प्रतिशत से ज़्यादा पौधों पर तो द्विलिंगी फूल लगते हैं और उनमें भी विभिन्न अंगों (अंखुड़ियों,  पंखुड़ियों,  पुंकेसर  व स्त्रीकेसर) का क्रम एकदम निश्चित है। ये अंग विभिन्न घेरों में पाए जाते हैं और इन घेरों का बाहर से अन्दर का क्रम सारे पौधों में एक-सा होता है। इस एकरूपता के आधार पर वनस्पति वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि विकास के क्रम में सुदूर अतीत जब भी फूल अस्तित्व में आए (करीब 14 करोड़ वर्ष पूर्व) तब से ही यह क्रम अपरिवर्तित रहा है। और इसी के आधार पर यह निष्कर्ष भी निकाला गया है कि फूलों की विकास यात्रा द्विलिंगी फूलों से शु डिग्री हुई थी और एकलिंगी फूल बाद में प्रकट हुए हैं। दरअसल, लगभग आठ वर्ष पहले ई-फ्लॉवर नामक एक परियोजना के तहत विशेषज्ञों की एक टीम ने लगभग 800 प्रजातियों के जीवाश्मों के आधार पर प्रथम फूल की तस्वीर बनाने की कोशिश की थी। उसके मुताबिक प्रारम्भिक फूल एक केन्द्रीय अक्ष के सापेक्ष सममित यानी सिमेट्रिकल था और वह द्विलिंगी था अर्थात् उसमें नर व मादा, दोनों प्रजनन अंग थे। ई-फूल मॉडल से यह भी लगता था कि प्रारम्भिक फूल में अंग घेरों में थे अर्थात् समकेन्द्री वृत्तों में जमे हुए थे। किन्तु चार ऐसे उदाहरण थे जिनमें घेरेदार व कुण्डलित जमावट एक ही फूल में नज़र आती है।

बॉक्स-1

पादप वैज्ञानिकों ने कई जीन्स खोजे हैं जिन्हें अंग-निर्धारण जीन कहते हैं। ये फूलों में विभिन्न अंगों के निर्माण के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। इन्हें होमियोटिक जीन्स या हॉक्स जीन्स कहते हैं। विकसित होते फूल के कौन-से हिस्से में कौन-सा जीन अभिव्यक्त होगा, यह उस हिस्से की स्थिति पर निर्भर करता है। इनमें से किसी जीन में उत्परिवर्तन होने पर सारा मामला गड़बड़ हो जाता है।

एकलिंगी पौधों (अर्थात् ऐसे पौधे जिन पर या तो नर फूल लगते हैं या मादा फूल) पर किए गए प्रयोगों से पता चला है कि इनमें गुणसूत्र निर्धारित करते हैं कि कोई पौधा किस तरह का होगा। अलबत्ता, पूरे मामले की छानबीन काफी मुश्किल रही है। एक परिकल्पना यह रही है कि पौधों में लिंग निर्धारण एक जीन से नहीं बल्कि जीन्स के समूह द्वारा किया जाता है और इनमें से एक प्रमुख जीन होता है। प्रमुख जीन सक्रिय हो जाए तो वह पूरी जीन  ाृंखला को सक्रिय कर देता है और इनकी सक्रियता के फलस्वरूप कोई फूल नर या मादा हो जाता है। इसका मतलब है कि प्रत्येक पौधे में नर व मादा जननांगों के लिए ज़िम्मेदार जीन्स पाए जाते हैं। किसी पौधे में कौन-सा जीन, कहाँ सक्रिय होगा यह प्रमुख जीन की संरचना या पर्यावरणीय कारकों पर निर्भर होता है। कई एकलिंगी फूलों वाले द्विलिंगी पौधों में इस क्रियाविधि के प्रमाण मिले हैं।

तीन जीन से बना मॉडल
द्विलिंगी फूलों के विकास की व्याख्या के लिए एक मॉडल प्रस्तुत किया गया था जिसे ABC मॉडल कहते हैं। इस मॉडल के मुताबिक द्विलिंगी फूलों का विकास जीन्स की मिली-जुली क्रिया से होता है। इन जीन्स को कार्यों के अनुसार तीन समूहों में बाँटा गया है। A समूह के जीन्स अंखुड़ियों के विकास का नियंत्रण करते हैं जबकि पंखुड़ियों का विकास A और B समूह के जीन्स की मिली-जुली क्रिया से नियंत्रित होता है। मॉडल के मुताबिक पुंकेसर का विकास B और C समूह के जीन्स की सह-अभिव्यक्ति का परिणाम होता है और स्त्रीकेसर मात्र क् समूह के जीन्स की सक्रियता का परिणाम होता है।
सबसे पहले कुछ जीन्स के सक्रिय होने के परिणामस्वरूप सामान्य विभाजी ऊतक (मेरिस्टेम) पुष्प कलिका में परिवर्तित हो जाता है। इस ऊतक में विभिन्न घेरों में कोशिकाएँ उपस्थित होती हैं। इसके बाद प्रत्येक घेरे में अलग-अलग जीन्स की सक्रियता के परिणामस्वरूप अलग-अलग अंगों का निर्माण होता है।
इन अलग-अलग जीन्स के अध्ययन के लिए कई तकनीकें अपनाई गई हैं और इन अध्ययनों से ABC मॉडल की पुष्टि हुई है (बॉक्स-1)। उदाहरण के लिए एरेबिडॉप्सिस के पौधे में जब A समूह के जीन की अभिव्यक्ति न हो तो एक ऐसा फूल बनता है जिसके एक घेरे में स्त्रीकेसर होते हैं, दूसरे घेरे में पुंकेसर और तीसरे घेरे में फिर से स्त्रीकेसर होते हैं। हम देख ही चुके हैं कि अंखुड़ियों और पंखुड़ियों के विकास के लिए A समूह के जीन्स की उपस्थिति और सक्रियता अनिवार्य है।
किसी जीन की सक्रियता तो समझने के लिए उस जीन को खामोश कर देने (यानी जीन सायलेंसिंग) की तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। दूसरा तरीका यह है कि ऐसे पौधों को चुना जाए जिनमें कोई गड़बड़ी नज़र आए और फिर उनके विश्लेषण की मदद से वह जीन हासिल किया जाए जो वह प्रभाव दर्शाता है।
पूरी बात को समझने के लिए एक-दो उदाहरणों का सहारा लेना पड़ेगा।

मक्का का पौधा द्विलिंगी होता है - इसके शीर्ष पर तो नर फूल लगते हैं जबकि नीचे की ओर पत्तियों के कक्ष में मादा फूल लगते हैं। जब पुष्प कलिकाएँ बनती हैं तो शीर्ष और कक्ष की कलिकाओं में कोई प्रकट अन्तर नहीं होता सिवाय इसके कि शीर्ष कलिकाएँ शाखित होती हैं। दोनों पुष्पक्रमों के फूलों में शु डिग्री में सारे अंग पाए जाते हैं - ग्लूम, लेमा, पेलिया, पुंकेसर और स्त्रीकेसर। आगे के विकास के दौरान शीर्ष पुष्पक्रम के फूलों में स्त्रीकेसर का और कक्षस्थ पुष्पक्रम के फूलों में पुंकेसर का विकास रुक जाता है और ये झड़ जाते हैं। इसके साथ ही दोनों में कई सारे अन्य लक्षणों में भी अन्तर नज़र आने लगते हैं। सवाल यह उठता है कि विकास में इन अन्तरों को कौन नियंत्रित करता है।
इस सवाल का जवाब पाने में मक्का के कई उत्परिवर्तित पौधों के अध्ययन ने अहम भूमिका निभाई है। इन अध्ययनों से पता चला है कि एकलिंगी फूल बनने की क्रिया में होता यह है कि अनचाहे लिंग का दमन किया जाता है और इस दमन में गिबरलिन नामक रसायनों की भूमिका होती है (बॉक्स-2)। थोड़ा विस्तार में देखते हैं।

मक्का के साथ प्रयोग
मक्का के पौधों में एक उत्परिवर्तन होता है dwarf । ये पौधे अपेक्षाकृत छोटे होते हैं और इनमें भुट्टे वाले पुष्पक्रम में पुंकेसर का विकास रुकता नहीं है जबकि स्त्रीकेसर का विकास धीमा पड़ जाता है (सामान्य परिस्थिति में होना यह चाहिए कि भुट्टे वाले पुष्पक्रम में पुंकेसर का विकास रुक जाए और स्त्रीकेसर का विकास चलता रहे)। दूसरी ओर, dwarf उत्परिवर्तित पौधों में शीर्ष पुष्पक्रम सामान्य रहते हैं सिवाय इसके कि कई बार उनमें परागकोश बाहर नहीं निकल पाते।
ऐसे dwarf उत्परिवर्तन वाले पौधों में जीन्स का विश्लेषण करने पर पता चला कि यह गुणसूत्रों में 6 अलग-अलग स्थानों पर उत्परिवर्तन का परिणाम होता है। मज़ेदार बात यह है कि इन 6 स्थलों के बीच परस्पर कोई जुड़ाव नहीं होता। इन उत्परिवर्तित पौधों के जैव-रासायनिक व कार्यिकीय विश्लेषण से पता चला है कि मक्का में मादा के विकास में गिबरलिन की भूमिका महत्वपूर्ण है।
सबसे पहले यह पता चला था कि dwarf उत्परिवर्तित पौधों में जो असामान्य लक्षण नज़र आने लगते हैं उन्हें गिबरलिन की बाह्य खुराक देकर दुरुस्त किया जा सकता है। यह भी पता चला कि ऐसे पौधों में गिबरलिन का आन्तरिक उत्पादन कम होता है।

बॉक्स-2

हारमोन में ऑक्सिन, सायटोकाइनिन और गिबरलिन प्रमुख हैं। इनके अलावा एब्सिसिक एसिड, इथायलीन, ब्रासिनोस्टेरॉइड्स, जैस्मोनेट्स, स्ट्रिगोलैक्टोन्स वगैरह भी पाए जाते हैं और विशिष्ट भूमिकाएँ निभाते हैं। वैसे आम तौर पर किसी हारमोन का असर इस बात पर निर्भर करता है कि वह पौधे के किस हिस्से में है। दूसरी बात यह है कि ये हारमोन्स अकेले-अकेले नहीं बल्कि एक मिश्रण के रूप में प्रभाव पैदा करते हैं। इनमें से खास तौर से गिबरलिन फूल के निर्माण तथा फूल में लिंग निर्धारण के लिए ज़िम्मेदार होते हैंै।


आगे चलकर सामान्य पौधों पर किए गए प्रयोगों से पता चला कि बाहर से गिबरलिन दिया जाए तो शीर्ष पुष्पक्रम में भी मादा लक्षण प्रकट हो जाते हैं। यह भी पता चला कि भुट्टे वाले पुष्पक्रम में गिबरलिन का स्तर शीर्ष के मुकाबले 100 गुना ज़्यादा होता है।
प्रयोगों से यह भी पता चला है कि पर्यावरणीय परिस्थितियाँ लैंगिक स्थिति को प्रभावित कर सकती हैं। जैसे सामान्य पौधों के शीर्ष फूलों (जो सामान्यत: नर होते हैं) को छोटे दिन की परिस्थिति में रखा जाए या कम प्रकाश में रखा जाए तो उनमें मादा लक्षण प्रकट हो जाते हैं। गौरतलब है कि प्रयोगों से यह भी पता चला कि कम प्रकाश होने पर गिबरलिन का स्तर बढ़ जाता है।

इन सब प्रयोगों से तो यही संकेत मिलता है कि मक्का में लिंग निर्धारण का प्रमुख कारक गिबरलिन है। और गिबरलिन कम हो तो भुट्टे वाले (कक्षस्थ) फूलों में स्त्रीकेसर बनने की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है।
दरअसल dwarf उत्परिवर्तन कई तरह का होता है। जैसा कि ऊपर कहा गया था, यह 6 अलग-अलग स्थलों को प्रभावित करता है। यह देखा गया कि ये अलग-अलग किस्म के dwarf उत्परिवर्तन गिबरलिन-1 के उत्पादन की प्रक्रिया में अलग-अलग चरण पर हस्तक्षेप करते हैं। मगर इनमें से एक उत्परिवर्तन होने पर देखा गया कि गिबरलिन के स्तर में कोई कमीबेशी नहीं होती और ऐसे पौधे बाहर से गिबरलिन देने पर कोई प्रतिक्रिया भी नहीं देते। इसका मतलब है कि यह उत्परिवर्तन गिबरलिन के उत्पादन को प्रभावित नहीं करता बल्कि कोशिकाओं द्वारा उसे ग्रहण करने और प्रतिक्रिया देने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है।

अलबत्ता, इन प्रयोगों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि गिबरलिन लिंग निर्धारण का कारण है। अभी तो मात्र इतना ही कहा जा सकता है कि गिबरलिन और लिंग का कुछ सम्बन्ध है, ज़रूरी नहीं कि यह सम्बन्ध कार्य-कारण सम्बन्ध हो।

एक और उत्परिवर्तन
कुल मिलाकर dwarf उत्परिवर्तन कक्षस्थ (भुट्टे वाले) फूलों में पुंकेसर के विकास को बढ़ावा देते हैं। या यह भी कहा जा सकता है कि ये उत्परिवर्तन भुट्टा फूलों में पुंकेसर का दमन करने में नाकाम रहते हैं। अब एक अन्य किस्म के उत्परिवर्तन पर विचार करते हैं जो इससे विपरीत असर डालता है। इसे tassel seed उत्परिवर्तन कहते हैं।
tassel seed  (संक्षेप  में  द्यद्म) उत्परिवर्तन भी कई किस्म के होते हैं। द्यद्म उत्परिवर्तित पौधों में देखा यह गया है कि शीर्ष वाले फूलों में पुंकेसरों का नहीं बल्कि स्त्रीकेसरों का विकास होता है। भुट्टे पर असर यह पड़ता है कि वहाँ ज़्यादा दाने बनते हैं। इसका कारण समझने के लिए मक्का के भुट्टे वाले फूल को थोड़ा समझना होगा। आम तौर पर भुट्टे पर फूल जोड़ी में लगे होते हैं किन्तु फूलों के विकास के दौरान प्रत्येक जोड़ी का निचला वाला फूल झड़ जाता है। द्यद्म उत्परिवर्तन का असर यह होता है कि जोड़ी के दोनों फूल विकसित होते हैं। इस वजह से दाने पास-पास लगते हैं।

वैसे dwarf के समान द्यद्म उत्परिवर्तन भी कई प्रकार के होते हैं और इनके असर भी अलग-अलग होते हैं। कुछ द्यद्म उत्परिवर्तनों के कारण शीर्ष के सारे फूल पूरी तरह मादा में परिवर्तित हो जाते हैं और भुट्टे में जोड़ी के निचले वाले फूल का भी विकास होने लगता है। कुछ द्यद्म उत्परिवर्तनों का असर यह होता है कि शीर्ष और भुट्टे, दोनों पर बहुत अधिक फूल पैदा होते हैं और इनमें से कुछ नर, कुछ मादा, कुछ द्विलिंगी और कुछ अलिंगी फूल होते हैं।

मक्का के द्विलिंगी पौधों में दो तरह के फूलों के विकास सम्बन्धी कई अन्य उत्परिवर्तन पहचाने गए हैं। एक उत्परिवर्तन को सिल्कलेस (silkless) कहते हैं और ऐसे पौधों में भुट्टों में वर्तिका का विकास नहीं हो पाता जबकि शीर्ष के फूल सामान्य रहते हैं। गौरतलब है कि भुट्टों में जो बाल होते हैं वे वास्तव में फूलों की वर्तिकाएँ हैं, जिन्हें अँग्रेज़ी में सिल्क कहते हैं। दूसरी ओर सिल्की नामक उत्परिवर्तन के चलते बेशुमार वर्तिकाएँ बन जाती हैं और शीर्ष के फूलों में पुंकेसरों का विकास अधूरा  रह  जाता  है।  एक  और उत्परिवर्तन है जिसके चलते भुट्टे वाले पुष्पक्रम में शाखाएँ बनने लगती हैं और प्रत्येक शाखा शीर्ष पुष्पक्रम जैसे पुष्पक्रमों को जन्म देती है। कुछ उत्परिवर्तित पौधों में ऊपरी पुष्पक्रम में छोटे-छोटे भुट्टे लगने लगते हैं।

इस तरह की विविधता को देखते हुए लगता है कि एकलिंगी फूलों वाले द्विलिंगी पौधों में लिंग का निर्धारण काफी जटिल प्रक्रिया है और कई सारे जीन्स के नियंत्रण में चलती है। कुछ प्रयोगों से पता चला है कि उपरोक्त में से कुछ जीन्स तो एक समान क्रिया-मार्गों पर काम करते हैं और इनके बीच परस्पर अन्तर्क्रियाएँ भी होती हैं।
ts उत्परिवर्तन वाले पौधों का जैव रासायनिक विश्लेषण अभी किया नहीं गया है। कुछ प्रयोगों में ज़रूर पता चला था कि बाहर से गिबरलिन देने पर पौधे सामान्य हो जाते हैं मगर अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है।
अभी यह विवरण काफी संक्षिप्त ही है। कई सारे और कारक लिंग पर असर डालते हैं। कुल मिलाकर लगता यही है कि किसी प्रकार से गिबरलिन का स्थानीय स्तर दोनों जगहों (शीर्ष और कक्ष) पर फूलों के लिंग को कुछ हद तक प्रभावित करता है। शायद इस मामले में कुछ अन्य बाहरी या अन्दरुनी संकेत भी होंगे।

ऐसा प्रतीत होता है कि गिबरलिन की सान्द्रता या अन्य बाहरी/अन्दरुनी संकेतों को कोई जीन भाँपता रहता है और सही संकेत पाकर पुष्पीय ऊतक को नर या मादा राह पर धकेलता है। यह माना जा सकता है कि एक ही पौधे के अलग-अलग स्थान पर लिंग निर्धारण  के  जीन  अलग-अलग अवस्थाओं में रहते होंगे। जैसे हो सकता है कि स्त्रीकेसर के विकास को रोकने वाला जीन शीर्ष कलिकाओं में चालू अवस्था में रहता होगा। बहरहाल, इस परिकल्पना के पक्ष में स्पष्ट व पुख्ता प्रमाण बहुत कम हैं और पूरी तस्वीर के लिए हमें कई और प्रयोगों/अध्ययनों की प्रतीक्षा करनी होगी।   

जो पौधे एकलिंगी होते हैं (अर्थात् जिनमें किसी पौधे पर मादा तथा किसी पौधे पर नर फूल लगते हैं) वे तो लिंग निर्धारण के मामले में जन्तुओं के समान प्रतीत होते हैं। इस सन्दर्भ में एकलिंगी पौधे मर्क्यूरी पादप का विस्तार में अध्ययन किया गया है। यह एक ज़हरीला पौधा है। अध्ययनों से पता चला है कि इस पौधे में जो जीन पौधे के लिंग का निर्धारण करते हैं वे वृद्धि का नियंत्रण करने वाले रसायनों (ऑक्सिन और सायटोकायनिन) के ज़रिए अपना असर दिखाते हैं। मर्क्यूरी पादप में ऐसे तीन जीन्स खोजे जा चुके हैं। ए, बी-1 और बी-2। इनमें प्रत्येक जीन का डॉमिनेन्ट एलील पुंसत्व को बढ़ावा देता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, प्रत्येक जीन जोड़ी में पाया जाता है। किसी भी जीन की इन प्रतियों को एलील कहते हैं। जीव में प्रत्येक गुण के लिए दो एलील पाए जाते हैं। हो सकता है कि ये दोनों एलील एक जैसे हों। मगर कई बार ये एक-दूसरे से भिन्न भी होते हैं। ऐसा होने पर उस जीव का रूप उनमें से किसी एक एलील से निर्धारित होता है। इसे डॉमिनेन्ट एलील कहते हैं। वैसे डॉमिनेन्ट और गैर-डॉमिनेन्ट एलील की समझ कहीं ज़्यादा पेचीदा है और उसे अलग से समझने की ज़रूरत होगी।

यह देखा गया है कि यदि जेनेटिक रूप  से  नर  पौधों  का  उपचार सायटोकायनिन से किया जाए तो उनमें मादा लक्षण प्रकट हो जाते हैं। मगर मादा पौधों को ऑक्सिन की मदद से सिर्फ कल्चर में ही परिवर्तित किया जा सका है। तो यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या वृद्धि का नियंत्रण करने वाले रसायन लिंग का निर्धारण करते  हैं?  मर्क्यूरी  पादप  में  तो सायटोकायनिन और ऑक्सिन का सम्बन्ध क्रमश: मादा व नर से देखा गया है।

यह भी देखा गया है कि मर्क्यूरी पादप में नर व मादा पुष्प कलिकाओं को उनमें उपस्थित ऑक्सिन व सायटोकायनिन की सान्द्रता के आधार पर पहचाना जा सकता है। मादा पुष्प कलिकाओं में मात्र ट्रांस-ज़ीटिन और ऑक्सिन की अल्प मात्रा पाई गई जबकि नर कलिकाओं में ट्रांस-ज़ीटिन लगभग नगण्य था और ऑक्सिन की मात्रा अधिक थी। यह तो सही है कि वृद्धि के नियंत्रक रसायनों की मात्रा और लिंग का कुछ सम्बन्ध है किन्तु सम्भवत: ये शुरुआती स्विच नहीं हैं। नर या मादा विभेदन की शुरुआत कैसे होती है? हाल के अध्ययनों में कुछ आणविक चिन्ह पहचाने गए हैं। अलबत्ता, इनका विस्तृत अध्ययन अभी नहीं हुआ है।

अन्य रणनीतियाँ
कई अन्य प्रजातियों में लिंग निर्धारण के तरीकों के अध्ययन से पता चलता है कि रणनीतियाँ तो काफी अलग-अलग हैं मगर अधिकांश एकलिंगी फूलों के निर्माण के लिए वृद्धि नियंत्रक रसायनों का उपयोग किया जाता है। आम तौर पर यह लगता है कि नर या मादा अंगों की वृद्धि को रोकने के ही अलग-अलग रास्ते अपनाए गए हैं।  
जैसे सतावर (एस्पेरेगस) एकलिंगी पौधा है जिसमें स्पष्ट सेक्स गुणसूत्र होते हैं। इसमें XY और YY गुणसूत्र वाले पौधों पर तो नर फूल लगते हैं जबकि XX पौधे मादा फूल पैदा करते हैं। कुछ परिस्थितियों में XY पौधों पर दो तरह के फूल लगते हैं - द्विलिंगी और नर। इस पौधे पर जेनेटिक अध्ययन कम हुए हैं मगर सीमित अध्ययनों से पता चला है कि Y गुणसूत्र पर मादा को रोकने वाले तथा नर को सक्रिय करने वाले जीन्स पाए जाते हैं।

इसी प्रकार से मेलेंड्रियम की एकलिंगी प्रजातियों में भी सेक्स गुणसूत्र पाए जाते हैं। इसमें ऑटोसोम, तथा X व Y गुणसूत्रों की मात्रा घटा-बढ़ाकर प्रयोग किए गए तो पता चला कि मूलत: Y गुणसूत्र की उपस्थिति या अनुपस्थिति से नर या मादा विभेदन तय होता है जबकि X गुणसूत्र और ऑटोसोम  की  संख्या  पुंसत्व  की अभिव्यक्ति को प्रभावित करती है। एक अन्य प्रयोग में X गुणसूत्र और ऑटोसोम के अनुपात को बदलकर देखा गया। पता चला कि यह अनुपात 0.5 से 1.5 के बीच रहे तो लिंग की अभिव्यक्ति पर कोई असर नहीं पड़ता।
ककड़ी का पौधा द्विलिंगी होता है मगर फूल एकलिंगी होते हैं। सामान्यत: इसमें तने के निचले हिस्से में नर फूल लगते हैं, इसके बाद के हिस्से में नर व मादा, दोनों तरह के फूल लगते हैं जबकि ऊपरी सिरे की ओर मादा फूल ही लगते हैं। किन्तु बाहर से हारमोन दिए जाएँ तो यह पैटर्न बदला जा सकता है। यदि ऑक्सिन दिए जाएँ तो पौधे मादा बन जाते हैं। जबकि गिबरलिन उसे नर बना देते हैं।
पौधों  में  लिंग  निर्धारण  की क्रियाविधि काफी पेचीदा और रहस्यमयी लगती है और यह वैज्ञानिकों को आकर्षित करती है। हम उम्मीद कर सकते हैं कि भविष्य में इसके अन्य पहलुओं का खुलासा होगा।


सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।