मोहम्मद उमर

आम  तौर  पर  देखा  गया  है  कि हमारी प्राथमिक तथा उच्च प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चों को किसी भी प्रकार के पैमाने - स्केल, चांदा आदि - उपयोग करने के दौरान बहुत समस्या आती है। मापन पर आधारित अभ्यासों का विश्लेषण करके हम आसानी-से देख सकते हैं कि बहुत सारे बच्चे सही नाप-जोख नहीं कर पाते हैं। स्केल की सहायता से रेखाओं की लम्बाई या चांदे की सहायता से कोण मापने की गतिविधियाँ हों या फिर इनकी सहायता से रेखा या कोण निर्माण करने के अभ्यास, सभी जगहों पर हम अपनी कक्षाओं में कई बच्चों को जूझते हुए देख सकते हैं। इस सबसे एक बात तो साफ है कि पैमाने की समझ, उसकी आवश्यकता तथा मापन सम्बन्धी अवधारणाओं पर हमेंे अपनी कक्षाओं में और भी बेहतर ढंग से एवं योजनाबद्ध तरीके से काम करने की सख्त ज़रूरत है।

किताब की गतिविधियाँ
प्राथमिक कक्षाओं की पाठ्यपुस्तकों को देखें तो हम पाएँगे कि योजनाबद्ध क्रमिकता में पिरोए गए पाठों द्वारा पैमाना तथा मापन की विषयवस्तु की मदद से बच्चों को मुख्य रूप से तीन महत्वपूर्ण चरणों से गुज़रने और उन्हें स्वयं नाप-जोख करने के अवसर प्रदान करने का प्रयास किया जाता है। ये तीन चरण इस प्रकार हैं:
असमान अमानक इकाइयाँ तथा इनकी सहायता से मापन: उदाहरण के लिए बालिश्त या कदम का प्रयोग करते हुए मापना। इस प्रक्रिया में व्यक्ति बदलते ही माप भी बदल जाता है क्योंकि अलग-अलग लोगों के बालिश्त व कदम अलग-अलग लम्बाई के होते हैं। इसीलिए इस तरह की इकाइयों की अपनी एक सीमा है। हम इनका उपयोग कुछ सीमित सन्दर्भों में ही करते हैं।
समान अमानक इकाई तथा इनकी सहायता से मापन: उदाहरण के लिए किसी रस्सी के टुकड़े, लकड़ी, फीता आदि का प्रयोग करके मापना। इस प्रक्रिया में पैमाना समान होने से तुलना आदि करने के दौरान कुछ हद तक सहूलियत ज़रूर होती है, लेकिन नियत इकाइयों से छोटी नाप ले पाने में परेशानी होती है।
समान मानक इकाइयाँ तथा इनकी सहायता से मापन: उदाहरण के लिए स्केल या दर्जी का फीता। समाज में यह सभी के लिए समान है तथा नियत इकाइयों को और भी छोटी इकाइयों में बाँटकर सटीकता से नापे जा सकने की सुविधा प्रदान करते हैं। घट-बढ़ के कारण परिणामों मे कुछ अन्तर रह जाने की सम्भावना यहाँ पर भी बनी रहती है।

शिक्षणशास्त्र का नज़रिया
सैद्धान्तिक तौर पर ऐसा माना जाता है कि असमान अमानक इकाइयों जैसे बालिश्त, कदम तथा समान अमानक इकाइयों जैसे लकड़ी का टुकड़ा, रस्सी का टुकड़ा आदि की कुछ समझ तो बच्चे अपने दैनिक जीवन या परिवेश से ही लेकर आ रहे होते हैं। यदि वे अपने मोहल्ले में अन्य बच्चों के साथ पारम्परिक खेलों जैसे गिल्ली डण्डा आदि में शामिल रहे हैं तो एक हद तक इन समान तथा असमान अमानक इकाइयों के प्रयोग से भी परिचित होते हैं। उनके इन्हीं अनुभवों को आधार बनाकर हम उन्हें समान मानक इकाइयों की अवधारणा से परिचय तथा उपयोग की तरफ भी लेकर जा सकते हैं। यह बात सुनने में काफी आसान लगती है, लेकिन है नहीं। यह काम काफी समय लेता है। साथ ही बच्चों की उम्र का खयाल रखते हुए योजनाएँ बनानी पड़ती हैं। पैमाना तथा मापन से जुड़ी गतिविधियाँ बहुत छोटे बच्चों को नहीं समझाई जा सकतीं। इसीलिए ऊपर बताए गए तीनों चरणों को पहली कक्षा से शु डिग्री कर पाँचवीं-छठवीं कक्षा तक की पाठयपुस्तकों में कुछ इस तरह रखा जाता है कि बच्चे पिछले काम के दोहराव के साथ-साथ ही आगे भी बढ़ते रहें।
अमूमन पहली कक्षा के बच्चों को चित्र देखकर या दो वस्तुओं को देखकर बताना होता है कि इन दोनों में से कौन-सा ज़्यादा लम्बा है और कौन-सा छोटा है। दो से अधिक चीज़ें उनके सामने रखकर सबसे छोटे से सबसे लम्बे के क्रम में रखने के अवसर दिए जाते हैं। पहली से तीसरी कक्षा के दौरान ही अन्दाज़ लगाकर ज़्यादा लम्बे की पहचान कर पाने के कौशलों पर भी काम किया जाता है। पाँचवीं कक्षा में आ चुके बच्चों से यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे दी गई नाप के अनुसार रेखा खींच सकें तथा पहले से बनी हुई सरल रेखाओं की लम्बाइयाँ भी माप सकें। लेकिन हमारे शिक्षण के तरीकों और व्यवस्थागत खामियों के चलते अभी यह सब काम ठीक तरह से नहीं हो पा रहा है।
कुछ साल पहले मध्य प्रदेश के एक सरकारी स्कूल की कक्षा-6 के बच्चों के साथ मुझे कुछ माह इन्हीं सब मुद्दों पर काम करने का अवसर मिला था। यह लेख उन्हीं अनुभवों पर आधारित है।

मेरी कक्षा, मेरे अनुभव
यह सन् 2008 की बात है। मैं मध्य प्रदेश में एकलव्य संस्थान के होशंगाबाद केन्द्र पर काम करता था। गणित विषय में काम करना अभी शुरु ही किया था। यूँ  तो पहले भी स्कूल में बच्चों को गणित पढ़ाता रहा था, परन्तु यहाँ मुझे गणित शिक्षण में आने वाली चुनौतियों को समझना था। खास तौर से शिक्षण शास्त्रीय नज़रिए से। सरल शब्दों में कहूँ तो गणित को मज़ेदार और रोचक बनाते हुए पढ़ाना था। रोज़ सुबह दो घण्टे पास के गाँव में स्थित सरकारी स्कूल के बच्चों को गणित पढ़ाने जाना होता था। शाम को हमारी गणित समूह की समन्वयक जयश्री सुब्रहमण्यन तथा मेरे अन्य सहकर्मी सुनील एवं शिशिर के साथ विमर्श करता था। हम बच्चों द्वारा किए गए हल को देखते तथा उनकी चुनौतियों को समझने का प्रयास करते थे। यहाँ पर मुझे कई अवधारणाओं पर काम करने का अवसर मिला। ऐसी ही एक अवधारणा है लम्बाई मापन। स्केल की सहायता से लम्बाई मापना सिखाने की यह घटना मेरे अपने सीखने में भी उतनी ही मददगार रही है जितना कि मेरी कक्षा के बच्चों के लिए रही होगी।
यह शहर के बाहरी इलाके में स्थित एक कस्बे का सरकारी स्कूल था। कक्षा-6 में चालिस से भी अधिक बच्चे पढ़ते थे। अधिकांश बच्चे निम्न आय वर्ग परिवारों से आते थे। मुझे लम्बाई मापन पर आधारित पाठ पढ़ाना था।
यूँ तो पाँचवीं तक की गणित की पाठ्यपुस्तकों में दिए गए माप के अनुसार रेखा बनाने के अभ्यास कई बार दिए जा चुके होते हैं, फिर भी मेरी कक्षा के बहुत-से बच्चे अभी भी सही ढंग से रेखा नहीं खींच पाते थे। वे स्केल का इस्तेमाल महज़ हाशिया बनाने या और कोई सीधी रेखा खींचने में ही करते थे। छोटा स्केल बहुतों के पास था ही नहीं, और बड़ा स्केल उन्होंने बस अपने शिक्षकों के हाथों में ही देखा था।
दी गई नाप के अनुसार सरल रेखा खींचने की गतिविधि पर काम करना चाह रहा था। लेकिन इससे पहले यह जान लेना बहुत ज़रूरी था कि अभी कितने बच्चे स्केल की मदद से सरल रेखा बना लेते हैं, इस काम में वे किस-किस प्रकार की गलतियाँ करते हैं, आदि आदि।
अपने बचपन के अनुभवों से जानता हूँ कि दिए गए नाप के अनुसार कॉपी में स्केल से रेखा खींचना बड़ा नीरस किस्म का काम होता है। इससे कहीं ज़्यादा मज़ा तो स्केल को सिर पर घिसकर कागज़ के टुकड़ों को दूर से ही खींच लेने में आया करता था।

योजना निर्माण और सामग्री
मेरे सामने सवाल यह था कि अपनी कक्षा को कैसे रोचक बनाऊँ। इसके लिए मैंने एक योजना बनाई जिसमें मुझे कुछ शिक्षण सहायक सामग्री और कुछ मनगढ़न्त सन्दर्भों की ज़रूरत थी। सामग्री में मेरा गमछा था, जो उस समय अक्सर मेरे थेले में ही होता था। एक लकड़ी की पटरी और रस्सी का टुकड़ा चाहिए था जिसे हार्डवेयर की दुकान से खरीद लिया। इसके अलावा एक स्केच पेन भी था। अगले दिन सुबह कक्षा में पहुँचकर मैंने बोर्ड पर यह सवाल लिख दिया।
प्रश्न: रेखा खींचो।
(1) 7 से.मी. लम्बी
(2) 5.4 से.मी. लम्बी
(3) 3 इंच लम्बी
तकरीबन एक तिहाई कक्षा के पास स्केल था। बाकी बच्चों में कुछ के पास लकड़ी की सादी पटरियाँ थीं। कुछ अपने ज्यामिति बॉक्स में स्केल की गैरमौजूदगी में सेट स्कवायर से ही काम चला रहे थे। मुझे कहना पड़ा कि जिनके पास स्केल नहीं है वे अपने साथी से स्केल माँग सकते हैं। कुछ बच्चों ने काफी जल्दी रेखा खींच ली थी,  जबकि  बाकी  इधर-उधर  से ताँकझाँक या किसी की मदद की उम्मीद में बैठे थे। मैं कक्षा में हरेक बच्चे की कॉपी में झाँकता घूम रहा था। फायज़ा ने अपनी कॉपी में तीनों नाप की रेखाएँ खींच ली थीं। उसकी कॉपी पर नज़रें दौड़ाते ही मुझे वहीं रुक जाना पड़ा।

‘‘7 से.मी. लम्बी रेखा और 5.4 से.मी. लम्बी रेखा में कौन-सी बड़ी होगी?” मैंने पूछा।
“7 से.मी. वाली,” वह बोली।
“तुमने जो रेखा खींची है उसमें कौन-सी बड़ी है?”
“5.4 से.मी. वाली,” कॉपी में देखकर फायज़ा बोली।
“तो कौन-सी रेखा लम्बी बनेगी?”
“5.4 से.मी. वाली।”
“अच्छा बताओ 7 से.मी. ज़्यादा है कि 5.4 से.मी.?” मैंने फिर पूछा।
“7 से.मी. ज़्यादा है।”
“तो कौन-सी बड़ी बननी चाहिए?”
“7 से.मी. वाली।”
“तो गड़बड़ कहाँ हो रही है?”

गड़बड़ कहाँ है?
कुछ देर सोचकर और स्केल को अलट-पलटकर अपनी बनाई रेखा पर रखने के बाद वह बोली, “इसमें तो 6 तक ही दिया है।”
असल में फायज़ा ने इंच वाली किनार को रेखा से सटाकर रखा था। इस स्केल में इंच की नाप 6 तक आकर खत्म हो रही थी, इसीलिए 7 तक जा पाना उसे मुश्किल लग रहा था।
मैंने फायज़ा से कहा, “एक बार स्केल से मापकर दिखाओ कि जो रेखा बनाई है वह उतनी ही लम्बी है जितनी कि सवाल में कहा गया है।”
फायज़ा ने 7 से.मी. के लिए बनाई गई रेखा से सटाकर स्केल को चित्र-1 में दिखाए तरीके से रखा।
“सात से.मी. है, सर जी,” आश्वस्त होकर फायज़ा बोली।
इस तरह से नाप लेने वाली फायज़ा अकेली नहीं थी। और भी कई बच्चे थे, जो 7 से.मी. की रेखा को खींचने के लिए स्केल पर लिखे 1 से शुरु कर 7 तक जा रहे थे। देखकर ही समझ में आ गया कि फायज़ा समेत और भी बहुत-से बच्चे हैं जो कि स्केल का पहला से.मी. छोड़ रहे थे।
लेकिन 5.4 से.मी. लम्बी रेखा 7 से.मी. लम्बी रेखा से बड़ी कैसे बन गई, यह गुत्थी मेरे लिए अभी भी रहस्य बनी थी।
फायज़ा से ही पूछना पड़ा, “ये रेखा कैसे बनाई है?”
“पाँच और चार से नौ बन गया,” कॉपी में लिखे 5.4 के अंकों की ओर इशारा करते हुए वह बोली।
स्केल रखकर उसने दिखाया भी। रेखा 1 से चलकर 9 पर खत्म हो रही थी (चित्र-2)।


कुछ बच्चों ने 5.4 से.मी. लम्बी रेखा बनाने के लिए 1 से शु डिग्री करके 5 पर ही रेखा को खत्म कर दिया था। दशमलव और उसके बाद में लिखे अंकों के झंझट से दूर रहना ही इन्हें ठीक लगा होगा।
बच्चों की कॉपी में यह सब देख मुझे भी अपने स्कूली दिन याद आ गए। पता नहीं कैसे यह मेरी आदत बन गई थी कि मैं अक्सर अपने स्केल का एक कोना चबाता था। इस कारण मेरे स्केल का एक कोना जल्दी टूट जाता था। कई बार ऐसा होता कि यह वही टुकड़ा निकलता था जहाँ से से.मी. की शुरुआत है। कोनों से स्केल टूट जाने के बाद भी मैं और मेरे जैसे कई सहपाठी तब तक इसे नहीं बदलते थे जब तक से.मी. की तरफ 1 लिखा हुआ हिस्सा बिलकुल ही न टूट जाए। उस वक्त 1 का सुरक्षित रहना इस बात की गारंटी होता था कि बताए गए माप की सही रेखा बनेगी। इंच वाली माप की आवश्यकता बहुत कम ही पड़ा करती थी। अत: हम उस हिस्से की फिक्र कम ही करते थे।   
खैर, वापिस अपनी कक्षा में चलते हैं। सभी बच्चे जानना चाहते थे कि उन्होंने सही किया है या गलत, परन्तु अभी सही गलत के फेर में पड़ने का ठीक समय नहीं था। सो, मैंने अपनी योजना पर काम करना जारी रखा, मैंने सभी बच्चों से एक सवाल किया, “तुम लोग जिस चीज़ से रेखा खींच रहे हो, जानते हो इसे क्या कहते हैं?”
“हाँ सर जी, स्केल।”
“कितनी तरह के स्केल देखे हैं?”
कक्षा से उठी अलग-अलग आवाज़ों ने मेरी भी जानकारी बढ़ा दी -- न सिर्फ स्केल के प्रकार बल्कि उनकी कीमतें भी बच्चों ने बता डालीं।
“प्लास्टिक वाला दो रुपए का, लकड़ी वाला पाँच रुपए का और लोहे वाला पन्द्रह रुपए का मिलता है।”
“अच्छा स्केल कैसे बना होगा? इसकी क्या ज़रूरत पड़ी होगी?”
“फैक्ट्री वाले बनाते हैं सर जी, स्कूल के बच्चे खरीदते हैं,” एक जवाब मिला।
स्केल तथा उसके सीमित उपयोग पर कुछ बच्चे अपनी बात रख पा रहे थे, लेकिन इसकी ज़रूरत क्यों पड़ी होगी, इस सवाल का जवाब दे पाना उनके लिए अभी मुश्किल था।

कुछ कहानी, कुछ नाटक
अपनी योजना के अनुसार आज मुझे बच्चों के साथ मिलकर एक नाटक तैयार करना था।
“अच्छा चलो, एक नाटक खेलते हैं। मुझे एक बड़े लड़के और एक छोटे लड़के की ज़रूरत है।”
बच्चों द्वारा दो-चार नाम बोले जाने के बाद उन्होंने स्वयं सहमति बना ली थी। सलमान तथा आकाश का नाम आ गया था, मुझे एक दुकानदार की ज़रूरत भी थी। अत: सोनम को भी बुला लिया गया। वह संकोच के साथ आकर एक किनारे खड़ी हो गई। सलमान को कुर्सी पर बिठाते हुए मैंने कहानी शु डिग्री की।
“आज से कई सौ साल पहले सलमान चाचा अपने घर में खिड़की के पास बैठे थे। वहाँ से धूप आ रही थी! उन्हें लगा क्यों न एक पर्दा टाँग दिया जाए। उनका पड़ोसी रामू रोज़ गुड़ बेचने बैलगाड़ी से बाज़ार जाता था। सलमान चाचा ने अपने बित्ते से खिड़की की लम्बाई-चौड़ाई नापी और रामू को बता दिया कि इसी नाप का कपड़ा ले आना। चाचा ने उसे पैसे भी दे दिए।”
चाचा बने सलमान ने सच में खिड़की की लम्बाई और चौड़ाई को मापा! चौड़ाई थी 4 बित्ता 6 उंगली और लम्बाई थी 6 बित्ता।
रामू का किरदार निभा रहा आकाश भी बैलगाड़ी हाँकता हुआ बाज़ार की ओर चल दिया और दुकानदार को नाप बताकर कपड़ा माँगा। दुकानदार ने रामू से कहा, ‘तुम अपने हाथ से ही अपनी ज़रूरत जितना कपड़ा नाप लो।’ इस तरह रामू ने 6 बित्ता लम्बा और 4 बित्ता 6 अंगुल चौड़ा कपड़ा नाप लिया। दुकानदार ने यह कपड़ा काटकर दे दिया! घर लौटकर रामू ने यह कपड़ा सलमान चाचा को दिया। चाचा ने यह कपड़ा खिड़की से सटाकर देखा तो कपड़ा काफी छोटा निकला। वो रामू पर नाराज़ हुए। रामू ने कहा, ‘चाचा, मैं तो उसी नाप का कपड़ा लाया हूँ जो आपने बताया था!’
अब बारी थी रुककर सवाल-जवाब की! सौ मैंने पूछा, “कपड़ा कम कैसे हो गया?”
“रामू का बित्ता छोटा था,” कुछ ने कहा।

“तो सलमान चाचा को सही नाप का कपड़ा मँगाने के लिए क्या करना चाहिए था?”
“वह खुद जाता,” दीपक ने कहा।
दीपक का जवाब सही था। सलमान चाचा स्वयं बाज़ार जाकर अपनी ज़रूरत के अनुसार कपड़ा लेकर आ सकते थे। सो मैंने एक और शर्त जोड़ दी।
“मान लो कि सलमान चाचा बूढ़े हैं, बीमार भी रहते हैं इसलिए शहर नहीं जा सकते, तब?”
“किसी बड़े को भेजता,” दीपक बोला।
“अच्छा मान लो मैं सलमान चाचा का बड़ा बेटा हूँ! वो मुझे भेजते तो क्या होता?”
“कपड़ा बड़ा हो जाएगा,” अंकित और महेन्द्र ने भी अपनी बात जोड़ी।
“ऐसा क्यों?”
“क्योंकि उसका हाथ बड़ा है।”
“हुम्म... छोटे को भेजो तो छोटा हो जाएगा और बड़े को भेजो तो बड़ा हो जाएगा! तो ऐसे में और क्या किया जा सकता है?”
कुछ देर कक्षा में खामोशी रही। किसी को भी कोई जवाब नहीं सूझ रहा था।

तभी दीवार से टेक लगाकर बैठी क्षमा ने बहुत धीरे-से कहा, “रस्सी से नापकर देता।”
बाकी बच्चों ने भी क्षमा की इस सलाह पर सहमति जताई। सलमान चाचा के हाथ में देने के लिए रस्सी ढूँढ़ी जाने लगी।
“सर जी, इनके रिबन खुलवा लो,” एक लड़के ने आगे बैठी लड़कियों की चोटी में लगे लाल रिबन की ओर इशारा करते हुए कहा।
एक और लड़का अपने हाथ में लिपटा कलावा का लाल धागा खोल लाया। यह धागा उसने सलमान को थमा दिया।
अब नाटक आगे बढ़ा। सलमान चाचा एक बार फिर अपनी कुर्सी से उठे और उन्होंने धागे की मदद से खिड़की की चौड़ाई नापकर धागे में उसी जगह एक गठान लगा दी। फिर लम्बाई नापी और उसके लिए भी एक गठान लगा दी।
इस तरह खिड़की की लम्बाई तथा चौड़ाई को रस्सी पर गठान द्वारा दर्शाकर सलमान चाचा ने रामू को यह धागा देकर बाज़ार भेजा।
बच्चों ने बाज़ार में बैठे दुकानदार के पास मेरे गमछे को कपड़े की थान बनाकर रख दिया था। दुकानदार ने रामू के बताए अनुसार धागे से कपड़ा नाप लिया। जो हिस्सा बढ़ रहा था उसे मोड़ देने पर वह अपेक्षित नाप के अनुकूल बन गया।

रामू ने दुकानदार को पैसे दिए और घर लौटकर परदे का कपड़ा सलमान चाचा को दे दिया। चाचा ने तुरन्त खिड़की पर डालकर इसे नाप लिया। वे खुश हुए क्योंकि इस बार कोई गड़बड़ नहीं हुई थी।
यहाँ तक का नाटक बच्चों को पसन्द आ रहा था। मेरी योजना का पहला चरण पूरा हो गया था। बच्चे एक स्थाई नाप होने की ज़रूरत महसूस कर पाए थे, और रस्सी को इस्तेमाल करने का सुझाव दे पाए थे। यानी वे समझ सकते थे कि चाचा की खिड़की और दुकानदार के कपड़े को किसी एक ही चीज़ से नापा जाना ज़रूरी है। अब मैं अपनी योजना पर आगे बढ़ सकता था।
सो मैंने अपनी कहानी को जारी रखा-
“एक दिन सलमान चाचा के घर कुछ मेहमान आने वाले थे। चाचा अपना घर सजा रहे थे। उन्होंने आज फिर रामू को बुलाया और एक रस्सी तथा पैसे देते हुए बोले, ‘अरे रामू आज बाज़ार से लौटते वक्त इस नाप का कपड़ा ला देना, दरवाज़े में भी परदा लगाना है’।
“रामू बाज़ार में कपड़े की दुकान पर पहुँचा और उसने जैसे ही अपनी जेब में हाथ डाला तो उसे पता चला कि रस्सी का टुकड़ा तो उसकी जेब में है ही नहीं। वह दुकान वाले से कपड़ा कैसे ले।
“शाम को रामू बिना कपड़ा खरीदे लौट आया। चाचा के घर मेहमान आ चुके थे। रामू उन्हीं के सामने रस्सी खो जाने की बात बताने लगा। मेहमान काफी समझदार थे। उन्होंने एक लकड़ी की पटरी ली और उसपर बराबर दूरी पर कई निशान बनाकर सलमान चाचा को देते हुए बोले, ‘आप दरवाज़े की लम्बाई तथा चौड़ाई को इसकी मदद से भी नाप सकते हैं’।
“सलमान चाचा ने इस पटरी की मदद से एक बार फिर दरवाज़े को नाप लिया। दरवाज़ा 80 खाना चौड़ा और 120 खाना लम्बा निकला। दूसरे दिन रामू इसी पटरी को लेकर बाज़ार गया और कपड़े वाले की दुकान से इस पटरी की मदद से 120 खाना लम्बा और 80 खाना चौड़ा परदे का कपड़ा ले आया।

“इस दुकानदार को भी ये पटरी पसन्द आई। उसने भी अपने लिए ठीक ऐसी ही पटरी बनवा ली। धीरे-धीरे ये पटरी सभी कपड़े वालों, बढ़ई, राज मिस्त्री, कपड़े सिलने वालों आदि के पास मिलने लगी। सभी लोगों को यह इतनी पसन्द आई कि कारखाने में छोटी और बड़ी आकार की लकड़ी की पटरियाँ बनना शु डिग्री हो गईं। प्लास्टिक, लोहे और लकड़ी तथा रबर की भी बनने लगीं। हमारे समय तक आते-आते ये और भी अच्छी बन गई हैं। अब हम इसे अपने बस्ते में रखकर स्कूल भी ला सकते हैं। इसी पटरी को आज हम लोग लम्बाई मापने का पैमाना या स्केल कहते हैं।
“कपड़ा बेचने वाले लोग अब लोहे की बड़ी पटरी रखते हैं, जिसमें 100 खाने होते हैं। इसे 100 से.मी. भी कहा जाता है। स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे छोटी पटरियों का इस्तेमाल करते हैं और मिस्त्री लोग इसी तरह की प्लास्टिक की टेप का इस्तेमाल करते हैं, जो काफी लम्बी होती है।”
तो ये थी स्केल बनने की कहानी। बच्चों को ये काफी पसन्द आई। आज की कक्षा खत्म हो गई थी। अगले दिन यहाँ से आगे बढ़ना था।
गतिविधियाँ और आकलन
दूसरे दिन कक्षा में पहुँचकर मैंने बच्चों से पूछा कि किस-किस को अपनी लम्बाई मालूम है। सब बच्चे चुप रहे। किसी को अपनी लम्बाई नहीं मालूम थी।
मैंने अपना सवाल एक बार फिर से पूछा, “अच्छा बताओ, तुम्हारी कक्षा में कौन सबसे छोटा है?”
एक साथ शोर हुआ जिसमें दो नाम सुनाई पड़े - अंकित, लक्ष्मी।
अंकित और लक्ष्मी कौन हैं, मुझे पूछना नहीं पड़ा। सभी बच्चों की नज़रें उन्हीं की ओर थीं। सारी कक्षा इन दोनों को ही सबसे छोटा मानती थी।
“लेकिन कैसे पता करेंगे कि सबसे छोटा कौन है?”
“रस्सी से सर जी,” श्याम बोला।

मैंने श्याम को सामने बुला लिया और उससे अंकित की लम्बाई नापने को कहा।
श्याम ने अंकित को दीवार के सहारे खड़ा कर दिया। पेन से उसके सिर के ऊपर दीवार पर निशान लगाया। इसके बाद एक रस्सी से निशान से लेकर ज़मीन तक की रस्सी पर गाँठ बाँध ली। फिर श्याम ने स्केल से रस्सी को नापना शु डिग्री किया। स्केल केवल 15 से.मी. लम्बा था। अत: कक्षा के बाकी बच्चे भी हर बार स्केल उठाकर रखते जाने के साथ ही 15 जोड़ते जा रहे थे। इस तरह जब-जब श्याम स्केल रखता तो पन्द्रह, तीस, पैंतालीस, साठ, पचहत्तर, नब्बे आदि की आवाज़ें आती थीं।
रस्सी की गठान तक नापने में स्केल को 8 बार पूरा-पूरा रखना पड़ा। बच्चे मन ही मन जोड़ करते आ रहे थे, सो आखिरी बार स्केल रखते ही वे बोले, “120 से.मी. है, सर जी।”
मैंने उन्हें बताया, “100 से.मी. एक मीटर के बराबर होता है। तो हम अंकित की लम्बाई को 1 मीटर और 20 से.मी. भी कह सकते हैं।”
इसके बाद त्रिवेणी ने भी इसी तरह से लक्ष्मी की लम्बाई नापी। लक्ष्मी की लम्बाई नापने के लिए त्रिवेणी ने रस्सी पर जहाँ गठान लगाई थी वह स्केल से पूरी-पूरी नहीं नापी जा सकी। 7 बार स्केल पूरा-पूरा रखा गया और कुछ रस्सी बची रह गई थी। इस रस्सी को स्केल से नापने पर पता चला कि 12 से.मी. है।
“एक सौ सत्रह से.मी. है, सर जी,” सतीश अपनी जगह बैठे-बैठे ही बोला।
मैंने सवाल किया, “अंकित और लक्ष्मी में कौन ज़्यादा लम्बा है?”
“अंकित,” सभी बच्चे एक स्वर में बोले।

अब मैंने बोर्ड पर सवाल के रूप में इस प्रकार लिखा - अंकित और लक्ष्मी की लम्बाई में कितना अन्तर है?
बच्चों को बताया कि ‘अन्तर’ पता करने का मतलब क्या है।
अब बच्चे बता पा रहे थे, “दोनों की लम्बाई में 3 से.मी. का अन्तर है।”
जिस बच्चे की लम्बाई नापी जा रही होती, वह बिलकुल खामोश सावधान की मुद्रा में खड़ा रहता/ रहती कि कहीं उसके हिलने से लम्बाई में अन्तर न आ जाए। दूसरी तरफ जो बच्चे किसी अन्य बच्चे की लम्बाई नाप रहे होते थे, वे भी पूरी मुस्तैदी के साथ यह काम करते थे।
अब ज़रूरत थी इस नाप-जोख की गतिविधि को कॉपी तक पहुँचाने की, यानी नाप देकर उसके अनुसार कुछ रेखाएँ बनवाने की। इसके लिए मुझे कुछ सवाल बनाने थे।
आम तौर पर किताबों में कुछ इस तरह के सवाल दिए होते हैं-
(1) 5 से.मी. की रेखा खींचो।
(2) बिन्दु ‘च’ से बिन्दु ‘छ’ की दूरी 78.5 से.मी. है। रेखा बनाकर दर्शाओ।
अब आप खुद ही सोचिए। रेखा चित्र में ‘रेखा’, बिन्दु ‘पी’ ‘क्यू’ और दर्शाओ - जैसे शब्द बच्चे को किस हद तक आकर्षित कर पाएँगे? भला क्यों बच्चे अपनी रुचि से यह काम करेंगे? जबकि ऐसा करने के पीछे प्रयोजन क्या है, यह भी उन्हें नहीं मालूम।
ज़िन्दगी से जुड़े हुए सवाल
मैंने सोचा, चलो कुछ नए सवाल बनाते हैं जिन्हें करने में बच्चों को मज़ा भी आए और साथ ही यह भी मालूम रहे कि वे क्या बना रहे हैं, क्यों बना रहे हैं। तो मेरे सवाल इस प्रकार थे:
* एक खेत बनाओ जिसकी लम्बाई 10 से.मी. और चौड़ाई 6 से.मी. है।
* पतंग उड़ रही है, उसका धागा 8 से.मी. लम्बा बनाओ।
* एक घर बनाओ, इसकी लम्बाई 2 इंच और चौड़ाई 1 इंच है।
* सुई में 8.7 से.मी. लम्बा धागा डालो।

तकरीबन सभी बच्चों ने इन सवालों को करने का प्रयास किया! कुछेक ने अब भी इंच और सेंटीमीटर के बीच भ्रमित होकर इंच नाप की रेखा को सेंटीमीटर में बना दिया था। इसे नज़रअन्दाज़ किया जाए तो अधिकांश ने कुछ खास गलती नहीं की थी। शुरुआती एक सेंटीमीटर को छोड़कर रेखा खींचने की गलती भी इस बार न के बराबर हुई।
अगले एक-दो दिन मैं उनके लिए अलग-अलग गतिविधियाँ लेकर गया। नवनिर्मिति संस्था ने अलग-अलग आकृति और आकार के रबर के टुकड़े बनाए हैं जो गीला करने पर आसानी-से कुछ देर तक बोर्ड पर चिपकाए जा सकते हैं। मैंने ये टुकड़े बच्चों के हाथों में देकर कहा, “सभी लोग अपने-अपने टुकड़ों की किनार की लम्बाइयाँ   नापेंगे।” जिनके टुकड़े बहुभुज थे उन्होंने तो स्केल रखकर नापना शु डिग्री कर दिया, लेकिन कुछ लोगों को वृत्ताकार चकतियाँ मिली थीं। वे सोच में पड़े थे कि इसके किनार की लम्बाई कैसे नापी जाए।
कुछेक ने कहा भी, “सर जी, इसमें तो किनार है ही नहीं।” लेकिन एक लड़की ने धागा माँगा और उसे चकती की परिधि पर लपेटकर निशान बना लिया। इसके बाद उसने धागे को वापिस खोलकर स्केल से सटाकर रखा और हम सबको नाप बता दिया। इसी तरीके को अपनाकर बाकी लोगों ने भी अपनी-अपनी चकतियों की परिधि नाप ली।
इसी प्रकार एक दिन मैंने कोरे कागज़ के बहुत सारे टुकड़े काट डाले। ये सब टुकड़े अलग-अलग आकार और आकृति के थे। इन टुकड़ों को बच्चों में बाँटकर मैंने कहा, “सब अपने टुकड़ों पर अपना नाम लिख लें और उसमें जितनी भी भुजाएँ या किनार हों, उन्हें नापकर वहीं पर लिखते जाएँ।” बच्चों ने ऐसा ही किया। दो चार्टों में कक्षा के सभी बच्चों के कागज़ के आकार चिपक गए थे।
दफ्तर आकर जब मैंने इन्हें नापा तो अधिकांश के नाप सही निकले थे। आगे के दिनों में इन बच्चों ने तीन आयामी वस्तुओं की लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई नापने पर भी काम किया।
एक शाम मैं अपने दफ्तर में बैठा काम कर रहा था। बाल पुस्तकालय की सीढ़ियों से उतरकर मेरी कक्षा में पढ़ने वाला लड़का गणेश मेरे पास आया। उसने बताया कि स्कूल के बगल में स्थित दुकान पर एक रुपए वाली इनाम की पर्ची में उसका इनाम खुला है। उस इनाम में स्केल निकल आया है।
गणेश स्केल पाकर बहुत खुश था। उसने मुझे दिखाया कि इस स्केल में दिल और गोला जैसे आकार बनाने के लिए खाँचा भी कटा हुआ है। अब वह रोज़ स्केल लेकर स्कूल आएगा। गणेश ने मुझे यह भी बताया कि उसने अपने दोस्तों की लम्बाई भी एक रस्सी के टुकड़े और इसी स्केल की मदद से नाप ली है। अपने स्केल के साथ गणेश का लगाव और उसको लेकर उत्साह देखकर महसूस हुआ कि अब यह छोटा-सा पैमाना गणेश के लिए बेगाना कतई नहीं रह गया था।


मोहम्मद उमर: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, राजसमन्द, राजस्थान में कार्यरत हैं। गणित अध्ययन एवं शिक्षण में विशेष रुचि।
सभी फोटो: मोहम्मद उमर।