उमा सुधीर

सामान्यत: हम विज्ञान की ओर तब देखते हैं जब हमें किसी प्राकृतिक परिघटना की व्याख्या की ज़रूरत होती है। विज्ञान की पहचान ही है कार्य-कारण सम्बन्धों की खोज करना और परिघटनाओं की व्याख्या करना। लेख के पहले भाग में हमने जाना कि आसपास की परिघटनाओं और प्रक्रियाओं में कार्य-कारण सम्बन्ध कैसे बनते हैं, विज्ञान में अवधारणाएँ बदलती रहती हैं और कुछ दर्शनशास्त्रियों के विज्ञान की प्रक्रिया को लेकर विचार। इस भाग में देखते हैं कि वर्गीकरण, विश्लेषण और सामान्यीकरण की रोज़मर्रा की प्रक्रियाओं को परिष्कृत करके वैज्ञानिक नियमों तक कैसे पहुँचे हैं और उससे सिद्धान्त कैसे निकलते हैं।

जैसा  कि   संदर्भ   अंक-108   में प्रकाशित लेख विज्ञान की प्रकृति में ज़िक्र किया गया था, मनुष्य पैटर्न-खोजी जीव है। हमें दो बिन्दु, एक आड़ी रेखा और सही जगह लगी हुई एक वक्र रेखा दीजिए और हमें एक मुस्कराता चेहरा देखने में देर नहीं लगेगी :-)! जन्म के साथ ही हम लगातार अपने आसपास की दुनिया को देखते हैं और उसका अर्थ निकालने की कोशिश करते रहते हैं। हम विभिन्न श्रेणियाँ पहचानते हैं, इन श्रेणियों को परिष्कृत करते हैं, समानताओं की तलाश करते हैं और चीज़ों - सजीव व निर्जीव दोनों - का वर्गीकरण करते हैं। और उम्र के साथ हम इन कुशलताओं को तराशते जाते हैं और दुनिया का अर्थ समझने में और यह बता पाने में बेहतर होते जाते हैं कि आगे क्या होगा।
विज्ञान ने जो किया है वह यह है कि इन प्रवृत्तियों को लिया और इन तौर-तरीकों को तराशा और उन्हें ज़्यादा गहनता से लागू किया ताकि विभिन्न प्रक्रियाओं की बेहतर भविष्यवाणी की जा सके और बेहतर नियंत्रण हासिल किया जा सके। विज्ञान में यह भी दरकार होती है कि सारे अवलोकनों को व्यवस्थित ढंग से रिकॉर्ड किया जाएगा और रिपोर्ट किया जाएगा। इसके चलते यह अनूठापन आता है कि सारे परिणाम दोहराने योग्य होते हैं - यदि कोई प्रयोग करके उसका रिकॉर्ड रखा गया है तो उसी प्रयोग को करने के सारे निर्देशों का पालन करते हुए यदि कोई अन्य व्यक्ति प्रयोग को दोहराए, तो हूबहू वही नतीजे मिलेंगे; इस वजह से व्याख्याओं और निष्कर्षों में भी पारदर्शिता रहती है।

वर्गीकरण हमारी उपलब्धियों में से सबसे आसान है। हम लगातार लोगों व चीज़ों को समूहों में बाँटते रहते हैं। बहुत छुटपन में ही हम लोगों को परिवार के सदस्यों और अन्य (कम परिचित) लोगों में बाँट पाते हैं। जब बचपन में ‘चिड़िया उड़’ खेलते हैं तो सारी उड़ने वाली चीज़ों - तितलियाँ, मक्खियाँ और हवाई जहाज़ तक - को स्वीकार किया जाता है। अलबत्ता, यह खेल दर्शाता है कि हम एक गुणधर्म - वे उड़ती हैं या नहीं - के आधार पर चीज़ों के वर्गीकरण के उस्ताद हैं। और यह वर्गीकरण की पहचान है - कि चीज़ों को वर्गीकृत करने के लिए विभिन्न गुणधर्मों या लक्षणों को चुना जाता है और चुना गया गुणधर्म वर्गीकरण की प्रकृति को निर्धारित करता है।

विश्लेषण भी काफी बुनियादी हुनर है। इसके अन्तर्गत हम सम्पूर्ण को समझने के लिए उसके हिस्सों को देखने-समझने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी स्थान पर बगीचा लगाने की योजना बना रहे हैं, तो हम उस जगह पर धरातल के ढलान, मिट्टी की किस्म, धूप की मात्रा, और पानी की उपलब्धता पर विचार करेंगे ताकि यह तय कर सकें कि वहाँ लगाने के लिए सबसे उपयुक्त पौधे कौन-से होंगे। अधिकांश मामलों में हम जिन समस्याओं से रूबरू होते हैं वे इतनी पेचीदा होती हैं कि हम एक साथ पूरी समस्या का सामना करने की गलती नहीं करते। इसकी बजाय हम उसके विभिन्न घटकों को देखते हैं ताकि समस्या को सुलझा सकें।

सामान्यीकरण वह जाल है जिसमें हम  प्राय:  उलझ  जाते  हैं।  और जल्दबाज़ी में किए गए सामान्यीकरण हमें गलत निष्कर्षों की ओर ले जाते हैं। उदाहरण के लिए, जब पंजाब में दहशतगर्दी व्यापक रूप से फैली थी, उस समय आतंकवादियों ने कुछ हमले बुलेट (बाइक का एक लोकप्रिय ब्रांड) पर सवार होकर किए थे। इसके चलते पुलिस बुलेट पर सवार हर व्यक्ति को रोककर पूछताछ करने लगी। आपको क्या लगता है कि इस निहायत अकार्यक्षम निर्णय का कारण क्या रहा होगा?

जब विज्ञान में वर्गीकरण, विश्लेषण और सामान्यीकरण का उपयोग किया जाता है, तो तरीका तो वही रहता है किन्तु कई सारी पाबन्दियाँ लागू कर दी जाती हैं। आइए विज्ञान में वर्गीकरण, विश्लेषण और सामान्यीकरण के कुछ उदाहरण देखते हैं। उसके बाद इस बात पर विचार करेंगे कि इनके ज़रिए कैसे नियम प्रतिपादित किए जाते हैं।

वर्गीकरण, विश्लेषण,सामान्यीकरण कुछ उदाहरण
मसलन, तत्वों के वर्गीकरण के तरीकों पर गौर कीजिए। निहायत प्रारम्भिक स्तर पर तत्वों को इस आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है कि वे रासायनिक अभिक्रिया के दौरान सामान्यत: इलेक्ट्रॉन पाने की प्रवृत्ति दर्शाते हैं या गंवाने की। ये क्रमश: धातुएँ और अधातुएँ होते हैं। शुरुआती कक्षाओं में हम इस वर्गीकरण के आधार के रूप में प्राय: भौैतिक गुणधर्मों का ही ज़िक्र करते हैं। अत: तत्वों के वर्गीकरण का सबसे बुनियादी आधार यह चुना गया है कि वे क्रिया किस तरह करते हैं। हम चाहते तो तत्वों का वर्गीकरण इस आधार पर भी कर सकते थे कि वे ठोस हैं, द्रव हैं या गैस हैं। किन्तु यह उनके गुणधर्मों को आगे समझने में कोई मदद न करता, इसलिए यह उतना अर्थपूर्ण न होता।

विश्लेषण का उपयोग व्यापक पैमाने पर किया जाता है क्योंकि अधिकांश प्राकृतिक निकाय (नेचुरल सिस्टम) अत्यन्त जटिल होते हैं और सम्पूर्ण को एक साथ समझ पाना मुश्किल होता है। उदाहरण के लिए गैलीलियो और न्यूटन ने हमें बताया कि तोप के एक गोले की गति को कैसे समझें, जो एक परावलय यानी पैराबोलिक प्रक्षेपण पथ पर चलता है। इसे समझने के लिए हम विश्लेषण की प्रक्रिया का उपयोग कर सकते हैं जिसके तहत हम तोप के गोले की गति को उसके क्षैतिज व उर्ध्वाधर घटकों में विभक्त कर देते हैं (चित्र-1)। ऐसा करने पर ही यह देखा जा सकता है कि तोप के गोले की क्षैतिज गति तो एकरूप वेग से होती है जबकि उर्ध्वाधर घटक त्वरण-युक्त गति है। विश्लेषण की विधि के उपयोग का यह एक आसान उदाहरण है; आप अन्य उदाहरण सोच सकते हैं।
सामान्यीकरण भी विज्ञान में आम तौर पर इस्तेमाल की जाने वाली विधि है। जो सारे नियम हमने पढ़े हैं वे आम तौर पर कई अवलोकनों के सामान्यीकरण से निकले हैं। उदाहरण के लिए, मेंडल के आनुवंशिकी के नियम मटर के पौधों के कुछ गुणधर्मों में विविधता का अध्ययन कई पीढ़ियों तक करके खोजे गए थे। देखिए शायद आपको मेंडल के मूल आँकड़े मिल जाएँ, जिनके आधार पर वे वर्चस्व के नियम (law of dominance) तक पहुँचे थे। इस विधि में हम किसी परिघटना का अवलोकन कई मर्तबा अलग-अलग परिस्थितियों में करते हैं और यह जानने की कोशिश करते हैं कि उस परिघटना पर किन कारकों का असर पड़ता है और इनके परस्पर सम्बन्ध की प्रकृति क्या है। एक और उदाहरण के तौर पर, जब रॉबर्ट बॉयल गैस के आयतन पर दबाव के असर का अध्ययन कर रहे थे, तो वे गैस को एक निश्चित तापमान पर रखते थे, उस पर दबाव को बदलते थे और आयतन पर इसके असर को रिकॉर्ड करते थे। इस प्रयोग को कई बार दोहराने के बाद और यह देखने के बाद कि दबाव घटाने-बढ़ाने पर गैस के आयतन पर क्या असर पड़ता है, और इस प्रयोग को कई अलग-अलग गैसों पर और अलग-अलग तापमान पर करने के बाद, वे यह सामान्यीकरण कर पाए थे कि दबाव बढ़ाने पर आयतन कम होता है और दबाव घटाने पर आयतन बढ़ता है। दूसरे शब्दों में, बॉयल का नियम कहता है कि स्थिर तापमान पर रखी गैस  का  आयतन  दबाव  के व्युत्क्रमानुपाती होता है।

तो, वर्गीकरण, विश्लेषण और सामान्यीकरण की प्रक्रियाओं का उपयोग करके हम अन्यथा बेतरतीब नज़र आने वाले व्यवहारों के पीछे के पैटर्न को देख पाते हैं। इन पैटर्न्स को फिर विभिन्न नियमों के रूप में व्यक्त किया जाता है। कुल मिलाकर, नियम बताते हैं कि जो परिघटनाएँ हम अपने आसपास घटित होते देखते हैं, उनमें एक तरतीब और सलीका होता है और इस दुनिया को समझ पाना और यकीनी भविष्यवाणियाँ कर पाना सम्भव है।


नियम तो आ गए, सिद्धान्त कहाँ से आते हैं?
हालाँकि, पिछले खण्ड को पढ़कर आपको लगा होगा कि प्रकृति को समझना एकदम सीधी-सरल प्रक्रिया है - हरेक परिघटना के अवलोकन करो और उनके पीछे छिपे पैटर्न को पहचान लो। किन्तु विज्ञान नियमों की खोज से बहुत आगे जाता है। विज्ञान की प्रमुख भूमिका इन पैटर्न की व्याख्या करने की है। और इन व्याख्याओं को परिकल्पनाएँ या सिद्धान्त कहते हैं। तो कोई वैज्ञानिक नियम से सिद्धान्त तक कैसे पहुँचती है कि वह नियम काम क्यों करता है, कोई सिद्धान्त को प्रस्तावित कैसे किया जाता है?

विज्ञान की प्रकृति के सम्बन्ध में पहले के विचारों के अनुसार सिद्धान्त सीधे-सीधे आँकड़ों या अवलोकनों से उभरते हैं। अर्थात् अवलोकन और सिद्धान्त के बीच प्रत्यक्ष कड़ी थी। लेकिन पॉपर ने कहा कि विज्ञान की भूमिका तो अवलोकनों के पीछे के यथार्थ को उजागर करना है - यानी यह व्याख्या करना है कि हम जो कुछ देखते हैं वह वैसा ही क्यों है। पॉपर के मुताबिक, दिए गए अवलोकनों के आधार पर कई व्याख्याएँ सोची जा सकती हैं अर्थात् आप इस बात को लेकर एक से ज़्यादा सिद्धान्त बना सकते हैं कि जो कुछ दिख रहा है वह वैसा ही क्यों दिख रहा है, कुछ और क्यों नहीं। इसके बाद ये अलग-अलग सिद्धान्त उस परिघटना के बारे में नई-नई भविष्यवाणियाँ प्रस्तुत करेंगे जिनका अवलोकन फिलहाल नहीं किया गया है। तब हम इन प्रतिस्पर्धी सिद्धान्तों के बीच इस आधार पर फैसला कर पाएँगे कि उनमें से कौन-सा सिद्धान्त ज़्यादा चीज़ों की व्याख्या करता है और सर्वोत्तम व ज़्यादा नवीन भविष्यवाणियाँ करता है।

इस बात को एक उदाहरण की मदद  से  समझते  हैं।  न्य़ूटन  के गुरुत्वाकर्षण  के  सिद्धान्त  और आइंस्टाइन के सिद्धान्त, दोनों ही अन्य बातों के अलावा, इस बात की व्याख्या करने का दावा करते हैं कि क्यों सारे ग्रह सूरज के चक्कर काटते हैं। न्यूटन दो पिण्डों के बीच एक बल का प्रस्ताव देते हैं जो उनके द्रव्यमान और उनके बीच की दूरी पर निर्भर करता है। ध्यान दें कि बल एक परिकल्पना है, हम बल का अवलोकन नहीं कर सकते, सिर्फ उसके प्रभावों का अवलोकन कर सकते हैं। तो न्यूटन के मुताबिक गुरुत्व बल की वजह से ही पृथ्वी व अन्य ग्रह सूरज के चक्कर काटते हैं। आइंस्टाइन के सिद्धान्त के मुताबिक विशाल पिण्ड अपने आसपास के स्थान में विकृति पैदा कर देते हैं, अर्थात् सारे पिण्डों (द्रव्यमान युक्त पिण्डों) के आसपास स्थान वक्रता लिए होता है और पिण्ड का द्रव्यमान जितना अधिक होगा, उसके आसपास स्थान की वक्रता उतनी ही ज़्यादा होगी। इसी वक्रता की वजह से पृथ्वी एक स्पर्शज्या पर गति कर आगे निकल जाने की बजाय सूरज के आसपास चक्कर लगाती है।

आप देखेंगे कि ये दो सिद्धान्त पृथ्वी (व अन्य ग्रहों) के सूरज के आसपास परिक्रमा करने की अलग-अलग व्याख्या करते हैं यानी एक-से अवलोकनों ने दो अलग-अलग सिद्धान्तों को जन्म दिया है। तो इनके बीच चुनाव कैसे किया जाए? इसके लिए हमें देखना होगा कि इन प्रतिस्पर्धी सिद्धान्तों  द्वारा  कितनी-कितनी परिघटनाओं की व्याख्या की जाती है और  किस  तरह  की  नवीन भविष्यवाणियाँ की जाती हैं। आइंस्टाइन का सिद्धान्त यह भविष्यवाणी करने में सफल रहा कि सूरज जैसे विशाल पिण्डों की वजह से प्रकाश विचलित होगा क्योंकि सूरज के द्रव्यमान की वजह से स्थान में वक्रता पैदा हो गई है। इसलिए हम मानते हैं कि आँकड़ों की व्याख्या के लिहाज़ से आइंस्टाइन का सिद्धान्त न्यूटन के सिद्धान्त की अपेक्षा बेहतर है और यथार्थ के ज़्यादा नज़दीक है।

मगर हम घूम-फिरकर फिर उस सवाल पर आ जाते हैं कि हम किसी सिद्धान्त तक पहुँचते कैसे हैं। एक बार फिर, पॉपर के अनुसार, सिद्धान्तों का एक रचनात्मक पक्ष होता है - वे व्यक्ति के दिमाग की कृतियाँ होते हैं। इसका आशय तो यह लगता है कि अलग-अलग व्यक्ति अलग-अलग सिद्धान्त तक पहुँचेंगे! क्या ये सारे सिद्धान्त बराबर अच्छे होंगे?

आइए कुछ सामान्य दिशानिर्देशों पर विचार करते हैं जो एक अच्छा सिद्धान्त चुनने में मदद करेंगे। किसी भी सिद्धान्त में कुछ मान्यताएँ शामिल होती हैं। इस सन्दर्भ में एक पुराना कामकाजी नियम है जिसका श्रेय ऑकैम को दिया जाता है (कहते हैं ऑकैम का उस्तरा)। यह नियम कहता है कि वह सिद्धान्त सर्वश्रेष्ठ होता है जिसमें सबसे कम और सबसे सरल मान्यताएँ ली गई हों। उदाहरण के लिए, गैसों का कणगति सिद्धान्त किसी भी गैस के तापमान, दबाव और आयतन की व्याख्या करता है और इसमें मान्यता यह ली गई है कि गैसें कणों से बनी होती हैं, ये कण कठोर और लचीले होते हैं, इनका आयतन नगण्य होता है और ये लगातार गति करते हैं। इन मान्यताओं के आधार पर गैसों के व्यवहार का एक मॉडल विकसित किया गया है।

वैज्ञानिकों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली एक और रणनीति आदर्शीकरण की है। उदाहरण के लिए, जब गैलीलियो गति का अध्ययन कर रहे थे, तब उन्होंने अनुमान लगाया था कि एक अदृश्य बल वस्तुओं को अन्तत: रुकने को विवश करता है। उन्होंने स्थिति का सरलीकरण किया और यह कल्पना की कि घर्षण की अनुपस्थिति में क्या होगा और इसके आधार पर गति के तीन नियम प्रतिपादित किए (ये तीन नियम न्य़ूटन के गति के प्रथम नियम में समाहित हो जाते हैं)। इसी तरह, यदि हम भोपाल से इन्दौर जा रही किसी बस की गति का वर्णन करना चाहें, तो हम जल्दी ही समझ जाएँगे कि इस मामले में पूरी बस की गति महत्वपूर्ण है। स्टीयरिंग व्हील, वाइपर्स, या टायरों और धुरियों की गति का कोई महत्व नहीं है। इसलिए बस को एक ‘बिन्दु पिण्ड’ माना जा सकता है जो भोपाल से इन्दौर जा रहा है। इस मायने में ‘बिन्दु पिण्ड’ का विचार एक आदर्शीकरण है।

किसी परिघटना पर किन कारकों का असर पड़ता है, यह जानने का एक और तरीका है तुलना (कंट्रोल) का इस्तेमाल। इसके तहत परिघटना का अध्ययन दो तरीके से किया जाता है - दोनों में परिस्थितियाँ हूबहू एक-सी होती हैं, सिवाय उस एक कारक के जिसका अध्ययन किया जा रहा है। इस तकनीक का उपयोग जीव विज्ञान में काफी बार किया जाता है क्योंकि जीव विज्ञान में विभिन्न कारकों के प्रभावों को समझना और यह समझना मुश्किल होता है कि वे एक-दूसरे को किस तरह प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, यदि हम बीजों के अंकुरण पर प्रकाश के असर का अध्ययन करना चाहें, तो हम चने के बीजों को दो पेट्री डिश में गीली रूई पर रख सकते हैं और इनमें से एक डिश को खिड़की के पास और दूसरी को एक डिब्बे या अँधेरी अलमारी में रख सकते हैं। अब कुछ दिनों तक इनका अवलोकन किया जा सकता है (इतना ज़रूर सुनिश्चित करना होगा कि दोनों डिश में रूई सूखने न पाए)।

विज्ञान में परिघटनाओं को समझने के लिए प्रयोगों के इस्तेमाल से तो हम परिचित ही हैं, इसलिए यहाँ उसमें नहीं जाएँगे। किन्तु विज्ञान में एक अन्य तकनीक का उपयोग किया जाता है, जिसे ख्याली प्रयोग कहते हैं। ख्याली प्रयोग एक ऐसा प्रयोग होता है जिसे व्यावहारिक रूप से तो नहीं किया जा सकता, किन्तु पूर्व में किए गए प्रयोगों के आधार पर वैज्ञानिक अपने दिमाग में ऐसे प्रयोग के परिणामों की कल्पना करते हैं और इसके आधार पर अपने विचारों या सिद्धान्तों को परिष्कृत करते हैं। गैलीलियो और आइंस्टाइन द्वारा किए गए ख्याली प्रयोगों के बारे में पता कीजिए।

अन्त में, बीसवीं सदी में सांख्यिकी तथा कंप्यूटेशन में प्रगति की बदौलत एक विधि प्रचलन में आई है जिसका उपयोग प्राकृतिक परिस्थितियों में जन्तु व्यवहार  जैसी  जीव  वैज्ञानिक परिघटनाओं को समझने में किया जाता है। इसके अन्तर्गत भ्रामक परिवर्तियों को छाँटकर अलग करने के लिए सांख्यिकीय विधियों का उपयोग किया जाता है ताकि यह अनुमान लगाया जा सके कि विभिन्न व्यवहारों के पीछे कौन-से कारक काम करते हैं। सामाजिक प्राणियों में परोपकारी व्यवहार का अध्ययन इसका एक उदाहरण है। अतीत में ऐसे अध्ययन बन्दी रखे गए बन्दरों पर किए जाते थे, किन्तु सम्भावना यह रहती थी कि इन्हें अलग-अलग समय पर और अलग-अलग जगहों से पकड़ा गया हो और इस वजह से यह समूह रिश्तेदारी के सम्बन्धों पर आधारित नहीं होता था। अब प्राकृतिक अवस्था में परोपकारी व्यवहार के अध्ययनों से पता चला है कि परोपकारी व्यवहार रिश्तेदारियों पर निर्भर करता है और कई पीढ़ियों में विकसित होता है। अर्थात् बन्दर किसी शक्तिशाली बन्दर का साथ देने की बजाय (जो आम तौर पर बन्दी बन्दरों में देखने को मिलता है) किसी दूसरे बन्दर की सहायता करना पसन्द करते हैं जिससे उनका सम्बन्ध हो (रिश्तेदारी हो)। इसी प्रकार से, सांख्यिकीय विधि का उपयोग आबादियों और पर्यावरण के विभिन्न घटकों के साथ उनके सम्बन्धों का अध्ययन करने में भी किया जाता है।

निष्कर्ष
इस लेख में मैंने विज्ञान की प्रकृति तथा विधि से सम्बन्धित कुछ मुद्दों पर बात करने की कोशिश की है। बहस जारी है। कुन के विचारों ने विज्ञान विषय को समाज विज्ञान के विषय के प्रति खोल दिया है। इसके अलावा, नारीवादियों ने वैज्ञानिक दावों की तथाकथित वस्तुनिष्ठता पर सवाल उठाए हैं तथा विज्ञान पर नस्लवादी और पर्यावरण को विनाश करने का भी आरोप लगाया गया है। ये मुद्दे क्या हैं, और ये कितने जायज़ हैं? और एक चीज़ जिसे अभी नहीं उठाया गया है, वह है विज्ञान व टेक्नोलॉजी का आपसी सम्बन्ध (यदि ऐसा कोई सम्बन्ध है तो)। ये सभी भावी लेखों के लिए उर्वर ज़मीन है - ज़रूरी नहीं कि ये लेख मैं ही लिखूँ। बहरहाल, सवाल और टिप्पणियों का स्वागत है।


उमा सुधीर: एकलव्य के साथ जुड़ी हैं। विज्ञान शिक्षण के क्षेत्र में काम कर रही हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।