महेश कुमार बसेड़िया

संस्मरण


होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम (1972 से 2002) को जानने वाले संदर्भ के पाठक सवालीराम नामक पात्र से वाकिफ होंगे। इस कार्यक्रम की कार्य-पुस्तिकाओं में विज्ञान शिक्षण के दौरान बच्चों की जिज्ञासाओं एवं कौतुहल को बढ़ावा देने के लिए सवालीराम नाम का पात्र होता था जो बच्चों को सवाल पूछने के लिए प्रेरित करता था। माध्यमिक स्तर के कई विद्यार्थी शिक्षकों की मदद से सवालीराम को पोस्टकार्ड पर सवाल लिखकर भेजते थे। बच्चों के खत शिक्षा विभाग के एक कार्यालय से होकर एकलव्य संस्था के पास आते थे। फिर कुछ साथी मिलकर बच्चों के सवालों के जवाब देते थे। ये जवाब पोस्टकार्ड, अन्तरदेशीय या लिफाफे के मार्फत बच्चों की शाला के पते पर जाते थे। खतों का यह सफर बच्चों के सवालों से शुरु होकर जवाबों तक पहुँचते-पहुँचते बहुत-से रंगों से सराबोर हो चुका होता था। सवालीराम व बच्चों की दोस्ती का एक अनुभव देखिए इस संस्मरण में।


सवालीराम के नाम गुरदीप के पत्र प्राय: हर हफ्ते आने लगे थे। शुरुआत में मैंने उसके सभी पत्रों के जवाब देकर उसका हौसला बढ़ाया। एकलव्य संस्था की ओर से यही मेरा काम था कि बच्चे सवालीराम को ज़्यादा-से-ज़्यादा पत्र लिखें और उनमें अपने मन में उठने वाले सवालों को साझा करें। कुछ सवाल उनकी छठवीं कक्षा की बाल वैज्ञानिक में छपे सवालीराम के चित्र में से होते, मसलन - चुम्बक लोहे से ही क्यों चिपकता है, लकड़ी से क्यों नहीं? दुनिया जहान के होते - क्या धरती गोल है? दिन रात क्यों होते हैं? तुके-बेतुके होते - नाखून काटने पर दर्द क्यों नहीं होता? औरतों की दाढ़ी-मूँछ क्यों नहीं होती? गुदगुदाने वाले - हम चांद पर कैसे जा सकते हैं? या गुस्सा दिलाने वाले - तुम्हारा दिमाग खराब था जो इतनी कठिन विज्ञान की किताब बनाई! कहूँ तो सारे सवाल बच्चों के जिज्ञासापूर्ण मन के तरकश के तीर होते थे।
कई बार मैं भूल जाता था कि सवालीराम काल्पनिक पात्र है जिसके नाम से मैं बच्चों को उत्तर लिखता हूँ। अपने पत्रों में कोई बच्चा हमउम्र दोस्त समझकर तो कोई बड़ा बुज़ुर्ग समझकर सम्बोधित करता। कोई सवालीराम के बच्चों के बारे में जानना चाहता, कोई काम-धन्धे के बारे में, तो कोई जानना चाहता कि मैं (सवालीराम) इतने सारे सवालों के जवाब कैसे दे देता हूँ।
आज से तकरीबन पच्चीस-तीस साल पहले किसी बच्चे का अपने जीवन का पहला पत्र लिखना बहुत ही बड़े रोमांच से कम नहीं था, जैसे आज किसी बालक को नई साइकिल या मोबाइल मिल जाए! और यदि बच्चे के नाम पर उसके स्कूल में चिट्ठी आ जाए तो फिर तो उसकी लॉटरी ही खुल गई समझो! शायद बहुत-से बच्चे सिर्फ इसी आनन्द के लिए सवालीराम को पत्र लिखना शु डिग्री करते थे जो बाद में उनकी ज़रूरत बन जाता था।
उन दिनों रोज़ाना 5-6 बच्चों के पत्र आ जाते थे जिनमें से 3-4 का जवाब दे पाता था। लाज़मी था कि कुछ समय बाद गुरदीप जैसे बच्चे के सभी पत्रों के जवाब न देकर अन्य बच्चों के पत्रों के जवाब देता था ताकि बच्चे पत्र लिखने के लिए प्रोत्साहित होते रहें। ऐसी स्थिति में गुरदीप के शिकायती पत्र आने लगते। उनमें लिखा होता, “इससे पहले तीन पत्र और लिख चुका हूँ, उनके जवाब नहीं मिले, क्या बात है?” दूसरे पत्र में सवाल पूछे थे, “दूध उफनता क्यों है, बच्चों के बाल कम उम्र में ही सफेद क्यों हो जाते हैं? इनका उत्तर भी आपने नहीं दिया। क्या बात है, मुझसे गुस्सा तो नहीं हैं?” मैं देर-सबेर उत्तर देता। बदले में उसका नाराज़गी से भरा पत्र आता, जल्दी-जल्दी जवाब न मिलने पर पत्र न लिखने की धमकी देता। मैं उसे मनाता, दोस्ती का वास्ता देता, लिखता, “यहाँ आकर देखो, बच्चों के पत्रों के ढेर लगे हुए हैं। मैं अकेला कैसे जल्दी-जल्दी जवाब दूँ? जिस बच्चे को पत्र नहीं लिखूँगा वो नाराज़ हो जाएगा। कम-से-कम तुम गुस्सा मत होओ!” उसका पत्र  मिलता  जिसमें  वह  अपनी जल्दबाज़ी के लिए माफी माँगता।
यह सिलसिला दो साल तक चलता रहा। काम की अधिकता में मैं भूल गया कि धीरे-धीरे गुरदीप के पत्र आने बन्द हो गए हैं। मैंने अनुभव किया था कि बहुत-से बच्चे शुरुआत में उत्साहित होकर गुरदीप की तरह ढेर सारे पत्र लिखते थे।
एक दिन पुराने पत्रों के ढेर को छाँटकर अलमारी में रख रहा था कि हाथ में गुरदीप का पत्र आ गया। मैंने सोचा! मैं गुरदीप को भूल गया तो क्या वह भी मुझे भूल गया होगा? उसके पत्रों में सवालीराम के लिए जो ललक और तड़प होती थी, उसे देखते हुए क्या यह सम्भव है? क्या वह बहुत नाराज़ हो गया था? अब तो वह आठवीं कक्षा में आ गया होगा। मैंने तुरन्त उसे पत्र लिखा, आठवीं कक्षा में आने की बधाई दी और सवालीराम को भूलने का उलाहना देते हुए जल्दी-से पत्र का जवाब देने को कहा।
कुछ दिनों में पत्र आया। उसमें टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखा था, “मैं गुरदीप का छोटा भाई हूँ। गुरदीप पिछले साल मर गया। उसे बहुत ज़ोर-से बुखार आया था।” सवालीराम होता तो ज़ार-ज़ार रोता। मैं अपनी आँखों में भर आए आँसुओं को धोने के लिए बाथरूम में घुस गया।


महेश कुमार बसेड़िया: पिछले दो दशकों से एकलव्य संस्था के विविध कार्यक्रमों में सहभागी रहे हैं। होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के एक चरण में बच्चों के सवालों के जवाब देने की ज़िम्मेदारी निभाई है। वर्तमान में समुदाय के साथ शिक्षा प्रोत्साहन केन्द्र संचालन का काम देखते हैं। प्रयोग-गतिविधियों को करवाने एवं फोटोग्राफी में विशेष रुचि।