प्रीति देवगन

मैं शिक्षान्तर  संस्था  की  शाला में पढ़ाती हूँ। यहाँ पढ़ाते हुए हमने कोशिश की है कि बच्चे बिना खौफ या डर अपनी बात कह सकें और उन्हें फैसले लेने की आज़ादी मिल सके। बच्चों को शुरुआत से ही ऐसी आज़ादी का अनुभव दिया जाता है जिसमें ज़िम्मेदारी का एहसास हो। यहाँ दीदी और भैया (अध्यापकों का सम्बोधन) के मार्फत बच्चों से एक नज़दीकी रिश्ता बनता है जैसा घर में परिजनों व बच्चों का आपस में होता है। शाला में ऐसा माहौल व रिश्ता बना पाना शिक्षान्तर के शिक्षादर्शन की वजह से सम्भव हो सका है। बच्चे किसी अन्य से स्पर्धा न कर, अपने को ही दिन-प्रतिदिन बेहतर बनाने का प्रयास करते हैं।
यहाँ दिन का एक ढाँचा होता है। उस ढाँचे का अनुकरण करने के पीछे मंशा यह होती है कि बच्चों को जो भी अनुभव विद्यालय में दिए जाएँ, उनका एक क्रम हो और ढाँचा हो जिससे बच्चों को समय आवंटन के महत्व को सहजता से समझाया जा सके।

पढ़ाने में विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल
अगर मैं समूहगत प्रकियाओं की बात करूँ तो प्रत्येक समूह की अपनी अलग ज़रूरतें होती हैं। प्रत्येक वर्ष एक नए समूह के साथ दीदी को भी अपने पठन-पाठन के तौर-तरीकों में कुछ बदलाव करना पड़ता है। उदाहरण के लिए यदि एक साल मेरे समूह के बच्चों का रुझान गणित और क्राफ्ट की ओर था, तो अगले साल बच्चे खेलों और कहानियों की तरफ आकर्षित हुआ करते थे। समूह की ज़रूरतों के अनुसार ही अनुभवों को परोसने का तरीका तय होता है। यह प्रत्येक समूह-विशेष का अलग हो सकता है। एक साल मेरी कक्षा में बच्चों को पहेलियों का बड़ा शौक था। दिन के किसी भी पहर उनसे मैं कुछ भी पूछ लिया करती थी। जैसे -- क्या आपने कभी मरे हुए कुत्ते को चलते हुए देखा है? क्या आप एक चतुर्भुज को पाँच भागों में बाँट सकते हो? आदि। उस समय वे पहेलियाँ किसी भी विषय से जुड़ी हुआ करती थीं। बच्चों को मज़ा आता था सवालों के जवाब ढूँढ़ने में। ऐसा करने से एक रोमांच बना रहता था।
ऐसे ही एक समूह में गणित में घटा की संकल्पना पर काम चल रहा था। समूह में पहेलियाँ पूछने की एक संस्कृति का विकास हो गया था। बच्चे घटा, जमा या गुणा पर अलग-अलग पहेलियाँ लाते और मुझसे पूछते, अपने दोस्तों, भाई-बहनों आदि से पूछते। ऐसा वे शायद इसलिए करते थे क्योंकि किसी को जवाब न आने वाली उलझन में देखकर अनन्त सुख की अनुभूति होती है। हम वयस्क भी ऐसा करने में आनन्द प्राप्त करते हैं। मैं जिन बच्चों की बात कर रही हूँ वे 8-9 वर्ष के थे। इस उम्र में दूसरों की गलतियाँ पकड़ने में और उन्हें समझाने में कितना मज़ा आता है, इस पर मुझे लिखने की आवश्यकता नहीं।

बच्चे का वो सवाल
समूहगत गतिविधियों में यूँ तो रोज़ाना ही कुछ नया सीखने-सिखाने के अवसर प्राप्त होते रहते हैं। अचम्भा तब पैदा होता है जब समूह में हो रही किसी गतिविधि के दौरान और किसी संकल्पना के अन्त में बच्चे आपके पास आएँ और कुछ ऐसा पूछें कि जिसका जवाब हो तो साधारण परन्तु आपके लिए बतौर शिक्षक बहुत-सी सम्भावनाएँ छोड़ देने वाला हो। ऐसे ही गणित के पाठ के बाद एक बच्चा मेरे पास आया और उसने कहा -
बच्चा: दीदी, एक सवाल पूछूँ?
दीदी: हाँ, पूछो।
बच्चा: 25 में से 5 कितनी बार घटा सकते हैं?
दीदी: (हँसते हुए) पाँच बार, ये आसान सवाल था।
बच्चा: आपका जवाब गलत है। (बच्चे के चेहरे पर सन्तुष्टि का भाव)
दीदी: गलत कैसे? (बोर्ड पर सवाल को मैंने हल कर दिखाते हुए पूछा)
बच्चा: अरे दीदी, 25 में से 5 तो एक ही बार घटा सकते हैं। अगली बार तो 20 में से 5 घटाओगे न। तो एक बार ही घटा सकते हैं।
समूह में बच्चे आम तौर पर आप से बहुत-से सवाल बिना झिझके करते हैं। इस सवाल के बाद काफी दिनों तक मेरे अन्दर एक हलचल-सी मची रही। विविध तरह के भाव मन में उठते रहते थे। साधारण सवाल और मासूम लहज़ा जैसे मेरे अन्तर्मन में एक छाप छोड़ गया था। बहुत दिनों तक यह मेरे साथ रहा और न चाहते हुए भी मैं बार-बार उसी सवाल के बारे में सोचती थी। सवाल भी ऐसा था जिसका एक जवाब मेरे पास था।
इसी उधेड़बुन में मैंने अपने सारे पूर्वज्ञान, गणित समझने व सीखने के सिद्धान्तों, अपने गणित के शिक्षकों की बातें याद कीं तो उसी प्रक्रिया में मेरे सामने बहुत-से अन्य सवाल आ खड़े हुए। जैसे - गलत हम दोनों ही नहीं थे। फिर क्यों उस समय मुझे अजीब लगा जब बच्चे ने मुझे हँसते हुए कहा कि मैं गलत हूँ।
मेरे लिए गणित शिक्षण का अर्थ क्या है? केवल एक उत्तर तक पहुँचना या तर्क क्षमता का विकास करना?
किसी भी बात में जटिलता को ढूँढ़ना ही क्यों स्वाभाविक लगता है?
क्या कुछ करना या किसी नतीजे पर पहुँचना ज़रूरी है?

अन्तरमन से जूझना
जब सवालों के रूप में कुछ विचार आपके मन में हों तो आपके पास दो रास्ते होते हैं। पहला, सवालों के सटीक और एक-मात्र जवाब ढूँढ़ना। या दूसरा रास्ता, जो भी सवाल के उत्तर ढूँढ़ने की खोज में मिल जाए, उसी को उस बिन्दु तक पहुँचाने का प्रयास करना जहाँ आप सन्तुष्ट हों। इस रास्ते पर ज़रूरी नहीं कि आपको कोई एक सटीक जवाब मिल ही जाए, जैसा पहले में मिलेगा। मेरे लिए दूसरा रास्ता ज़्यादा बेहतर था। मतलब यह कि दूसरा रास्ता मुझे पहले से ज़्यादा सम्भावनाएँ प्रदान करता है। मुझे अजीब लगा क्योंकि मैं उस एक जवाब को ही अन्तिम समझकर बोर्ड पर हल करके दिखाने लगी। जबकि अगर मैं अब सोचूँ तो उस सवाल का एक और जवाब हो सकता है कि आप कितनी बार भी 5 घटा सकते हैं क्योंकि मुझे किसी ने कहा नहीं कि मैं ऋणात्मक संख्याओं तक नहीं जा सकती। हाँ, यह जवाब भी उसी तरह तीसरी कक्षा के उस बच्चे के लिए अर्थहीन होगा जैसे मेरा कहना कि 25 में से 5 को 5 बार घटा सकते हैं।
गणित शिक्षण का सही मायनों में अर्थ भी तो यही है कि उत्तर में तर्क हो। बच्चे का यह कहना कि एक बार ही घटेगा, अपने आप में इस बात की पुष्टि करता है कि संख्याओं पर उसकी पकड़ और समझ उन लोगों से ज़्यादा है जो गुणा और भाग को बड़े ही यांत्रिक तरीकों से सीखते हैं या यूँ कहें, रटते हैं। साधारण सवाल को जटिल मैंने अपने लिए बनाया क्योंकि मेरे लिए शायद जीवन का मतलब ही यांत्रिक और जटिल है। मुझे स्वयं को बार-बार एहसास करवाना पड़ता है कि सरल चीज़ें सोचो। एक पुरानी कहावत ऐसे में याद आती है: ‘साधारण जीवन जीना आसान नहीं’।
इस अनुभव के बाद से मैं यह समझ बना पाई हूँ कि किसी बात को जानने व मानने में वही अन्तर है जैसा कथनी और करनी में। मैं जानती थी कि गणित का अर्थ तर्क को समझना है। उस एक सवाल ने मुझे यह सम्भावना प्रदान की कि मैं अपनी पठन-पाठन की योजनाओं पर फिर से समझ बना सकूँ और समूह में एक नए दृष्टिकोण के साथ पहुँच पाऊँ। इस बार शायद बच्चों के नज़रिए से दुनिया, जीवन और शिक्षा को थोड़ा और देख सकूँ। सम्भावनाओं और अचम्भों से भरी कक्षा में यूँ ही ज्ञान का सृजन होते देखती रहूँ और संजोती रहूँ।


प्रीति देवगन: इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ होम इकॉनॉमिक्स से बीएल.एड. की पढ़ाई की है। शिक्षान्तर संस्था की शाला में पढ़ाया है। अम्बेडकर विश्वविद्यालय से पढ़ाई कर रही हैं।
सभी चित्र: निशित मेहता: महाराजा सयाजीराव युनिवर्सिटी ऑफ वडोदरा से विज़ुअल आर्ट्स में स्नातक। चित्रकार, लेखक और कला शिक्षक के रूप में काम किया है। वर्तमान में महाराजा सयाजीराव युनिवर्सिटी से कला का इतिहास विषय में स्नातकोत्तर कर रहे हैं।
आभार: शिक्षान्तर अध्यापकों, दीदियों और बच्चों का जिन्होंने हर दिन मुझे कुछ-न-कुछ नया सिखाया।