विपुल कीर्ति शर्मा, किशोर पंवार व अशोक शर्मा

महाविद्यालय में मेरे विभाग के ठीक सामने लगभग 70-80 वर्ष पुराना जामुन का वृक्ष है। पिछले कई वर्षों से यह वृक्ष मुझे आकर्षित करता रहा है। साधारण-से दिखने वाले वृक्ष की खोह में स्टिंगलैस बीज़ (बगैर डंक वाली मधुमक्खियाँ) अपने पैरों की थैलियों में मकरन्द भर कर बमवर्षक विमान के समान लौटती दिखाई देती हैं। लाल चीटों की सेना भी वृक्ष के तने पर परेड करती हुई दिखती है। रोज़ की तरह मैं इस जामुन के वृक्ष पर चल रही गतिविधियों को देख रहा था। जामुन की छाल में घुलमिल गई हर्सिलिस मकड़ी को ढूँढ़ते हुए एक दिन अचानक 20-25 इल्लियाँ आपस में गुथी हुई दिखाई दीं। इल्लियाँ रंग में वृक्ष की छाल से इतना मेल खाती थीं कि इन्हें इल्लियों के रूप में पहचानना मुश्किल था।
बात आई गई हो गई। कुछ दिनों  के बाद फिर मेरी नज़र वहीं जा टिकी। मुझे आश्चर्य हुआ कि इल्लियाँ अभी भी वहाँ थीं। जैसे अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठी हों। पूर्व में भी मैंने इल्लियों को पत्तियों और तने पर देखा था। पर लगातार खाते रहने के कारण ये एक स्थान पर रुकती नहीं हैं। यहाँ तो इल्लियों का पूरा समूह स्थानबद्ध था। वे तने की छाल को बगैर हलचल के खा रही थीं और मल त्याग रही थीं।
पिछले कुछ समय से मैं अपने एक साथी शिक्षक के साथ महाविद्यालय कैम्पस में तितलियों तथा पतंगों के जीवन चक्र का अध्ययन भी कर रहा हूँ। यह पहला अवसर हमें मिला था जब हम छाल खाने वाली तथा एक ही जगह पर रुके रहने वाली इल्लियों को तितली या पतंगे के रूप में परिवर्तित होते देख पाते।

कुछ दिनों बाद इल्लियाँ बड़ी होकर मटर की फली जितनी लम्बी हो गई थीं। बस प्यूपा बनने का इन्तज़ार था। दो दिनों की छुट्टी के बाद जब हमने पुन: देखा तो केवल दो इल्लियाँ ही बची थीं। एक छोटी तथा दूसरी बड़ी। बाकी इल्लियों या उनके प्यूपा का कोई अता-पता ही नहीं था। हमने इन दो इल्लियों को छाल के साथ एक डिब्बे में रख दिया। दो दिनों के पश्चात् इल्लियाँ प्यूपा में बदल गईं। एक प्यूपा का रंग भद्दा-भूरा था तो दूसरे का रंग सफेद। अलग-अलग रंग के कारण मुझे लगा कोई एक प्यूपा मादा तो दूसरा नर में विकसित होगा।

जाना था जापान, पहुँच गए चीन
तीन दिन बाद हम आश्चर्यचकित थे। हमने सोचा था कि दोनों प्यूपा से तितली या पतंगे निकलेंगे परन्तु यहाँ एक से तो पीले रंग की ततैया और दूसरे प्यूपा से काले-भूरे रंग का पतंगा (चित्र-1) निकला।
प्यूपा में से पतंगे की बजाय ततैया क्यों निकली होगी यह गुत्थी हमने अब सुलझा ली थी। तुरन्त समझ में आ गया कि परजीवी ततैया ने छोटी इल्लियों के शरीर में सूई के समान अपने लम्बे ओवीपॉज़िटर (एक नली जिसके ज़रिए मादा कीट अण्डे देती है, चित्र-2) से निषेचित अण्डा डाला होगा और इस कारण पतंगे या तितली की बजाय ततैया बाहर निकली। कोयल अपने अण्डे कौवे के घोंसले में दे यह बात तो सुनी थी, किन्तु ततैया का अपने अण्डों को इल्लियों में डालना हमारे लिए नई बात थी।

मेरे कुछ विद्यार्थी मकड़ी और मकड़ी के रिश्तेदारों पर शोध कर रहे हैं। मकड़ियों को एकत्रित करने के दौरान हमारा सामना पॉम्पिलिडे कुल की ततैया से भी होता है। इन ततैया को मकड़ीमार ततैया भी कहते हैं क्योंकि ये मकड़ियों का शिकार करने में माहिर होती हैं। ततैया, मकड़ियों का शिकार अगली पीढ़ी के भोजन की व्यवस्था के लिए करती हैं। ये खुद से भी बड़ी मकड़ी को डंक मारकर लकवाग्रस्त कर देती हैं। फिर मकड़ी को घसीटकर पहले से बनाए बिल में ले जाती हैं। बेसुध पड़ी मकड़ी के उदर पर ततैया एक अण्डा देकर बिल को बन्द करके चली जाती है। कुछ दिनों के पश्चात् अण्डे से एक लार्वा निकलता है। यह मकड़ी के उदर को भेदकर अन्दर घुस जाता है और मकड़ी के अन्तरांगों से भोजन प्राप्त करता रहता है।
वुल्फ मकड़ियाँ तो कुछ समय बाद ततैया के ज़हर के प्रभाव से उभरते हुए सामान्य ज़िन्दगी प्रारम्भ कर देती हैं और लार्वा उनके पेट में धीरे-धीरे वृद्धि करता रहता है। फिर लार्वा पूर्ण वृद्धि कर लेने के बाद ततैया के रूप में बाहर निकलता है और मकड़ी की मृत्यु हो जाती है।


तो होता यह है कि परजीवी ततैया जब अपने अण्डे इल्लियों में डाल देती है तो इल्लियों के शरीर में ही ततैया का परिवर्धन होता है। इल्लियों के अन्तरांग ही बढ़ती ततैया की भोजन सामग्री होती है। इस प्रकार इल्ली ततैया के अण्डे पालने और पोषित करने वाली दाई माँ के समान काम करती है और अपने शरीर के अन्दर उन्हें सुरक्षा भी देती है। इख्न्यूमॉन ततैया की यह एक खासियत है। 

इख्न्यूूमॉन ततैया
इख्न्यूमोनोइडिए  परिवार  की इख्न्यूमॉन ततैया मुख्य रूप से इल्ली में ही परिवर्धित होती है। लम्बी और सुन्दर, यह ततैया चपलता से हवा में उड़ती और सैर करती हुई वनस्पतियों के बीच से निकल जाती है। स्पन्दन करते हुए इनके धागेनुमा लम्बे एन्टिना, और आँखें पूरे समय इल्लियों को खोजती रहती हैं। यह अपने आकार के अनुसार अण्डे देती है। छोटी इख्न्यूमॉन बड़ी इल्ली में कई अण्डे देती है, वहीं बड़ी प्रजातियाँ एक ही अण्डा देती हैं।

कुछ ततैया तो जलीय कीटों को भी अपना शिकार बनाती हैं। ऐसी ततैया माहिर गोताखोरों के समान पानी में डुबकी लगाकर 10 मिनिट तक पानी में खोजबान करती हैं तथा कैंडिडफ्लाइ के लार्वा में अपना अण्डा डाल देती हैं। ज़्यादातर इख्न्यूमॉन ततैया प्रजातियों की इल्लियाँ इस तरह परजीवी ही होती हैं।

परजीवी ततैया और परजीविता
जैसा कि नाम से ही पता चलता है परजीवी ततैया अपना प्रारम्भिक जीवन किसी मेज़बान से पोषण प्राप्त कर बिताती हैं। ये डंक मारने वाली ततैया के नज़दीकी रिश्तेदार होती हैं। इनमें से कुछ तो शाकभक्षी कीटों के परजीवी होते हैं तथा कई पीड़कों (विक्टिम) की आबादियों के नियंत्रण में इनकी अहम भूमिका होती है। यहाँ यह उल्लेख करना ज़रूरी होगा कि परजीवी शब्द - पेरासाइट - का मतलब सही मायनों में क्या है। एक ऐसा जन्तु जो मेज़बान से पोषण तो प्राप्त करे किन्तु उस पर या उसके अन्दर रहकर ऐसा करे, उसे परजीवी कहते हैं। चूँकि ततैया परिवार हाइमेनॉप्टेरा के अधिकांश परजीवी पोषक को नष्ट कर देते हैं अत: वास्तव में वे परजीवी नहीं शिकारी (प्रिडेटर) होती हैं। उन्हें परजीवी की बजाय शिकारी परजीवी या पेरासिटॉइड कहना अधिक उपयुक्त है। यद्यपि परजीवी एवं शिकारी परजीवी का अन्तर जानने के बावजूद कीट विज्ञानी अभी भी दोनों शब्दों के लिए परजीवी शब्द का ही उपयोग करते हैं। इस आलेख में भी ऐसा ही किया गया है।

परजीवी ततैया के हथियार
सभी परजीवी ततैया के पास एक लम्बा ओविपॉज़िटर होता है। ओवी-पॉज़िटर रूपान्तरित डंक है। इसका कार्य मेज़बान के बाह्य एवं कठोर आवरण को भेदकर अण्डे को सुरक्षित जगह पहुँचाना है। परजीवी वास्प का मेज़बान तितलियों व पतंगों की इल्ली, मकड़ी या कोई अन्य प्राणी भी हो सकता है। अण्डे मेज़बान की शरीर गुहा में लार्वा में बदल जाते हैं। मेज़बान का शरीर इस परजीवी लार्वा का पोषण करता है। लार्वा के सम्पूर्ण विकास के बाद वे पोषक का शरीर भेदते हुए बाहर निकलते हैं तथा ककून के आवरण में बन्द हो जाते हैं। मेज़बान तो मर जाता है परन्तु ककून से ततैया बाहर आकर उड़ जाती है।
सवाल यह है कि इल्ली का प्रतिरक्षा तंत्र ततैया के अण्डे को नष्ट क्यों नहीं करता?  इल्ली  का  प्रतिरक्षा  तंत्र, अतिक्रमण करने वाले अण्डे को नष्ट करने में सक्षम होता है। परन्तु ततैया मेज़बान इल्ली में केवल अण्डे ही नहीं डालती है, वह अण्डों के साथ इल्ली के प्रतिरक्षा तंत्र को नष्ट करने के लिए विषाणु भी डाल देती है। प्रारम्भ में विषाणुओं को अण्डाणु से निकलने वाले पदार्थ समझा जा रहा था। किन्तु 1981 में स्टोल्स विन्सन और साथियों ने यह सिद्ध किया कि वे अण्डाणु के पदार्थ नहीं बल्कि विषाणु हैं। आज इन विषाणुओं को पॉलिड्नावायरस (polydnavirus) नाम से जाना जाता है। इससे इल्ली खाना-पीना छोड़ देती है और अन्तत: इस प्रकार दोहरे हमले के कारण समयपूर्व ही मर जाती है। अण्डों की सुरक्षा के लिए अनेक परजीवी ततैया ने विषाणु और जीवाणुओं के साथ समझौता किया हुआ है जिनके बगैर वे इल्ली के प्रतिरक्षा तंत्र को हरा नहीं पातीं।

मेज़बान के प्रतिरक्षा तंत्र का नाश
आप सोच रहे होंगे कि इल्ली का प्रतिरक्षा तंत्र विषाणुओं, जीवाणुओं आदि को नष्ट कैसे करता है। इस प्रश्न का जवाब नेन्सी बैकेज एवं साथियों ने कोटीशिया    काँग्रगेटा    नामक पॉलिड्नावायरस ततैया पर शोध करके दिया। यह ततैया प्रत्येक इल्ली में सेकड़ों अण्डे देती है। ततैया जैसे ही अण्डों को इल्ली के शरीर में डालती है वे लार्वा में परिवर्तित होकर इल्ली के हीमोलिम्फ (कीटों में खून के समकक्ष  द्रव पदार्थ) से पोषण पाते हैं।

ततैया की अगली पीढ़ी जब तक इल्ली से बाहर नहीं आ जाती तब तक इल्ली ज़िन्दा रहती है। हीमोलिम्फ अकशेरुकियों में अपशिष्ट पदार्थों को शरीर से बाहर ले जाने, पोषक तत्वों तथा ऑक्सीजन को सभी अंगों और कोशिकाओं तक पहुँचाने तथा रोगाणुओं से शरीर को सुरक्षा देने का कार्य करता है। अकशेरुकियों में हीमोग्लोबिन के समान ही ऑक्सीजन को सोखने के लिए हीमोसायनिन होता है। हीमोलिम्फ में पाई जाने वाली कोशिकाओं को हीमोसाइट्स कहते हैं। हीमोसाइट्स शरीर में प्रवेश करने वाले रोगाणुओं या अन्य हानिकारक तत्वों का भक्षण करने वाली कोशिकाएँ हैं। इसी तरह मुख्यत: अमेरिका में तम्बाकू के पौधों पर पाई जाने वाली टोबैको हॉर्नवर्म परजीवी ततैया के लिए आदर्श मेज़बान है। इनकी इल्लियाँ अनामिका उँगली अर्थात् सबसे छोटी उँगली की लम्बाई तक बढ़ जाती हैं। इन्हें प्राय: अमरीकी टमाटर के पौधों को सफाचट करते देखा जा सकता है।


कोटीशिया ततैया जब अपने अण्डों को टोबैको हॉर्नवर्म की इल्ली में डालती हैं तो इल्ली के हीमोलिम्फ में पाए जाने वाली प्रतिरक्षी कोशिकाओं हीमोसाइट्स में अचानक परिवर्तन दिखने लगता है। हीमोसाइट्स एकत्रित होने  लगते  हैं  और  सामान्य हीमोसाइट्स के विपरीत परजीवी के अण्डों  पर  चिपक  नहीं  पाते। हीमोसाइट्स की झिल्लियाँ भी नष्ट होने लगती हैं तथा वे परिसंचारण तंत्र (circulatory system) से बाहर कर दिए जाते हैं। हीमोसाइट्स में ये परिवर्तन बिलकुल स्तनधारियों में होने वाले कोशिका आत्मघात (एपॉप्टोसिस) जैसा ही है। हीमोसाइट्स दो प्रकार के  होते  हैं  -  ग्रैन्यूलोसाइट्स  एवं प्लाज़्मोसाइट्स। ये विदेशी या बाह्य एंटीजन तथा कोटीशिया के अण्डों को नष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सामान्य प्रतिरक्षा कार्य में परजीवी  ततैया  के  अण्डों  को ग्रैन्यूलोसाइट्स के ग्रैन्यूल (दाने) घेर लेते हैं। फिर प्लाज़्मोसाइट्स अण्डों की सतह पर चिपक कर एक आवरण बनाते हैं और उसे ढकलेते हैं। इसके फलस्वरूप अन्तत: अण्डे मर जाते हैं। इल्ली के हीमोलिम्फ परिवहन तंत्र से चुन-चुन  कर  ग्रैन्यूलोसाइट्स  एवं प्लाज़्मोसाइट्स को हटा देने से इल्ली की परजीवी के विरुद्ध प्रतिरक्षा तंत्र की प्रथम सुरक्षा दीवार ढह जाती है। ऐसे ही परिवर्तन एड्स बीमारी के कारक  ह्यूमन  इम्यूनोडेफीशिएन्सी वायरस च्र्-4 लिम्फोसाइट्स को नष्ट करके करते हैं।

विशुद्ध पॉलिड्नावायरस को जब इंजेक्शन द्वारा तम्बाकु की हॉर्नवर्म इल्ली में डाला जाता है तो उसके हीमोसाइट्स में परिवर्तन बिलकुल वैसे ही दिखते हैं जैसे कि सामान्य कोटीशिया में होते हैं। परन्तु इंजेक्शन से डालने के पूर्व ही पॉलिड्नावायरस को यदि रसायन द्वारा संक्रमणहीन कर दिया जाता है तो इल्ली का प्रतिरक्षा तंत्र सामान्य व्यवहार करता है तथा परजीवी अण्डों को नष्ट कर देता है। परिणाम से स्पष्ट है कि वायरस के प्रोटीन ही इल्ली के प्रतिरक्षा तंत्र को कुचलने का कार्य कर रहे थे।

डॉ. बैकेज एवं साथियों ने पता लगाया कि ओवीपोज़िशन (अण्डे देना या जमा करना) के 30 मिनिट पश्चात् ही विषाणु इल्ली के हीमोसाइट्स के साथ ही पूरे शरीर में फैल कर संक्रमण कर देते हैं। परजीविता के कारण टोबैको हॉर्नवर्म  के  हीमोसाइट्स  में  भी पॉलिड्नावायरस द्वारा निर्मित प्रोटीन कघ्-1 प्रदर्शित होता है। आश्चर्यजनक रूप से यह जीन, मेज़बान तथा विषाणु दोनों  में  पाया  जाता  है।  यद्यपि हीमोसाइट्स छठे दिन के बाद सामान्य होने लगते हैं परन्तु तब तक इल्ली का प्रतिरक्षा तंत्र परजीवी ततैया को मारने में बहुत देर कर चुका होता है। निष्क्रीय विषाणु के प्रोटीन जब तक उपस्थित रहते हैं तब तक हीमोसाइट्स नष्ट होते रहते हैं। जैसे ही विषाणु प्रोटीन की सान्द्रता कम होती है, नष्ट हुए हीमोसाइट्स का स्थान स्वस्थ हीमोसाइट्स लेकर, प्रतिरक्षा तंत्र को क्रियान्वित कर देते हैं। पर तब तक देर हो चुकी होती है। नन्ही नवजात ततैया इस बीच बन चुकी होती है तथा मेज़बान का काम तमाम कर चुकी होती है।

क्यों नहीं बनता इल्ली का प्यूपा?  
ततैया द्वारा मेज़बान में डाले गए अण्डों के साथ अण्डाशय के प्रोटीन भी होते हैं। ये प्रारम्भ में अण्डों को बचाने में मदद करते हैं। इसके बाद से विषाणु का संक्रमण ही परजीवी ततैया के अण्डों को बचाने में सहायता करता है और मेज़बान इल्ली के अन्तःस्राव (hormones) के कार्य में बाधा उत्पन्न करके इल्ली के परिवर्धन को रोक देता है। परजीविता के कारण जुवेनाइल हॉर्मोन।। का स्तर ऊँचा रहता है। प्यूपा बनने की प्रक्रिया के लिए जुवेनाइल हॉर्मोन के स्तर में गिरावट होना अत्यन्त आवश्यक है। सामान्य स्थिति में जुवेनाइल एस्टरेज़ एंज़ाइम जुवेनाइल हॉर्मोन को नष्ट करता है और प्यूपा बनने की अवस्था की तरफ ले जाता है। इन सब गड़बड़ियों के कारण मेज़बान इल्ली का परिवर्धन बाधित होता है और प्यूपा नहीं बन पाता।

विषाणु और वास्प का साथ
अन्य DNA विषाणु की तुलना में पॉलिड्नावायरस के मेज़बानके जीनोम में द्विगुणन (duplication) अलग प्रकार से होता है। इसी आधार पर इनका नामकरण किया गया है - पॉली डिस्पर्स डीएनए वायरस। सन् 1986 में फ्लेमिंग एवं  समनर  ने  बताया  कि पॉलिड्नावायरस का जीनोम ततैया  के जीनोम में बिखरा हुआ होता है। प्रत्येक अगली पीढ़ी की ततैया में विषाणु का जीन मेण्डल के नियमानुसार प्रकट होता ही है। विषाणु एवं ततैया की जोड़ी अटूट है। अगर ततैया में विषाणु के जीन हैं तो ततैया में वायरस होगा ही। विषाणु और ततैया के जीन में यह अन्तरंग सम्बन्ध विषाणु द्वारा ततैया को परजीवी बनाए रखने में स्वार्थी भूमिका दर्शाता है। विषाणु अगर ततैया के अण्डों से परजीवी ततैया बनाने में मदद करते हैं तो वे स्वयं को भी जीवित बनाए रख रहे हैं। विषाणु के मेज़बान में संक्रमण करने तथा मेज़बान कोशिकाओं को भेदकर अन्दर जाने की कला का उपयोग परजीवी ततैया ने किया है। सहअस्तित्व (coexistence) एवं उद्विकास (organic evolution) का यह उदाहरण जीवों में परस्पर सम्बन्ध पर शोध के लिए नए द्वार खोलता है।

आप कैसे शोध करें?
नेक्टर खाने वाली पॉम्पिलिडे प्रकार की ततैया को स्पाइडर वास्प भी कहा जाता है क्योंकि ये अपने से बड़ी मकड़ियों का शिकार लार्वा के भोजन के रूप में करती हैं। प्रत्येक पकड़ी गई मकड़ी पर एक लार्वा होता है। मकड़ी के बड़े आकार के कारण ये वास्प या तो खुद का घर पास ही बनाती हैं या मकड़ी के घर का ही उपयोग कर लेती हैं।
कुछ परजीवी वास्प मकड़ियों को उनकी गन्ध से ढूँढ़कर केवल बेहोश करती हैं। इनके वृद्धि करते हुए लार्वा अन्तत: मकड़ी की मौत का कारण बनते हैं। हमने ऐसी कई वास्प देखी हैं जो मकड़ियों को खोज रही होती हैं। हम सोच रहे हैं अब की बार इन ततैया को पालें। केवल गीली मिट्टी, एक एक्वेरियम और कुछ मकड़ियाँ ही तो चाहिए। पॉम्पिलिडे वास्प को वुल्फ स्पाइडर या हंटमेन स्पाइडर ही चाहिए जो आसानी-से घर के आसपास या बगीचों में मिल जाती हैं।


विपुल कीर्ति शर्मा: शासकीय होल्कर विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर में प्राणिशास्त्र के वरिष्ठ प्रोफेसर। इन्होंने ‘बाघ बेड्स’ के जीवाष्मों का गहन अध्ययन किया है तथा जीवाष्मित सीअर्चिन की एक नई प्रजाति की खोज की है। नेचुरल म्यूज़ियम, लंदन ने उनके सम्मान में इस नई प्रजाति का नाम उनके नाम पर स्टीरियोसिडेरिस कीर्ति रखा है। वर्तमान में वे अपने विद्यार्थियों के साथ मकड़ियों पर शोध कार्य कर रहे हैं। पीएच.डी. के अतिरिक्त बायोटेक्नोलॉजी में भी स्नातकोत्तर किया है।

किशोर पंवार: शासकीय होल्कर विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर में बीज तकनीकी विभाग के विभागाध्यक्ष और वनस्पतिशास्त्र के प्राध्यापक हैं। होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से लम्बा जुड़ाव रहा है जिसके तहत बाल वैज्ञानिक के अध्यायों का लेखन और होविशिका में ट्रेनिंग देने का कार्य किया है। एकलव्य द्वारा जीवों के क्रियाकलापों पर आपकी तीन किताबें प्रकाशित। शौकिया फोटोग्राफर, लोक भाषा में विज्ञान लेखन व विज्ञान शिक्षण में रुचि।

अशोक शर्मा: वरिष्ठ शिक्षाशास्त्री हैं। होल्कर विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर में प्राणीशास्त्र के प्राध्यापक तथा विभागाध्यक्ष रहे हैं। प्राचार्य के रूप में सेवानिवृत्ति के पश्चात् वे फिलहाल चोइथराम कॉलेज, इन्दौर में निदेशक के पद पर अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। अस्सी के दशक में वे होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के अन्तर्गत शिक्षकों के प्रशिक्षण में सक्रिय योगदान देते रहे हैं। विज्ञान को हिन्दी में लिखने में उनकी रुचि है।