पिछले अंक में सवालीराम ने पूछा था कि पान किस तरह मुँह को लाल कर देता है। इस सवाल के दो जवाब पेश कर रहे हैं। पहला जवाब हमारी पाठिका अम्बिका नाग का है। दूसरा जवाब एकलव्य की प्रकाशन टीम के साथी रुद्राशीष ने तैयार किया है।
जवाब 1: भारत समेत दुनिया के कई देशों जैसे श्रीलंका, वियतनाम, मलेशिया, पाकिस्तान, ताइवान, दक्षिण-पूर्व एशिया व पूर्वी अफ्रीका में लोग बड़े चाव से पान खाते हैं। पान में ऐसी क्या खासियत है कि इसके इतने सारे चाहने वाले हैं? पान के चाहने वालों से शायद यह जवाब आएगा कि यह मुँह को साफ रखता है और साँसों में ताज़गी लाता है, इसके बावजूद कि यह मुँह, होंठ, दाँत, जीभ और कभी-कभी कमीज़ को भी लाल कर देता है।
पान को हज़ारों वर्र्षों से चबाया जा रहा है। इसका उल्लेख श्रीलंका के इतिहास की पुस्तक महाभस्म में पाली में लिखा मिलता है।
चलिए आते हैं अपने सवाल की ओर - पान में ऐसा क्या है जिससे मुँह लाल हो जाता है?
हमने जब पान के अवयवों को खाकर देखा तो पाया कि न तो पान का पत्ता, न ही सुपारी खाने से मुँह लाल हुआ। अकेले कत्था या अकेले चूने के साथ पान खाने पर भी मुँह लाल नहीं हुआ।

जब हमने पान के पत्ते पर पहले चूने की एक परत और फिर कत्थे की एक परत लगाकर खाया तो मुँह गाढ़ा लाल हो गया जो ज़रूर इन दोनों के बीच हुई अभिक्रिया से हुआ होगा। जब हम पान चबाते हैं तो मुँह की लार भी इस क्रिया में भाग लेती है। यह लाल रंग एक रंजक का काम करता है जिससे होंठ और मुँह का भीतरी हिस्सा लाल हो जाता है।
आइए अब रंगने के पीछे की रासायनिकी को समझने का प्रयास करें। कत्था कई रसायनों का एक  मिश्रण है जिसे कटैचू भी कहते हैं। इसमें प्राकृतिक टैनिन की काफी मात्रा पाई जाती है जिसकी वजह से इसमें कसैलापन (astringency) होता है।  कत्थे के अलावा सुपारी, चाय, अनार, कोको में भी प्राकृतिक रूप से टैनिन पाया जाता है।

कत्था व्यावसायिक तौर पर एक प्राकृतिक रंजक (डाई) के रूप में कपड़ा रंगने के काम में भी लिया जाता है। विभिन्न रंग-बन्धकों के साथ यह अलग-अलग रंग देता है, जैसे अमोनिया के साथ भूरा, टिन के प्रोटो-क्लोराइड के साथ पीला, टिन के पर-क्लोराइड के साथ भूरा, ताँबे के नाइट्रेट के साथ गहरा कांस्य वर्णी, एल्युमिनियम नाइट्रेट के साथ गहरा लाल और लौह नाइट्रेट के साथ गहरा भूरा-धूसर।
अब तो आप समझ ही गए होंगे कि ये रंगीलापन कत्थे और चूने की जोड़ी का ही कमाल है!

अम्बिका नाग: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, जयपुर में विज्ञान की स्रोत व्यक्ति के तौर पर कार्यरत हैं। वनस्पति शास्त्र का अध्ययन किया है।


जवाब 2: इस देश में शायद ही कोई शहरी ऐसा होगा जिसने सीढ़ियों की दीवारों पर या अन्य किसी खुली जगह पर पान खाकर थूके गए लाल रंग के पीक के दाग न देखे हों। आखिर इस लाल रंग के पीछे क्या कारण है जो पान खाने वालों पर तोहमत लगाने की वजह बन जाता है?
दरअसल पान कई तरह के खाद्य पदार्थों काएक मिश्रण है। इस मिश्रण में शामिल चीज़ों और उनके गुणों पर हम एक नज़र डालेंगे, खासकर लाल रंग उत्पन्न होने के सम्बन्ध में।
पान का पत्ता, जिसका स्वाद तीखा होता है, हमारी जीभ पर कोई रंग नहीं छोड़ता। पान के सबसे साधारण रूप में पान और सुपारी रहती है। सुपारी में अल्कोलॉयड रहते हैं जो कि हल्के नशीले और लत लगाने वाले होते हैं लेकिन मुँह को लाल करने में इनका कोई हाथ नहीं होता।
कुछ लोग पान के पत्ते पर थोड़ा-सा चूना रगड़ देते हैं। चूना दरअसल कैल्शियम हाइड्रऑक्साइड है जो पानी में  अनबुझा  चूना  या  कैल्शियम ऑक्साइड को मिलाने से बनता है। यह सफेद रंग का होता है।

कत्था नाम की एक और शै है जिसका भी पान मिश्रण में इस्तेमाल किया जाता है। कत्था अकेशिया वृक्षों खासकर इसकी अकेशिया कटैचू   प्रजाति से प्राप्त होता है। इसकी लकड़ी को पानी में उबाल दिया जाता है और पैदा हुए घोल को वाष्पीकृत किया जाता है। कत्थे के पाउडर का रंग भूरा होता है और इसे रंगने में इस्तेमाल किया जाता है।
जब कत्थे को पानी में उबालते हैं तो इसका रंग लाल हो जाता है। इस तरह बने गाढ़े पेस्ट को पान पर लगाया जाता है। गाढ़े पेस्ट की जगह कभी-कभी ज़्यादा जलयुक्त, पतले और गुलाबी-से घोल का इस्तेमाल भी होता है।
अरे वाह, आखिरकार हमने असल खिलाड़ी को पकड़ लिया!

लेकिन थोड़ा रुको। इस खेल में एक और खिलाड़ी भी शामिल है जो भला-भला-सा लगने वाला उजले रंग का चूना है। दरअसल जब पान में कत्थे को चूने के साथ मिलाते हैं तो गहरा लाल रंग प्राप्त होता है, जिसके पीछे इन दोनों के बीच होने वाली रासायनिक क्रिया का हाथ है।
यह भी कहा जाता है कि इसमें मुँह की लार की भूमिका भी अहम है इसलिए पान को हम जितना चबाते जाते हैं, मुँह की लाली में उतनी गहराई आती है।
मैं यहाँ तक इंटरनेट पर मिली बातों को पढ़कर पहुँचा। फिर मैंने अपने सहकर्मियों की सलाह पर इन बातों की सत्यता को खुद जाँचा।
मैंने चार तरह के पान के मिश्रणों को लेकर एक प्रयोग किया। इस काम में लखनभाई ने शानदार तरीके से मेरी मदद की। लखनभाई रात में सबके घर चले जाने के बाद कार्यालय की देखभाल करते हैं। पान के जो पहले दो मिश्रण थे वे सामान्य मीठे पान की तरह ही थे, लेकिन उनमें सुपारी नहीं थी। उनमें इलायची, लौंग, नारियल पाउडर, सौंफ, गुलकन्द, किमाम और विभिन्न तरह के अन्य पदार्थ थे। इन दोनों मिश्रणों में फर्क सिर्फ इतना था कि एक में कत्था और चूना, दोनों थे जबकि एक में केवल कत्था था।

मैंने और लखनभाई ने इनमें से एक-एक को मुँह में डाला। बिना चूने का पान चबाने पर मुँह लाल नहीं हुआ जबकि कत्था और चूना वाला पान खाने के बाद मुँह में लाली दिखी।
लेकिन समस्या यह थी कि कत्था-चूना मिश्रण हमारे मुँह को पर्याप्त लाल नहीं कर पाया और मैं काफी निराश हुआ। फिर उसके बाद लखनभाई दो अलग तरह के पान बनवाकर लाए  - इनमें पान के पत्ते में कत्था, चूना, लौंग, इलायची, किमाम और सुपारी थे। इसे चबाने के बाद मुँह इतना लाल हो गया कि बाद में मैंने दाँत के ऊपर लगे धब्बों को हटाने के लिए पानी लेकर उंगलियों से साफ करने की कोशिश की फिर भी ये दाग नज़दीक से दिख रहे थे।
तो किस चीज़ के कारण अन्तर दिखा?
पान वाले ने मिश्रण में सुपारी के जो टुकड़े दिए थे उसके चलते इस पान को ठीक से चबाने में कुछ दिक्कत हो रही थी, इसलिए लार बनती गई जिससे पूरा मुँह भर गया। ऐसा बिना सुपारी वाले पान खाने से नहीं हुआ था। इस बार हम दोनों को बार-बार लार थूकना पड़ती थी। मेरी समझ में इतना ज़्यादा लाल होने के पीछे इस लार का हाथ था जो चबाने के बाद हर मिनट, दो मिनट में हमारे मुँह को लाल रंग के द्रव से भर देती थी और शायद सम्बन्धित रासायनिक क्रियाएँ भी ज़िम्मेदार थीं।
जब इन दिलचस्प अवलोकनों के बारे में कुछ साथियों के साथ अगले दिन बातचीत हुई तो उन्होंने कहा कि ऐसा पान भी खाएँ जिसमें चूना और सुपारी तो हो लेकिन कत्था न हो और फिर देखें कि मुँह लाल होता है कि नहीं।

एक बार फिर लखनभाई दो पान लाए। दोनों बिलकुल पिछले दिन के पान की तरह थे। बस उनमें किमाम नहीं था (दोनों में सुपारी और चूना थे)। एक में कत्था नहीं था, इसे मैंने खाया। दूसरे में कत्था था, उसे लखनभाई ने खाया।
लखनभाई का मुँह काफी लाल हो गया और मेरा मुँह भी अच्छा-खासा लाल हुआ, उससे अधिक जितना मैंने और लखनभाई ने उम्मीद की थी। दरअसल हम दोनों ने महसूस किया कि मेरा मुँह तो आखिर उतना लाल तो था ही जितना एक दिन पहले बिना सुपारी वाला पान खाने से हुआ था। पता नहीं इसका सबब क्या था।
अब हमारे पास जाँच के लिए एक और विकल्प बचा है। इसमें ऐसे पान को खाना है जिसमें पान का पत्ता, इलायची, लौंग, चूना तो हो लेकिन कत्था और सुपारी न हो।
जब तक आप यह लेख पढ़ेंगे तब तक हम इस विकल्प की जाँच भी कर चुके होंगे। आप भी खुद जाँच कर के क्यों नहीं देखते!


इस जवाब को रुद्राशीष चक्रवर्ती ने तैयार किया है।
रुद्राशीष चक्रवर्ती: एकलव्य, भोपाल के प्रकाशन समूह के साथ कार्यरत हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: मनोज कुमार झा: विज्ञान में स्नातकोत्तर। दो कविता संग्रह और कई साहित्यिक अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित होते रहे हैं। दरभंगा, बिहार में रहते हैं।