कालू राम शर्मा व जितेश शेल्के

एक शहर में शाम का दृश्य! घनी आबादी और भीड़-भाड़ वाले इलाके में चिड़ियाओं का आगमन सूरज के ढलने के साथ शुरु हो जाता है। एक छोटा झुण्ड पूरब से आया, एक उत्तर से और दोनों ने मानो इशारों-इशारों में कुछ कहा और एक साथ आसमान में उड़ने लगे। यही क्रम जारी है। चारों ओर से चिड़ियाएँ छोटे-छोटे झुण्डों में आती-जाती हैं और फिर एक बड़ा झुण्ड बनाती हैं। झुण्ड में और छोटे झुण्ड शामिल होते जाते हैं... और यह क्रम जारी रहता है। फिर बड़े झुण्ड आसमान में कलाबाज़ियाँ करते हुए चक्कर लगाने लगते हैं। इस झुण्ड में अनगिनत चिड़ियाएँ हैं। जब छोटे-छोटे झुण्ड एक बड़े झुण्ड में मिलते हैं तो चिड़ियाओं में आपसी टकराहट नहीं होती। झुण्ड की चिड़ियाओं में लय दिखाई देती है मानो कोई झुण्ड को नियंत्रित कर रहा हो। तरह-तरह के चित्र बनाती हैं ये चिड़ियाएँ आसमान में, कभी मछली का आकार तो कभी लहरदार लहरिया! मानो आसमान में काली रंग की धुन्ध छा गई हो। सिर के ठीक ऊपर का आसमान जो कि नीला था वह अब नीला-काला बन चुका है। पश्चिम में ललिया रहे आसमान का यह दृश्य खूब सुहावना लगता है। कोई इन्हें देखकर उदासीन नहीं रह सकता। लगता है मानो चिड़ियाओं का मेला लगा हो।

सूरज ढल चुका है। चिड़ियाओं की कलाबाज़ी अब सिमटती जा रही है। अब तक जो झुण्ड आसमान में कलाबाज़ी दिखा रहा था वह अब पेड़ों और इमारतों पर उतरने लगा है। पेड़ों पर जितनी पत्तियाँ हैं उससे कहीं अधिक चिड़ियाएँ! डाल-डाल और शाख-शाख पर चिड़ियाएँ। अब वे पेड़ों पर फुदकने लगी हैं। चिड़ियाओं का कलरव बढ़ता जा रहा है। तकरीबन साढ़े सात बज चुके हैं। चिड़ियाओं का कलरव भी रोशनी के साथ सिमटता जा रहा है।
कौन-सी चिड़िया हैं ये? क्या ये पूरे बरस यहाँ रहती हैं? ये सवाल एक आम इन्सान के ज़हन में उठना लाज़मी है। जब सवाल हैं तो उनके जवाब ढूँढ़ने की भी लोग कोशिश करते हैं।
रोज़ी पैस्टर उज्जैन के जिस इलाके में पाई जाती हैं वहाँ बारह ज्योतिर्लिंग में से एक महाकाल है। दरअसल, मन्दिर के आसपास बरगद, पीपल, करंज, बबूल आदि रोज़ी पैस्टर के बसेरे हैं। जब पेड़ इन चिड़ियाओं से लद जाते हैं तो फिर ये गुम्बदों और भवनों की मुण्डेरों और छतों पर बैठने लगती हैं। शाम को ये झुण्ड में आसमान में उड़ती हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि मानो महाकाल मन्दिर की परिक्रमा कर रही हों। कुछ लोग इसकी व्याख्या इस तरह से करते हैं कि मन्दिर में शाम की आरती होने के दौरान ये परिक्रमा करती हैं। हमारे मित्र ने एक बात और कही। ये श्रावण में आती हैं और महाशिवरात्री तक रहती हैं और फिर यहाँ से चली जाती हैं। यानी कि ये शैव धर्म को मानती हैं।

शाम को रोज़ी पैस्टर अपने बसेरों में लौटती हैं, तब ये अपने उन्मुक्त व्यवहार को प्रदर्शित करती हैं, यानी कि  आसमान में कलाबाज़ी करती हैं। इसे अँग्रेज़ी में मर्मरिंग कहा जाता है और यह इस प्रजाति और इस परिवार की कुछ अन्य प्रजातियों में देखने को मिलता है। दूसरी बात यह कि ये हमारे यहाँ शीत ऋतु बिताने आती हैं और ठण्ड का मौसम खत्म होने के उपरान्त चली जाती हैं। तो यह महज़ संयोग है कि वे लगभग श्रावण से महाशिवरात्री का समय यहाँ बिताती हैं।

मैना परिवार की एक सदस्य
देसी मैना के आकार की और बहुत कुछ रंग-रूप में उससे मिलती-जुलती इस चिड़िया के बारे में बताया जाता है कि शीत ऋतु का आगाज़ होने के पहले ही यह भारत में आती है और गर्मी की शुरुआत के कुछ दिनों बाद यहाँ से गायब हो जाती है। इसका अँग्रेज़ी नाम रोज़ी पैस्टर या रोज़ी स्टार्लिंग है। हिन्दी नाम गुलाबी मैना। इसे कन्नड़ में मधुसारिका और बांग्ला में लाल मैना कहते हैं। इसके मधुर गीत के कारण ही इस नाम से नवाज़ा गया। अँग्रेेज़ी नाम रोज़ी का अर्थ होता है गुलाबी-सा। सालिम अली अपनी पुस्तक में इसे रोज़-कलर्ड स्टार्लिंग लिखते  हैं।  नामों  की  चर्चा  में जीवशास्त्रीय नाम का उल्लेख भी हो जाए जो पास्टर रोज़िअस है।
गुलाबी रंग का पेट लिए और ऊपर से मानो काले रंग के परों से ढँका बदन, सिर काला जिस पर पीछे की ओर एक चोटी-सी निकली हुई। यह चोटी भारत में हमें उतनी स्पष्ट नहीं दिखती क्योंकि यह गर्दन के पीछे चिपकी हुई-सी होती है। मगर जब यह अपने प्रजनन स्थल पर होती है तब नर रोज़ी पैस्टर के रंग-रूप में निखार आ जाता है और यह चोटी भी खड़ी हुई-सी स्पष्ट दिखाई देती है (चित्र-2)।  
प्रजनन काल में रोज़ी पैस्टर के रंग-रूप में परिवर्तन आ जाता है। नर चमकदार होता है और इसकी चोटी एकदम साफ दिखने लगती है। भारत में जब यह आती है तो इसके पेट का रंग हल्का गुलाबी होता है जो कि प्रजनन काल में गहरा गुलाबी हो जाता है। कभी-कभी ये देसी मैना की कुछ प्रजातियों के साथ मिश्रित प्रजाति पक्षी समूहों में भी दिख जाती हैं।

भारत में रोज़ी पैस्टर
जब ये प्रवास करके भारत आती हैं तो इन्हें ज्वार आदि की फसलों और गूलर, बरगद, पीपल आदि पर देखा जा सकता है। खेतों में इनके झुण्ड-के-झुण्ड देखने को मिल सकते हैं। ये दिन में छोटे-छोटे झुण्ड में बँट जाती हैं और अनाज चुगती रहती हैं। फिर शाम होते-होते ये एकत्र होकर बड़ा, और बड़ा झुण्ड बनाने लगती हैं। यह भी देखा गया है कि सुबह के वक्त व दोपहर के बाद ये फसलों पर बड़े झुण्ड में धावा बोलती हैं। अगर फसल मालिक इन्हें न उड़ाए तो चन्द ही मिनटों में ये खड़ी फसल को चट कर जाती हैं।
रोज़ी  पैस्टर  का  यह  व्यवहार दिलचस्प है कि ये दिन ढलने के साथ लौटकर एक साथ किसी ऐसी जगह एकत्र होती हैं जहाँ खूब सारे पेड़ हों। यहाँ ये रात बिताती हैं। यह भी देखा गया है कि ये पेड़ों के अलावा किसी भवन या गुम्बद को भी अपना आशियाना बना लेती हैं। यहाँ ये रात बिताती हैं और फिर से अलसुबह जंगल की ओर चुगने को निकल लेती हैं।
एक अवलोकन और है। कुछ रोज़ी पैस्टर शाम को इन झुण्डों का हिस्सा नहीं बनती हैं। ये इस दौरान अलग-थलग बैठी रहती हैं। ऐसा हमने कई बार देखा। हमारा ध्यान उन चिड़ियाओं पर रहा है और हम यह समझने की कोशिश करते रहे हैं कि आखिर ऐसा क्यों। एक सम्भावना यह हो सकती है कि ये चिड़ियाएँ थक चुकी हों या बीमार हों इसलिए इन झुण्डों का हिस्सा नहीं बन पातीं।

दरअसल, रोज़ी पैस्टर शीतकाल में किसी एक जगह को अपना बसेरा बना लेती हैं। अधिकांशत: ये पेड़ों को ही बसेरे के रूप में चुनती हैं जहाँ ये रात बिताती हैं। ये पेड़ इन चिड़ियाओं के बसेरे हैं जहाँ वे दिन ढलने पर आती हैं और रात बिताती हैं। सुबह सूरज निकलते ही ये फिर आसमान में कलाबाज़ी के दृश्य निर्मित करती हैं और छोटे-छोटे समूहों में बँटकर जंगलों की ओर चल देती हैं।
रोज़ी पैस्टर यहाँ अप्रैल तक रहती हैं और फिर अपने प्रजनन स्थल की ओर लौटना प्रारम्भ कर देती हैं। वहाँ पहुँचने पर नर और मादा का मिलन होता है। अण्डे देने और उनकी परवरिश के बाद जब बच्चे स्वतंत्र हो जाते हैं तो फिर से ये प्रवास की तैयारी करती हैं।

दानाहार बनाम टिड्डीहार
वयस्क रोज़ी पैस्टर का भोजन व्यवहार बड़ा ही दिलचस्प है। जब ये यूरोप में होती हैं यानी अप्रैल में भारत से विदा होकर लौटती हैं और मई-जून में प्रजनन कर रही होती हैं तब ये मांसाहारी बन जाती हैं। और टिड्डों को प्रमुख रूप से आहार बनाती हैं। दरअसल, यह देखने में आया है कि प्रजनन के लिए ये जगह ही ऐसी चुनती हैं जहाँ टिड्डों की बहुतायत हो। भारत से लौटकर ये यूरोप, पश्चिमी और मध्य एशिया की पहाड़ियों और खण्डहरों को प्रजनन के लिए चुनती हैं। ऐसा देखा गया है कि टिड्डी दल (लोकस्ट) जब अपनी जगह बदल लेते हैं तो रोज़ी पैस्टर पक्षी भी प्रजनन के स्थल बदल देते हैं। अण्डों से बाहर निकलते ही रोज़ी पैस्टर की सन्तानें नरम-नरम छोटी टिड्डियों को खाना प्रारम्भ कर देती हैं।
इसे जीव-शास्त्रीय नज़रिए से  देखने की कोशिश करते हैं। प्रजनन के दौरान मादा को प्रोटीन आहार की ज़रूरत कहीं अधिक होती है। ऐसे में टिड्डों एवं कीटों की तुलना में अनाज के ज़रिए प्रोटीन अपेक्षाकृत कम ही मिलेगा। शायद इसीलिए प्रजनन के दौरान रोज़ी पैस्टर के आहार में परिवर्तन आ जाता है। दूसरा कि सन्तान को भी प्रोटीन की ज़रूरत अधिक होती है, ऐसे में ज़ाहिर है कि टिड्डों के ज़रिए इसकी भरपाई होती है। पक्षियों की कई प्रजातियों में ऐसा होता है।
चूँकि रोज़ी पैस्टर टिड्डियों को आहार बनाती हैं इसलिए ये टिड्डी के नियंत्रण में अहम भूमिका अदा करती हैं। एक अध्ययन के मुताबिक मध्य एशिया में रोज़ी पैस्टर का एक जोड़ा एक दिन भर में 370 बार अपने घोंसले में बच्चों के लिए आहार (टिड्डियाँ) ले जाता है। सोचा जा सकता है कि ये फसलों को चट करने वाली टिड्डियों का किस तरह से सफाया करती हैं।
तो जुलाई-अगस्त से फरवरी-मार्च के  बीच  कभी  उज्जैन,  मुम्बई, अहमदाबाद, दिल्ली में रेलवे स्टेशन या मन्दिर के आसपास सूर्यास्त के समय आसमान की तरफ देखिएगा - शायद आपको यह सुहावना दृश्य दिख जाए -- हज़ारों-लाखों पक्षियों को एक लय में उड़ते हुए शायद देख पाएँगे आप।

एक अनुभव बचपन का

मुझे याद हैं बचपन के वे दिन जब मेरे गाँव (मध्यप्रदेश के धार ज़िले का एक गाँव) में हमारे खेत में ज्वार बोई जाती थी। ज्वार की बुवाई मक्का, मूंग, मूंगफली आदि के साथ ही होती है। दरअसल, यह एक खरीफ की फसल है जो बरसात में बोई जाती है और दिसम्बर-जनवरी में पककर तैयार होती है। ज्वार की फसल जब पकने को होती थी तब एक काले रंग की चिड़िया जिसका पेट हल्के गुलाबी रंग का होता था -- के झुण्ड-के-झुण्ड खेतों में धावा बोलते थे। मैं अपने दादा के साथ इनको भगाने में मदद करता था। गाँव के लोग इसे झार चिड़ी नाम से पुकारते थे। दरअसल, वह जो मेरे मस्तिष्क पटल पर अंकित है, रोज़ी पैस्टर ही थी, यह मैं अपनी आज की समझ के आधार पर कह सकता हूँ।

ज्वार की फसल दीपावली के त्यौहार के बाद पकना शु डिग्री होती थी। जब हमारे यहाँ पटाखे लाए जाते थे तो दादाजी कह देते थे कि पटाखे बचाकर रखना, खेत से झार को भगाने के लिए फोड़ेंगे। गाँव में तब अधिकतर लोग ज्वार बोते थे। मुझे याद है कि शाम होते ही चिड़ियाएँ जिसमें गुलाबी पेट वाली चिड़िया झुण्ड में होती थीं, खेतों पर धावा बोल देती थीं। दोपहर के बाद पूरा-का-पूरा गाँव खेतों से झार को भगाने के उपक्रम में लग जाता। 

लोग रोज़ी पैस्टर को खेत से भगाने के लिए तरह-तरह के उपाय करते थे। मचान बाँधकर ज़ोर-ज़ोर से डिब्बों को बजाकर, हांका लगाकर, गजघुण्डी, पटाखे आदि इस्तेमाल करके। ये उड़तीं और आकाश में उड़ते हुए पैटर्न बनातीं और दूसरे खेत की ओर चली जातीं। हमारे लिए यह अत्यन्त आनन्द का माहौल होता। दादाजी बताते कि ये इन दिनों कहीं बाहर से आती हैं और ज्वार खाने को आती हैं। ज्वार के अलावा गेहूँ या चने के खेत में कभी धावा नहीं बोलतीं।
तब दादाजी को यह नहीं पता था कि ये झार कहाँ से आती हैं और कहाँ को जाती हैं। बस इतना ही पता था कि ये कहीं से अचानक आ टपकती हैं, ज्वार चुगने को। अगर ज्वार के खेत से इन्हें न उड़ाया जाता तो ये पूरा-का-पूरा खेत चट कर जातीं।

— कालू राम शर्मा


और आखिर में

शीत ऋतु गई और गर्मी का मौसम आ चुका है। धीरे-धीरे रोज़ी पैस्टर की विदाई शुरु हो चुकी है। हम बीच-बीच में उस इलाके में जाकर देखने लगे कि आखिर ये कब तक यहाँ दिखेंगी। अप्रैल की शुरुआत में हम फिर से वहाँ जाकर अवलोकन करते हैं। बहुत ही थोड़ी रोज़ी पैस्टर बची हैं। फिर हम 10 अप्रैल के आसपास गए तब शाम का आसमान सूना था। बिजली के तार और दरख्त सूने हो चले थे। देसी मैना और कौए वहाँ चहचहा रहे थे। आसमान में इक्के-दुक्के बगुले दिख रहे थे।
अगले साल यहाँ रोज़ी पैस्टर फिर से आएँगी और फिर से वैसे ही दृश्य निर्मित करेंगी। तब तक आप इस लेख को पढ़ें और अपने-अपने इलाके में आसमान को निहारें। हो सकता है कि ये आपको वहाँ भी दिख जाएँ।


कालू राम शर्मा: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, खरगोन में कार्यरत। स्कूली शिक्षा पर निरन्तर लेखन। फोटोग्राफी में दिलचस्पी।
जितेश शेल्के: स्कूली शिक्षा में कार्यरत। वन्य जीवों के अध्ययन में दिलचस्पी। महाराष्ट्र के चिपलूण में गिद्धों के संरक्षण पर कार्य। पर्यावरण अध्ययन केन्द्र, जयपुर में स्कूली शिक्षा में कार्य का अनुभव। फोटोग्राफी में दिलचस्पी। वर्तमान में हुमाना पीपुल टू पीपुल इंडिया, उज्जैन में समन्वयक के रूप में कार्यरत हैं।