एक दूरस्थ ग्रामीण प्राथमिक स्कूल में जाने का मौका मिला। स्कूल गाँव के बाहर बना है। स्कूल में दो शिक्षक, एक पुरुष और एक महिला और कुल 32 बच्चे हैं। शिक्षक पहली और दूसरी कक्षा पढ़ाते हैं जबकि शिक्षिका के ज़िम्मे तीसरी, चौथी और पाँचवीं की कक्षाएँ हैं।
उस दिन शिक्षक एक कमरे में पहली, दूसरी और चौथी के बच्चों को एक साथ लेकर बैठे हुए हैं और बोर्ड पर हिन्दी की मात्राएँ यानी कि स्वर के अक्षर और मात्राएँ लिखकर बच्चों को काम पर लगा दिया है। कक्षा के बाहर स्थित सड़क पर मैं खड़ा था। शिक्षक की नज़र मुझ पर गई और उन्होंने मुझे कक्षा में आने का इशारा किया। मैंने भी इशारे में ही कहा कि कक्षा जारी रखिए। परिचय और औपचारिक बातचीत के बाद शिक्षक ने कहा, “आप कुछ बताएँ कि कैसे बच्चों को पढ़ना और बेहतर तरीके से सिखाया जा सकता है?” मैंने कहा, “पहले आप बताइए कि आप कैसे पढ़ाते हैं?”
शिक्षक ने कहा, “पहली बात तो बच्चे स्कूल आते ही नहीं हैं और जब  आते हैं तो कक्षा में दिलचस्पी नहीं लेते।”
मैंने मामले का धागा पकड़ा और उसे रास्ते पर लाने की कोशिश में शिक्षक से पूछा, “यह बताइए कि आप रोज़ाना क्या पढ़ाते हैं?”

शिक्षक ने जो बताया वह कुछ इस प्रकार है:
“मैं रोज़ाना बच्चों को - अ, आ, इ, ई, और बारहखड़ी पढ़ाता हूँ। रोज़ाना गिनती और पहाड़े पढ़ाता हूँ। बच्चों को लिखने को भी देता हूँ। कॉपियाँ भी चेक कर सकते हो आप।”
“तो आप मेहनत तो खूब करते हैं।”
“यही तो!”
“फिर भी बच्चे पढ़ नहीं पा रहे।”
“बच्चे ही कमज़ोर हैं जी। हम अपने काम में कोई कमी नहीं छोड़ते। देखिए, अब फरवरी का महीना आ गया और अभी भी बच्चे ढंग से अक्षर पहचान भी नहीं कर पा रहे हैं।”
“क्या ऐसा नहीं हो सकता कि  आप जो कर रहे हैं उसमें ही कुछ कमी हो? हो सकता है आप जो तरीका अपना रहे हैं वो काम नहीं कर रहा हो। तो ऐसे में हमें कोई दूसरा तरीका काम में नहीं लाना चाहिए क्या? कई बार तो हम अपने जीवन में भी ऐसा ही करते हैं।”
“तो अब दूसरा तरीका क्या हो सकता है? हम खेल-खेल में गतिविधि करके भी सिखाते हैं।”
“अच्छा! तो आप ये चाहते हैं कि बच्चा अच्छे से पढ़ना सीख जाए,  लिखना सीख जाए।”

“हाँ, यही तो चाहते हैं।”
“तो, ऐसा है कि बच्चों को अगर आप पढ़ना सिखाना चाहते हैं तो उनको पढ़ने का मौका दीजिए। आप तो उनको अक्षर ज्ञान करवा रहे हैं। आपके बच्चे जो लिख रहे हैं वह लिखना तो है ही नहीं। वो तो बस किताब में से नकल कर रहे हैं और यही सीख रहे हैं।  
दूसरी बात यह कि हम हर काम में अर्थ-निर्माण की कोशिश करते हैं। जब किसी बात या काम में अर्थ नहीं होता तो हमारे दिमाग में उसे बिठाना आसान नहीं होता। आप सोचिए कि इस तरह के अक्षर ज्ञान में कोई अर्थ है क्या? ‘अ, आ, इ, ई’ का क्या अर्थ है बच्चे के लिए?”
मैंने बोर्ड पर कुछ निशान बनाए और शिक्षक से कहा, “क्या आप इन्हें पढ़ पा रहे हैं?”

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फिर इसे मिटा दिया और पूछा कि क्या लिखा गया था। उन्होंने स्वीकारा कि चिन्ह याद नहीं रह पाए। “ऐसा नहीं लगता कि बच्चों के लिए भी  बारहखड़ी के अक्षर इतने ही नए और अनजान होंगे? बच्चा इनको बार-बार दोहराता तो रहेगा मगर दिमाग में बैठा ही नहीं पाएगा।”
शिक्षक बोेले, “पर आपने जो अक्षर हमें दिखाए वो हिन्दी के अक्षर थोड़े ही हैं।”
अब की बार मैंने बोर्ड पर कुछ अक्षर फिर से लिखे जो कि देवनागरी लिपि में थे ‘च, ज, म, र, ल, न, च, झ, ढ, ष, ण’।
शिक्षक को मेरी बात समझ में आई। यही क्रिया शब्दों और वाक्यों के साथ भी की गई।
जो शब्द लिखे गए वे थे ‘किताब, माला, ताला’ आदि। इन शब्दों को थोड़ी देर के बाद मिटा दिया गया। शिक्षक इन शब्दों को याद रख पाए।
एक वाक्य लिखा गया:
‘आज सुबह से ही बादल हो गए हैं।’
इस पर शिक्षक ने कहा, “हाँ, ये तो सही बात है। अब ये भी क्या याद रखने की बात है, ‘आज सुबह से ही  बादल हो गए हैं’, ये बात तो याद रहेगी ही।”
मैंने कहा, “आगे क्या लिखा होगा या लिखना चाहिए? आप खुद अन्दाज़ लगाएँ।”
वे थोड़ा झिझके। फिर बोले, “हूँ... ‘इसलिए ठण्ड बढ़ गई है’।”
अगर वाक्य अर्थपूर्ण हो तो पढ़ने में हम अन्दाज़ भी लगाते हैं।

अब हम देख सकते हैं कि पहली बार जो अक्षर लिखे गए थे उनमें कोई अर्थ नहीं था तो उन्हें याद रख पाना मुश्किल था। दूसरी बार में जब शब्द लिखे गए तो हम उन्हें याद रख पा रहे थे। वहीं तीसरे स्तर पर जब हम वाक्य को सन्दर्भ से जोड़कर देख पा रहे थे तो पढ़ने से एक कदम और आगे बढ़कर हम अनुमान भी लगा पा रहे थे। इन तीनों उदाहरणों से समझ में आता है कि पढ़ना महज़ पढ़ना नहीं बल्कि एक अर्थपूर्ण प्रक्रिया है।
इसी दौरान एक काम और किया गया। बोर्ड पर कुछ वाक्य लिखे गए:
मेरा नाम रानू है।
मेरा नाम वर्षा है।
मेरा नाम कमल है।
मैं गादिया में रहती हूँ।
मेरी दोस्त भूरी है।
अब की बार बच्चों को कहा कि वे पढें। वे पढ़ नहीं पाए।
फिर मैंने एक-एक शब्द पर हाथ रखकर पढ़ा। यही प्रक्रिया दोबारा की।
फिर बच्चों को कहा कि वे अब पढ़ें। थोड़ी कोशिश के बाद बच्चे इस बार पढ़ पाए। शिक्षक ताज्जुब कर रहे थे।
मैंने बच्चों से बातचीत जारी रखी और उनसे कहानी सुनाने को कहा। बच्चे एक-दूसरे का मुँह ताक रहे थे। कोशिश कामयाब नहीं हो पाई।
फिर मैंने कहा, “कोई गीत सुनाओ।  मालवी  में  ही सुनाओ।” एक बच्ची रानू आई और उसने यह लाइन गाकर सुनाई।
खाटो-मीठो माखन चाटवा दे रे मारी गूजरी
यह गीत मालवी का है। मैंने इसे बोर्ड पर लिख दिया। अब इसे सभी ने मिलकर गाया।

अबकी बार मैंने एक अन्य बच्चे को कहा कि वह आए और बोर्ड पर  शब्दों पर हाथ रखते हुए पढ़े।
वह पढ़ तो रहा था मगर उसके हाथों को शब्दों पर रखने और बोलने में सामंजस्य नहीं था। मैंने पूछा, “खाटो कहाँ लिखा है?” इसी तरह  हर शब्द के साथ यह प्रक्रिया दोहराई।
कुछ और बच्चों ने भी यही प्रक्रिया दोहराई। बच्चे कोशिश कर रहे थे।
अब मैंने उनसे पूछा, “तुममें से किसने-किसने माखन खाया है?” सभी ने माखन खाया था। इस क्षेत्र में भैंसें काफी होती हैं। मैंने पूछा, “क्या माखन खाटा-मीठा होता है?” अबकी बार शिक्षक ही बोल उठे, “नहीं, माखन तो खट्टापन लिए होता है। मीठा तो नहीं होता, उसको मीठा बनाना पड़ता है।”
“अच्छा और कौन-सी चीज़ें खट्टी होती हैं?”
बच्चों  ने  नाम बताना शु डिग्री किया और मैंने उन्हें बोर्ड पर लिखना - इमली, टमैटर, कबीट, छाँछ, दही,  बोर,  केरी, करौंदा।
अब उनसे बोला कि मीठी चीज़ों के नाम बताओ। बच्चों ने  वे  नाम  बताए जिनसे वे परिचित थे - शकर, केला, आम, सेवफल,   जलेबी, सोहन-पपड़ी, मावा, गुलाब जामुन...।
इनको पढ़ने को कहा और बच्चे पढ़ पा रहे थे।

उनसे इनके चित्र बनाने को कहा। बच्चे अब धीरे-धीरे बोर्ड पर आने लगे और चित्र बनाने का प्रयत्न करने लगे। कक्षा के अधिकांश बच्चों ने चित्र बनाए। जो चित्र बनाए वे बहुत बेहतर तो न थे पर बालमन के उद्गारों को बखूबी प्रकट कर रहे थे।
शिक्षक ने ही कहा, “छाँछ का चित्र बनाओ।”
छाँछ का चित्र कैसे बनाया जाए?  शिक्षक भी सोचते हुए प्रतीत हुए। मैं भी सोचने लगा।
तभी एक बच्चा आया बोर्ड पर, उसने गिलास का चित्र बनाया और उसमें छाँछ भर दी और हम सोचते ही रह गए।
कक्षा का माहौल काफी खुशनुमा और सहज हो चुका था।
दोपहर हो चुकी थी। आज स्कूल में भोजनमाता नहीं आई थीं इसलिए बच्चों का भोजन नहीं बना था अत: कक्षा की समाप्ति हुई।
शिक्षक मुझे आसपास का इलाका  दिखाने को ले गए। रास्ते में बातचीत होती रही। वे बोले, “ये तरीका बढ़िया है। मैं इसे आज़माऊँगा। तो क्या अक्षरज्ञान करवाएँ ही नहीं?”

मैंने कहा, “ऐसा नहीं। आप बीच में कभी करना चाहें तो कीजिए। ये भी ज़रूरी नहीं कि उसी क्रम में ही किया जाए जो पाठ्यपुस्तक में लिखा है। अभी तक हम जो अक्षरों से शब्दों और फिर वाक्यों की ओर बढ़ रहे थे, इसे उल्टा कर दिया जाए, बस। बच्चों के साथ अर्थपूर्ण कार्य किया जाए। दरअसल, हमारे दिमाग में अर्थपूर्ण चीज़ों के चित्र बन जाते हैं। अब आप देखिए न कि इमली का नाम आते ही हमारी आँखों के सामने इमली का चित्र आ जाता है। जब लिखते हैं तो वह कुछ और ही होता है और लिखे हुए को पढ़ना और भी जटिल प्रक्रिया है। इसलिए इस जटिलता को समझना ज़रूरी है।”
शिक्षक ने ही बात कही, “इसके लिए तो कहानी-कविता की चित्र वाली किताबों की ज़रूरत होगी। ऐसी किताबें कुछ तो हमारे स्कूल में हैं। मैं उनको निकालता हूँ।” मैंने आगे जोड़ा, “कुछ आप खरीद सकते हो।”
आखिरी दुआ-सलाम के दौरान, “अगर ऐसे पढ़ाएँगे तो बच्चे स्कूल में दौड़कर आएँगे।”
मैंने ‘हाँ’ में सिर हिला दिया और चलता बना।


कालू राम शर्मा: विज्ञान शिक्षण एवं फोटोग्राफी में रुचि। वर्तमान में अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन, खरगोन, म.प्र. में कार्यरत हैं।
सभी चित्र: हीरा धुर्वे: भोपाल की गंगा नगर बस्ती में रहते हैं। चित्रकला में गहरी रुचि। साथ ही ‘अदर थिएटर’ रंगमंच समूह से जुड़े हुए हैं।