विनोद कुमार शुक्ल [Hindi,PDF 138KB]

बाचपन में चिड़ियों पर नज़र बहुत पड़ती है। बड़े होने लगते हैं तो उन पर नज़र कम पड़ती है।
मैं पतरंगी चिड़िया के बारे में बोलूँगा। जो हरे पेड़ पर दिखलाई नहीं देती।
हम लोग बैठे-बैठे भी बात करते हैं, चलते-चलते भी। अकेले बड़बड़ाते हैं। लेटे-लेटे बात करते हैं। नींद में भी बोलते हैं। परन्तु पतरंगी चिड़िया, उड़ती है तभी बोलती है। बैठ गई तो चुप हो जाती है।
उसे बोलना है तो उड़ेगी। नहीं बोलना है तो बैठ जाएगी।
पतरंगी, गौरैया जितनी बड़ी होती है। पूँछ लम्बी और नुकीली होती है। यह खुली जगहों में, खेतों, बाड़ के खम्भों, टेलीफोन के तारों में बैठे अक्सर दिखाई देती है। साँझ होते ही सोने के पहले बसेरे के पेड़ के ऊपर बहुत हल्ला मचाती हैं। एक झुण्ड हल्ला मचाते हुए उड़ता है और पेड़ पर बैठते ही चुप हो जाता है, तो दूसरा झुण्ड हल्ला मचाते हुए उड़ने लगता है।
इस चिड़िया का उड़ते हुए बोलना अनोखा लगता है। यह उड़ते-उड़ते दुगनी थक जाती होगी, उड़ते हुए और बोलने से। इसलिए दुगनी सुस्ताती होगी, बैठकर और चुप रहकर।

इस तरह एक कहानी लिखने की सोचता हूँ कि एक लड़का है। 6 साल का। दूसरी कक्षा में पढ़ता है। मटमैले रंग की एक नई कमीज़ पहने है जो दो बार धुलने के बाद बहुत पुरानी लगती है। कत्थे रंग की पेंट है। यह दृश्य में इस तरह घुलमिल जाता है कि मुरमी ज़मीन के मैदान पर थोड़ी दूर ही जाता है तो ओझल होने के बहुत पहले से ओझल होने लगता है। जब वह अचानक पास आकर दिखाई देता है तो लगता है कि कैमरे के ज़ूम लेंस से लाया गया है। बाल घुँघराले, काले और बड़े हैं। कंघी से पीछे कोरे गए। उसकी इच्छा होती है, उड़ जाए। यदि चुप बैठा रहता है तो लगता है कहीं खो गया। उसकी माँ तब उसे बुलाती, “कहीं खो गया है?” ‘कहीं खो गया है’ उसके पुकारने का नाम जैसा था। यह पुकारने का नाम घर का था, बाहर भी। स्कूल में भी था। परन्तु स्कूल का लिखाया हुआ नाम बोलू था। यह नाम उसकी सफलता के साथ चहकने के कारण रखा गया था।

बहुत दिनों के बाद एक दिन उसकी माँ को पता चला कि वह केवल चलते हुए बोलता है। चुप रहता है तब खड़ा रहता है या बैठा रहता है। अच्छे से बोलना उसने तब सीखा जब वह चलना, दौड़ना सीख गया। कूल्हे के बल जब खिसकता था तब च, च, या ब, ब या द, द बोलना शु डिग्री किया था। घुटने के बल चलते समय चच, बब, दद बोलता था। अच्छा था कि उसकी नींद में बड़बड़ाने की आदत नहीं थी।
चलते-चलते बोलने की आदत के कारण सुनने वालों को उसके साथ-साथ चलना पड़ता। उसकी माँ उसके साथ नहीं चल पाती थी। पीछे-पीछे चल पाती थी। कई दिनों के बाद उसकी माँ को यह भी पता चला कि वह जल्दी थक क्यों जाती है। इसके बाद भी बोलू का काम ठीक चल रहा था। घर-संसार का काम भी ठीक चल रहा था। जैसे उसे स्कूल जाना है, तो किताब से बोलने के लिए कोई पाठ जो उसे याद करना है निकाल लेता और बस्ता लटकाकर ज़ोर-से पढ़ते, दुहराते स्कूल के रास्ते चल पड़ता। कक्षा में अपनी जगह पर आकर बैठकर चुप हो जाता या बैठने के लिए चुप हो जाता। स्कूल से लौटते समय भी ऐसा ही करता। रास्ते में उससे कोई कुछ पूछता तो खड़े होकर सुन लेता और उत्तर देते हुए चल पड़ता। बोलते हुए आने के कारण जब वह स्कूल से लौटता तो उसका पास आना माँ सुन लेती। दरवाज़े का साँकल अन्दर से खोल देती, बोलू दरवाज़े को ठेलकर अन्दर आ जाता। रोज़ रास्ते भर पढ़ते हुए स्कूल जाना और पढ़ते हुए घर आने से बोलू पढ़ने में होशियार था। एक दिन जब वह स्कूल से लौटा तो माँ ने उसे दूध-रोटी खिलाई। माँ जब थकी होती तो बोलू से कुछ पूछती नहीं थी। परन्तु उस दिन पूछ लिया। दूध-रोटी उसने खतम किया ही था।

“आज स्कूल में क्या हुआ?” प्यार से माँ ने पूछा।
बोलू चुप बैठा हुआ था। चलने और बोलने से थोड़ा-दुगना थका हुआ। माँ का अपने बेटे से बात करने का मन तो होता है। बोलू का भी मन होता है कि अपनी माँ से बात करे।
“बोलू बोलता क्यों नहीं?”
“माँ आज स्कूल में बहुत अच्छा लगा।” खड़े होकर चलते हुए बोलू ने कहना शु डिग्री किया....
एक कमरे का घर। घर का दरवाज़ा खुला था। “हुआ यह,” कहते हुए बोलू चार कदम में ही घर से बाहर हो गया। बोलू को जैसे मालूम था कि माँ पीछे आ रही होगी। बोलू चलते-चलते बोल रहा था। पीछे उसकी माँ बात सुनते हुए चलती आ रही थी।
“माँ, एक बिल्ली का बच्चा कक्षा में घुस आया। भूरी बिल्ली थी। किसी लड़के ने बस्ते में लाया होगा। कॉपी-किताब निकालने के पहले बिल्ली का बच्चा खुद बाहर निकल आया होगा। मेरी किताब में चूहे बिल्ली का पाठ है। दूसरी कक्षा की सबकी किताब में चूहे-बिल्ली का पाठ है। कहीं मेरी किताब के पाठ से तो बिल्ली का बच्चा बाहर न निकल गया हो। अब पाठ में वापस कैसे जाएगा? सबकी किताब से एक-एक कर बिल्ली के बच्चे बाहर आ जाएँ तो कक्षा में बहुत-से बिल्ली के बच्चे हो जाएँगे। एक जैसे पाठ की एक जैसी बिल्ली। मैं अपनी बिल्ली कैसे पहचानूँगा? मेरी किताब की बिल्ली मुझे पहचानती होगी। मेरी किताब को भी पहचानती होगी। पहले बस्ते के अन्दर बिल्ली जाएगी। बस्ते के अन्दर से किताब के अन्दर। किताब के अन्दर से पाठ के अन्दर।” बोलू जल्दी-जल्दी बोल रहा था। इसलिए जल्दी-जल्दी चल रहा था। बोलू के कहे एक-एक शब्द से बोलू की माँ थोड़ा-थोड़ा पिछड़ते जा रही थी। फिर एक-एक शब्द से एक-एक कदम पीछे होने लगी। तब माँ ने बोलू से ज़ोर से कहा, “बोलू बेटा चुप हो जा।” बोलू चुप होकर रुक गया। माँ यदि कहती ‘रुक जा’ तो बोलू रुकते ही चुप हो जाता।
“बेटा घर की तरफ लौटो। घूम जाओ। देर हो गई। दूर निकल आए।”
“हाँ माँ,” कहकर वह घर की तरफ घूम गया।

“अब बता, बिल्ली का क्या हुआ?”
“बिल्ली कक्षा में इधर-उधर भाग रही थी। सब लड़के बिल्ली को पकड़ने की कोशिश कर रहे थे।”
“गुल-गपाड़ा हो गया।”
“गुड़-गोबर हो गया?” माँ ने पूछा।
“नहीं। मास्टर जी हँस रहे थे। बिल्ली से डरकर कोने में खड़ा एक लड़का रोने लगा था। तो उसके पास खड़ा दूसरा लड़का भी रोने लगा। जब मास्टर जी हँसने लगे तो सब हँसने लगे। रोने वाले लड़के भी। मैं बार-बार बोलता जा रहा था और बिल्ली को पकड़ने कूदता-भागता था कि ‘बिल्ली मैं तुझको पकड़ लूँगा। भागकर कहाँ जाएगी।’ पर मैं बिल्ली को पकड़ नहीं सका। कोई नहीं पकड़ पाया और बिल्ली कक्षा से बाहर भाग गई।” बोलू माँ के पास आ गया था। आगे कुछ बोलने-बोलने को था और आगे जाने को उसने कदम उठाया ही था कि वहीं खड़ी बोलू के पास आने का रास्ता देखती उसकी माँ ने बोलू का हाथ पकड़ा, “बोलू थोड़ा रुक जा,” बोलू रुक गया। “धीरे-धीरे कुछ बोल बोलू। तेरी माँ थक गर्इ, धीरे-धीरे घर चल। मैं तेरा हाथ अपने सहारे के लिए पकड़े हूँ।”
बोलू ने तब माँ के सुख के लिए अपने मन से एक कविता सुनाई:
पतरंगी पतरंगी
तू उड़ते-उड़ते बात करेगी
मैं चलते-चलते बोलूँगा
माँ तुम बताओ पतरंगी संग
मैं उड़ते-उड़ते कब बोलूँगा।
माँ को सुनने बोलू चुप होकर खड़ा हो गया। तब माँ ने बोलू को चिपटा लिया और सिर पर हाथ फेरते हुए उँगलियों से उसके बड़े-बड़े बालों को पीछे की तरफ सुलझाते हुए गाकर कहा:
अभी तू नन्हा छोटा है
अभी से क्यों उड़ जाएगा
पढ़-लिख लेने से ही
पंख तेरे फूटेंगे
तब तू उड़ना।
माँ के बोलने के साथ बोलू माँ का कहा दुहराता जा रहा था कि माँ का कहा याद हो जाए और धीरे-धीरे थोड़ा रुकते-रुकते दोनों साथ-साथ घर के अन्दर आ गए।


विनोद कुमार शुक्ल: आधुनिक हिन्दी के लेखक हैं और अपने रहस्यमय यथार्थवादी लेखन के लिए जाने जाते हैं। उनके उपन्यासों में नौकर की कमीज़ और दीवार में एक खिड़की रहती थी शामिल हैं जिसके लिए उन्हें सन् 1999 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया। रायपुर, म.प्र. में निवास।
सभी चित्र: अतनु रॉय: प्रसिद्ध चित्रकार और कार्टूनिस्ट हैं। इन्होंने बच्चों के लिए सौ से भी ज़्यादा किताबों में चित्रकारी की है। चित्रकारी और कार्टून बनाने के लिए कई अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित। गुड़गाँव में रहते हैं।
यह कहानी चकमक में प्रकाशित विनोद कुमार शुक्ल की कहानियों की सीरीज़ का पहला भाग है जो बाद में हरे घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़ नाम से उपन्यास के रूप में राजकमल प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित की गईं।