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सवाल: काँटे कुछ पेड़-पौधों में ही क्यों पाए जाते हैं?

जवाब: हमारे आसपास के पर्यावरण में जैव-विविधता बिखरी पड़ी है। भ्रमण पर निकलते हैं तो कई प्रकार के पौधों की प्रजातियाँ देखने को मिलती हैं और अपने पर्यावरण में जीने के लिए हर पौधे के कुछ अनुकूलन होते हैं। काँटे भी ऐसी ही कुछ संरचनाएँ हैं। ये काँटे विभिन्न लम्बाई, मोटाई व रंगों में दिखते हैं। आइए पहले देखते हैं कि पौधों में काँटों की क्या भूमिका है।

काँटे क्यों होते हैं?
आम तौर पर जब हम एक पौधे के लिए काँटों की उपयोगिताओं की बात करते हैं तो सीधे-सीधे इसकी तुलना प्राणियों के प्रतिरक्षा साधन से करने लगते हैं। जिस प्रकार कछुए का कठोर कवच, शेर के नुकीले पंजे, भेड़ के सींग और सेही के काँटे उनकी जान बचाने में मदद करते हैं, ठीक उसी तरह काँटे पौधे की प्रतिरक्षा करते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि पौधों को अपनी रक्षा की क्या ज़रूरत है? पौधे कई जन्तुओं के लिए पोषण का स्रोत हैं और शाकभक्षी जानवर पोषण के लिए सिर्फ पौधों पर ही निर्भर होते हैं। जानवरों के चलते पौधे उनके खुरों के नीचे कुचल जाते हैं। ऐसे खतरों से जानवर जहाँ अपनी रक्षा के लिए गति कर सकते हैं, वहीं पौधे स्थिर होते हैं। वैसे पौधे अपनी प्रतिरक्षा के लिए विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल करते हैं; काँटे इनमें से एक हैं।

काँटे शाकभक्षी जन्तुओं जैसे हिरण, मवेशी, हाथी इत्यादी से बचने का तरीका हैं। शोध से हमें पता है कि एक ही प्रजाति के उन सदस्यों में ज़्यादा काँटे पाए जाते हैं जो ऐसे इलाके में होते हैं जहाँ शाकभक्षियों की मात्रा भी अधिक है। और जिन पौधों में अधिक काँटे हैं उन्हें शाकभक्षी खाने की कम कोशिश करते हैं। अफ्रीका में पाई गई एक बबूल की प्रजाति में यह भी देखा गया है कि पौधे पर जिस ऊँचाई तक जिराफ की पहुँच होती है, वहाँ के काँटे ज़्यादा लम्बे होते हैं उन काँटों की तुलना में जो जिराफ की पहुँच से ऊँचे हैं। कुछ वैज्ञानिकों ने तो पेड़ों से काँटे काटकर यह पाया कि शाकभक्षी इनको ज़्यादा खाते हैं। तो काँटे पौधे की उत्तरजीविता (survival) को बढ़ा सकते हैं।

कुछ ही पौधों में काँटे क्यों?
काँटे पौधों की उत्तरजीविता बढ़ाते हैं, लेकिन कुछ पौधों में ही काँटे क्यों? हो सकता है कि जिन प्रजातियों में कभी काँटे विकसित नहीं हुए, उनको शाकभक्षियों का ज़्यादा खतरा नहीं रहा है। वैसे काँटों के अलावा अपना बचाव पौधे अलग-अलग तरीकों से भी करते हैं। तो पौधों के जिन वंशों में काँटे एक बार जैव-विकास के दौरान विकसित हुए और जिस कारण उनकी उत्तरजीविता बढ़ी, उन प्रजातियों में हम काँटे देखते हैं। अन्य पौधों में शायद काँटे नहीं, अन्य तरीके विकसित हुए जिनसे वे अपनी प्रतिरक्षा करते आए हैं।

वैसे शुष्क पौधों में अक्सर काँटे अधिक मात्रा में दिखते हैं। यह शायद इसलिए होता है क्योंकि पानी की कमी के कारण पत्तों व पौधे के अन्य भागों की प्रतिरक्षा बहुत ज़रूरी हो जाती है - उनको खोना व दोबारा उगाना पौधे के लिए कीमती हो सकता है।

तरह-तरह के काँटे
काँटा एक वृहत शब्द है - पौधे से निकले किसी भी तीखे और नुकीले उपांग को काँटा कह दिया जाता है। तकनीकी दृष्टि से देखें तो ये तीन प्रकार के होते हैं - थॉर्न (thorn), स्पाइन (spine) और प्रिकल्स (prickles)। ये पौधे के अलग-अलग भागों की रूपान्तरित रचनाएँ हैं।
तने की पर्व-संधि, जहाँ पत्ती लगी होती है, वहाँ पाई जाने वाली कक्षस्थ कलिका से विकसित होने वाला काँटा थॉर्न कहलाता है। उदाहरण के तौर पर नीम्बू का काँटा। यदि काँटा न बने, तो यह कक्षस्थ कलिका एक शाखा बन जाती है, इसलिए हम यह कह सकते हैं कि थॉर्न शाखा का रूपान्तरण होते हैं। ये पादप तने में गहरे स्थित ऊतकों से विकसित होते हैं। ये सीधे व काफी कठोर होते हैं, जो जन्तुओं की मोटी त्वचा को भेद सकते हैं।

पत्तियों, सहपत्रों या उनके किसी भाग के रूपान्तरण से बनने वाले काँटों को स्पाइन कहते हैं। थॉर्न की तरह स्पाइन में भी संवहन ऊतक पाए जाते हैं। ऑपन्शिया केक्टस में हम कक्षीय कलिका में उगने वाली पत्तियों को, शूल में रूपान्तरित होते हुए देख सकते हैं। बरबेरिस में केवल प्राथमिक पत्तियाँ ही शूल में बदल रही होती हैं, तथा कक्षीय शाखाओं में सामान्य पत्तियाँ ही पाई जाती हैं। खजूर (Phoenix dactylifera) व यक्का (Yucca spp.) में पत्तियों के केवल शीर्ष भाग ही शूल में बदल रहे होते हैं।
प्रिकल्स तने कि त्वचा में एपिडर्मिस या कॉरटैक्स का विस्तार होते हैं। ये काफी मोटे हो सकते हैं। गुलाब के काँटे इसी श्रेणी में आते हैं। इनमें संवहन ऊतक नहीं पाए जाते।

पौधों के कुछ अन्य हथियार
कुछ वनस्पतियों की पत्तियों में सिलिका कणों को जमा करने की क्षमता होती है। ये कण पत्तियों की त्वचा को छूने पर या हल्की-सी रगड़ होने पर या फिर पत्तियों को चबाने पर कीड़ों व स्तनधारी जानवरों के मुखांगों को काट देते हैं। ऐसे कण बरगद व रियो के पत्तों में मिलते हैं।
कुछ पादपों में ऐसे रसायनों (सेकंडरी मेटाबोलाइट) का संश्लेषण होता है जो विषैले होते हैं। उदाहरण के लिए सदाबहार, धतूरा, कनेर, आलू व टमाटर के हरे भागों में विषैले पदार्थ पाए जाते हैं जिन्हें अधिक मात्रा में खाने से जानवर मर सकते हैं।
कुछ पौधों में पत्ती की फलक पर उपस्थित रोम रूपी सूक्ष्म संरचनाएँ हथियार की भूमिका निभाती हैं। ये शिराओं में उपस्थित दूधिया पदार्थ को स्त्रावित करने में मदद करती हैं।
कई पौधों की पत्तियों के दूध से त्वचा में जलन व खुजली उत्पन्न हो जाती है: लाल-पत्ता (Euhorbia pulcherrima) व ग्वारपाठा (Agave spp) इसका उदाहरण हैं।
कुछ पौधे अपने बचाव के लिए उस समय ही कुछ करते हैं जब उन पर हमला हो रहा है। अकेशिया (बबूल) की पत्तियाँ जब हिरण का भोजन बन रही होती हैं, उस दौरान कुछ मज़ेदार-सा हो रहा होता है पौधे के साथ। पत्तियाँ जब कुतरी जा रही होती हैं, उस समय पौधे में तनाव उत्पन्न हो जाता है। इस तनाव के कारण पत्तियों से एथिलीन बनता है। जितनी ज़्यादा मात्रा में एथिलीन उत्पन्न होता है, उतनी ही मात्रा में पौधे टेनिन नामक पदार्थ बना पाते हैं। और इस टेनिन की वजह से जानवर इनकी पत्तियों को ज़्यादा नहीं खा पाते; क्योंकि टेनिन-युक्त पत्तियों के मुँह में जाने पर लार सूख जाती है, थूक निगलने में भी काफी दिक्कत आती है। साथ ही पेट में पहुँचने पर टेनिन भोजन में उपस्थित प्रोटीन से क्रिया कर इसे अपाच्य बना देता है। इस कारण ज़्यादा मात्रा में ये पत्तियाँ खा लेने पर कई बार हिरणों की मृत्यु भी हो जाती है।


इस जवाब को अम्बिका नाग ने तैयार किया है।
अम्बिका नाग: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, जयपुर में विज्ञान की स्रोत व्यक्ति के तौर पर कार्यरत हैं। वनस्पति शास्त्र का अध्ययन किया है।