प्रमोद मैथिल     [Hindi PDF, 184 kB]

शिक्षा को महज़ सूचना और ज्ञान से ऊपर समझ के स्तर तक ले जाने में नाटक की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। मगर अब तक इसके बहुत ही थोड़े, इक्का-दुक्का प्रयास ही हुए हैं।
सहयाद्री स्कूल में रहते हुए मैंने एक विज्ञान नाटिका का प्रयास किया। विज्ञान नाटिका का नाम सुनते ही हमारे ज़्ोहन में आता है कि यह अमूमन या तो किसी वैज्ञानिक की जीवनी होगी या फिर उसकी उपलब्धियाँ। पर जिस नाटिका का ज़िक्र मैं करने जा रहा हूँ वह एक वैज्ञानिक अवधारणा को प्रस्तुत करती है।

उस समय मैं सहयाद्री स्कूल, जो कृष्णमूर्ति फाउण्डेशन ऑफ इण्डिया का स्कूल है, में कक्षा 4, 5, 6 को गणित व विज्ञान पढ़ाया करता था। सहयाद्री स्कूल में शुरुआत एक सभा से होती जिसमें बच्चे हर रोज़ तरह-तरह की गतिविधियाँ या विभिन्न भाषाओं के गीत-संगीत प्रस्तुत करते थे। एक दिन सभा में हमने यानी कक्षा पाँच के बच्चों और मैंने इस विज्ञान नाटिका को प्रस्तुत किया।

उन दिनों ये बच्चे एक प्रोजेक्ट में लगे हुए थे जिसमें वे आस-पास के जन्तुओं और उनके आपसी सम्बन्धों को समझने का प्रयास कर रहे थे। दरअसल वहीं से इस नाटक का विचार उपजा कि हमारे आस-पास की हर चीज़ एक-दूसरे से जुड़ी हुई है और यही आपसी सम्बन्ध धरती को जीवन्त बनाए हुए हैं। इसलिए हमने इस नाटक का नाम दिया ‘जीवन का ताना-बाना’।

चूँकि हम इसे पहले कक्षा में गतिविधि के रूप में भी कर चुके थे, इसलिए अब बच्चों के लिए इसे समझना काफी आसान था। यह सुझाव रखते हुए जब मैंने बच्चों से बात की, तो उनमें से कुछ थोड़े संशय में थे मगर जल्द ही वे सभी न केवल सहमत हो गए बल्कि इसे लेकर काफी उत्साहित भी थे। मैंने सभी बच्चों से शाम को एक साथ मिलने को कहा।

पूरे नाटक को तैयार करने के लिए हमारे पास केवल एक दिन था। मेरी एक सहकर्मी शिक्षिका सीमा अक्का, जो उन बच्चों को पहले भी कई नाटक करवा चुकी थीं, इस काम में मेरी मदद कर रही थीं। उन्होंने मुझे सेंटर फॉर एनवारनमेंट एजुकेशन (सी.ई.ई.) की एक किताब दिखाई जिसमें इस से मिलती-जुलती गतिविधि दी हुई थी।

वो किताब मेरे लिए काफी उपयोगी साबित हुई। इसके अलावा गतिविधि के बारे में मैंने ‘एकलव्य’ संस्था में अपने साथियों से भी जाना। चूँकि हम इस गतिविधि को एक नाटक की तरह प्रस्तुत करने वाले थे इसलिए इसे प्रभावशाली और अर्थपूण बनाने के लिए काफी बदलावों की ज़रूरत थी।

मैं और सीमा इस काम में जुट गए। सीमा ने नाटक की शुरुआत में एक गीत भी रखा, जो कि सूरज, पेड़ आदि के बारे में था। नाटक के लिए 12 पात्र चुने गए:
सूरज, हवा, पानी, मिट्टी, पेड़, मनुष्य, कीड़े, चिड़िया, फूल, फल, पानी और जंगल। सीमा ने हर पात्र के लिए दो से तीन बच्चों के समूह चुन लिए। हमने बच्चों को 20 फुट त्रिज्या के गोले में बिठाया।

हर पात्र की जगह तथा अन्तर-सम्बन्धता का क्रम पहले से ही तय कर लिया गया। चक्र की शुरुआत सूरज करेगा जिसमें वह मनुष्य से अपना सम्बन्ध बताएगा। साथ ही सुतली का एक बण्डल सूरज मनुष्य की तरफ फेंकेगा जिसका एक सिरा सूरज अपनी उँगली में बाँध लेगा। अब मनुष्य फल से अपना सम्बन्ध बतला सुतली को अपनी उँगली पर बाँध, गोला फल के पास दे देगा। ये आपसी सम्बन्धों की व्याख्या और गोला सौंपने का क्रम चलता जाता है। अन्तर्सम्बन्ध का क्रम कुछ इस प्रकार बना:

सूरज - - - - - - - - - - - - मनुष्य
मनुष्य - - - - - - - - - - - - - फल
फल - - - - - - - - - - - - - - पेड़
पेड़ - - - - - - - - - - - - - - - सूरज
सूरज - - - - - - - - - - - - - चिड़िया
चिड़िया - - - - - - - - - - - - पानी
पानी - - - - - - - - - - - - - नदियाँ
नदियाँ - - - - - - - - - - - - मनुष्य
मनुष्य - - - - - - - - - - - - - हवा
हवा - - - - - - - - - - - - - - कीड़े
कीड़े - - - - - - - - - - - - - मिट्टी
मिट्टी - - - - - - - - - - - - जंगल
जंगल - - - - - - - - - - - - - - फूल
फूल - - - - - - - - - - - - - - कीड़े
कीड़े - - - - - - - - - - - - - सूरज
सूरज - - - - - - - - - - - - - - पेड़
पेड़ - - - - - - - - - - - - - नदियाँ
नदियाँ - - - - - - - - - - - - मिट्टी
मिट्टी - - - - - - - - - - - - मनुष्य
मनुष्य - - - - - - - - - - - - - सूरज

ज़रूरी नहीं था कि हम यही क्रम दिखाते मगर मेरी यह कोशिश ज़रूर थी कि हर बच्चे को मौका मिले और जाल में समरसता हो। सभी पात्रों को अपने व्याख्यान खुद तैयार करने थे और यह काफी मज़ेदार काम था। हरेक पात्र की टोली अपने बारे में इधर-उधर किताबों, शिक्षकों आदि से जानकारी ले रही थी। कुछ बहुत अच्छी कविताएँ भी रची गईं। यह सारा काम कक्षा की गतिविधि के दौरान ही हो गया था। नाटक में तो बस उन्हें अपना व्याख्यान और पुख्ता करना था।

दर्शकों को नाटक की प्रस्तावना और सार बताने के लिए हमने सूत्रधार रखने का फैसला किया और इसके लिए दो बच्चों का चयन किया गया। इतना सब करने के बाद, हम सब शाम को योजना अनुसार मिले।
बच्चों से तैयारी के बारे में बात कर हमने रात के खाने के बाद फिर मिलने का फैसला किया ताकि कम-से-कम एक बार पूर्वाभ्यास किया जा सके।

रात के खाने के बाद मैं बाँस, सुतली व स्क्रिप्ट के साथ और बच्चे अपने-अपने पात्र व व्याख्यान के साथ इकट्ठा हो गए। सीमा संगीत शिक्षक के साथ गीत का अभ्यास कराने को तैयार थी।

बच्चों ने गीत का अभ्यास और अपने-अपने व्याख्यान को व्यवस्थित और दुरुस्त करना शुरू कर दिया, मैं दो बच्चों को सूत्रधार बनाकर उनके डायलॉग तैयार करने लगा। एक सूत्रधार नाटक की प्रस्तावना व सार बताने के लिए था और दूसरा धरती के रोल में था जो आरम्भ में नाटक के वातावरण निर्माण और पात्रों की मदद के लिए था। दरअसल, उसका प्रमुख काम सुतली को लगातार व्यवस्थित करना व पात्रों को सतत चेताते रहना था। मसलन, सुतली को खींचे रखें वगैरह।

सारी तैयारियाँ करने के बाद एक बार हमने पूरा नाटक खेला और ज़रूरी बारीकियों को फिर से समझा।
आखिरी दिन हम सभी सुबह की सभा से पहले इकट्ठा हुए और सुतली के बिना पूरे नाटक का पूर्वाभ्यास किया।
एक रात पहले हमने कुछ बच्चों के साथ मिलकर बाँस पर लगी लिखित तख्तियाँ तैयार कीं जिनके वास्तव में तीन काम थे - एक तो उन पर पात्रों का नाम और क्रम लिखे थे ताकि वे दूर से देख सकें। दूसरा, डण्डी का ऊपरी हिस्सा थोड़ा खाली छोड़ा गया था ताकि पृथ्वी (सूत्रधार) वहाँ डोरी बाँध सके। इनका तीसरा काम जाल की ऊँचाई को स्थिर रखना था ताकि हर कोई उसे देख सके। इसके अलावा तख्तियों की वजह से बच्चे अपना-अपना व्याख्यान पढ़ पा रहे थे क्योंकि कुछ व्याख्यान याद नहीं कर पाए थे। नाटक का हर व्याख्यान तो मुझे अब याद नहीं पर पूरा नाटक कैसे चला यह बताता हूँ।
नाटक शुरू होता है - कक्षा पाँच के बच्चे अपनी-अपनी जगह के अनुसार हॉल के बीचोबीच बैठ गए, उनके इर्द-गिर्द पूरा स्कूल बैठ गया।
नाटक में बच्चों के 12 समूह और हर समूह में 2-3 सदस्य थे। हर समूह ने बाँस की छोटी-छोटी तख्तियाँ पकड़कर रखी थीं जिनपर पात्रों के नाम लिखे थे। वे सभी गोले में बैठे हुए थे।

हमने नाटक की शुरुआत एक गीत के साथ की और सूत्रधार ने उस गीत की व्याख्या की।
सूत्रधार: आज की सभा में कक्षा पाँच के बच्चे विज्ञान का एक नाटक खेलेंगे। करोड़ों वर्ष पहले धरती पर जीवन नहीं था। धीरे-धीरे धरती पर जीवन की शुरुआत हुई और धरती जीवन्त हो गई। यह नाटक धरती पर जीवन की सुन्दरता, जीवन्तता और जीवों व निर्जीवों की आपसी निर्भरता को दर्शाएगा।

पृथ्वी (अभिनय के साथ): मैं पृथ्वी हूँ, सभी पात्रों के आपसी सम्बन्ध से पृथ्वी पर एक ताना-बाना बनता है जिसे हम जीवन का तानाबाना कहेंगे, वही मुझे जीवन प्रदान करता है।
दोनों ही गोले के अन्दर आते हैं।
अब सूत्रधारों को सारे समूहों को यह याद दिलाते रहना था कि बाँस की तख्तियों को सीधा खड़ा रखना है और पृथ्वी को बाँस के सिरे पर धागे बाँधने थे।

जो बच्चा सूरज बना था उसका व्याख्यान था, “मैं सूरज हूँ, मैं सबसे अधिक चमकीला सितारा हूँ। मैं सबको रोशनी और गर्मी देता हूँ। मनुष्य का जीवन पूरी तरह से मुझ पर निर्भर करता है इसलिए मेरा सम्बन्ध मनुष्य से है, मैं ये सुतली मनुष्य को देता हूँ।”
उसके बाद पृथ्वी ने सुतली का एक सिरा सूरज वाले बाँस में बाँधा।
फिर मनुष्यों को भी इसी तरह के व्याख्यान देकर दूसरे पात्रों के तख्तों से धागा बाँधना था। इसी के अनुसार धरती ने सारे धागों को एक-एक करके बाँधा।

जब अन्तर्सम्बन्धों का सिलसिला पूरा हो गया तो धरती हॉल के बीचोबीच जाकर बहुत खुश होने का अभिनय करने लगी।
सूत्रधार: सारे सम्बन्धों को प्रस्तुत करना बहुत कठिन है, दरअसल, इस प्रकार का एक अदृश्य जाल पृथ्वी पर मौजूद है और वही सारी कायनात का संरक्षक है। अगर इनमें से कोई एक चीज़ भी खत्म होती है तो यह जाल प्रभावित होगा। ज़रा सोचिए अगर पृथ्वी पर कीड़े-मकौड़े नहीं रहे तो क्या होगा? इतना कहते ही कीड़े-मकौड़े वाले पात्रों ने अपने बाँस को झटके से झुका दिया। ऐसा करने से पूरे जाले पर असर पड़ा और सारे पात्र झुक गए। एक तरह से जाला छिन्न-भिन्न-सा हो गया। बच्चे इससे परस्पर तालमेल का सम्बन्ध और महत्व समझ पाए और नाटक का अन्त हुआ।


प्रमोद मैथिल: एकलव्य के भोपाल केन्द्र में कार्यरत। गणित एवं विज्ञान शिक्षण में रुचि।
अँग्रेज़ी से प्राथमिक अनुवाद: नसीम अख्तर: अँग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर।
सभी चित्र: विवेक वर्मा: चित्रकार हैं। मिट्टी के खिलौने, भित्ति चित्र और कोलाज बनाते हैं।