सत्यु                                                                                                                                                            [Hindi PDF, 223kB]

पहली बार जब अनारको ने भूरे रंग के उस जंगली खरगोश को देखा था तो बस पल भर के लिए देखा था। आँखें बन्द करके ‘प’ बोलो फिर ‘ल’ बोलो फिर आँखें खोल लो - बस उतना ही भर देखा था। ऐसे देखा था जैसे अचानक कोई बिसरी हुई खुशबू याद आती है, जैसे कोहरे में चेहरे दिखते हैं, जैसे आँख के किनारे से परछाई पार हो जाती है।
अनारको गर्म फुलकों के चक्कर में रसोई में अम्मी के पीछे खड़ी थी और टोकरी में रखे ताज़े फुलकों से निकलती भाप में उसे पल भर के लिए दिखा - खरगोश! टोकरी के पीछे बैठा हुआ। उसके लम्बे-लम्बे कान सीधे खड़े। सामने के दो दाँत नुक्कड़ के बंगाली डॉक्टर के जैसे आगे को निकले हुए और आँखें यूँ चमकती हुईं कि आती-जाती गाड़ियाँ चौराहे की लालबत्ती समझ कर रुक जाएँ। अनारको ने भी पलभर रुककर उसे देखा, फिर फुलका उठाया तो खरगोश गायब।
दूसरी बार वह खरगोश को बहुत देर तक देखती रह गई थी। खरगोश ऊपर डाल पर चिपक कर उसकी तरफ नीचे देख रहा था और नीचे अनारको ने उस गुलमोहर के अटकल पंजों से अपनी पतंग छुड़ाने के लिए लग्गी उठाई ही थी कि उसे खरगोश दिख गया। उसकी तरफ एकटक देखते हुए। लग्गी अनारको के हाथ में धरी की धरी रह गई और खरगोश और उसकी आँखें जैसे एक-दूसरे से बँध गईं और काफी देर तक बँधी रहीं।

बाद में अनारको ने इस पर काफी सोचा था। दूसरी मुलाकात में ही आँखों के इस जादू का मतलब निकालने लगी थी। सोच का पंछी कहाँ-से-कहाँ उड़ गया। सोचा सपना होगा - पर इतना साफ-साफ और लगातार दो दिन? -- अगर सचमुच का खरगोश मेरे सपने का हिस्सा था तो क्या सचमुच की मैं उन दो दिनों के लिए खरगोश के सपने का हिस्सा नहीं हो सकती? सोचा, हो सकता है कि खरगोश सचमुच का ही हो और उनकी आँखें जादू जैसे इसलिए बँधें कि पिछले किसी जनम में अनारको खरगोश थी और वह खरगोश अनारको जैसी कोई लड़की।

अनारको जब छोटी थी तो उसकी अम्मी ने उसे एक काले चींटे को फर्श पर पड़े कंघी से काटते हुए देख लिया था और उसे बताया था कि अगले जनम में चींटा उससे बदला लेगा। अम्मी ने बड़े हल्केपन से कहा था पर बात हल्की न थी। अगले जनम में धड़ के अलग होने और उसके बाद अलग-अलग हिस्सों के अलग-अलग तड़पने का सोचकर अनारको सिहर गई थी।

तीसरी बार अनारको और किंकु ने साथ देखा खरगोश को। कई दिनों से स्कूल में क्लास लगने और न लगने के बीच का माहौल चल रहा था। न टीचरों को न प्रिंसिपल मैडम, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे सब कुछ जानती हैं, को पता था कि पाँचवीं में कौन-सी नई किताब आने वाली है और वह दुकानों में कब मिलने लगेगी। और जब तक किताबें दुकानों पर नहीं आतीं अनारको और किंकु की पाँचवीं कक्षा से स्कूल की तरफ से बस यही उम्मीद की जा रही थी कि वे समय पर आएँ, अपनी कक्षा में बैठें और शोर न मचाएँ। दूसरे दिन ही पता लग गया था कि यह उम्मीद ठीक नहीं थी और छींक आने, जम्हाई लेने या गैस छोड़ने की कुदरती प्रक्रियाओं पर छूटती किलकारियों को रोकना एक निरे टीचर के लिए असम्भव है। फिर बच्चों को छूट दी गई कि वे कक्षा से बाहर, पर स्कूल की चारदीवारी के अन्दर रहें और शोर न मचाएँ।

आज दुकानों में किताब न आने का पाँचवाँ दिन था और अनारको और किंकु स्कूल की चारदीवारी के बाहर नाले के पास टीले पर काँस की झाड़ियों के बीच घुघ्घुओं के घोंसले ढूँढ़ रहे थे। तभी सामने खरगोश दिख गया। अनारको ने ज़ोर से किंकु का हाथ दबाया, कहा वही है। खरगोश तब तक पीछे मुड़ा और उछल-उछल कर चलने लगा। वह दो कदम उछलता फिर पीछे मुड़ कर देखता। अनारको और किंकु उसके पीछे-पीछे ऐसे हो लिए जैसे खरगोश से उनके डोर बँधे हुए हों। थोड़ा आगे जाकर खरगोश ऊँची-ऊँची, लम्बी-लम्बी छलाँगें लगाने लगा। अनारको और किंकु भी उसके पीछे दौड़ने लगे।

आगे जाकर खरगोश ने काँस की फुनगी को छूते हुए झाड़ी के बीचों-बीच छलाँग मारी। भागते-भागते हाँफते-दौड़ते खरगोश की देखा-देखी उन्होंने भी काँस के सरकण्डों के बीच छलाँग लगाई कि ओ... काँस के सरकण्डों पर फिसलते हुए धमम् से एक सुरंग के दरवाज़े पर आ गए। दोनों के बालों और चेहरे पर काँस के फूल ऐसे चिपके थे कि वे ऐसे लग रहे थे जैसे स्कूल के नाटक में बुड्ढा-बुड्ढी का रोल कर रहे हों। उन्हें महसूस हुआ कि वे एक गढ्ढे में गिरे थे पर यह गढ्ढे जैसा नहीं था - धुँधली रोशनी में जितना दिखता था सब कुछ खुला-खुला-सा था।

हवा में जंगल की महक थी। दूर कहीं से पानी बहने का अहसास हो रहा था। अनारको और किंकु एक-दूसरे से चिपटकर खड़े थे। उनकी आँखें बड़ी-बड़ी, खुली-खुली और मुँह भी अचम्भे से और खुशी से खुले-खुले।
इतने में सुरंग के दरवाज़े के पास पेड़ के नीचे बंगाली डॉक्टर दिख गए। मुहल्ले के लोग मानते थे कि बंगाली लोग तेज़ होते हैं इसलिए बंगाली डॉक्टर इलाज ज़रूर अच्छा करते होंगे पर उनके बारे में आम शिकायत थी कि वे बातें बहुत करते हैं।

अनारको और किंकु को उनसे ऐसी कोई शिकायत कभी रही नहीं और आज तो उन्हें इस अनजान जगह देखकर वे बिलकुल चीखें मारकर खुश होने लगे। जैसे वह कोई चीखों से खुलने वाला दरवाज़ा हो, उनके चीखते ही सुरंग का दरवाज़ा सरकने लगा। अनारको और किंकु बंगाली डॉक्टर की पतलून से चिपक गए जिसमें से सरसों के तेल की बू आ रही थी। डॉक्टर अंकल ने उन्हें पतलून से अलग किया और दोनों के हाथ पकड़ सुरंग के अन्दर चल पड़े। उन्होंने कहा, “देखो हमारे क्लिनिक में ज़्यादा मरीज़ नहीं आते पर आते भी तो मुझे फुरसत ही कहाँ है। हमारा असली काम तो इस सपनों के अस्पताल में है। 24 घण्टे की ड्यूटी है।”
बोले, “ज़रा हल्के पाँव चलना, यहाँ देखने वाली चीज़ें नहीं हैं, महसूसने वाली चीज़ें हैं।”

यूँ हल्के पाँव चलते-चलते एक जगह आकर जहाँ बंगाली डॉक्टर रुके, वहाँ अनारको और किंकु को ऐसा महसूस हुआ कि जैसे चारों तरफ उड़ने की कोशिश में पंछी पंख फड़फड़ा रहे हों। हवाओं में उनकी बेचैन साँसों की हरकत थी। “ये आज़ादी के सपने हैं,” बंगाली डॉक्टर ने कहा। अनारको और किंकु चुपचाप सुनते जा रहे थे। “दुनिया में कहीं भी जब आज़ादी के सपने दिखलाकर नई जंज़ीरें पहनाई जाती हैं, झूठ के बल पर थोड़े-से ताकतवर लोग सब के ऊपर लूट खसोट करने की आज़ादी हासिल कर लेते हैं। कहीं के प्रधानमंत्री और कहीं के राष्ट्रपति गर्म हो जाते हैं तो आम इन्सानों की कहीं बोलने, कहीं लिखने, कहीं आने-जाने की आज़ादी छीनी जाती है। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तो आते-जाते रहते हैं, आज़ादी के सपने उन्हें झेल भी लेते हैं पर जब बहुत सारे लोग खुद अपनी आज़ादी भेंट करने या बेचने को तैयार हो जाते हैं तो सपने उन्हें झेल नहीं पाते। फिर उनको इस अस्पताल में आकर आराम करना पड़ता है। यहाँ वे कहानियाँ पढ़ते हैं और कविताएँ सुनते हैं। हमारे यहाँ एक मशीन है उसमें अखबार डाल दो तो वह उसमें से छानकर दुनिया भर की उन सच्ची कहानियों को निकाल लाती है जो आज़ादी की सफल कोशिशों की कहानियाँ होती हैं।” अनारको और किंकु को सोच में डूबे हुए देखकर बंगाली डॉक्टर बोले, “ज़्यादा चिन्ता की बात नहीं है, थोड़े दिन में राइट-फाइट हो जाएगा।”

सच पूछो तो अनारको और किंकु के लिए सब कुछ बिलकुल ऐसे था जैसे वे धरती से दूर किसी दूसरे ग्रह में पहुँच गए हों, जहाँ चारों तरफ स्थानीय भाषा में बातें हो रही थीं पर फिर भी बातों का निचोड़ जैसे उन्हें समझ आ रहा था। वे एक-दूसरे का हाथ पकड़े पास-पास खड़े थे और दोनों को ऐसा लग रहा था जैसे कि बिना कोई बातचीत के बातों का निचोड़ हाथों से बहता हुआ एक-दूसरे के पास पहुँच रहा था। बंगाली डॉक्टर के पीछे-पीछे वे आगे बढ़ने लगे। बंगाली डॉक्टर अपने आप में मशगूल थे और बोलते जा रहे थे। “बीमारी ठीक करने के लिए बीमारी की जड़ में जाना होता है और इनकी बीमारी की जड़ें तो बहुत लम्बी हैं। ये अपने आपको कैद करने वाली बात बचपन में ही शु डिग्री हो जाती है।” अनारको और किंकु इस बात के निचोड़ को भी समझ गए। समझ क्या गए वे तो पहले से ही जानते थे सो उन्होंने ज़ोर-ज़ोर से सर हिलाया। बंगाली डॉक्टर जैसे खुश हुए। अपनी तोंद पर हाथ फेरने लगे। बोले, “चलो आगे दिखाता हूँ।”

आगे जाकर पहले बंगाली डॉक्टर और पीछे-पीछे एक-दूसरे का हाथ पकड़े अनारको और किंकु जहाँ ठहरे, वहाँ चारों तरफ आस-पास तितलियाँ तो दिखती नहीं थी पर घुटनों पर उनके तड़पने का अहसास हो रहा था। हवा जो अब तक जंगल की महक लेकर भागी जा रही थी यहाँ ठहरी हुई थी और उसमें तितलियों के पंख टूटने की टीस भरी थी। “ये प्यार के सपने हैं,” बंगाली डॉक्टर ने कहा। “जिन लोगों के पूर्वज सारी दुनिया के इन्सानों, जानवरों और कीड़े-मकोड़ों तक को अपने परिवार का हिस्सा समझते थे वे जब अपने पड़ोसी के खिलाफ नफरत करते हैं तो प्यार के सपने बीमार हो जाते हैं। जब-जब नफरत की खेती लहलहाती है, जब आम लोग अपने दिल-दिमाग से नहीं बल्कि दूसरे के कहने पर प्यार और नफरत करते हैं तो प्यार के सपने घायल हो जाते हैं।”

“अब तितलियाँ हैं, कभी इस फूल पर कभी उस फूल पर कभी फूलों के गुच्छों पर तितलियों का झुण्ड! जब तितलियों को सरहदों में बाँधने की कोशिशें होती हैं तो सपनों के पंख टूटते हैं। यह बीमारी भी अक्सर सपनों के बचपन में, बच्चों के सपनों में ही लग जाती है।”
बंगाली डॉक्टर के इस लम्बे भाषण के बीच में ही अनारको और किंकु के मन एक-साथ कहीं और भटक गए थे। मन जहाँ भटक गए थे वहाँ उनके सामने एक के बाद एक चेहरे आ रहे थे। दोस्तों, दुश्मनों, टीचरों, अंकलों, आंटियों, दादियों, नानियों, अखबारों और टीवी में दिखाए गए लोगों के चेहरे आ रहे थे। हर चेहरे पर पल भर नज़र टिकाकर दोनों यकीन कर रहे थे कि उस इन्सान को प्यार या नफरत उन्होंने अपने दिल-दिमाग से किया था, किसी के कहने पर नहीं। उधर बंगाली डॉक्टर इस पर यकीन जता रहे थे कि बीमार प्यार के सपनों को सितार, गिटार और बाँसुरी की धुनें सुनाने और एक साथ मिलकर नाचने के माहौल में रखे जाने पर सब कुछ राइट-फाइट हो जाएगा।

फिर वे लोग उस ओर बढ़ गए जहाँ से पानी बहने का अहसास आ रहा था। पास गए तो महसूस किया कि जैसे छोटा-सा एक पहाड़ी नाला था, इतना छोटा कि दौड़ लगाकर कूदो तो एक छलांग में पार हो जाओ। पर छोटा हुआ तो क्या हुआ, पिछले साल की बाढ़ में अनारको और किंकु को इन्हीं पहाड़ी नालों की ताकत का भान हो गया था। इस नाले के पानी का बहाव मगर थका-थका-सा था। “यहाँ जो आप महसूस कर रहे हैं वह बराबरी के सपनों की थकान है,” बंगाली डॉक्टर बोल रहे थे। पर उसके पहले अनारको और किंकु ने उसे महसूस कर लिया था। वे इस बात से मन ही मन में खुश हो रहे थे कि थकान के बावजूद पानी के लगातार बहने, पत्थरों से टकराने, उन पर से उछलने का अहसास बराबर जारी था। “पानी सब कुछ को बराबर कर देता है,” बंगाली डॉक्टर बोल रहे थे, “ऊपर से नीचे बहता है, हल्के को उठाता है, भारी को डुबाता है। वैसे कुदरत में सबकुछ बराबर है, छोटा-बड़ा नहीं होता। आँख से दिखता नहीं इतना छोटा बैक्टीरिया आपकी जान ले सकता है।”

धीरे मगर लगातार पानी बहने का अहसास जारी था, डॉक्टर अंकल का तेज़ बोलना भी जारी था। “बराबरी के इस कुदरती बहाव को रोकने के लिए कितने जतन किए जाते हैं, कितनी दीवारें खड़ी की जाती हैं। और बराबरी के सपनों को तब सबसे ज़्यादा चोट पहुँचती है जब लड़कियाँ खुद अपने आपको लड़कों से कमज़ोर समझने लगती हैं, जब साँवले लोग गोरे होने के लिए क्रीम लगाते हैं और बच्चे यह मान लेते हैं कि चूँकि वे बच्चे हैं इसलिए कुछ भी महत्वपूर्ण करने के काबिल नहीं हैं।”
न अनारको ऐसी लड़की थी और न वे दोनों ऐसे बच्चे थे। उनके बुझे हुए दिलों को इस बात से थोड़ी राहत मिली कि बराबरी के सपनों को उनकी तरफ से कोई चोट नहीं पहुँची।

तब तक बंगाली डॉक्टर आगे बढ़ गए थे। अनारको और किंकु उनके पीछे हो लिए। अनारको ने महसूस किया कि वह बंगाली डॉक्टर के अस्पताल में चक्कर लगाते-लगाते काफी थक चुकी थी। अपने कन्धे पर अनारको के हाथ के भारीपन से किंकु भी समझ रहा था कि अनारको थक चुकी है। उसने अनारको से कहा, “जब तू इतना थक गई है तो तेरी कहानी लिखने वाला भी तो थक गया होगा।” और यह बात जैसे कोई मंत्र हो, सामने से बंगाली डॉक्टर सीताफल की झाड़ियों के बीच से गायब हो गए।
अनारको और किंकु झाड़ियों और पेड़ों के बीच उस रास्ते पर आगे बढ़ गए। वे एक गेट के पार बढ़ गए जो पुराने पत्थरों से बना था। इतने पुराने कि हरी काई की मोटी परत से पटे थे जिनमें ओस की बूँदें चमक रही थीं। अनारको और किंकु ने पीछे मुड़कर देखा। गेट के ऊपर चमकती हरी काई के बीच पत्थर पर खुदा था ‘क्योंकि सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना।’


सत्यु: भोपाल में यूनीयन कार्बाइड गैस हादसे के पीड़ितों के साथ पिछले छब्बीस साल से सक्रिय। पीड़ितों के इलाज, पुनर्वास और दोषी कम्पनियों को सज़ा दिलाने जैसे मुद्दों पर काम कर रहे हैं।
सभी चित्र: जितेन्द्र ठाकुर: एकलव्य, भोपाल में डिज़ाइन एवं प्रोडक्शन इकाई में कार्यरत हैं।