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विगत अक्टूबर मम्मा मू यानी कजरी गाय श्रृंखला की पुस्तकों की स्वीडिश लेखिका यूया विस्लैंडर भारत प्रवास के दौरान अपने पति लेनार्ट के साथ उत्तराखण्ड में थीं। अब तक बच्चों के लिए उनके द्वारा लिखी गई सोलह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। वे स्वीडन की लोकप्रिय लेखिका हैं। यहाँ वे मम्मा मू श्रंखला की आठवीं किताब की पाण्डुलिपि का सुधार कार्य भी कर रही थीं। मम्मा मू श्रृंखला की किताबों के दुनिया की चौंतीस भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं। हिन्दी में तीन किताबों के अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा दो जल्द ही प्रकाशित होने वाले हैं। कमलेश चन्द्र जोशी ने यूया विस्लैंडर से बाल साहित्य व उनकी लेखन प्रक्रिया के बारे में शीतला, ज़िला नैनीताल में बातचीत की। इस बातचीत का सम्पादित रूप यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। इस बातचीत के हिन्दी अनुवाद में अरुन्धती देवस्थले का महत्वपूर्ण सहयोग रहा है।

यूया से बातचीत की शुरुआत उनके द्वारा बच्चों के लिए लेखन की शुरुआत से हुई। उन्होंने बताया कि बच्चों के लिए लिखने का विचार उन्हें रात को सोते समय कहानी सुनाने से आया। “जब हम अपने बच्चों को सुलाते समय कहानी सुना रहे होते तो उनसे पूछते कि किसकी कहानी सुनोगे, कहानी में कौन-कौन होगा। इसके लिए हम उनके साथ एक चित्रात्मक किताब की तरह आठ पेज की शीट लेकर बैठते। वे जो भी बताते उन पन्नों पर लिखते और उनका रफ स्केच भी बनाते। हालाँकि, उनके द्वारा बनाई जा रही कहानी पूरी न होती। वह कहानी तीन-चार पन्नों तक आती और बच्चों को नींद आ जाती। परन्तु उससे यह पता चला कि बच्चे सोचते कैसे हैं। इस तरह उनके साथ कहानियाँ बनाने का प्रयास किया। बच्चों की रुचि को ध्यान में रखते हुए शुरुआती दौर में उनके लिए ‘गलत पैर में गलत जूता’ जैसे कुछ छोटे-छोटे लयात्मक गीत बनाए। उन गीतों को एक संगीतकार की मदद से संगीत में भी ढाला।”

उन्होंने बताया कि बच्चों की लेखिका बनने का कोई आरम्भिक इरादा नहीं था। परन्तु युनिवर्सिटी के दिनों में बच्चों के साथ काम करने, शिक्षिका बनने या एक सामाजिक कार्यकर्ता बनने की बात मन में थी। “और अगर मैं आज बच्चों की लेखिका नहीं होती तो शायद एक शिक्षिका ही होती।”

“मम्मा मू का विचार कैसे जन्मा?” इसके बारे में उन्होंने बताया कि एक बार उन्होंने गाय के बछड़े को गाय के लिए मू करते यानी रम्भाते हुए सुना और उसकी आवाज़ कहीं ज़हन में बस गई। इस तरह मम्मा मू का जन्म हुआ और किसान, कौआ जैसे पात्र बच्चों के गीतों में पहले से ही थे। वे वहीं से आए। मम्मा मू श्रंृखला की पहली किताब 1990 में स्वीडन में छपी थी। ये किताबें गाय और कौए के सम्बन्धों के बारे में हैं, जैसे दोनों पात्र विपरीत प्रकृति के होते हुए भी साथ-साथ रहते हैं और बहुत सारे काम साथ-साथ करते हैं। हर नई किताब में उनके कारनामों का एक नया अध्याय जुड़ता है। इस कारण बच्चे इन किताबों को बहुत पसन्द करते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि इन किताबों पर आधारित कहानियाँ स्वीडन में रेडियो कार्यक्रम के अन्तर्गत भी उनके द्वारा नियमित रूप से सुनाई जाती रही हैं और वहाँ के लोगों द्वारा पसन्द की गई हैं। इन किताबों पर आधारित दो कहानी संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं।

“बच्चों के लेखक विकसित होने में देश की समृद्ध परम्परा का बड़ा हाथ रहता है। स्वीडन ऐसा देश है जहाँ पिछले दो सौ वर्षों से कोई युद्ध नहीं हुआ। यह एक शान्तिपूर्ण समाज है। इसके साथ वहाँ बच्चों के लिए चार वर्ष की प्राथमिक शिक्षा सन् 1842 में ही अनिवार्य हो गई थी जो धीरे-धीरे आगे बढ़ती रही। इसके अलावा वहाँ बाल साहित्य की समृद्ध परम्परा भी रही है जिसमें सलमा लॉगरहाफ तथा ऐल्सा बेस्कोव जैसी महत्वपूर्ण लेखिकाएँ रही हैं। इसके आगे की परम्परा में आस्ट्रिड लिंडग्रेन जैसी मुखर साहित्यकार आती हैं जिन्होंने बच्चों को स्कूल व घर में पिटाई करनेे, सज़ा देने व प्रताड़ित करने का ज़ोरदार विरोध किया और स्वीडन में इनके खिलाफ एक माहौल बनाया। उनकी मशहूर किताब ‘पिप्पी लम्बे मोज़े’ सन् 1945 में प्रकाशित हुई। उस वर्ष मेरा भी जन्म हुआ। मेरी माँ मुझे पिप्पी की कहानियाँ सुनाती थीं। पिप्पी की कहानियाँ पढ़ते मैं बड़ी हुई। इसका कुछ असर शायद मेरे लेखन में रहता हो।”
पिप्पी का चरित्र परम्परागत बच्चों की किताबों के चरित्र से बिलकुल अलग है। वह अपने मन से चलती है तथा अपने मन से सब कुछ करना चाहती है। बाद में आस्ट्रिड लिंडग्रेन ने स्वीडन में अपनी रेडियो वार्ताओं के ज़रिए बच्चों का सम्मान करने, उनको समझने, दण्ड मुक्त रखने आदि पर काफी ज़ोर दिया। आस्ट्रिड लिंडग्रेन इस तरह से विरोध प्रकट करने वाली स्वीडन की पहली बाल-लेखिका थीं जिसके परिणामस्वरूप स्वीडन में आगे चलकर बच्चों के लिए अधिकार बने।

‘पिप्पी लम्बे मोज़े’ प्रकाशित करने में शुरुआत में प्रकाशकों ने काफी आनाकानी की और फिर कुछ सम्पादन कर उसे प्रकाशित किया गया। पर अब यह किताब वहाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी पढ़ी जा रही है। दुनिया की अधिकतर भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है। आज अगर आप स्वीडन में प्रकाशकों से बच्चों की किताबों में नैतिक उपदेशों की बात करेंगे तो वे पुस्तक प्रकाशित करने से मना कर देंगे।
बच्चों के लिए लिखने के बारे में उन्होंने बताया कि इसकी पहली शर्त बच्चों को -- उनकी अन्दरूनी दुनिया को, उनकी भावनाओं को समझना तथा उनका सम्मान करना है। यह बहुत ज़रूरी है कि बच्चों की अन्दरूनी दुनिया से रिश्ता जोड़ा जाए और उनकी बातों को ध्यान से सुना जाए। इसके साथ यह समझना भी कि बच्चे क्या चाहते हैं। इसी क्रम में साथ बैठे उनके पति लेनार्ट ने कहा कि यूया बच्चों की बातों से उनको समझती है। इसके साथ ही वह पहचान लेती है कि बच्चे क्या चाहते हैं।

आगे यूया ने यह भी जोड़ा कि बच्चों के लिए लिखने के लिए अपने बचपन और उस समय की भावनाओं को समझना भी ज़रूरी होता है, तभी हम बच्चों के लिए कुछ अच्छा लिख सकते हैं। उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि बच्चों के लेखन के ज़रिए उनकी सोच में खुलापन विकसित हो पाए इसकी कोशिश होनी चाहिए। अगर हम इस बात पर ध्यान दें कि हिन्दुस्तान में बच्चे छोटी उम्र में ही अपने घर की इतनी सारी ज़िम्मेदारियाँ सम्भालते हैं तो आप उन्हें उपदेश देकर क्या करेंगे? दुनिया को वे हम से बेहतर समझते हैं।
लेनार्ट का कहना था कि किताबों में नैतिक उपदेश देने से किताबें बन्द हो जाती हैं और वहीं समाप्त हो जाती हैं। जबकि अच्छी किताब वह होती है जिसमें बच्चों के लिए आगे सोचने व कल्पना करने की सम्भावनाएँ हों। बच्चों के लिए किताब लिखने का यही मकसद होना चाहिए।
“अपने लेखन के दौरान बच्चों की अन्दरूनी दुनिया और अपनी वयस्क दुनिया के बीच आप सामंजस्य कैसे बनाती हैं?”

“पता नहीं यह कैसे होता है। बच्चों की अपनी शारीरिक भाषा भी होती है। वह बहुत कुछ कह रही होती है। उसे समझना होता है। बच्चे अपने तरीके से दुनिया को समझते हैं और हम अपने तरीके से। हमें यह प्रयास करना होता है कि इस खाई को कैसे पाटा जाए और बच्चों की सोच को एक मुकाम तक कैसे पहुँचाया जाए। बच्चों को एक पौधे के समान भी देख सकते हैं, जैसे हम देखकर जान जाते हैं कि पौधे को पानी की ज़रूरत है या खाद की। इस बात पर हमें बच्चों के सन्दर्भ में भी ध्यान देना चाहिए। बच्चों को चीज़ों के बारे में बताने का मोह छोड़ दें। वे अपने आप सीखते-समझते हैं। उन्हें एक खुलापन देने का प्रयास करना चाहिए।”
आगे उन्होंने कहा कि बच्चा कोई खाली पैकेट नहीं है जिसमें आपको सब कुछ भरते जाना है। बच्चा भी इन्सान है। इस बात को पूरे समाज को समझना चाहिए।

उन्होंने बताया कि कजरी गाय श्रृखंला की किताबों के चित्र स्वेन नॉर्दक्विस्ट बनाते हैं। “वे इन किताबों के पात्रों को मेरी तरह बहुत बेहतर ढंग से समझते हैं और चित्रांकन पर काफी मेहनत करते हैं। वे थोड़ा कम बोलने वाले तथा शालीन व्यक्ति हैं। मम्मा मू की किताबों में वे अपने को कौए के रूप में देखते हैं और हँसते हैं। इन किताबों के चित्रांकन में 1950 के दशक के उन दिनों का स्वीडन दिखाई देता है जब हम दोनों छोटे थे और स्कूल जाते थे। वे खुद भी बच्चों के लिए किताबें लिखते हैं तथा चित्र बनाते हैं। उन्होंने पैटसन नामक किसान तथा फिन्डस नामक बिल्ली के चरित्र को लेकर चित्रकथाएँ बनाई हैं जो स्वीडन में लोकप्रिय हैं।

“सर्वप्रथम मैं उन्हें अपनी किताब की एक पाण्डुलिपि देती हूँ, जिसके आधार पर वे उसके रफ स्केच बनाते हैं। जैसे मैं अभी मम्मा मू की नई किताब पर काम कर रही हूँं, उन्होंने उसके रफ स्केच बनाकर मुझे भेजे हैं (वे किताब की पाण्डुलिपि व स्केच दिखाती हैं)। मैं उन्हें देखकर कुछ सुझाव देती हूँ और वे उस पर चर्चा करके चित्र बनाते हैं तथा उसे अन्तिम रूप प्रदान करते हैं।”
“जब आप किसी किताब पर काम नहीं कर रही होती तो क्या करती हैं?”

“मेरे बेटे-बेटी, नाती-पोते हैं। उनके साथ समय बिताती हूँ। अपनी वेबसाइट पर आए किताबों के ऑर्डरों की व्यवस्था सम्बन्धी कार्य देखती हूँ। बच्चों व बड़ों की किताबें पढ़ती हूँ। इसके अलावा मैं स्वीडन में चिल्ड्रेन्स बुक अकादमी की अध्यक्ष हूँ और उसका काम भी देखती हूँ।”


प्रस्तुति: कमलेश चन्द्र जोशी: प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े हैं। इन दिनों अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, देहरादून में कार्यरत। बच्चों के साथ काम करने का लम्बा व गहरा अनुभव