माधव केलकर

भारत में ब्रिाटिश राज का मोटा-मोटा अध्ययन स्कूली किताबों में तो होता ही है। सन् 1818 में मराठों को हराकर प्राप्त किए गए इलाके और 1854 में भोंसले रियासत के ब्रिाटिश राज में विलय से सेंट्रल प्रोविंसेस की नींव पड़ी। वर्तमान मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के कई इलाके मिलाकर डेढ़ सौ साल पहले ब्रिाटिश राज में सेंट्रल प्रोविंसेस नामक प्रशासनिक इकाई अस्तित्व में आई थी। मुख्यधारा से कटे और विविध चुनौतियों से भरपूर इस प्रान्त में ब्रिाटिश लोगों ने किस तरह से अपना सामाजिक आधार तैयार किया था, यही जानने की एक कोशिश की गई है यहाँ। भारत में ब्रिाटिश राज का चरित्र कमोबेश एक जैसा होते हुए भी अनेक स्थानीय तत्वों का समावेश होने की वजह से इसमें विविधता थी। स्थानीय इतिहास को जानने और समझने का एक प्रयास है इस लेख में।

कुछ समय पहले मैं होशंगाबाद में ईसाई कब्रागाह गया था। वहाँ कुछेक कब्रा ब्रिाटिश जनों की भी हैं। कब्रा पर लगाए पत्थर पर लिखा मृतक का नाम और सन्देश धुँधले पड़ गए हैं। विरक्तिकी उस घड़ी में, कुछ पल वहाँ बैठकर मैं ब्रिाटिश लोगों के बारे में सोचने लगा। यहाँ भारत में अपने नाते-रिश्तेदारों से इतनी दूर रहते हुए पता नहीं कितने दोस्त-यार, चाहने वाले होते होंगे इनके। एक फर्क संस्कृति, भाषा और अपनी कठोर, खौफ पैदा करने वाली छवि वाले ब्रिाटिश अफसरों के जनाज़े में या इनके परिजनों के जनाज़े में कौन लोग शरीक होते होंगे? इनके आखिरी सफर के हमसफर कौन लोग होते होंगे?

मेरा ऐसा मानना है कि ज़िन्दगी में इन्सान अपना दोस्ती का, पहचान का, काम का दायरा गूँथता है। उस दायरे में से ही लोग जनाज़े तक पहुँचते हैं। ब्रिाटिश लोगों ने यहाँ विदेशी होते हुए भी किस तरह का सामाजिक ताना-बाना तैयार किया था, उसे हम यहाँ विस्तार से देखने-परखने की कोशिश करेंगे। चूँकि बात होशंगाबाद से शुरू हुई है, इसलिए हमारा फोकस सेंट्रल प्रोविंसेस पर रहेगा। लेकिन प्रसंगवश कुछ उदाहरण या ब्यौरे भारत के अन्य हिस्सों से भी लेंगे। अपने सवालों के जवाब ढूँढ़ने के लिए कुछ सामग्री पढ़ पाया हूँ जिसे आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ।

सन् 1861 में सेंट्रल प्रोविंसेस नामक प्रशासनिक इकाई अस्तित्व में आई। इसमें अठारह ज़िले शामिल किए गए थे। इन्हें प्रशासनिक सुविधा के लिए चार डिवीज़न नागपुर, जबलपुर, रायपुर और होशंगाबाद के तहत रखा गया था। चूँकि सेंट्रल प्रोविंसेस नया प्रान्त था, यहाँ अभी भी ब्रिाटिश अफसरों के लिए आवास सम्बन्धी व्यवस्थाएँ और यातायात के पर्याप्त साधन नहीं थे इसलिए स्वभाविक है कि शुरू में इस इलाके में ब्रिाटिश जनों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी। लेकिन बाद के वर्षों में भी इस इलाके में ब्रिाटिश लोगों की संख्या में बहुत ज़्यादा इज़ाफा नहीं हुआ। हम सेंट्रल प्रोविंसेस में ब्रिाटिश लोगों की जनसंख्या-बसाहट और इंफ्रास्ट्रक्चर के बारे में तफसील से जानने की कोशिश करेंगे। 1881 और 1921 की जनसंख्या के आँकड़ों के हिसाब से -

1881 में (ब्रिाटिश लोग)
पूरे भारत में - 89,015
सेंट्रल प्रोविंसेस - 4,978

1921 में (ब्रिाटिश लोग)
पूरे भारत में - 1,57,649
सेंट्रल प्रोविंसेस में - 5,648

उपरोक्त आँकड़ों से साफ है कि भारत में उपस्थिति की तुलना में सेंट्रल प्रोविंसेस में लगभग 4 से 6 प्रतिशत ब्रिाटिश लोग मौजूद थे।

सेंट्रल प्रोविंसेस के अन्दर वितरण कुछ इस प्रकार था -

1867 (ब्रिाटिश लोग) 4869
नागपुर में - 2462
जबलपुर में - 1018
अन्य स्थान - 1389

1911 (ब्रिाटिश लोग) 6808
नागपुर में - 1463
जबलपुर में - 3871
बालाघाट में - 61
अन्य स्थान - 1423

इन आँकड़ों से साफ होता है कि सेंट्रल प्रोविंसेस के लगभग तीन-चौथाई ब्रिाटिश लोग जबलपुर-नागपुर जैसे बड़े प्रशासनिक शहरों में निवास कर रहे थे।

वैसे यहाँ एक बात और स्पष्ट कर देना बेहतर होगा कि इनमें से 40 प्रतिशत तो फौजी सेवाओं में थे। ये लोग कंटोनमेंट जैसे पृथक रिहायशी इलाकों में आम जनता से अलग-थलग रहते थे। नागपुर का कामठी कंटोनमेंट और जबलपुर में सदर कंटोनमेंट फौजियों के निवास स्थान थे। शेष 60 प्रतिशत में सिविल सेवा अधिकारी, उनके परिजन और मिशनरी कार्यकर्ता आदि शामिल थे।

सेंट्रल प्रोविंसेस में गैर-अधिकारी अँग्रेज़ों की संख्या ज़्यादा नहीं थी। भारत के अन्य कई प्रान्तों की तरह यहाँ नील की खेती, चाय-कॉफी के बागान आदि नहीं थे (जहाँ बड़ी संख्या
में अँग्रेज़ खेती-बागानों के क्रिया-कलापों में शामिल होते थे)। लेकिन कपास और गेहूँ की खरीद में शामिल व्यापारिक एजेंट और विविध मिशनरियों के कार्यकर्ता के रूप में कुछ अँग्रेज़ यहाँ मौजूद थे।

सेंट्रल प्रोविंसेस का इंफ्रास्ट्रक्चर
सेंट्रल प्रोविंसेस जब बना था तब यहाँ यातायात के पर्याप्त साधन नहीं थे। इस प्रान्त का नागपुर मुख्यालय ज़रूर था लेकिन सन् 1867 तक इसका बम्बई या कलकत्ता से रेल सम्पर्क नहीं था। चीफ कमिश्नर नागपुर से वर्धा जाते थे, वहाँ से बम्बई जाने के लिए रेलगाड़ी मिलती थी। सन् 1870 तक एक रेलवे लाइन बम्बई से नागपुर तक वाया भुसावल-वर्धा, और दूसरी रेलवे लाइन बम्बई से कलकत्ता तक वाया जबलपुर थी। कोई व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने में कितने घण्टे खर्च करता था, इसका ब्यौरा नवागन्तुक ब्रिाटिश अफसर एन्ड्रयू फ्रेज़र के हवाले से दिया जा सकता है। एन्ड्रयू ने 1871 में अपने पहले पोÏस्टग स्थल जबलपुर तक पहुँचने के लिए बम्बई से इलाहाबाद का रेल सफर 30 घण्टे, इलाहाबाद से नागपुर का रेल सफर 30 घण्टे और नागपुर से जबलपुर सड़क यात्रा 24 घण्टे में पूरी की थी। उन दिनों उल्लेखनीय सड़क मार्ग नागपुर-जबलपुर-मिर्ज़ापुर था।

पहाड़-जंगल से भरपूर यह प्रशासनिक इकाई ब्रिाटिश अफसरों को बहुत आकर्षित नहीं करती थी। पोÏस्टग के लिहाज़ से अँग्रेज़ अधिकारियों द्वारा अन्य प्रान्तों की तुलना में सेंट्रल प्रोविंसेस को कम तरजीह दी जाती थी, खासकर 1860 के दशक में। 1865 के आसपास अल्फ्रेड लॉयल आगरा से अपनी नई नियुक्ति - डिस्ट्रिक्ट कमिश्नर, होशंगाबाद - के लिए होशंगाबाद आता है। वह लिखता है, जैसे ही आप गंगा-घाटी छोड़ते हैं, ऐसा लगता है मानो सारी सभ्यताएँ अचानक खत्म हो जाती हैं। होशंगाबाद में क्रिसमस मनाने के बाद वो यहाँ के रूखे-सूखे-बेजान माहौल की तुलना आगरा के जीवन्त माहौल से करता है। वो आगे लिखता है, मैं यहाँ (होशंगाबाद में) दो साल से ज़्यादा रुकना नहीं चाहता।

1890 तक सेंट्रल प्रोविंसेस के सभी डिस्ट्रिक्ट हेड-क्वाटर्स में रेलवे या सड़क, अफसरों के लिए मकान वगैरह जैसी सुविधाएँ बेहतर हो गर्इं थीं। 1889 में प्रान्तीय सरकार ने भारत सरकार से अनुरोध किया था कि सेंट्रल प्रोविंसेस के कमीशंड अफसरों के वेतन एवं ओहदे में सुधार किया जाए, जिस पर भारत सरकार ने अपनी स्वीकृति देते हुए ज़रूरी सुधार किए थे।

पारिवारिक माहौल तैयार करना  
ब्रिाटेन से इतनी दूर रहते हुए सभी ब्रिाटिश लोगों के बीच पारिवारिक माहौल तैयार हो सके, यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा था। फौजी और सिविल अफसरों में मित्रता हो, अफसरों के परिजन एक-दूसरे को जाने-पहचाने, एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ निभाएँ, भारतीय जन-जीवन में घुलने-मिलने के अवसर बना सकें,यह भी ज़रूरी था।

सेंट्रल प्रोविंसेस के चीफ कमिश्नर रिचर्ड टेम्पल ने पदभार सम्हालने के बाद इस ओर विशेष ध्यान दिया कि इंग्लैंड से दूर रह रहे ब्रिाटिश जनों में परस्पर फैमिली फीलिंग बढ़े। वैसे सेंट्रल प्रोविंसेस में पारिवारिक माहौल बनने की शुरुआत खुद-ब-खुद होती चली गई। कई प्रशासनिक अफसर आपस में दोस्ती-रिश्तेदारी में बँधे हुए थे। उदाहरण के लिए रिचर्ड टेम्पल के सहयोगियों में उनका एक चचेरा और एक सौतेला भाई भी शामिल था। टेम्पल के कई दोस्तों ने पंजाब से आकर सेंट्रल प्रोविंसेस में सेवाएँ दी थीं।

बड़े प्रशासनिक शहरों में ब्रिाटिश लोगों का मिलकर चाय, डिनर, डांस पार्टी और उत्सव मनाने का सिलसिला शुरू हुआ। कामठी में रेस कोर्स, नागपुर में गोल्फ कोर्स शुरू हुए और लॉन टेनिस के शौकीनों ने नागपुर में गोंडवाना क्लब और जबलपुर में नर्मदा क्लब की शुरुआत की। इन सब की वजह से रोज़मर्रा का अकेलापन कुछ हद तक दूर हुआ होगा।

हर साल गर्मियों के दो महीने अधिकांश फौजी-गैरफौजी अफसर अपने परिजनों, नौकर-चाकर के साथ हिल स्टेशन-पचमढ़ी पहुँचते थे। इससे सेंट्रल प्रोविंसेस के विविध इलाकों में रहने वाले अफसरों-परिजनों को मिलने, परस्पर संवाद करने के मौके मिले। पचमढ़ी में भी खाने-पीने, नाच, खेलकूद जैसे आयोजन होते थे।

जैसा कि आपने तालिका में देखा कि सेंट्रल प्रोविंसेस में शुरुआती दौर में नागपुर व जबलपुर में ब्रिाटिश जन बड़ी संख्या में निवास कर रहे थे। 1880 के आसपास चीफ कमिश्नर ने यह सुनिश्चित किया कि सभी 18 ज़िला मुख्यालयों में कम-से-कम 5 ब्रिाटिश अफसर अपने परिजनों समेत निवास करें। इन पाँच अफसरों में डिस्ट्रिक्ट कमिश्नर, सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस और सिविल सर्जन प्रमुख थे। इसमें पुलिस प्रमुख का तबादला तो प्राय: दो साल में हो जाता था, लेकिन सिविल सर्जन का तबादला कम ही होता था और चिकित्सा सेवाएँ देते हुए उनकी स्थानीय नागरिकों से खासी जान-पहचान हो जाती थी। सिविल सर्जन वह प्रमुख व्यक्ति होता था जो नए अफसरों को स्थानीय हालातों के साथ-साथ स्थानीय लोगों के किस्से भी सुनाता था।

अभी तक हमने ब्रिाटिश जनों के बीच पारिवारिक माहौल और घनिष्टता बढ़ाने के प्रयासों की बात की। अब ब्रिाटिश अफसरों, उनके सहयोगी भारतीय अफसरों और स्थानीय अभिजात्य वर्ग से सम्बन्धों के बारे में कुछ चर्चा करते हैं। यहाँ हम सेंट्रल प्रेविंसेस में कई साल काम कर, चीफ कमिश्नर पद पर पहुँचे एन्ड्रयू फ्रेज़र के अनुभवों को देखेंगे। इन्हें उनके आत्मकथ्य - एमंग इंडियन राजाह एंड रैयत - से सम्पादित रूप में दे रहे हैं।

कुछ भारतीय मित्र  
एन्ड्रयू फ्रेज़र ने जिन भारतीय अधिकारियों के साथ काम किया, उनमें से एक थे - खान बहादुर औलाद हुसैेन। औलाद हुसैन ने सेटलमेंट अधिकारी के रूप में जबलपुर-सिवनी में काम किया था। औलाद हुसैन उर्दू- फारसी के अच्छे जानकार थे। वो इंग्लिश पढ़ लेते थे लेकिन बोलने में खुद को सहज नहीं पाते थे। उन्होंने सेटलमेंट कोड का उर्दू में अनुवाद किया था। जब एन्ड्रयू फ्रेज़र ने जबलपुर में काम सम्हाला था तो उनके औलाद हुसैन के साथ काफी दोस्ताना ताल्लुकात बन गए थे। काम के सिलसिले में

हुसैन फ्रेज़र का मार्गदर्शन करते थे। हुसैन के बेटे सैय्यद अली मोहम्मद ने आगरा से स्नातक स्तर की पढ़ाई पूरी की। बाद में वो सेंट्रल प्रोविंसेस की सिविल सेवा में शामिल हो गया।

फ्रेज़र के मित्रों में एक थे - बिपिन कृष्ण बोस। बिपिन कलकत्ता में पले- बढ़े, 1872 में वे जबलपुर आ गए और वहाँ वकालत शुरू की। बाद में नागपुर में वकालत की ज़्यादा सम्भावनाएँ देखकर उन्होंने 1874 में नागपुर का रुख पकड़ा। बिपिन की फ्रेज़र से काफी गहरी दोस्ती थी। 1888 में बिपिन की सरकारी वकील के रूप में नियुक्ति हुई। बिपिन सेंट्रल प्रोविंसेस की लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य भी नियुक्तहुए। फ्रेज़र लिखते हैं कि कई बार बिपिन अपने निजी मामलों पर उनसे चर्चा करते और फ्रेज़र बिपिन को सलाह भी देते थे। एक मौके पर नागपुर के डिबेटिंग क्लब में बोस ने काफी तैयारी के बाद जेम्स स्टुअर्ट मिल के साहित्य, ‘द सब्जेक्शन ऑफ वीमन’ पर अपने विचार रखे। उस चर्चा में फ्रेज़र ने बोस की, ‘यूटिलिटेरियन थ्योरी’ पर विरोध दर्ज करते हुए ‘थ्योरी ऑफ इनट्यूशन’ का पक्ष लिया था।

फ्रेज़र के भारतीय मित्रों में माधवराव चिटनीस का नाम प्रमुखता से आता है। भोंसले शासन काल में माधवराव प्रमुख पदों पर काम कर चुके थे। 1854 में भोंसले राज्य का ब्रिाटिश राज में विलय कर लिया गया। माधवराव अँग्रेज़ों के सम्पर्क में भी थे। माधवराव की नागपुर के पास भण्डारा में काफी ज़मीन-जायदाद थी। अपनी सम्पत्ति की देखभाल के लिए वे अक्सर भण्डारा जाते थे। उन दिनों फ्रेज़र भण्डारा में नियुक्त थे। माधव राव और फ्रेज़र की अक्सर मुलाकात और बातचीत होती थी। माधव राव ने अपने दोनों बेटों - गंगाधर राव और शंकर राव की पढ़ाई बम्बई विश्वविद्यालय में करवाई थी। माधव राव ने अपनी मृत्यु से पहले फ्रेज़र से मुलाकात कर अपने बेटों के बारे में बातचीत की। फ्रेज़र ने अपने मित्र को आश्वस्त किया कि जब गंगाधर राव पारिवारिक जायदाद की देखभाल करने वाले हैं तो छोटे बेटे शंकर राव को स्टेट्यूटरी सिविल सेवा के तहत सेंट्रल प्रोविंसेस में नियुक्ति दी जा सकती है। दरअसल, उस समय की भारत सरकार ने स्टेट्यूटरी सिविल सेवा के तहत सेंट्रल प्रोविंसेस को दो पदों पर नियुक्ति का अधिकार दिया था। इनमें से एक पद पर औलाद हुसैन के बेटे को नियुक्तिदी गई थी। दूसरे पद पर शंकर राव आसीन हुए। फ्रेज़र की गंगाधर राव और शंकरराव से भी खासी दोस्ती थी।


विपिन कृष्ण बोस: शासकीय अधिवक्ता के रूप में लम्बे समय सेंट्रल प्रोविन्स के मुख्यालय में काम किया था।

औलाद हुसैन: जबलपुर-सिवनी में सेटलमेंट ऑफिसर के रूप में काम किया।


गंगाधर राव ने काफी समय नागपुर म्यूनिसिपैलिटी के अध्यक्ष के रूप में काम किया। वहीं शंकरराव ने डिप्टी कमिश्नर, डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट जैसे पदों पर काम किया।

फ्रेज़र अपने आत्मकथ्य में शंकरराव के परिवार के साथ दोस्ती के बारे में बताते हैं। फ्रेज़र जब नागपुर में कमिश्नर के ओहदे पर काम कर रहे थे तो एक बार वे आधिकारिक दौरे पर बालाघाट गए हुए थे। वहाँ शंकर राव डिप्टी कमिश्नर थे। बातचीत के दौरान फ्रेज़र को मालूम हुआ कि शंकर राव की पत्नी अपने पति के कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चलने में यकीन रखती है। एक दिन लेडी फ्रेज़र और मिस्टर फ्रेज़र को शंकर राव के घर रात के खाने का न्यौता मिलता है। वहाँ पहुँचकर फ्रेज़र शंकर राव की पत्नी से मराठी में बातचीत करते हैं क्योंकि शंकर राव की पत्नी इंग्लिश नहीं बोल पाती थीं। शंकर राव लेडी फ्रेज़र से इंग्लिश में बतिया रहे थे। फ्रेज़र उस शाम को अपनी यादगार शाम बताते हैं।

कुछ समय बाद, एक बार फिर इन चारों की मुलाकात वर्धा में हुई। शंकर


गंगाधर राव: वॉयसराय की काउंसिल में सेंट्रल प्रोविन्स से प्रतिनिधित्व करते थे।

राव बहादुर भार्गो राव: नागपुर की अदालत में जज के रूप में कार्य किया था। बाद में उन्हें राव बहादुर के खिताब से नवाज़ा गया।


राव की पोÏस्टग उन दिनों वर्धा में थी। इस बार भोजन के दौरान फ्रेज़र ने शंकर राव की पत्नी से मराठी में बातचीत शुरू की तो शंकर राव की पत्नी ने काफी अच्छे से अँग्रेज़ी में जवाब दिए और फ्रेज़र को बताया कि उन्होंने स्टेशन मास्टर की पत्नी और एक मिशनरी कार्यकर्ता की मदद से इंग्लिश पाठ पूरे किए हैं। उन्होंने यह भी बताया कि उनके पति ने उनसे कहा था कि वे जल्द ही इंग्लैंड प्रवास पर जा सकते हैं। शंकर राव की पत्नी अपने पति के साथ विदेश जाना चाहती थी इसलिए उन्होंने इंग्लिश सीखना ज़रूरी समझा। फ्रेज़र बताते हैं कि शंकर राव पत्नी के साथ इंग्लैंड गए और वहाँ से लौटकर उनकी पत्नी ने मराठी भाषा में अपनी विदेश यात्रा के अनुभव भी लिखे।

बिपिन कृष्ण बोस अपनी किताब - स्ट्रे थॉट्स ऑन इंसिडेंट्स ऑफ माय लाइफ - में बताते हैं कि फ्रेज़र से उनकी दोस्ती उसी समय से थी जब वे इस प्रान्त में आए थे। सेवानिवृत्ति के बाद फ्रेज़र इंग्लैंड लौट गए लेकिन सेंट्रल प्रोविंसेस के लोगों के प्रति उनकी सद्भावनाएँ और दोस्ती बनी रही। मार्च 1919 में स्थानीय लेजिस्लेटिव काउंसिल का सत्र चल रहा था और फ्रेज़र की मौत की सूचना मिली, तब उस सत्र में सब ने फ्रेज़र को याद किया था।

फ्रेज़र के दोस्तों की फेहरिस्त में राम्भाजी राव, बापू राव पटवर्धन, राय बहादुर भार्गो राव शामिल थे। इन सभी ने फ्रेज़र के साथ काम किया था। फ्रेज़र के मुताबिक ये सभी मित्र अपने काम में दक्ष थे और बिना लाग- लपेट के सलाह-मशविरा देते थे।

अभिजात्य परिवारों के अलावा वकील, डॉक्टर, शिक्षक, छोटे अधिकारी, अखबार के सम्पादक आदि व्यवसायों से जुड़े लोग भी विविध मौकों पर ब्रिाटिश अफसरों या उनके परिवार के सम्पर्क में आते थे।

सेंट्रल प्रोविंसेस में शासक और स्थानीय अभिजात्य वर्ग की मित्रता के ये परिवार उदाहरण मात्र हैं। नागपुर के अलावा अन्य मुख्यालयों में भी ब्रिाटिश अफसरों से निकटता रखने वाले भारतीय परिवार थे। यकीनी तौर पर इन परिवारों को ब्रिाटिश अफसरों से निकटता का लाभ मिला और वे नई प्रशासनिक व्यवस्था में भी प्रभावशाली परिवार के रूप में स्थापित हुए। इन सम्बन्धों में दोस्ती के लिहाज़ से वाकई कितनी दोस्ती थी, यह कह पाना मुश्किल है। लेकिन ये तीन-चार परिवार या ऐसे अन्य परिवार ब्रिाटिश और भारतीय जनता के बीच एक सेतु का काम करते थे। ब्रिाटिश नीतियों के सम्बन्ध में भारतीय अभिमत रखने जैसे काम ये लोग कर पाते थे।

दोस्त के नाम पर कॉलेज  
बिपिन कृष्ण बोस अपनी किताब में अँग्रेज़ी अफसरों से दोस्ती की एक मिसाल देते हैं। 1883 में मॉरिस सेवा-निवृत्त हुए। उन्होंने नागपुर में लगभग 15 साल तक चीफ कमिश्नर के पद पर काम किया था। उनके अनेक भारतीय और ब्रिाटिश दोस्तों को लगता था कि मॉरिस के नाम पर कुछ तो सृजनात्मक काम किया जाना चाहिए। मॉरिस भी अपने कार्यकाल के अन्तिम वर्षों में अपने नाम पर कुछ हो, इसके इच्छुक दिख रहे थे। सेंट्रल प्रोविंसेस का मुख्यालय नागपुर था लेकिन यहाँ कोई कॉलेज नहीं था। इस प्रान्त के युवाओं को कॉलेज स्तर की पढ़ाई के लिए बम्बई, पूना, आगरा, इलाहाबाद या ऐसी ही किन्हीं अन्य जगहों पर जाना पड़ता था। शिक्षा में रुचि को देखते हुए एक सुझाव यह भी था कि क्यों न मॉरिस के नाम पर नागपुर में एक कॉलेज स्थापित किया जाए। मॉरिस के दोस्तों को यह विचार अच्छा लगा तो कॉलेज के लिए फंड जुटाने से लेकर प्रोफेसर खोजने तक के सारे काम मिलकर किए गए, और आखिरकार मॉरिस कॉलेज पढ़ाई के लिए खुल गया। बिपन कृष्ण बोस ने तो शुरू में

मॉरिस कॉलेज

1884 तक सेंट्रल प्रोविंसेस में कोई कॉलेज नहीं था। वैसे तो यह शासन का दायित्व था कि वह कॉलेज की शुरुआत करे। लेकिन शिक्षा विभाग यह सोच रहा था कि नए सिरे से किसी कॉलेज को खोलने की बजाय जबलपुर के गवर्मेंट हाई स्कूल के स्तर को बढ़ाना एक बेहतर विकल्प हो सकता है।

मॉरिस ने अपने शासन काल के अन्तिम वर्षों में इस प्रान्त में उच्च शिक्षा की सम्भावनाओं को लेकर डिवीज़न के कई अफसरों से विचार-विमर्श किया था। मॉरिस के रिटायरमेंट के बाद सेंट्रल प्रोविंस में चारों डिवीज़न के वरिष्ठ अधिकारी इस बात पर सहमत थे कि मॉरिस के नाम पर एक कॉलेज अवश्य खोला जाना चाहिए। लेकिन कॉलेज कहाँ खुलना चाहिए इसे लेकर मतभेद थे। नागपुर और रायपुर डिवीज़न मॉरिस कॉलेज नागपुर में देखना चाहते थे। भोंसले शासकों के शासन के समय से ही रायपुर-बिलासपुर खुद को नागपुर के करीब पाता था। नागपुर से रेल सम्पर्क कायम होने के बाद यह निकटता और भी बढ़ गई थी।

नागपुर में स्कॉटिश मिशनरियों द्वारा संचालित हाई स्कूल को मिशनरियों ने 1884 में हिस्लॉप कॉलेज का रूप दिया था। यह कॉलेज कलकत्ता विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था। इसमें दो साल की इंटरमीडिएट स्तर की पढ़ाई करवाई जाती थी। इसके बाद दो साल की बी.ए. की पढ़ाई की जा सकती थी, लेकिन कॉलेज बी.ए. की परीक्षा नहीं लेता था। यह कॉलेज काफी सीमित रूप से काम करता था इसलिए इलाके के सभी छात्रों के लिए उपलब्ध नहीं था। इस कॉलेज से जुड़े लोग नागपुर में मॉरिस कॉलेज बनाने के खिलाफ थे।

वहीं जबलपुर डिवीज़न नया कॉलेज जबलपुर में देखना चाहता था। लेकिन इसके लिए खास वजह थी कि जबलपुर के गवर्मेंट हाई स्कूल को कॉलेज का स्तर देने की चर्चा ज़ोरों पर थी। जबलपुर में कॉलेज खोलने के प्रयासों में होशंगाबाद डिवीज़न, जबलपुर के साथ था। अन्तत:, मॉरिस कॉलेज के लिए नागपुर का दावा सफल हुआ।

चारों डिवीज़न से मॉरिस कॉलेज के लिए वित्तीय सहयोग की अपील की गई। जबलपुर और होशंगाबाद डिवीज़न ने तय किया कि वे अपने इलाके में इकट्ठा धन राशि को जबलपुर के सरकारी हाई स्कूल को देंगे। शायद यह सोचकर कि इस तरीके से हाई स्कूल को कॉलेज का दर्जा देने की प्रक्रिया थोड़ी तेज़ी से चलेगी। मॉरिस कॉलेज को नागपुर में खोलने के लिए जब आम और खास लोगों से फंड इकट्ठा किया जाने लगा तो नागपुर-रायपुर-बिलासपुर के इलाके से लगभग पौने दो लाख रुपए का सहयोग मिला था। होशंगाबाद-जबलपुर डिवीज़न ने लगभग 75 हज़ार रुपए का सहयोग जबलपुर के हाई स्कूल को दिया।

खैर, 1 जून 1885 को नागपुर में मॉरिस कॉलेज शुरू हुआ। यह कलकत्ता विश्व - विद्यालय से सम्बद्ध था और यहाँ से एम.ए. स्तर की पढ़ाई की जा सकती थी।

कुछ समय यहाँ लॉ की कक्षाओं में पढ़ाया भी था।

आम जनता से मेल-जोल  
स्थानीय लोगों की ब्रिाटिश जनों से दूरी बने रहने का एक कारण भाषा और संस्कृति की भिन्नता थी तो वहीं ब्रिाटिश शासन द्वारा किए गए अत्याचार के किस्से एक जगह से दूसरी जगह पहुँचते थे, जो इस दूरी को और बढ़ाते ही थे।

फ्रेज़र अपने शुरुआती दिनों के बारे लिखते हैं कि वे मौका पाकर स्थानीय लोगों के विवाह समारोह या अन्य उत्सवों में जाते थे और लोकाचारों को समझने की कोशिश करते थे। लेकिन वे इस बात का ध्यान ज़रूर रखते थे कि उनकी मौजूदगी की वजह से मेजबान को धार्मिक या जातिगत परेशानी का सामना न करना पड़े। कई दफा कैम्प के दौरान गाँव के लोग आकर फ्रेज़र से बातचीत करते थे। फ्रेज़र का अनुभव था कि इस तरह आम लोगों में रुचि लेने की वजह से परस्पर विश्वास बढ़ता था।

कुछ बहुत खास मौकों पर ब्रिाटिश सरकार गरीब व साधारण लोगों के साथ सांस्कृतिक मेल-जोल का आयोजन भी करती थी, जैसा महारानी विक्टोरिया के लिए एक जश्न मनाकर किया गया। ब्रिाटेन की महारानी विक्टोरिया 1837 में राजसिंहासन पर आसीन हुई थीं। 1897 में ब्रिाटेन की महारानी के राजकाल के 60 साल पूरे होने के अवसर पर पूरे भारत में इस यादगार मौके को मनाया जा रहा था। शिमला में वॉयसराय एक बड़ा उत्सव मना रहे थे। सेंट्रल प्रोविंसेस में भी इस मौके को एक उत्सव की तरह मनाने का विचार बना। हालाँकि, इस प्रान्त के कुछ इलाकों में एक साल पहले (1896) पड़े अकाल के ज़ख्म अभी तक भरे भी न थे। फिर भी, इस मौके पर आम जनता की ज़्यादा-सेज़्यादा भागीदारी सुनिश्चित करने की कोशिश शासन द्वारा की गई थी।

रिचर्ड टेम्पल: सेंट्रल प्रोविंसेस के चीफ कमिश्नर के रूप में काम करते हुए अपनी अलग पहचान कायम की।

नागपुर के टाउन हॉल में बड़ा जमावड़ा था। यहाँ से 20 जून को उत्सव की शुरुआत हुई। गरीबों को खाना खिलाने, एक्रोबेट-जगलरों के हुनर और आतिशबाज़ी का आयोजन किया गया। शासन ने 205 कैदियों की रिहाई के आदेश जारी किए। यहाँ के अभिजात्य वर्ग ने भी काफी सक्रियता दिखाई।

रायपुर में इस आयोजन के दौरान अकाल राहत कार्य कर रहे मज़दूरों को तीन दिन का सवैतनिक अवकाश दिया गया। मिठाई-कपड़े बाँटे गए व स्कूली बच्चों के कार्यक्रम आयोजित किए गए।

जबलपुर में हितकारिणी सभा, अंजुमन इस्लामिया और ओरिएंटल क्लब ने अलग-अलग आयोजन किए। शासन ने 227 कैदियों की रिहाई के आदेश दिए।

होशंगाबाद में डिवीज़न के सभी प्रमुख शहरों - सिवनी मालवा, हरदा, पचमढ़ी एवं सोहागपुर में आयोजन हुए जिनमें भाषण दिए गए, खेलकूद हुए और भोजन बाँटा गया।

  मौत की वजह थी कई  

19वीं सदी में सामान्य मौत के अलावा मौत की प्रमुख वजह कुछ बीमारियाँ और महामारियाँ थीं जिनसे बड़ी संख्या में लोग मारे जाते थे। इन बीमारियों में मलेरिया, प्लेग, कॉलरा, डायरिया, इंफ्लु ज़ा, स्मॉल पॉक्स आदि थे। कुछ दफा मौत के लिए युद्ध और अकाल भी ज़िम्मेवार होते थे।

ईस्ट इंडिया कम्पनी की बंगाल और मद्रास में बढ़ती गतिविधियों के साथ बड़ी संख्या में ब्रिाटिश लोग फौजी या सिविल सेवाओं के लिए भारत आने लगे। एकदम फर्क आबोहवा और परिस्थितियों में रहते हुए कई ब्रिाटिश मौत के हवाले हो जाते थे। 1833 में बंगाल सरकार ने एक कमेटी का गठन किया जिसे पता करना था कि भारत आने के बाद ब्रिाटिश लोगों के जीवित रहने की क्या सम्भावना होती है। कमेटी ने बंगाल सिविल सेवा (1790-1831), फोर्ट सेंट जॉर्ज (मद्रास) के तहत कम्पनी ऑफिसर और बंगाल आर्मी (1760 के बाद से) का अध्ययन किया और बताया कि भारत आने वाले हर 20 साल के ब्रिाटिश व्यक्ति की अगले 24.1 साल तक जीवित रहने की प्रत्याशा या सम्भावना है।

1857 के बाद बीमारियों और मौतों के आँकड़ों को सिलसिलेवार एकत्रित किया गया था। यहाँ हम दो प्रमुख प्रेसीडेंसियों- बंगाल और बम्बई में ब्रिाटिश और भारतीय सिपाहियों के आँकड़ों का ब्यौरा दे रहे हैं। इन आँकड़ों में किसी फौजी के एक से ज़्यादा बार अस्पताल में भर्ती होने पर उसे हर बार नई भर्ती माना गया है, इसलिए सैन्य बल से भर्ती की संख्या ज़्यादा है।

किसी सरकारी आयोजन की तरह यह उत्सव निपट गया। 20वीं सदी में जैसे-जैसे आज़ादी के लिए कोशिशें तेज़ होती गईं, ब्रिाटिशजनों की आमजनों से दोस्ती की गुंजाइश कम होती गई।

अवशेषों के बीच  
होशंगाबाद का कब्रागाह अँग्रेज़ी हुकूमत के स्थानीय संसार के बारे में कई जिज्ञासाएँ जगा जाता है।

ऑर्थर गोर की कब्रा और यादगार पत्थर: बंगाल स्टाफ कॉर्प के मेजर ऑर्थर गोर प्रिस्टले की मृत्यु 17 अक्टूबर 1869 को होशंगाबाद में हुई। मृत्यु के समय उनकी उम्र 40 साल थी। उन्हें होशंगाबाद में ईसाई कब्रिास्तान में दफनाया गया था। ऑर्थर सन् 1845 से भारत में सेवारत थे, वे इंजीनियर थे और सर्वेकार्य में दक्ष थे।

सेंट्रल प्रोविंसेस में अपनी अलग पहचान बनाने वाले उच्च अधिकारी जैसे रिचर्ड टेम्पल, जॉन मॉरिस, चाल्र्स इलियट, लिंडसे नेल, एंड्रयू फ्रेज़र आदि ने अपनी आखिरी साँस अपने नातेरिश्तेदारों के बीच इंग्लैण्ड में ली थी। लेकिन कई अँग्रेज़ लोगों के जनाज़े यहाँ निकले थे। मौत सामान्य वजहों से होती थी या फिर कॉलरा जैसी बीमारियों के चलते भी। भारत की आबोहवा में ब्रिाटिश लोगों को कितना जीवन मिल सकता है, यह सरकारी चिन्ता का विषय था और, इस पर कुछ अध्ययन भी हुए (देखिए बॉक्स)। अँग्रेज़ सिपाहियों का स्थानीय संसार भी अपनी तरह से अलग रहा होगा। मैं सोचने लगा कि इस संसार में अवशेषों के बीच अभी बहुत कुछ खोजना बाकी है।


माधव केलकर: संदर्भ पत्रिका से सम्बद्ध।

इस लेख के लिए उपयोग किए गए सन्दर्भ इस प्रकार हैं:

  1. Cambridge Economic History of India, Vol 2 edited by Dharma Kumar.
  2. Among Indian Rajahs & Ryots: a Civil Servants Recollection & Impressions of Thirty Seven Years of Work & Sports in The Central Provinces & Bengal - Sir Andrew Fraser, Publisher - Seeley&co Limited 1911
  3. Stray Thoughts On Some Incidents In My Life - Sir Bipin Krishna Bose.
  4. Colonial Administration and Social Developments in middle India: The Central Provinces, 1861- 1921, Ph.D. Dissertation - 1980, Philip F. McEldowney, University of Virginia.