चेतना खरे

शरीर के आंतरिक अंगों की बात आते ही जहन में कई नाम आने लगते हैं जैसे पाचन तंत्र, श्वसन तंत्र, प्रजनन तंत्र, रक्त परिसंचरण तंत्र, तंत्रिका तंत्र... आदि। लेकिन इन सबके अलावा शरीर में एक काफी महत्वपूर्ण तंत्र और भी है जिसे सामान्यतः अनदेखा कर दिया जाता है। यह हैः लसिका तंत्र या लिम्फेटिक सिस्टम। इस तंत्र की मदद से हम बाहरी हमलावरों से बचाव और अपने अंदर की व्यवस्था की देखरेख, दोनों कर पाते हैं।
लसिका तंत्र को अक्सर रक्त परिसंचरण तंत्र का एक हिस्सा भर मान लिया जाता। है, जबकि यह अपने आप में एक विशिष्ट व्यवस्था है। हां, हम यह ज़रूर कह सकते हैं। कि इन दोनों में काफी नजदीकी रिश्ता है। आगे की चर्चा के दौरान हम लसिका तंत्र को समझने के साथ ही, इसके और रक्त परिसंचरण तंत्र के बीच के संबंध और अंतर दोनों को समझने की कोशिश करेंगे।
लसिका तंत्र लसिका नामक द्रव युक्त अत्यंत बारीक नलियों के जाल, लिम्फ बहने वाली अन्य नलियों और कुछ अन्य लिम्फेटिक अंगों जैसे तिल्ली, टॉन्सिल्स, लिम्फ-नोड्स आदि के रूप में पूरे शरीर में फैला हुआ है। हम ये कह सकते हैं कि जहां तक रगों में खून दौड़ता है वहां तक लसिका तंत्र भी पहुंच रखता है। लसिका की बात करने से पहले रक्त परिसंचरण तंत्र पर एक नज़र डाल लेना उचित होगा।

खून पर एक नज़र
खून एक तरल ऊतक (Tissue) है। जो शरीर में मौजूद प्रत्येक कोशिका तक पोषण व ऑक्सीजन पहुंचाता है: और शरीर के लिए हानिकारक व अनुपयोगी पदार्थों का, उन्हें बाहर निकालने वाले अंगों की तरफ लगातार वहन करता है। खून को संरचनात्मक स्तर पर दो भागों का बना हुआ माना जाता है: तरल भाग प्लाज्मा और उसमें मौजूद कोशिकाएं जिन्हें कणिकाएं भी कहा जाता है। प्लाज्मा खून का निर्जीव हिस्सा है जिसमें लगभग 90 प्रतिशत पानी और 10 प्रतिशत कार्बनिक व अकार्बनिक पदार्थ शामिल हैं। विभिन्न आकार व भार वाले कई प्रोटीन, पचा हुआ भोजन, हार्मोन, एंजाइम तथा नाइट्रोजनी पदार्थ जैसे अमोनिया, यूरिया, यूरिक अम्ल मिलकर प्लाज्मा का कार्बनिक भाग बनाते हैं जबकि सोडियम क्लोराइड, सोडियम कार्बोनेट तथा अन्य कई लवण प्लाज्मा के अकार्बनिक घटक हैं।

खून में मौजूद कणिकाओं को तीन समूहों में रखा जाता है - RBC, WBC तथा प्लेटलेट्स। RBC या लाल रक्त कणिकाएं चकती जैसी होती हैं। ये ही फेफड़ों से ऑक्सीजन को ढोकर सारे शरीर तक पहुंचाती हैं और इन्हीं के कारण खून का रंग लाल होता है। WBC या श्वेत रक्त कणिकाएं लाल रक्त कणिकाओं की तुलना में काफी कम संख्या में कई आकारों में पाई जाती हैं। श्वेत रक्त कोशिकाएं दरअसल हमारे शरीर का रक्षा मंत्रालय' है। जिसमें विभिन्न तरह के हथियारों से लैस सैनिक कोशिकाएं मौजूद हैं। लिम्फोसाइट कोशिकाएं भी दरअसल इन्हीं में से एक हैं। प्लेटलेट्स की संख्या लाल रक्त कोशिकाओं से कम होती है। परन्तु श्वेत रक्त कोशिकाओं से ज्यादा। वे भी चकती के आकार की होती हैं। चोट लगने पर बहते हुए खून का थक्का जमाने में इनका प्रमुख योगदान होता है। लाल वु.श्वेत रक्त कोशिकाओं तथा प्लेटलेट्स तीनों का ही जन्म तो अस्थिमज्जा में होता है (भ्रूणीय अवस्था में तिल्ली/प्लीहा में), किन्तु इनका लालन-पालन अलग-अलग जगहों पर होता है। लाल रक्त कोशिकाएं तथा प्लेटलेट्स तो अस्थि मज्जा में ही पलबढ़ जाती हैं जबकि श्वेत रक्त कोशिकाओं में से कुछ विशेष कोशिकाएं थाइमस में जाकर विकसित होती हैं। तीनों ही तरह की कोशिकाएं अंततः खून में पहुंच जाती हैं, जहां ये अपने-अपने कामों को बखूबी अंजाम देती हैं।

लिम्फ/लसिका दरअसल है क्या?
हमें मालूम है कि दिल की पम्पिंग की वजह से खून धमनियों के जरिए केशिकाओं के जाल में पहुंच जाता है। परन्तु अभी भी पोषक पदार्थों को शरीर की प्रत्येक कोशिका तक पहुंचना शेष है। इसलिए धमनियों की ओर वाले केशिका जाल से प्लाज्मा व अन्य पदार्थ रिसकर अन्य कोशिकाओं के बीच फैल जाते हैं। इसे ही अंतर-कोशिकीय द्रव कहते हैं जिसमें शरीर की ज्यादातर कोशिकाएं डूबी रहती हैं।

अंततः इस रिसे हुए अंतरकोशिकीय द्रव का लगभग 9/1 0 हिस्सा शिराओं की ओर वाला केशिका जाल सोख लेता है। अंतर-केशिकीय द्रव के बचे हुए लगभग 110 हिस्से में मुख्यतः लिम्फोसाइट, कुछ अन्य श्वेत रक्त कोशिकाएं, प्रोटीन व प्लाज्मा होता है। यही सब जब लसिकीय केशिकाओं में पहुंच जाता है तो लिम्फ या लसिका कहलाता है। चूंकि लसिका में लाल रक्त कोशिकाओं जैसी कोई रंगीन कोशिकाएं नहीं होती इसलिए यह पनीला व रंगहीन दिखता है; इसलिए इसे पहचानना या देख पाना आसान नहीं है। 

खून का संगठनः इंसानी खून में लाल एवं श्वेत रक्त कणिकाओं के अलावा प्लेटलेट्स, लवण, अमीनो अम्न वगैरह भी मौजूद होते हैं। रक्त कोशिकाओं का माइक्रोस्कोप से लिया गया फोटोग्राफ - जिसमें लड्डू की आकृति वाली श्वेत रक्त कणिकाएं और चपटी गोलाकार लाल रक्त कणिकाएं दिखाई दे रही हैं। आम तौर पर लाल कणिकाओं का व्यास लगभग 8 माइक्रोमीटर व मोटाई 2 माइक्रोमीटर होती है. श्वेत रक्त कणिकाओं का व्यास 8-15 माइक्रोमीटर और प्लेटलेट्स का साइज़ लगभग 2-3 माइक्रोमीटर होता है।

खून का बहाव
हमारे शरीर में खून का वितरण केन्द्र ‘दिल' है जो कि पम्प की तरह काम करता है। दिल की दो प्रमुख जिम्मेदारियां हैंः सारे शरीर से इकट्ठा किए गए ऑक्सीजन की कमी वाले खून को फेफड़ों तक पहुंचाना और फेफड़ों से होकर गुजरे पर्याप्त ऑक्सीजन वाले खून को शरीर के सभी भागों को देना। दिल तीन तरह की नलियों की मदद से ये लेनदेन कर पाता है। ये तीनों तरह की नलियां मिलकर एक घना जाल बनाती हैं जो पूरे शरीर में फैला रहता है। ये नलियां हैं - धमनियां (Arteries), शिराएं (Veins) तथा केशिकाएं (Capillaries)।
धमनी का काम खून को दिल से शरीर के विभिन्न अंगों तक ले जाना है जबकि शिराएं खून को इकट्ठा करके दिल तक पहुंचाती हैं। दिल की पम्पिंग क्रिया के कारण धमनियों में खून काफी दबाव से एक ही दिशा में बहता रहता है। शिराओं में तो इस तरह का कोई दाब नहीं होता, इसलिए इनमें जगह-जगह पर वाल्व पाए जाते हैं। ये वाल्व वन-वे' गेट की तरह होते हैं जो कि खून को एक ही दिशा में बहने देते हैं और उल्टी दिशा में जाने से रोकते हैं। शिराओं की दीवारों में लगातार होने वाले संकुचन-फैलाव से भी खून के बहाव को मदद मिलती है। धमनियों और शिराओं में सामान्य अवस्था में रक्त औसतन 5 लीटर प्रति मिनट (लगभग 83 मिलीलीटर/सेकेंड) की दर से बहता है।
शिराओं का वाल्व : जो खून को उल्टी दिशा मे बहने से रोकता है।
सभी धमनियाँ और शिराएँ कई महीन शाखाओं मे बटीं होती है हर धमनी अंतत: बाल की मोटाई से भी कम व्यास वाली पतली नालियों में बंट जाती है जिन्हें केशिकाएं कहते हैं। इनका व्यास लगभग दस माइक्रो मीटर यानी 10x1 0-6 मीटर होता है। ये केशिकाएं ही आगे चलकर शिराओं से जुड़ जाती हैं। हम कह सकते हैं कि धमनी और शिराओं को जोड़ने वाली अत्यंत बारीक नलियां ही केशिकाएं हैं। केशिकाओं में खून बहने की गति काफी धीमी (0.5 से 1 मिलीलीटर/सेकेंड) होती है। इसे रक्त केशिका जाल की कुल लंबाई लगभग एक लाख किलोमीटर होती है और उन सबकी सतह का क्षेत्रफल मिलाकर 800-1000 वर्ग मीटर होगा। पर मजे की बात यह है कि आराम की स्थिति में इतनी बड़ी जगह में केवल 75100 मिली लीटर खून भरा रहता है, जो कि शरीर के पूरे खून का काफी छोटा हिस्सा है। आराम की स्थिति में खून का काफी बड़ा हिस्सा शिराओं और उसकी शाखाओं में भरा होता है।                                                              
केशिकाएं एकदम पतली दीवारे युक्त होती हैं। केशिकाओं के धमनी वाले हिस्से में दाबे ज्यादा जबकि शिरा वाले हिस्से में दाब कम (धमनी वाले सिरे पर 32-35 मिलीमीटर ऊंचे पारे के स्तम्भ के बराबर और शिरा वाले सिरे पर 12 मिलीमीटर के पारे के स्तम्भ के बराबर) होता है। इसी कारण केशिकाओं के धमनी वाले हिस्से से खून का कुछ हिस्सा इन पतली दीवारों से रिस-रिस कर बाहर कोशिकाओं के बीच की जगह में भर जाता है। दरअसल केशिकाओं के अंदर से लाल रक्त कणिकाएं और अधिक बड़े प्रोटीन्स को छोड़कर कई चीजें बाहर निकल आती हैं। इसमें मुख्यतः श्वेत रक्त कणिकाएं, प्लेटलेट्स, छोटे प्रोटीन्स तथा प्लाज्मा वाला भाग शामिल है। इस रिसे हुए अन्तर-कोशिकीय द्रव का अधिकांश भाग (9/10) और साथ ही कुछ अन्य पदार्थ शिराओं की ओर के केशिका जाल द्वारा सोख लिए जाते हैं। और अंततः यह खून शिराओं की मदद से फिर से दिल तक जा पहुंचता है। इस पूरे रास्ते को हम मोटे तौर पर कुछ इस तरह दर्शा सकते हैं।

लसिका परिवहन के रास्ते   
कोशिकाओं के बीच पाई जाने वाली लसिकीय केशिकाएं एक सिरे से बंद तथा बारीक छेदों वाली चलनी की तरह होती हैं। ये भी खून की केशिकाओं की तरह केवल एक कोशिका जितनी ही मोटी होती हैं परन्तु इनकी कोशिकाओं के सिरे एक-दूसरे पर कुछ इस तरह चढ़े रहते हैं कि ये अंतर कोशिकीय द्रव को अंदर तो आने देते हैं पर लौट कर वापस नहीं जाने देते। यहां भी ‘वन-वे ट्रेफिक' चलता है। दिनभर में लगभग 3 लीटर अंतरकोशिकीय द्रव इस लसिकीय केशिका जाल में दाखिल होकर लिम्फ कहलाने लगता है।
लसिकीय केशिकाओं के जाल मिलकर थोड़ी बड़ी लसिकीय वाहिनियों में जुड़ जाते हैं। ये पारदर्शक होती हैं और इनके अंदर बहते द्रव को साफ देखा जा सकता है। इनके अंदर भी उल्टी दिशा के बहाव को रोकने के लिए वाल्व पाए जाते हैं जो कि बड़ी नलियों में कुछ मिलीमीटर की दूरी पर, जबकि छोटी नलियों में तो और पास-पास होते हैं। इसी वजह से इन्हें लसिका शिरा कहना उचित लगता है।

लिम्फ का बहाव खून की तुलना में काफी धीमा होता है। ये एक से डेढ़ मिली लीटर प्रति मिनिट की दर से बहता है। इसकी तुलना में खून का बहाव आमतौर पर लगभग पांच हजार गुना तेज़ होता है।
जिस तरह खून के बहाव को दिल की पम्पिंग क्रिया से चलाया जाता है, वैसे ही लिम्फ का बहाव ऊतकों की गति से संचालित होता है। इसके अलावा इसे कंकालीय पेशियों और श्वसन के दौरान सांस लेने और छोड़ने की क्रिया से गति मिलती है।
कभी-कभी ज्यादा देर तक बैठे रहने पर आलस व सुस्ती-सी लगने लगती है और इस स्थिति में उठकर कुछ देर इधर-उधर घुमने-फिरने व थोड़ा टेढ़ामेढ़ा होने से सुस्ती थोड़ी उतरने लगती है। दरअसल, आराम की स्थिति में लसिका जगह-जगह भर जाती है और इसका सतत बहाव अपनी सामान्य गति से नहीं होता, थोड़ा हिलने डुलने से हुई पेशीय गति से इसे गति मिलती है और हम फुर्ती महसूस करने लगते हैं।

चेकपोस्ट - लसिकीय गठानें   
लिम्फ को ले जाने वाले रास्तों के बीच-बीच में कई चेक पोस्ट पाए जाते हैं जहां मौजूद भक्षक कोशिकाएं काफी मुस्तैदी से अपना काम करती रहती हैं। इन चेक पोस्ट को लसिका
गठाने कहते हैं। शरीर के कुछ हिस्सों मे इनकी संख्या काफी ज़्यादा होती है जैसे बगल, गले, स्तन, जांघ आदि में।

चित्र एकः धमनी, शिरा, रक्त केशिकाओं के जाल व ऊतक के बीच शुरू होती लिम्फ केशिकाएं।
चित्र दो: अंतर-कोशिकीय द्रव का दबाव लिम्फ केशिका के अंदर के दबाव से ज्यादा होता है इसलिए लिम्फ केशिका की दीवार पर अंतर-कोशिकीय द्रव दबाव डालता है। लिम्फ केशिका की एक कोशीय दीवार की संरचना ऐसी होती है कि बाहर से दबाव पड़ने पर उसमें बारीक छिद्र बन जाते हैं जिनमें द्रव अंदर जाकर अंतर-कोशिकीय लिम्फ का स्वरूप ले लेता है।
स्पष्टता के लिए इस चित्र का रंगीन स्वरूप पिछले पृष्ठ के अंदरूनी हिस्से पर दिया जा रहा है।

कः लिम्फ गठान की आंशिक काट।
खः लिम्फ गठान के एक हिस्से का इलेक्ट्रॉन माइक्रोग्राफ (100x)

रोग-संक्रमण के दौरान कई बार हम बगल, गले और जांघों के जोड़ में मौजूद लिम्फ नोड्स यानी लसिका गठनों को छूकर पहचान सकते हैं। इसके अलावा कमर, छाती और पीठ के कुछ हिस्सों में भी लिम्फ-नोड्स काफी तादाद में होती हैं।
लिम्फ-नोड सेम के बीज जैसी आकृति वाली संरचना है जो कि रेशेदार संयोजी ऊतक से घिरी रहती है। इसके उभरे हुए भाग में कई सारी नलिकाएं जुड़ी होती हैं जो लिम्फ को लेकर आती हैं। दूसरी ओर एक गड्ढ़ा-सा होता है जिसमें से लिम्फ को बाहर ले जाने वाली एक या दो वाहिनियां निकलती हैं।
लिम्फ-नोड की खड़ी काट में बहुत से छोटे खाने दिखते हैं। इन सभी खानों में विशेष प्रकार की भक्षक कोशिकाएं भरी रहती हैं। जब लिम्फ इन खानों से गुजरता है तो उसमें मौजूद जीवाणुओं व अन्य हमलावरों को ये भक्षक कोशिकाएं खा जाती हैं। टूटी - फूटी कोशिकाओं को भी अलग करके खत्म कर दिया जाता है। इस तरह यह लिम्फ जीवाणुओं व अन्य हमलावरों से मुक्त होकर बाहर जाने वाले रास्तों से आगे की ओर बढ़ जाता है। ये भक्षक कोशिकाएं वही लिम्फोसाइट कोशिकाएं हैं जो कि अस्थि मज्जा में अपने जन्म के बाद खून के माध्यम से लिम्फ नोड्स में पहुंचती हैं। 
 
रक्त परिसंचरण तंत्र और लसिका तंत्र के बीच संबंध दिखाता हुआ चित्र। तीर खुन और लिम्फ के बहाव की दिशा को दिखा रहे हैं।

खून और लिम्फ का संगम  
पूरे शरीर की लिम्फ वाहिनियां मिलकर अंततः दो बड़ी नलियां बनाती हैं जिन्हें दाहिनी व बाईं लिम्फेटिक शिराएं या डक्ट कहा जाता है। इनमें शरीर के विभिन्न हिस्सों से इकट्ठा किए हुए लिम्फ को डाला जाता है। दाहिनी नली को बाईं वाली की तुलना में काफी छोटा हिस्सा मिला है। दाहिनी लिम्फ शिरा केवल एक-डेढ़ सेंटीमीटर लंबी होती है। सिर व गर्दन के दाएं हिस्से, दाएं हाथ, दिल में लीवर के
 
चित्र में इस बात को दिखाने की कोशिश की गई है कि लसिका केशिकाओं द्वारा इकट्ठा किया गया द्रव किस तरह दिले के पास स्थित लिम्फेटिक डक्ट के ज़रिए खून में फिर से मिल जाता है। इन्सेट में लिम्फेटिक डक्ट वाला हिस्सा बड़ा करके दिखाया गया है।

दाएं हिस्से और दाएं फेफड़े से इकट्ठा किया गया लिम्फ इस दाहिनी डक्ट में उड़ेला जाता है। बाईं लिम्फ डक्ट के पास शरीर का एक बड़ा हिस्सा है। यह सिर, गर्दन, छाती के बाएं फेफड़े तथा शरीर के पूरे निचले भागों से लिम्फ को इकट्ठा करती है। यह लगभग 38-45 सेंटीमीटर लंबी होती है। सारे शरीर का ऑक्सीजन रहित खून लाकर एक मोटी-सी महाशिरा में डाला जाता है जो कि इसे दिल के दाएं आलिन्द तक पहुंचाती है। बाईं व दाईं दोनों ही लिम्फेटिक डक्ट इकट्ठा किए हुए लिम्फ को ऊपरी महाशिरा के नजदीक सबक्लेवियन शिराओं में डाल देती हैं। इस तरह महाशिरा में ही खून और लिम्फ का फिर से संगम हो जाता है।
 
थाइमस ग्रंथिः शरीर की वक्ष गुहा के ठीक बीच में जहां दोनों ओर की पसलियां जुड़ती हैं, वहीं पर थाइमस ग्रंथि पाई जाती है। ये ग्रंथि बच्चों में काफी बड़ी होती है, परन्तु वयस्क होने के बाद ये धीरे-धीरे छोटी होती जाती है; तथा अक्सर गायब हो जाती है। इनमें मुख्यतः ‘टी' कोशिकाओं को लड़ने की दृष्टि से तैयार किया जाता है।

लिम्फोसाइट का निर्माण व विकास   
लिम्फोसाइट कोशिकाएं दरअसल एक तरह की श्वेत रक्त कोशिकाएं ही हैं जिनका निर्माण स्टेम (Stem) कोशिकाओं द्वारा अस्थि-मज्जा में होता है। शरीर की लंबी हड्डियों (जैसे जांघ व बांह की हड्डियां) में भरे लाली लिए हुए पदार्थ को अस्थि-मज्जा कहते हैं। इनमें से कुछ श्वेत रक्त कोशिकाएं थाइमस ग्रंथि में विकसित होकर परिपक्व बनती हैं। थाइमस में परिपक्व होने वाली इन श्वेत रक्त कोशिकाओं को टी-लिम्फोसाइट कहा जाता है। जो श्वेत रक्त कोशिकाएं अस्थि-मज्जा में ही परिपक्व होती हैं उन्हें बीलिम्फोसाइट कहते हैं। अस्थि-मज्जा और थाइमस को प्राथमिक लिम्फ अंग कहते हैं। इनमें विकसित हो जाने के बाद ये दोनों तरह के लिम्फोसाइट लिम्फ में घूमते रहते हैं और द्वितीयक लिम्फ अंगों में इकट्ठा होकर एंटीजन का इंतज़ार करते हैं। प्लीहा या तिल्ली (स्लीन), टॉसिल्स, अपेन्डिक्स व अन्य लिम्फ ऊतक वे अंग हैं जहां बी व टी-लिम्फोसाइट के अलावा विशाल भक्षक कोशिकाएं माइक्रोफेज भी मौजूद रहती हैं।

जब भी शरीर पर कोई हमला होता है अथवा शरीर में कोई बाहरी पदार्थ पाया जाता है तो उसे ऊतक से लिम्फ तक पहुंचा दिया जाता है। लिम्फ के बहाव के साथ-साथ ये पदार्थ लिम्फ गेठानों/ऊतकों तक पहुंच जाते हैं। यहां लिम्फोसाइट उनके एंटीजन पहचानकर, एंटीबॉडी/प्रतिरक्षी तैयार करते हैं। तत्पश्चात ये एंटीबॉडी लिम्फ और खून में घूमते-घूमते उस विशेष हमलावर या पराए पदार्थ का खात्मा करते रहते हैं। 

सबसे बड़ा लिम्फेटिक अंग : तिल्ली
तिल्ली शरीर का सबसे बड़ा लिम्फेटिक अंग है जो कि लगभग 12 सेंटीमीटर तक लंबा हो सकता है। ‘तिल्ली' डायाफ्राम के ठीक नीचे आमाशय से थोड़ा पिछली तरफ स्थित होती है। इसका रंग गहरा जामुनी होता है। इसके अंदर भी लिम्फ-नोड की तरह ही बाहरी हमलावरों (रोगाणुओं) से लड़ा जाता है, साथ ही लिम्फोसाइट्स को एकत्र करके लिम्फ तक पहुंचाया जाता है।
वैसे तिल्ली एक ऐसा अंग है जिसके न होने पर भी हमारा शरीर सामान्य रूप से काम करता रहता है। इस स्थिति में इसका काम अन्य अंग बांट लेते हैं।
हालांकि इसमें लिम्फ-नोड की तरह लिम्फ को लाने वाली नलियां नहीं होने से ये लिम्फ को छानने का काम नहीं करती; परन्तु यहां रोगाणुओं के भक्षण के साथ -साथ टूटी-फूटी और मरी हुई रक्त कणिकाओं को भी भक्षक कोशिकाएं खा जाती हैं। वैसे शुरुआती भूणीय अवस्थाओं में यह रक्त कोशिकाओं को बनाने का काम भी करती है। 

टॉन्सिल्सः मुंह-नाक-कान के छिद्रों की पहरेदारी करते हुए लिम्फ नोड्यूल्स जिन्हें हम टॉन्सिल्स के रूप में जानते हैं। संक्रमण की वजह से टॉन्सिल्स सूज जाते हैं। इस सूजन को मरीज का मुंह खुलवाकर, उसमें झांककर तो देखा ही जा सकता है लेकिन कई बार सूजन मे भी आसानी से देखी जा सकती है या हाथों में छूकर महसूस की जा सकती है। इस चित्र में टॉन्सिल्स की सूजन गले पर दिखाई दे रही है। सूजन वाले हिस्से को गोले से घेरकर दिखाया गया है।

कुछ अन्य मददगार लिम्फ अंग : टॉन्सिल्स, नोड्यूल्स
कुछ और संरचनाएं लिम्फ अंगों की तरह काम करती हैं जिन्हें वास्तव में ‘अंग' कहना भ्रामक हो सकता है। दरअसल शरीर में कई जगह लिम्फेटिक ऊतक मिलकर ‘अंडाकार-जमावट बनाते हैं, इन्हें ही लिम्फ नोड्यूल्स या लिम्फ गठानें कहा जाता है। ये नोड्यूल्स छोटे-छोटे समूहों में इधर-उधर बिखरे रहते हैं।
बाहरी हमलावरों को शरीर में घुसने के लिए कई रास्ते हैं जैसे मुंह, नाक के छेद, मूत्र-मार्ग तथा प्रजनन मार्ग। इन सभी जगहों में चिकना-सा द्रव पाया जाता है, इसे श्लेष्म कहते हैं। लिम्फ नोड्यूल्स इन सभी रास्तों के इन द्रवों में काफी तादाद में रहकर पहरेदारी करते हैं। बाहर से आने वाले हमलावरों में से अधिकांश को ये अंदर आते ही निपटा देती हैं।
शरीर के कुछ हिस्सों में ये लिम्फ नोड्यूल्स मिलकर बड़ी संरचना बनाते हैं। ऐसी बड़ी संरचनाएं मुंह के पिछले हिस्से में टॉन्सिल्स के रूप में, छोटी आंत पर तथा अपेन्डिक्स में प्रमुख तौर पर पाई जाती हैं।

मुंह के पिछले हिस्से में पांच अलग-अलग रास्तों के दरवाजे खुलते हैं। ये रास्ते मुंह, नाक, कान, खाने की नली तथा सांस की नली के होते हैं। श्वसन मार्ग तथा भोजन का रास्ता खुलने की जगह पर पांच टॉन्सिल्स एक रिंग (घेरे) के रूप में रहते हैं। इनकी जमावट कुछ इस प्रकार होती है कि नाक या मुंह के रास्ते घुसने वाले रोगाणुओं को सबसे पहले इनसे दो-दो हाथ करना पड़ता है। और इनमें से अधिकांश यहीं ढेर हो जाते हैं। लेकिन कभी-कभी ये बेचारे टॉन्सिल्स बाहरी मार से नहीं बच पाते और खुद संक्रमण का शिकार हो जाते हैं। इस स्थिति में ये सूज जाते हैं। इस सूजन को बाहर से भी देखा जा सकता है, महसूस किया जा सकता है।

लिम्फेटिक तंत्र की ज़रूरत
आमतौर पर लिम्फ तंत्र का काम केवल रोगों से लड़ना ही माना जाता है। दरअसल लिम्फेटिक तंत्र कई अन्य काम भी करता है। यही कारण है कि प्रतिरक्षा तंत्र और लिम्फेटिक तंत्र को दो अलग-अलग तंत्रों के रूप में देखा जाना ज्यादा उचित है। हालांकि इनमें आपस में काफी घनिष्टता है लेकिन कुछ काम ये एक-दूसरे की दखल के बिना ही करते हैं।
आइए एक बार फिर देखें कि लिम्फेटिक तंत्र हमारे लिए क्या-क्या काम करता है। इसके तीन प्रमुख काम कुछ इस प्रकार हैं।

1. भटके हुए मुसाफिरों को उनकी मंज़िल तक पहुंचानाः कोशिकाओं के बीच भरे हुए द्रव को इकट्ठा करके खून के बहाव में मिलाने का काम इस तंत्र का एक मुख्य काम है। जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं कि खून में मौजूद बड़े प्रोटीन अणु सामान्यत: रक्त केशिकाओं के बाहर नहीं जा पाते; लेकिन अधिकतर छोटे प्रोटीन अणु अन्तर-कोशिकीय द्रव में चले जाते हैं जो वापस खून केशिकाओं में नहीं जा पाते। ये प्रोटीन अणु लिम्फ केशिकाओं द्वारा अन्दर ले लिए जाते हैं और इन ‘भटके हुए राहियों को लिम्फ तंत्र द्वारा फिर से खून के साथ मिला दिया जाता है। इस तरह लिम्फ खून से निकले हुए कई महत्वपूर्ण प्रोटीन व अन्य पदार्थ फिर से खून में मिलाने का काम करता है।
2. हमलावरों से बचावः लिम्फेटिक ऊतकों का एक मुख्य काम हमलावरों से शरीर की सुरक्षा करना भी है। यह काम ही ‘प्रतिरक्षा' कहलाता है। लिम्फोसाइट तथा अन्य सहायक कोशिकाएं हमें सूक्ष्मजीवों (जीवाणु, विषाणु आदि), बाहरी हानिकारक पदार्थों तथा केन्सर कोशिकाओं के हमले से बचाती हैं। जैसा कि हमने पहले देखा ये लिम्फोसाइट कोशिकाएं दो तरह की होती हैं। ‘टी' लिम्फोसाइट व ‘बी’ लिम्फोसाइट।

‘टी' लिम्फोसाइट एकदम हथियारों से लैस जवानों जैसी हैं जिनके पास खास दुश्मन को देखते ही उनसे भिड़ जाने का आदेश होता है। ये कुछ ऐसे घातक रसायन छोड़ती हैं जिससे बाहरी हमलावर रोगाणु अक्सर टूट-फूट कर नष्ट जाते हैं।
'बी' लिम्फोसाइट हमलावरों के सम्पर्क में आने पर विशेष प्रकार के प्रोटीन बनाती हैं, जिन्हें एन्टीबॉडी (प्रतिरक्षी ) कहा जाता है। इनमें से कुछ एन्टीबॉडी उन हमलावरों से जुड़कर उन्हें निष्क्रिय कर देते हैं। कुछ एन्टीबॉडी विषाणुओं से जुड़ जाती हैं, जिससे वे हमारी कोशिकाओं तक नहीं पहुंच पाते और कुछ एन्टीबॉडी जीवाणुओं को आपस में बांध देती हैं। जिससे भक्षक कोशिकाएं उन्हें पहचानकर आसानी से खा सकती हैं।
हमलावरों से बचाव की इस पूरी प्रक्रिया में लिम्फेटिक तंत्र इन हमलावरों को इकट्ठा करके युद्ध क्षेत्र यानी लिम्फ अंगों तक पहुंचाता है। साथ ही लिम्फोसाइट को भी लिम्फ के जरिए अन्य अंगों तक की गश्त लगानी होती है ताकि वहां भी ‘दुश्मनों से निपटा जा सके। अंतत: इन मरे हुए हमलावरों को अन्य उत्सर्जी पदार्थों जैसे मल के साथ या खकार/बलगम के रूप में शरीर से बाहर कर दिया जाता है ।
 
3. पचाए हुए वसा को खून तक पहुंचानाः हम जानते हैं कि पाचन के बाद पचे हुए भोजन को छोटी आंत में अवशोषित कर लिया जाता है। यहां अवशोषण के लिए उंगलियों जैसी बहुत-सी अत्यंत छोटी-छोटी उभरी हुई संरचनाएं होती हैं। इन्हें सूक्ष्म - प्रवर्ध (micro villi) कहते हैं। इन विली के अंदर ही रक्त केशिकाओं का जाल पाया जाता है। इसी जाल के बीच-बीच में लिम्फ की केशिकाएं भी पाई जाती हैं। पचे हुए भोजन से अधिकतर पोषक पदार्थ जैसे कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन के पचाए गए सरल रूपों (जैसे ग्लूकोज, अमीनो अम्ल) आदि तो खून की केशिकाओं द्वारा सीधे सोख लिए जाते हैं परन्तु वसा को सीधे-सीधे अवशोषित कर पाना इनके बस के बाहर है। इसलिए वसा का पेस्ट बनाकर छोटी-छोटी बूंदों के रूप में बदल दिया जाता है और उन्हें फिर लिम्फ केशिकाएं अवशोषित कर लेती हैं। यहां से इनको पूरे लिम्फेटिक तंत्र में घुमाया जाता है और लिम्फ नलियों से होते हुए खून में मिला दिया जाता है। अंततः खून के जरिए पूरे शरीर को इसकी आपूर्ति की जाती है।

लिम्फेटिक तंत्र की गड़बड़ियां
वैसे तो लिम्फेटिक तंत्र बड़ी ही मुस्तैदी से अपना काम करता रहता है पर कभी-कभार ये भी बेचारा गड़बड़ियों-बीमारियों का शिकार बने जाता है। सामान्यतः लिम्फेटिक तंत्र ‘अपने’ और ‘पराए' में भेद आसानी से कर पाता है तभी तो ये केवल ‘परायों' को ही खत्म करने का काम करता है। पर कुछ बीमारियों में ये परायों को पहचान ही नहीं पाता बल्कि उन्हें अनदेखा कर देता है, ऐसी स्थिति में वो ‘पराए' हम तक कई बीमारियां ले आते हैं। इसका एक उदाहरण ‘एडस' है। इस बीमारी के विषाणु हमारे रोग प्रतिरक्षा तंत्र को गुमराह कर देते हैं। इस वजह से हम बाहरी हमलावरों को भी अपना मानकर उनके खिलाफ कोई क्रिया नहीं कर पाते। तभी तो ‘एड्स' के रोगी अन्य कई बीमारियों का घर बन जाते हैं।

दूसरी ओर कई बार ये तंत्र ‘अपनों' के साथ भी ‘परायों' की तरह पेश आने लगता है। और इस कारण अपनी ही कोशिकाओं को मारने पर तुला रहता है। जैसे एक विशेष तरह की रक्ताल्पता (एनीमिया) में लाल रक्त कणिकाओं को पराया मानकर उनका और उनके अंदर मौजूद हिमोग्लोबिन का खात्मा किया जाता है। ये दोनों ही परिस्थितियां हमारे लिए बड़ी घातक हो सकती हैं।
कभी-कभी बाहरी रोगाणुओं के कारण लिम्फेटिक तंत्र के कई भाग (जैसे टॉन्सिल्स, तिल्ली, लिम्फ-नोड़स आदि) संक्रमित हो जाते हैं और अपना काम करने में असमर्थ हो जाते हैं।
लसिका में थक्का जमाने की क्षमता नहीं होती क्योंकि इस प्रक्रिया के लिए जरूरी श्रॉम्बीन प्रोटीन इसमें नहीं होता। यदि गंभीर दुर्घटना के कारण छाती वाले भाग में अंदर तक चोट लग जाती है और यहां की प्रमुख बड़ी लसिका वाहिनियां भी क्षतिग्रस्त हो जाने से लसिका बाहर बहने लगती है तो तुरंत ही ऑपरेशन करके लसिका का बहाव रोकना जरूरी है, नहीं तो पर्याप्त प्रोटीन व वसा के अभाव में मौत भी हो सकती है।


चेतना खरेः होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से लंबा जुड़ाव। वर्तमान में महाराष्ट्र के शोलापुर में केन्द्रीय विद्यालय में पी. जी. टी. के रूप में जीव विज्ञान पढ़ाती हैं।

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पिनः 462016