एलेक्स एम.जॉर्ज
प्रस्तुति - राममूर्ति शर्मा

नागरिक शास्त्र शिक्षण एवं समस्याएं   
एकलव्य संस्था ने माध्यमिक कक्षाओं के सामाजिक अध्ययन के पाठ्यक्रम को विकसित करते हुए यह महसूस किया कि इसके तीनों विषयों (इतिहास, भूगोल व नागरिक शास्त्र) में ऐसी कई अवधारणाएं हैं जो बच्चों के मानसिक स्तर के अनुकूल नहीं हैं। लेकिन फिर भी उन्हें सिर्फ इसलिए पढ़ाया जाता है क्योंकि ये अवधारणाएं परम्परा से पढ़ाई जा रही हैं। एकलव्य संस्था में समय-समय पर यह आवश्यकता महसूस की जाती रही कि कुछ ऐसी अवधारणाओं के बारे में बच्चों की समझ का विश्लेषण करना चाहिए।
इसी सिलसिले में एलेक्स एम. जॉर्ज द्वारा केन्द्र, राज्य व जिला सरकार के संबंध में बच्चों की समझ पर एक शोधकार्य किया गया। इस शोध के निष्कर्षों पर आधारित उनका एक लेख शिक्षा की पत्रिका 'एज्यूकेशन डायलॉग' में प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत लेख उनके इसी मूल लेख पर आधारित है।
इस लेख में पहले तो नागरिक शास्त्र की विषयवस्तु के विश्लेषण के आधारों की चर्चा की गई है, फिर उसके बाद शोध की विधि, शोध के संदर्भ में बच्चों से की गई चर्चाओं का विश्लेषण किया गया है।

माध्यमिक कक्षाओं में नागरिक शास्त्र की विषय वस्तु में राज्य के कार्यों की व्याख्या का एक प्रमुख स्थान होता है। नागरिक शास्त्र की पाठ्य पुस्तकों, विशेष रूप से राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एन.सी.ई.आर.टी.) की पाठ्य पुस्तकों में बच्चों को राज्य व केन्द्र सरकार के गठन एवं कार्यों से जुड़ी हुई बहुत-सी अवधारणाएं बताई जाती हैं और यह माना जाता है कि भविष्य में एक अच्छे नागरिक के रूप में विकसित करने के लिए बच्चों को इन अवधारणाओं को आत्मसात करवाना जरूरी है।

नागरिक शास्त्र की पाठ्यचर्याओं के सैद्धांतिक आधार   
नागरिक शास्त्र के शिक्षण को विश्लेषित करने वाले सिद्धांतों को मोटे तौर पर दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।
1. शिक्षा का समाजशास्त्रीय सिद्धांत
2. नागरिकता शिक्षण या राजनैतिक सामाजीकरण का परिप्रेक्ष्य
इनमें से शिक्षा के समाज-शास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के अनुसार यह देखने की कोशिश की जाती है कि पाठ्य-पुस्तकों को समाज के किन वर्गों को ध्यान में रखकर लिखा गया है व पाठ्य-पुस्तकें किन वर्गों के प्रति पूर्वाग्रहों से ग्रसित हैं। उदाहरण के लिए इस परिप्रेक्ष्य के अध्ययन-कर्ताओं ने पाया है कि ज्यादातर पाठ्य पुस्तके पुरुष प्रधान, शहरी व मध्यमवर्गीय मानसिकता से लिखी गई हैं। इनमें गरीबों, पिछड़े वर्गों आदिवासियों, महिलाओं व दलितों के विषय में कई पूर्वाग्रह देखे जा सकते हैं। कभी-कभी इस परिप्रेक्ष्य से विश्लेषण करने वाले पाठ्य पुस्तकों के विश्लेषण से भी आगे बढ़ते हैं। वे यह आकलन करने की कोशिश करते हैं कि इन पाठ्य पुस्तकों के तहत जिस किस्म की गतिविधियां कक्षा में की जाती हैं कहीं वे बच्चों में धार्मिक, जातिगत और लैंगिक असमानता तो नहीं पैदा कर रही हैं। इस परिप्रेक्ष्य से विश्लेषण करने वालों का मानना है कि कक्षा के क्रियाकलापों के पूर्वाग्रह - आधारित होने की वजह से बच्चे स्कूली शिक्षा छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं।

दूसरे नज़रिए में नागरिकता शिक्षण या राजनैतिक सामाजीकरण के परिप्रेक्ष्य के तहत उन प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है जिनके द्वारा कोई व्यक्ति किसी राजनैतिक दल या राजनैतिक विचारधारा के साथ जुड़ता है। उदाहरण के लिए एक विश्लेषक ने उत्तर प्रदेश में नागरिक शास्त्र की पाठ्यचर्या से उदाहरण लेकर इसी परिप्रेक्ष्य के द्वारा नागरिकता के व्यापक ज्ञान का भारतीय संदर्भो में विश्लेषण करने की कोशिश की। उन्होंने पाया कि नागरिक शास्त्र की पाठ्य-पुस्तकों से बच्चों को अच्छे नागरिक बनाने की अपेक्षा है। जब भी लोगों का सार्वजनिक व्यवहार अपेक्षित नियमों के अनुसार नहीं होता तो अक्सर यह कहा जाता है कि शिक्षा व्यवस्था बच्चों को अच्छे नागरिक बनाने में असफल रही है।

राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद के 1986 के प्राथमिक व उच्चतर माध्यमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या से जुड़े दस्तावेजों व पाठ्यचर्या के ढांचे के मार्गदर्शक सिद्धांतों में भी बच्चों को अच्छे नागरिक बनाने को शिक्षा का महत्वपूर्ण लक्ष्य बताया गया है।
इसी दस्तावेज़ में राजनैतिक संस्थाओं से जुड़ी अवधारणाओं को पाठ्यक्रम में शामिल करने की सिफारिश भी की गई है। लेकिन इन दस्तावेज़ों में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि राजनैतिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं का ज्ञान किस तरह बच्चों को अच्छे नागरिक बनाने में सहायक होगा। क्या संस्थाओं व प्रक्रियाओं के ज्ञान से अच्छी नागरिकता के लिए आवश्यक मूल्य व सार्थक दृष्टिकोण अपने आप विकसित हो जाएगा? दुर्भाग्य से इस तथ्य के आकलन पर बहुत ही कम साहित्य उपलब्ध है कि पाठ्यक्रम के द्वारा बच्चे नागरिकता से जुड़े विचारों और मूल्यों को किस हद तक सीख पाते हैं।
इस तरह शिक्षा के समाज-शास्त्रीय परिप्रेक्ष्य व नागरिकता शिक्षण के परिप्रेक्ष्यों में मौटेतौर पर यह देखने की कोशिश होती है कि कोई भी व्यक्ति राजनैतिक विचारों व परंपराओं को किस तरह आत्मसात करता है, इन्हें आत्मसात करवाने में नागरिक शास्त्र की पाठ्य पुस्तकों की भूमिका क्या है और वे किस हद तक अपने उद्देश्य में सफल होती हैं।
 
कुछ हमारे सवाल  
हमारा अध्ययन मुख्यतः बच्चों की विभिन्न राजनैतिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं (सरकार) के विषय में पाठ्य पुस्तकों के आधार पर बनने वाली समझ पर केंद्रित था। हमने मूलतः एन.सी.ई.आर.टी. की कक्षा सातवीं से दसवीं तक की पाठ्य पुस्तकों को आधारभूत पाठ्य पुस्तकें माना, क्योंकि अधिकांश राज्यों के बोर्डों द्वारा चलाई जा रही पाठ्य पुस्तकें मूलतः एन.सी.ई.आर.टी. की पाठ्य पुस्तकों पर ही आधारित थीं।
हमारे सामने कुछ प्रमुख सवाल थे - बच्चे सरकार का क्या मतलब समझते हैं और उनके दिमाग में इसके अर्थ का निर्माण किस तरह होता है? बच्चों के मन में सरकार की किस-किस तरह की छवियां बनती हैं? वे सरकार के कार्यों के विषय में क्या समझते हैं?
बच्चों के साथ शुरुआती चर्चाओं के दौरान बने अहसास के बाद हमने निम्न अवधारणाओं का चयन किया।
        --  सरकार का गठन
        --  सरकार के कार्य व सरकारी कार्यक्रमों को लागू करने के तरीके
        --  कानून की अवधारणा व कानून बनाने की प्रक्रिया से जुड़े कुछ पहलू
        --  सरकार की संस्थाओं व कामों का तीन अंगों में वर्गीकरण (विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका)।
इन मुद्दों के अलावा कुछ और मुद्दे भी थे जिनके विषय में स्पष्टता होने पर ही राजनैतिक ढांचों के विषय में बातचीत की जा सकती थी। इन मुद्दों में राजनैतिक व प्रशासनिक ढांचों से जुड़े भौगोलिक क्षेत्र वे इन क्षेत्रों का आपस में संबंध, विभिन्न ढांचों के वर्णन के लिए इस्तेमाल की गई शब्दावली, राजनैतिक दलों के विषय में समझ आदि शामिल थी।

अध्ययन की विधि
अध्ययन के तरीकों का विकास करने के लिए हमने एक प्रायोगिक चरण आयोजित किया। इस चरण में हमने पाया कि बच्चों को पाठ्य पुस्तकों के पाठ्यांशों को याद करने में काफी कठिनाई हो रही थी। अत: हमने यह तय किया कि हम अध्ययन के दौरान पाठ्य पुस्तकों का प्रत्यक्ष रूप से इस्तेमाल नहीं करेंगे। हमने बच्चों के साथ सामूहिक चर्चाओं को अध्ययन का मुख्य आधार बनाया। इस सामूहिक चर्चा के लिए हमने कुछ खुले प्रश्न तैयार किए। प्रत्येक समूह के साथ 4 5 से 60 मिनिट तक चर्चा की जाती थी तथा बच्चों के जवाबों के आधार पर हम एक अवधारणा से दूसरी पर जाते थे। बच्चों के निजी साक्षात्कारों की बजाए हमने समूह चर्चा को ज्यादा महत्व दिया क्योंकि हमें लगा कि शायद बच्चे अपनी मित्र-मंडली में हमसे बातचीत करने में अधिक सहजता अनुभव करेंगे।
समूह चर्चा विधि का एक और लाभ यह भी था कि इसमें बच्चे आपस में बहस करके एक-दूसरे की व्याख्याओं को चुनौती दे सकते थे, इससे हमें बच्चों की किसी भी अवधारणा से संबंधित समझ को और व्यापक रूप से पकड़ने में मदद मिलती।
प्रत्येक अवधारणा के विषय में होने वाली बातचीत को एक साथ व्यवस्थित करके पढ़ा गया और यह देखने की कोशिश की गई कि विभिन्न अवधारणाओं की समझ के कौन-कौन से पैटर्न उभर रहे हैं? इसके बाद पाठ्य-पुस्तकों को पुन: पढ़ा गया तथा सभी तथ्यों को उनके सही संदर्भो के साथ पड़ताल करने की कोशिश की गई।

सैम्पल का चयन
यह अध्ययन मध्यप्रदेश के देवास जिले में किया गया था। अध्ययन के लिए जिले की ग्रामीण व शहरी पृष्ठभूमि की सबसे अच्छी शालाओं के सबसे बेहतर माने जाने वाले बच्चों को सैम्पल के तौर पर चुना गया। हमने बेहतर शालाओं व बेहतर बच्चों का चयन इसलिए किया ताकि इस धारणा के प्रभाव को कम-से-कम किया जा सके कि साधारण स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती। हम यह भी सुनिश्चित करना चाहते थे कि इन पाठ्य पुस्तकों को सबसे बेहतर शिक्षकों द्वारा पढ़ाए जाने व पढ़ाई में तेज़ माने जाने वाले बच्चों द्वारा पढ़े जाने पर सबसे बेहतर परिणाम क्या हो सकते हैं? सैम्पल का चयन करते समय हमने दो और प्रश्नों को भी सामने रखा। ये प्रश्न थेः
1. क्या ग्रामीण और शहरी बच्चों की सरकार के विषय में समझ पर उनकी विशेष पृष्ठभूमि का असर पड़ता है?
2. क्या विभिन्न अवधारणाओं को कई बार दोहराने का उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं के बच्चों पर कोई असर होता है?
कुल मिला कर हमारे सैम्पल में माध्यमिक व उच्चतर माध्यमिक दोनों तरह की कक्षाओं के 20 समूह शामिल थे जिनमें कुल 85 बच्चे थे।
अब हम बच्चों के साथ विभिन्न अवधारणाओं के विषय में हुई चर्चाओं का विश्लेषण प्रस्तुत करेंगे, साथ ही हम यह भी प्रस्तुत करने की कोशिश करेंगे कि पाठ्य पुस्तकों में इन अवधारणाओं को कैसे प्रस्तुत किया गया है तथा बच्चे किस हद तक इन्हें समझ पाते हैं।
 
बच्चों से विविध अवधारणाओं पर हुई चर्चाओं का विश्लेषण
सरकार के गठन के अध्ययन के लिए मुख्य रूप से दो अवधारणाओं पर चर्चा की गई। पाठ्य पुस्तकों में इन्हीं अवधारणाओं को सरकार के गठन के सिलसिले में सबसे महत्वपूर्ण माना गया है: -
-- बहुमत
-- बहुमत दल के नेता का चयन
इन अवधारणाओं के संदर्भ में हमने विश्लेषण के लिए बच्चों को दो तालिकाएं दीं। पहली तालिका एक काल्पनिक जानकारी पर आधारित थी। दूसरी तालिका में सन् 1999 में मध्य प्रदेश में हुए चुनावों के वास्तविक आंकड़े दिए गए थे जिन्हें देखकर बच्चों को यह बताना था कि मध्य प्रदेश में बहुमत किस दल का है और क्यों?
पहली तालिका इस प्रकार थीः
मान लो एक राज्य के विधानसभा चुनाव के अंतिम परिणाम निम्न हैं ।
                      विकास पार्टी          :             116
                      विकास पार्टी          :             110
                      विव्लव पार्टी          :             105
                      अन्य                   :               09  
                      कुल सीटें              :             340

बताओ कि इस राज्य में किस दल की सरकार बनेगी?

हमने पाया कि अधिकांश समूहों के बच्चों को लगता था कि जिस दल के पास सबसे अधिक सीटें हैं वही सरकार बनाएगा। जब हम पूछते थे, ‘कैसे ? बहुमत का क्या मतलब है? तब बच्चे कहते थे ‘नहीं, दूसरों के समर्थन के बिना कोई सरकार बना ही नहीं सकता।' बच्चे सरकार के गठन के लिए बहुमत की जगह समर्थन को अधिक महत्वपूर्ण व जरूरी समझ रहे थे। बच्चों की नज़र में बहुमत का मतलब आधे से अधिक सीट नहीं बल्कि सबसे अधिक सीट था। जो बच्चे पाठ्य पुस्तक के बहुमत से जुड़े अंशों को रटकर बैठे थे वे भी बहुमत की अवधारणा को काल्पनिक स्थिति में लागू नहीं कर पा रहे थे। कुछ समूह मध्यप्रदेश की विधानसभा की जानकारी के आधार पर यह तो बता पा रहे थे कि यहां किसकी सरकार बनेगी, लेकिन उनका तर्क गलत था। वे कह रहे थे कि इनके पास सबसे ज्यादा सीटें हैं। इसलिए सरकार इनकी बनेगी।

बच्चों के दिमाग में बहुमत के स्थान पर समर्थन संभः इसलिए भी हावी था क्योंकि सन् 1998 व 1999 में थोड़े-थोड़े अंतराल के पश्चात केंद्र में बनी सरकारों में सरकार बनाने वाला गठबंधन दूसरे दलों के समर्थन के लिए जद्दोजहद कर रहा था। बच्चों को ये जानकारियां अपने परिवेश से प्राप्त हुईं। इस तरह पाठ्य पुस्तकों में बहुमत को समझने की बात को कई बार कहे जाने के बावजूद बच्चे बहुमत का वास्तविक अर्थ यानी ‘आधे से अधिक संख्या' को बिल्कुल नहीं समझ पा रहे थे। बच्चों की इस कठिनाई का मूल कारण यह है कि पाठ्यांशों में उदाहरण के साथ यह नहीं बताया जाता कि विभिन्न राज्यों से चुने जाने वाले सांसदों की, सरकार के गठन में क्या भूमिका है।
बहुमत दल के नेता के चयन के विषय में बच्चों के मन में राजनैतिक पदानुक्रम (ओहदा/हरारकी) की छवि बनती प्रतीत होती है। बच्चों को लग रहा था कि बहुमत दल में ओहदे-पद में जो सबसे ऊपर है वही तय करेगा कि बहुमत दल का नेता कौन होगा? बच्चों ने उदाहरण देते हुए बताया कि जैसे कांग्रेस में सोनिया गांधी सबसे बड़ी नेता हैं तो उन्होंने ही दिग्विजय सिंह को मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री नियुक्त किया होगा। वे मानते थे कि सोनिया गांधी दिग्विजय सिंह से ऊपर है और वे दिग्विजय सिंह व दूसरे विधायकों को आदेश दे सकती हैं।  
बच्चे राजनैतिक पदानुक्रम के प्रभाव को न केवल पाठ्य पुस्तकों में भ्रमित करने वाली जानकारियों के आधार पर समझते प्रतीत हुए बल्कि वे अपने आसपास भी राजनैतिक हरारकी के उपयोग को स्पष्ट रूप से अनुभव करते हुए भी लगे।
उदाहरण के लिए बच्चों ने हमें काफी आत्मविश्वास के साथ यह समझाइश दी कि अगर उनके विधायक को मंत्री बनना है तो उसे क्या-क्या जुगाड़ करना पड़ेगा।

सरकार का गठनः पाठ्यांशों का विश्लेषण
सरकार का गठन नागरिक शास्त्र शिक्षण के विचार का केंद्रीय बिन्दु है, लेकिन इससे जुड़े हुए पाठ्यांश इसे पूरी तरह स्पष्ट नहीं कर पाते। पाठ्य पुस्तक में लिखा है, "लोकसभा में जिस राजनैतिक दल को बहुमत का समर्थन प्राप्त होता है, राष्ट्रपति उसे सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करता है।'' पाठ्य पुस्तकों के लेखक बच्चों से यह समझने व महसूस करने की अपेक्षा करते हैं कि सभी दलों के लोकसभा के चुने गए सदस्य मिलकर बहुमत का फैसला करें। पाठ इस संदर्भ में और कोई जानकारी नहीं देता। उल्लेखनीय है कि पाठ्य पुस्तक का संबंधित पाठयांश संविधान के अनुच्छेद-75. जो सरकार के गठन से संबंधित है, से बिल्कुल मिलता-जुलता है। ऐसा लगता है कि पाठ्यांश के नाम पर भाषा के थोड़े फेरवदल के साथ संविधान के अनुच्छेद75 को ही उतार दिया गया है।

इसी तरह राज्यों में सरकार के गठन का उल्लेख बहुत ही संक्षिप्त है। ‘राज्यों में सरकार के गठन की प्रक्रिया भी वैसी ही है जैसी कि केन्द्र में, जिसके विषय में तुम पहले पढ़ चुके हो।'' इस तरह यह पाठ्यांश बच्चों को इस योग्य समझता है कि वे केन्द्र सरकार के गठन की प्रक्रिया को समझें और उसे राज्य सरकार के गठन पर भी लागू करें। यहां यह प्रश्न उठता है कि क्या माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं के बच्चों से यह अपेक्षा की जा सकती है? क्या वे एक खास अवधारणा को उससे मिलते-जुलते दूसरे संदर्भो में लागू कर सकते हैं?
बहुमत की अवधारणा की तरह ही बहुमत दल के नेता के चयन की अवधारणा का उल्लेख भी पाठ्य पुस्तक में बहुत ही संक्षिप्त है। उदाहरण के लिए पाठ में यह कहा गया है कि राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है और प्रधानमंत्री की सलाह पर अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है। पाठ में कहीं पर भी यह स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता कि प्रधानमंत्री बनने वाले व्यक्ति को बहुमत वाले द्रल या देलों के गठबंधन का नेता कैसे चुना जाता है?
हमने बच्चों के साथ होने वाली चर्चाओं में साफतौर पर यह अनुभव किया कि बच्चे हाल के चुनावों के कारण कई राजनैतिक नेताओं व उनके दलों से परिचित थे। उन्हें चुनावों से संबंधित कई स्थानीय घटनाएं व तथ्य पता भी थे, लेकिन वे यह नहीं जानते थे कि विभिन्न चुनाव क्षेत्रों से चुने जाने वाले प्रतिनिधियों का सरकार के गठन से क्या संबंध है?

पाठ्य पुस्तकों को यह समझाने में सहायक होना चाहिए कि स्थानीय रूप से चुने गए सांसदों, विधायकों की सरकार के गठन में क्या भूमिका होती है और वे इस भूमिका को किस तरह निभाते हैं? पाठ्य पुस्तकों को सरकार के गठन से जुड़ी हुई दोनों महत्वपूर्ण अवधारणाओं (बहुमत और बहुमत दल का नेता) को स्थानीय चुनाव परिणामों के साथ जोड़ पाने में सक्षम होना चाहिए। यह इसलिए ज़रूरी है। नाकि बच्चे इन अवधारणाओं को अपने परिवेश के साथ जोड़कर देख सकें।

कानून बनाने की प्रक्रिया व सरकार के कार्य - बच्चों से चर्चा का विश्लेषण
कानून बनाने की प्रक्रिया के विषय में हमें बच्चों के उत्तरों में काफी विविधता देखने को मिली। कक्षा आठवीं के अधिकांश समूह राज्यों की विधानसभाओं की बजाए लोकसभा का हवाला अधिक दे रहे थे। एक समूह ने बताया कि न्यायाधीश और संसद कानून बनाने का काम मिल कर करते हैं। लेकिन वे यह नहीं बता पाए कि वास्तव में कानून किस तरह बनते हैं?
बच्चों को यह भी स्पष्ट नहीं था कि कानून बनने के लिए किसी बिल को किन-किन सदनों से पास होना पड़ता है? कुछ समूहों को लगता था कि किसी भी कानन का प्रस्ताव राज्य विधान सभा से संसद में जाता है और संसद से पास होने के बाद राष्ट्रपति के पास हस्ताक्षर के लिए जाता है। इसके बाद ही यह प्रस्ताव कानून बनती है। ऐसे ही एक समूह से यह पूछे जाने पर कि, 'कानून कैसे बनते हैं?' उन्होंने बताया कि कानून प्रधान मंत्री और राष्ट्रपति की सहमति से बनते हैं। इस सिलसिले में उन्होंने प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद व पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का उल्लेख भी किया। इस समूह के अनुसार प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति पहले सभी नेताओं जैसे मुख्यमंत्रियों आदि की बैठक बुलाते हैं, जिसमें कानून बनाने के विषय में चर्चा की जाती है। इसके बाद यह प्रक्रिया आगे बढ़ती है।
एक समूह से हमने पूछा कि मान लो, महिलाओं को आरक्षण देने के लिए कानून बनाना हो तो क्या करना पड़ेगा? इस समूह ने बताया कि पहले मुख्यमंत्री विधानसभा में इस विषय में बात करेंगे, फिर विधानसभा में इस प्रस्ताव पर चर्चा होगी जिसके बाद यह राष्ट्रपति के पास जाएगा। अगर राष्ट्रपति इसमें कोई कमी पाते हैं तो बिल फिर से विधानसभा में जाएगा।
इस समूह के बच्चे कानून बनाने की प्रक्रिया को कुछ हद तक सही बता रहे थे लेकिन वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि कानून बनाने और बहुमत का क्या संबंध है?

बच्चे कानून बनाने व कानूनों में बदलाव करने में कोई अंतर नहीं कर पा रहे थे। एक समूह का तर्क था कि कानून संविधान के समान है। जिसे बदला नहीं जा सकता। एक दूसरे समूह के बच्चों ने कहा कि अगर कानून में बदलाव करना हो तो किसी दूसरी संस्था को कहना पड़ेगा जैसे न्यायपालिका को। बच्चे इस विषय में भी काफी भ्रमित थे कि कानून बनाना दरअसल किसका काम है। बच्चों द्वारा कानून की अवधारणा व कानून बनाने की प्रक्रिया को न समझ पाने का एक संभावित कारण यह भी हो सकता है कि वे वास्तव में बनने वाले कानूनों का असर अपने जीवन पर बिल्कुल नहीं देख पाते तथा उनके लिए यह महसूस करना आसान नहीं है कि कानून बनने के मायने क्या हो सकते हैं? जब हमने बच्चों को किसी कानून का उदाहरण देने को कहा तो अधिकांश बच्चे कोई भी उदाहरण नहीं दे पाए। वे केवल उन परंपराओं एवं नियमों की जानकारी ही दे पा रहे थे जो उनके जीवन से जुड़ी हुई थीं। बच्चों के मन में कानून बनाने की प्रक्रिया की जो छवि बनती है वह हरारकी पर आधारित है, जो पाठ्य पुस्तकों में दिए गए लोकतंत्र के विचार से बिल्कुल अलग है।

कानून बनाने की प्रक्रिया: पाठ्यांशों का विश्लेषण
एन.सी.ई.आर.टी. की पाठ्य पुस्तकों में दिए गए पाठ्यांश के अनुसार संसद में पेश किए जाने वाले किसी भी कानुन के विधेयक को तीन वाचनों से गुज़रना पड़ता है। इस पाठ्यांश में प्रत्येक वाचन को एक-एक वाक्य में समझाने की कोशिश की गई है। चार पारिभाषिक शब्दों - विधेयक, धन विधेयक, कानून और संशोधन में अंतर स्पष्ट करने की कोशिश की गई है। इसी तरह कानून बनाने की समूची प्रक्रिया को बहुत ही सरलीकरण के साथ लिखा गया है। बहुत सारे महत्वपूर्ण बिन्दुओं को नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। उदाहरण के लिए इस बात को समझाने की बिल्कुल कोशिश नहीं की गई है कि किसी विधेयक की सभी धाराओं का एक-एक करके वाचन क्यों जरूरी है?

पाठ्यांश में यह तो बताया गया है कि किसी भी विधेयक के तीन वाचन होते हैं। लेकिन इन वाचनों में बहस किन कारणों से होती है या प्रतिनिधियों द्वारा किसी भी विधेयक के विरोध के संभावित कारण क्या हो सकते हैं, इसे बिल्कुल अनदेखा कर दिया गया है। विधेयक पर चर्चा के दौरान राजनैतिक दलों के दलगत हितों व राजनैतिक विचार-धाराओं की भूमिका क्या हो सकती है?' इस पर भी पाठ्य पुस्तक में चर्चा नहीं की गई। पाठ्यांश में एक जगह बहुत ही हल्के ढंग से साधारण बहुमत का उल्लेख किया गया है, मगर इसे समझाने के लिए कोई उदाहरण नहीं दिया गया है। पाठ्यांशों के विवरण से यह पता नहीं लगता कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहुमत के शासन को महत्वपूर्ण अवधारणा क्यों माना गया है? सरकार से जुड़ी विभिन्न प्रक्रियाओं के साथ बहुमत का अंतर संबंद्ध स्थापित न कर पाना पाठ्य पुस्तक की बहुत ही गंभीर कमी प्रतीत होती है।

जैसा कि पहले भी उल्लेख किया गया है पाठ्य पुस्तक के लेखक बच्चों से यह उम्मीद करते हैं कि वे संसद से जुड़ी अवधारणाओं को विधानसभा के संदर्भ में स्वयं ही लागू कर लेंगे। सरकार के गठन की तर्ज पर ही कानून बनाने की प्रक्रिया के विषय में लेखक कहते हैं, “तुम पिछले अध्याय में पढ़ चुके हो कि कानून किस तरह बनते हैं? राज्यों की विधान-सभाओं में भी कानून बनाने की प्रक्रिया लगभग यही है। इसमें केवल यह फर्क है कि विधान-सभाओं में कानून पारित होने के बाद इस पर राज्यपाल की सहमति लेना आवश्यक है।'' इस तरह लेखक ने यह मान लिया है कि बच्चों ने कानून बनाने की प्रक्रिया को तो संसद के संदर्भ में समझ ही लिया था और अब वे विधानसभा के संदर्भ में इस समझ को स्वतः लागू कर लेंगे। इस बात को समझ पाना बहुत ही मुश्किल है कि लेखकों के इस तरह के अनुमान किन शोध कार्यों पर आधारित हैं?

सरकार के कार्यों के विषय में होने वाली चर्चाओं का विश्लेषण
अधिकांश समूहों के बच्चे यह सोचते थे कि कानून बनाने के काम में चुने हुए प्रतिनिधियों की भूमिका नहीं है। वे चुने हुए प्रतिनिधियों का काम अपने क्षेत्र का विकास करना मानते थे। हमने पूछा कि 'आपके क्षेत्र के विधायक तकोजीराव पवार का क्या काम है?' बच्चों ने बताया कि सरकार का कर्तव्य है लोगों की देखभाल करना। हमने फिर सवाल किया कि देखभाल से क्या आशय है? जवाब आया कि विधायकों को अपने चुनाव क्षेत्र को विकास करना होता है सड़कें बनवानी होती हैं। हमने कामों की एक सूची बच्चों को दी।
1. सड़कें बनाना, पानी व बिजली की सुविधाएं प्रदान करना।
2. अपने चुनाव क्षेत्र में कार्य न होने के विषय में सदन में शिकायत करना।
3. सदन में प्रश्न पूछना।
4. सदन में अपने दल के विचारों का प्रतिनिधित्व करना।
5. सदन में कानून बनाने की प्रक्रिया में भाग लेना।
हमने सभी समूहों से पूछा कि इनमें से विधायकों का सबसे महत्वपूर्ण काम क्या है? 20 समूहों में से 17 समूहों ने विकास के कामों को सबसे प्रमुख काम बताया।

यह विचार केवल बच्चों तक ही सीमित नहीं है। वयस्कों में भी यह धारणा काफी गहराई तक घर कर चुकी है कि प्रतिनिधियों का काम केवल विकास करना है। विडंबना यह है कि आम लोग ही नहीं, बल्कि कई विधायक भी गंभीरता से ऐसा ही मानते हैं। उदाहरण के लिए कुछ वर्ष पहले आंध्रप्रदेश विधानसभा के कई विधायकों ने अपना प्रमुख काम अपने क्षेत्रों में विकास करना बताया और इस आधार पर वे विधानसभा की बैठकों में खुद की अनुपस्थिति को जायज ठहरा रहे थे।

सरकार के वर्गीकरण का ढांचा
एन.सी.ई.आर.टी. की पाठ्य पुस्तकें सरकार से जुड़ी राजनैतिक/प्रशासनिक संस्थाओं को विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका नामक तीन अंगों में बांटती हैं। इन तीनों अंगों से जुड़ी सभी अवधारणाओं व प्रशासनिक पदों को अलग-अलग इकाइयों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इन अंगों की कई इकाइयों व पदों की दोहरी भूमिकाओं को स्पष्ट रूप से समझाने की कोशिश भी की गई है। लेकिन पाठ्य पुस्तकों में ये प्रयास बहुत ही कमज़ोर प्रतीत होते हैं।
बच्चों के साथ होने वाली चर्चाओं से हमें यह पता लगा कि बच्चे इस ढांचे के मुख्य शब्दों (व्यवस्थापिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका) के विषय में पाठ्य पुस्तकों में दी गई परिभाषाओं के सिवा कुछ भी नहीं बता पाते।
उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं के बच्चों से हमारी यह अपेक्षा थी कि वे इन तीनों अंगों से जुड़े बहुत से पारिभाषिक शब्दों को वर्गीकृत कर सकेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन्हें विभिन्न शब्दांशों से संबंधित अवधारणाएं तो याद थीं लेकिन वे पाठ्य पुस्तक की इन जानकारियों को किसी स्पष्ट उदाहरण के साथ समझाने में सक्षम नहीं थे। इस तथ्य के आधार पर कहा जा सकता है कि यह ढांचा मोटेतौर पर जितना सरल लगता है। वास्तव में बच्चों की दृष्टि से उससे कहीं ज्यादा जटिलं है।

बच्चों से हमने पूछा, “आप व्यवस्थापिका में किन-किन लोगों या पदों को शामिल करेंगे?'' बच्चों ने शब्द के संभावित अर्थ का अनुमान लगाते हुए बताया कि वो लोग शामिल होंगे जो व्यवस्था करते हैं। हमने जब उन्हें उदाहरण देने को कहा तो उन्होंने बताया, ‘प्रधानमंत्री का चुनाव व्यवस्था करने के लिए किया जाता है। बच्चों को व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में आने वाले पदों व कार्यों को वर्गीकृत करने में विशेष रूप से कठिनाई हो रही थी। वे इस तथ्य को बिल्कुल ही हजम नहीं कर पा रहे थे कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री व्यवस्थापिका और कार्यपालिका दोनों का हिस्सा होते हैं।
बच्चे सरकार के तीन अंगों के ढांचे में आने वाले कुछ पदों व काम से परिचित थे, लेकिन वे इस ज्ञान का उपयोग जटिल अवधारणाओं को समझाने के लिए नहीं कर पा रहे थे। नीचे दिये जा रहे एक लम्बे संवाद से यह तथ्य अपने आप ही उजागर होता है।

प्रश्नः अब सरकार का गठन हो गया है, अब सरकार क्या काम करेगी?
उत्तर: सरकार, हां सरकार अब शहरों का विकास करेगी, किसानों को पानी और बिजली प्रदान करेगी।
प्रश्न: वे ये कैसे करेंगे?
उत्तरः वे उन्हें अपनी समस्याएं बताएंगे।
प्रश्न: उन्हें बिजली, पानी आदि कौन देगा?
उत्तरः जो चुनावों में खड़े हुए थे।
प्रश्न: पैसे कौन देगा?
उत्तरः दिग्विजय सिंह।
प्रश्नः वे पैसे सीधे देते हैं?
उत्तर: टोली नं 1 - हां।
टोली नं 2 - वे काम करेंगे।

चर्चा को एक मोड़ देते हुए कहा गया मान लो, टोंककला में एक हैंडपंप या बोरिंग लगवाने की जरूरत है, और आपने : सज्जनसिंह वर्मा (विधायक) को इसके बारे में बताया। सज्जनसिंह वर्मा दिग्विजय सिंह को कहेंगे और दिग्विजय सिंह सज्जनसिंह वर्मा को पैसे दे देंगे। इस तरह टोंककला में हैंडपम्प लग जाएगा।

प्रश्न: क्या ऐसा ही होगा?
उत्तर: नहीं।
प्रश्न: फिर कैसे होगा?
उत्तरः ये विषय प्रधानमंत्री के पास जाएगा।
प्रश्न: प्रधानमंत्री कौन है?
उत्तर: अटलबिहारी  
प्रश्न: अच्छा, ये प्रधानमंत्री तक जाएगा?
उत्तर: हां।
प्रश्न: पैसे देने की प्रक्रिया क्या होगी?
उत्तरः प्रधानमंत्री सीधे दिग्विजय सिंह को पैसे देंगे। अलग-अलग क्षेत्रों के लोग प्रधानमंत्री से मांग करते हैं, उन्हें हर क्षेत्र की मांग और जरुरत के हिसाब से कुछ-न-कुछ देना पड़ता है।
प्रश्नः दिग्विजय सिंह किस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं?
उत्तर: मध्य प्रदेश का।
प्रश्नः मध्य प्रदेश की तरह और कौन कौन से क्षेत्र हैं?
उत्तर: चुप्पी।
प्रश्नः मान लो, पैसे दिग्विजय सिंह तक पहुंच गए। अब वे क्या करेंगे?
उत्तरः वे सरपंचों को पैसे दे देंगे।
प्रश्न: क्या वे सीधे सरपंचों को दे देंगे?
उत्तर: हां।
प्रश्नः सज्जनसिंह वर्मा क्या करेंगे।
उत्तर: मुख्यमंत्री सज्जन सिंह वर्मा को देंगे और सज्जन सिंह वर्मा सरपंचों को।

पाठ्य पुस्तकों में किया गया संस्थाओं का वर्गीकरण, संस्थाओं से जुड़े ढांचों के विभिन्न पदों को अलग-अलग श्रेणियों में समझाने में सहायक नहीं होता। उदाहरण के लिए हमने बच्चों को विभिन्न पदों की सूची दी जिसमें तहसीलदार, मुख्यमंत्री, डाकिया व मंत्री आदि शामिल थे। हमने बच्चों से यह समझाने को कहा कि इस सूची में कौन-कौन से पद सरकार के किस-किस अंग का हिस्सा हैं? बच्चे पूरी सूची के आधार पर लगभग कुछ भी नहीं बता पाए। हमें लगा कि शायद सवाल थोड़ा मुश्किल है। इसलिए हमने एक-एक करके कुछ पदों के विषय में पूछना शुरू किया।

प्रश्न: विधायक किस अंग का हिस्सा
उत्तरः कार्यपालिका।
प्रश्नः व्यवस्थापिका का क्यों नहीं?
उत्तर: विधायक मंत्री बनते हैं।
प्रश्नः फिर क्या करते हैं?
उत्तरः व्यवस्था करते हैं?

अधिकांश समूहों के बच्चों को पुलिस का वर्गीकरण करने और उनसे जुड़े ढांचे को सही-सही पहचानने में सबसे अधिक कठिनाई हुई। बच्चे यह समझते हुए प्रतीत हुए कि पुलिस न्यायपालिका का हिस्सा है। बच्चों के मन में पुलिस की यह छवि संभवतः इसलिए बनी क्योंकि पुलिस प्राय: मामलों की छानबीन करने व अपराधियों पर आरोप तय करने जैसे काम न्यायपालिका के निकट सम्पर्क में रहकर करती है। आमतौर पर बच्चों के मन में यह छवि काफी प्रभावी थी कि अपराधों को रोकना, सज़ा देना व न्याय करना न्यायपालिका का काम है। इस कारण अधिकांश बच्चे पुलिस और वकीलों के काम को भी न्यायपालिका के काम का हिस्सा ही मानते थे। सामान्य रूप से कानून और व्यवस्था को बनाए रखने के काम को बच्चे पुलिस के काम के रूप में नहीं देखते थे।
बच्चों की सरकार की विभिन्न संस्थाओं से जुड़ी अवधारणाओं को, सरकार के संबंधित अंगों के साथ सही ढंग से न जोड़ पाने की समस्याओं को देखकर ऐसा लगता है कि पाठ्य पुस्तकों में उपयोग किए गए तीन अंगों के ढांचे को गंभीरता से पुनर्मूल्यांकन करने की जरूरत है।
 
किताबी ज्ञान बनाम हकीकत
बच्चों को पाठ्य पुस्तकों में दी जाने वाली जानकारियों और उन्हें समाज से प्राप्त होने वाले ज्ञान में काफी अन्तर है। बच्चों के मन में सरकार की सबसे प्रभावी समझ यह थी कि कुछ शक्तिशाली लोगों में ही सरकार की वास्तविक शक्ति केन्द्रित है। इन शक्तिशाली लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे आम लोगों के प्रति दयालु हों। हमने पाया कि पाठ्य पुस्तकों में पेश किए गए संस्थाओं के आदर्श ढांचों व काम के तरीकों और हकीकत में काम के तरीकों में काफी विरोधाभास है जो चिन्ता का विषय है।
पुस्तकों में दी गई जानकारियां किस हद तक वास्तविक घटनाओं के साथ मेल खाती हैं ये बिन्दु हमारे अध्ययन का उल्लेखनीय पहलू था। हमने महसूस किया कि वास्तविक घटनाओं के आधार पर बच्चे चुनावों को मूर्तरूप से समझ पा रहे थे जबकि पाठ्य पुस्तकों में चुनावों से जुड़ी हुई वास्तविक घटनाओं के लिए कोई जगह नहीं है। सरकार के गठन को स्पष्ट करने के लिए बच्चों के सामाजिक परिवेश से आसानी से उदाहरण लिए जा सकते थे लेकिन पाठ्य पुस्तक लेखकों द्वारा ऐसा नहीं किया जाता है।
सरकार के गठन व कानून बनाने की प्रक्रिया जैसी अपेक्षाकृत जटिल अवधारणाओं के विषय में बच्चों को विभिन्न स्रोतों से मिलने वाली जानकारियां पाठ्य पुस्तकों के ज्ञान से विरोधाभास दिखाती हुई प्रतीत हुईं। उदाहरण के लिए पाठ्य पुस्तकें बच्चों को सिखाती हैं कि सरकार से जुड़ी संस्थाएं व व्यक्ति लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से काम करते हैं। इसके विपरीत बच्चों के मन में सामाजीकरण की प्रक्रिया से यह छवि बनती है कि सरकार की संस्थाएं व ढांचे व्यक्तिगत व पदानुक्रम के आधारों पर काम करते हैं। इस तरह यह स्पष्ट होता है कि बच्चों पर पाठ्य पुस्तकों के ज्ञान का असर उतना नहीं होता जितना कि समाज से मिलने वाले ज्ञान का।

बच्चों का तुलनात्मक प्रदर्शन
पारंपरिक परीक्षा पद्धतियों में आमतौर पर बच्चों की रटने, याद रख पाने की क्षमता का ही मूल्यांकन होता है। इसलिए हम यह उम्मीद लगाकर बैठे थे कि पुस्तकों के अंशों को याद करने के मामले में शायद माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं के बच्चों की स्थिति एक जैसी होगी। लेकिन हमारा यह अनुमान गलत निकला। हमने पाया कि माध्यमिक कक्षाओं के बच्चों की याद रखने की क्षमता उच्चतर माध्यमिक शालाओं के बच्चों की अपेक्षा बेहतर थी। लेकिन ये बच्चे याद की गई जानकारियों को काल्पनिक परिस्थितियों में लागू कर पाने में असमर्थ लग रहे थे। जबकि उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं के बच्चे यह काम आसानी से कर पा रहे थे। यह बात और है कि वे भी अधिकांश अवधारणाओं को पाठ्य पुस्तक की जानकारियों के आधार पर समझाने में असफल हो रहे थे। उदाहरण के लिए इस श्रेणी के एक समूह ने हमें तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों के उदाहरण देकर यह समझाने की कोशिश की कि राज्य में गठबंधन सरकार का गठन कैसे होता है? उन्होंने अपनी चर्चा आवश्यक सीटों के इर्द-गिर्द ही केंद्रित रखी। वे यह लगातार कह रहे। थे कि बहुमत के लिए समर्थन ज़रूरी है। वे इस तथ्य से भी अवगत थे कि किसी गठबंधन या दल के पास जितना अधिक समर्थन होगा उसकी सरकार उतनी ही ठोस और स्थिर होगी। यह भी एक विडंबना थी कि बच्चों का यह समूह भी बहुमत की अवधारणा को सटीक ढंग से समझा पाने में असमर्थ था।

ग्रामीण व शहरी बच्चों के बाहरी दुनिया से परिचय में भी काफी अन्तर था। बच्चों के साथ चर्चा के दौरान यह तथ्य काफी स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आ रहा था। उदाहरण के लिए हमने 18 राजनैतिक दलों व 12 राजनैतिक नेताओं की सूची बच्चों को दी। बच्चों को राजनैतिक दलों व उनसे संबंधित नेताओं की सही जोड़ियां बनानी थीं। हमने पाया कि ग्रामीण क्षेत्र की माध्यमिक शालाओं के बच्चे राजनैतिक दलों व उनसे संबंधित नेताओं की सही जोड़ियां नहीं बना पाए। वे केवल राज्य के दो प्रमुख दलों से ही परिचित थे। इसके विपरीत शहरी क्षेत्र के दोनों श्रेणियों के बच्चों एवं ग्रामीण क्षेत्र के उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं के बच्चों ने ये जोड़ियां काफी सटीक ढंग से बना दी। ग्रामीण क्षेत्र के दोनों श्रेणियों के बच्चे अपने जिले के सभी चुनाव क्षेत्रों व चुनाव क्षेत्रों से जीतने वाले विधायकों के नामों को जानते थे। इसके विपरीत शहरी क्षेत्रों के बच्चे इंदौर, उज्जैन व भोपाल जैसे नगरीय केंद्रों को चुनाव क्षेत्रों के रूप में तो पहचान रहे थे लेकिन अपने जिले के सभी छ: निर्वाचन क्षेत्रों के नाम उन्हें मालूम नहीं थे। इन्हें यह भी पता नहीं था कि देवास जिले से छ: विधायक कौन-कौन से हैं? शहरी क्षेत्र के दोनों समूहों के बच्चे तहसीलदार, पटवारी, आदि प्रशासनिक पदों के विषय में भी नहीं जानते थे।

बाहरी दुनिया से परिचय से जुड़े हुए ऊपर बताए गए तथ्यों से एक बहुत रोचक बात उभरती है। ग्रामीण क्षेत्रों के माध्यमिक कक्षाओं के बच्चे नवमीं-दसवीं तक आते-आते शहरी बच्चों के समान ही राजनैतिक दलों को पहचानने लगते हैं। वास्तव में यह एक ग्रामीण समूह ही था जिसने सबसे ज्यादा राजनैतिक दलों के विषय में जानकारी दी।
सभी चर्चाओं के व्यापक अवलोकन से ऐसा लगता है कि शहरी क्षेत्र के काफी बच्चे नवमीं-दसवीं कक्षाओं तक आते-आते राजनीति के विषय में निर्विकार हो जाते हैं। दूसरी तरफ इन कक्षाओं में पहुंचने पर ग्रामीण क्षेत्र के बच्चे राजनीति से जुड़े मुद्दों में काफी रुचि लेने लगते हैं। यह तथ्य ग्रामीण क्षेत्र के उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं के बच्चों द्वारा राजनीति के विषय में पूछे जाने वाले प्रश्नों के उत्तर देने के प्रति उत्साह व विभिन्न राजनैतिक विषयों को समझाने के प्रयासों से विशिष्ट रूप से उभरता है।

निष्कर्ष
पाठ्यचर्या से जुड़े तमाम दस्तावेज़ों में कुछ राजनैतिक अवधारणाओं को पवित्रता का दर्जा दे दिया गया है, जो कि पाठ्य पुस्तकों में बहुत स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। नागरिक शास्त्र की पाठ्य पुस्तकें बहुत ही संक्षिप्त व संविधान केंद्रित हैं। पुस्तकों को कानूनी दृष्टिकोण के साथ कानून के ही ढांचे में पेश करने की कोशिश की गई है, जिसकी वजह से पुस्तकों में तथ्यों की भरमार है।
यूं तो दावा किया जाता है कि ये पुस्तकें नागरिकता शिक्षण को प्रोत्साहन देने की एक कोशिश है लेकिन इन पुस्तकों में नागरिकता की मूल आत्मा ‘लोकतंत्र' से जुडे हुए बहुत-से प्रमुख बिन्दुओं को शामिल नहीं किया गया है। इन बिन्दुओं में लोकतंत्र का विचार प्रशासन व कानून बनाने की आवश्यकता, प्रतिनिधित्व का अर्थ और प्रतिनिधि व्यवस्था में व्यक्ति की भूमिका, पदानुक्रम आधारित ढांचे के विचार आदि को गिनाया जा सकता है। पाठ्य पुस्तकों में शामिल विभिन्न अवधारणाओं में आपसी अंतर-संबंधों के लिए कोई स्थान नहीं है। यही कारण है कि बच्चे विभिन्न अवधारणाओं के बीच अंतर-संबंध स्थापित कर पाने में पूरी तरह असफल रहते हैं।

नागरिक शास्त्र में सीखने-सिखाने की प्रक्रिया तभी सार्थक हो सकती है। जव पाठ्य पुस्तकों में समाज से प्राप्त ज्ञान को भी शामिल किया जाए। बच्चों को अपने अनुभवों को बांटने के सम्मान जनक ढंग से अवसर दिए जाएं।
भले ही हम नागरिक शास्त्र के शिक्षण का उद्देश्य नागरिकता शिक्षण को माने या नागरिक शास्त्र को केवल राजनैतिक अवधारणाओं से जोड़े; यह ज़रूरी है कि नागरिक शास्त्र पढ़ाने के तरीकों को ऐसे ढांचे में बांधकर पेश करने की आवश्यकता है जिससे राजनैतिक संस्थाओं, ढांचों, प्रक्रियाओं व विचारों आदि को लोगों के परिवेश व जीवन की सच्चाइयों के साथ जोड़कर देखा जा सके। नागरिक शास्त्र के शिक्षण का ढांचा संस्थाओं के आदर्श स्वरूप को मात्र याद रखने की क्षमता बढ़ाने वाला नहीं होना चाहिए बल्कि उसमें इन संस्थाओं के कामों के विषय में बच्चों को सोचने व विश्लेषण करने की क्षमता विकसित करने के लिए भी उपयुक्त जगह दी जानी चाहिए। कुछ आलोचकों का मानना है कि वर्तमान पाठ्य पुस्तकें उपनिवेशवादी मानसिकता, पुरुष प्रधानता के विचार एवं शहरी व मध्यमवर्गीय लोगों के दृष्टिकोण से लिखी गई हैं। इन पुस्तकों में गरीबों, पिछड़े वर्गों, आदिवासियों, दलितों व सबसे अधिक महिलाओं के विषय में पूर्वाग्रह बहुत गहराई तक मौजूद हैं।

इस विषय में अध्ययनकर्ता एलेक्स एम. जॉर्ज यह मानते हैं कि नागरिकता का मूल आशय आमतौर पर मध्यमवर्गीय मूल्यों पर आधारित होता है। मध्यमवर्गीय मूल्य एक खास तरह की संस्कृति को प्रोत्साहित करते हैं। नागरिकता का यह अर्थ ही दरअसल पूर्वाग्रहों से ग्रसित है।
इस विषय की एक व्याख्या यह भी की जाती है कि नागरिकता शिक्षण इसलिए असफल रही है क्योंकि इसमें राजनीति जुड़ जाती है। इस संदर्भ में हमने अध्ययन के कार्यक्षेत्र के शहरी व ग्रामीण पृष्ठभूमियों के शिक्षकों से बातचीत की। हमें लगा कि शहरी क्षेत्र के शिक्षक आजकल की राजनैतिक गतिविधियों व राजनैतिक संस्थाओं के काम के तरीकों को असभ्य मानते हैं। ये संस्थाएं असभ्य कैसे हो रही हैं?' इसे समझाने के लिए शिक्षकों ने सन् 1998 के आसपास उत्तर प्रदेश विधान सभा में होने वाले हंगामों व मारपीट के उदाहरण दिए। इन शिक्षकों का यह भी मानना था कि लालू यादव और जयललिता जैसे नेताओं द्वारा किए जाने वाले भ्रष्टाचार की वजह से भी राजनीति असभ्यता की तरफ बढ़ रही है।

शहरी शिक्षकों की तरह ग्रामीण क्षेत्र के शिक्षकों ने भी राजनीति के असभ्य होते हुए चरित्र पर कुछ टिप्पणियां की। उनके अनुसार ग्राम पंचायतों में निरक्षर महिलाओं व दलित पंचों के आने से इन पंचायतों के काम करने की क्षमता प्रभावित हुई है। शिक्षकों ने अपने आसपास की ग्राम पंचायतों के उदाहरण देते हुए बताया कि कई ग्राम पंचायतों में दलितों, आदिवासियों व महिलाओं को पंचों या सरपंचों के पदों पर बिठा तो दिया गया है लेकिन इनमें से अधिकांश लोग गांवों के कुछ संपन्न लोगों के मोहरों के रूप में काम करते हैं। ऐसा करने से इन संस्थाओं के काम के स्तर में गिरावट आई है।
इस संदर्भ में यह तथ्य ध्यान में रखने की जरूरत है कि पाठ्य पुस्तकें विभिन्न राजनैतिक संस्थाओं व ढांचों को आदर्श रूप में पेश करने की कोशिश करती हैं। पाठ्य पुस्तकें यह बताने की कोशिश करती हैं कि राजनैतिक संस्थाओं व ढांचों को किस तरह का होना चाहिए। ये संस्थाएं व ढांचे जमीन पर किस तरह का काम कर रहे हैं। इससे इन्हें कोई लेना-देना नहीं होता।

एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि वर्तमान पाठ्य पुस्तकों को जिस ढंग से लिखा गया है वह शिक्षकों को भी सुविधाजनक लगता है। शिक्षक भी असली घटनाओं पर चर्चा से बचना चाहते हैं। इस तथ्य की पुष्टि के लिए पुनः यह याद दिलाना आवश्यक लगता है कि अधिकांश शिक्षक राजनीति की। वास्तविक घटनाओं को असभ्य मानते हैं। शिक्षकों का यथास्थितिवादी रवैया वास्तव में समाज के संपन्न तबकों के हितों की पूर्ति करता है, क्योंकि उनका वर्चस्व ज्यों-का-त्यों बना रहता है। शिक्षक यथास्थितिवादी क्यों बने रहना चाहते हैं, यह अपने आप में एक स्वतंत्र अध्ययन का विषय हो सकता है?
यदि हम इन संस्थाओं व ढांचों के दैनिक कार्यों का आकलन करें तो हम पाएंगे कि इन संस्थाओं की वास्तविक कार्यप्रणाली शोषण और शक्ति के सबंधों पर आधारित है, जिसे राजनीति कह दिया जाता है।
इस तरह यदि नागरिक शास्त्र के विषय के पठन-पाठन में बच्चों और शिक्षकों के अनुभवों को शामिल किया जाए तो वह केवल नागरिक शास्त्र ही नहीं रहेगा बल्कि एक ऐसा व्यापक विषय बनेगा जिसमें सभ्यता के कफन में दुनिया की सच्चाइयों को जिंदा नहीं जलाया जा सकेगा।


एलेक्स एम.जॉर्ज: एकलव्य के सामाजिक अध्ययन कार्यक्रम से संबद्ध रहे हैं। फिलहाल वे स्पेन के एक संस्थान के अंतर्गत मोशियोलॉजी ऑफ लॉ का अध्ययन कर रहे हैं।
मूल लेख अंग्रेजी में। अनुवाद एवं प्रस्तुतिः राम मूर्ति शर्माः एकलव्य के सामाजिक अध्ययन कार्यक्रम से जुड़े हैं।
इस लेख के सभी चित्र एकलव्य की ‘सामाजिक अध्ययन' कक्षा सातवीं पुस्तक में लिए गए हैं।

क्या अंडा सांस लेता है?

अंडे का किस्सा अभी जारी है.....
संदर्भ के अंक-49 में के. आर. शर्मा के लेख 'क्या अंडा सांस लेता है?' में पृष्ठ- 11 पर लिखा था, ".... एलब्युमिन एक तरह का प्रोटीन है जो अंडे में पल रहे भ्रूण का पोषण नहीं करता, बल्कि उसको सुरक्षा प्रदान करता है।''
एक साथी ने सवाल उठा दिया कि प्रोटीनयुक्त एलब्युमिन केवल योक यानी भ्रूण को झटकों से बचाने का काम करे - यह बात कुछ हजम नहीं होती। इसलिए हमने खोजबीन शुरू की, जिससे समझ में आया कि एलब्युमिन में लगभग 87 प्रतिशत पानी होता है, 10-11 प्रतिशत में तरह-तरह के प्रोटीन और शेष 2-3 प्रतिशत में विभिन्न खनिज, वसा व कार्बोहाइड्रेट। हमारे द्वारा देखे गए विभिन्न स्रोत इन बातों पर सहमत थे कि एलब्युमिन सुरक्षा के अलावा ---
1. भ्रूण को आर्द्रता यानी नमी प्रदान करता है।
2. इसमें मौजूद प्रोटीन मुर्गी के भ्रूणीय विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं; खासतौर पर भ्रूण का पृष्ठीय व उदर भाग का अक्ष तय करने में।
एलव्युमिन में मौजूद प्रोटीन का इस्तेमाल भ्रूण के पोषण के रूप में होता है ऐसा स्पष्ट उल्लेख हमें कहीं नहीं मिला। कई लेखक ऐसा इंगित करते हुए प्रतीत हुए परन्तु उनमें भी स्पष्ट मत व्यक्त करने में झिझक दिखाई दी। इसलिए खोजबीन का यह हिस्सा अभी अधूरा है जिसमें आप भी मदद कर सकते हैं।

—संपादक मंडल