ओ.पी.जोशी, जयश्री सिक्का

हवा से भरी कोशिकाएं, वज़न पानी से भी हल्का और किसी भी तरल पदार्थ को आरपार न निकलने देना। ये कुछ ऐसे गुण हैं जिन्होंने एक पेड़ की छाल को इतना उपयोगी बना दिया है कि बोतल के ढक्कन से लेकर आणविक संयत्रों तक में इसका उपयोग हो रहा है। जीवशास्त्री इस पेड़ को ‘कुरकुस रबर’ कहते हैं। सूखी, गड्ढों से भरी इसकी खाल जिसकी खाल जिसकी कि हम बात कर रहे हैं उसको ही हम ‘कॉर्क’ कहते हैं। अब ज़रा सोचिए इस नाम के बारे में, क्या-क्या याद आता है। ‘बोतल का कॉर्क’, ‘शटलकॉक की कॉर्क’, और वो ‘क्रिकेट की कॉर्क बॉल’.....ऐसे ही नाम ढूंढते रहेंगे तो लिस्ट लंबी, और लंबी होती जाएगी।

पुर्तगाल, स्पेन, पश्चिमी फ्रांस के कुछ हिस्सों, इटली व उततरी अफ्रीका में यह पेड़ खूब पाया जाता है। कॉर्क के पेड़ रेतीली ज़मीन पर आसानी से पनपते हैं। इन पेड़ों की शाखाओं को ज़मीन में लगाकर नए पेड़ उगाए जा सकते हैं। सूखी गर्मी, आद्र्रतायुक्त ठंड और समुद्र तट तीनों ही तरह का मौसम चाहिए इसको पनपने के लिए।

वैसे तो कॉर्क का पेड़ अपनी 150 से 300 साल लम्बी ज़िंदगी में बाहरी छाल (यानी कॉर्क) को सांप की केंचुली की तरह लगातार निकालता रहता है और उसकी जगह फिर नई छाल आ आती है। लेकिन इस सबमें कई साल लग जाते हैं और बाज़ार में कॉर्क की भारी मांग को देखते हुए ज़रूरी हो जाता है कि हम समय से पहले ही कॉर्क के पेड़ से छाल निकालते रहें।

20 वर्ष की उम्र के आसपास पेड़ से पहली बार छाल यानी कॉर्क छीला जाता है। इसके बाद आमतौर पर हर नौ-दस साल में एक बार कॉर्क छीला जाता है। पूरी उम्र के लिहाज़ से करीब 150 साल तक कॉर्क, पेड़ से छीला जा सकता है।

इस पेड़ के तने में ऐसे ऊतक होते हैं, जिनसे लगातार नई कोशिकाएं पूरी सतह पर समान रूप से बनती हैं। कॉर्क तो पेड़ की छाल है, और छाल का काम हे मौसम से तने को बचाना। तो होता यह है कि कॉर्क छीलकर निकालने के बाद भीतर बन रही नई कोशिकाएं इस खाली जगह का स्थान ले लेती हैं और धीरे-धीरे मोटी चमड़े-सी सतह फिर बन जाती है। इस तरह हमें कॉर्क लगातार मिलता रहता है।

कॉर्क की खासियत उसकी हवा से भरी कोशिकाएं हैं। कॉर्क में 35 प्रतिशत वसा होती है और इसलिए इसमें से पानी या अन्य कोई तरल आरपार नहीं जा सकता। हर कोशिका अत्यंत लचीली होती है। ऐसी कोशिकाओं की परत सूखी व गर्म हवा से पेड़ का अच्छा बचाव करती है।

आमतौर पर कॉर्क निकालने का काम गर्मियों में किया जाता है क्योंकि इस समय अधिक वाष्पीकरण से तना कुछ सूख जाता है और छाल निकालना आसान हो जाता है। वक्त के साथ-साथ अन्य जगहों पर तो कई कामों के लिए नई-नई तकनीक आ रही हैं लेकिन कॉर्क निकालने के तौर-तरीके अब भी वही हैं। अभी भी यह काम हाथों से ही किया जाता है। किसी तेज़ चाकू या फिर खासतौर पर बनाई गए कुल्हाड़ी या गोलाकार आरी से उस गहराई तक कटान बना देते हैं, जहां तक कॉर्क है। काट खड़े में लगाई जाती है और चारों तरफ आड़े में एक गोल घेरे में भी। उसके बाद डंडे व छैनी आदि की मदद से बाहरी छाल को भीतर के ऊतकों से धीरे से अलग कर देते हैं। इस बात का खास ध्यान रखा जाता है कि अंदर की नई कोशिकाएं बनाने वाली कैम्बियम की परत को किसी भी तरह से चोट न पहुंचे। हमें आगे भी कॉर्क जो चाहिए!

कॉर्क की छाल निकालकर फिर इसे खरीदने वालों के निरीक्षण के लिए रखा जाता है। यहां से आधे बेलन की शक्ल जैसे टुकड़ों में कॉर्क की परतों को कारखानों में ले जाया जाता है। जहां इन्हें लगभग एक घन्टे तक उबाला जाता है या भाप में रखा जाता है। इससे कॉर्क फूल जाता है और इसमें उपस्थित खनिज और अम्ल वगैरह निकल जाते हैं। और फिर सतह के खुरदुरेपन को हाथ से घिसकर निकाल दिया जाता है। ठंडा होकर या मुलायम और लचीला हो जाता है।

कॉर्क की गुणवत्ता आमतौर पर इस बात से निर्धारित होती है कि उसमें उपस्थित छिद्र कितने हैं। कार्क का इस्तेमाल करते समय यह ध्यान रखते हैं कि उपयोग के लिए आकार काटते समय, उसे छिद्रों की लम्बवत दिशा में काटा जाता है। बोतलों के डॉट हमेशा लम्बी ओर से यानी सिर पर से काटे जाते हैं।

आमतौर पर बोतल में कार्क की डॉट फंस जाने पर सबने गरम पानी या ठंडा पानी डालने जैसी जुगत भिड़ाने की कोशिश ज़रूर की होगी, लेकिन कॉर्क के हल्केपन के राज़ के बारे में शायद ही सोचा होगा। कॉर्क के हल्के होने का प्रमुख कारण कॉर्क की हवा से भरी कोशिकाएं हैं। कॉर्क की हवा से भरी इन कोशिकाओं की दीवारें बहुत पतली होती हैं और इसी कारण कॉर्क बहुत ही हल्के पदार्थों में से एक है, पानी के 1/5 वें भाग के बराबर। कॉर्क एक अच्छा कुचालक भी है, उष्मा और बिजली दोनों आसानी से इसके आरपार नहीं जा सकते।

कॉर्क की बहुत-सी विशेषताओं - लचीलापन, कुचालकता, बहुत कम घनत्व आदि के कारण दुनिया के इसके लिए बहुत से उपयोग ढूंढ लिए हैं।

इसकी कोशिकाओं पर बहुत से रसायनों अम्बों या क्षारों का लगभग नगण्य असर होता है। कॉर्क ज्वनशील नहीं है, और यह लम्बे समय तक अपनी विशेषताओं की बरकरार रखता है। यह गंधहीन और स्वादहीन भी है। ये सब गुण न सिर्फ बोतलों को बंद करने के डॉट बनाने के लिए बल्कि विद्युत उपकरणों में कुचालक परत, फर्श के लिए बिछौना और फर्श-दीवार के टाईल बनाने के लिए भी उपयोगी हैं।

हालांकि कॉर्क का सबसे जाना पहचाना उपयोग बोतल की डॉट है लेकिन कई अन्य काम के लिए भी इसका इस्तेमाल होता है। हवा से भरे खूब सारे छिद्रों के कारण यह आवाज़ का बेहद उम्दा कुचालक है और ध्वनि को बहुत बढ़िया तरीके से सोखता है, उसे गूंजने नहीं देता। इसलिए सिनेमाघरों और नाट्यगृहों में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है।

कॉर्क से बोर्ड भी बनाए जाते हैं। इसके लिए कॉर्क का चूरा करके उसे ऊंचे ताप पर दबाया जाता है या फिर उसमें चिपकाने वाला पदार्थ डाल देते हैं और फर्शों व दीवारों की टाईलों, लिनोलियम, बर्फ जमने वाली जगहों आदि में इसका उपयोग करते हैं। साथ ही गर्म होने वाले या भाप बनाने वाले कुछ बर्तनों और यंत्रों में भी इसे गास्केट के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं।

कॉर्क के कुछ अन्य उपयोग भी हैं जैसे - आणविक पनडुब्बियों के एयरकंडिशनर, सक्रिय रेडियों आइसोटोप्स को संग्रहित करने आदि में। कॉर्क के आवरण में रखे आइसोटोप्स 10 मीटर ऊंचाई से गिरने पर या 800 अंश सेल्सियस तापमान होने पर भी बाहर नहीं जा सकते। रॉकेट व सेटेलाइट में भी कॉर्क का उपयोग लगातार बढ़ रहा है।

अब आप सोचिए आपने और कहां-कहां कॉर्क का उपयोग होता देखा है?


ओ.पी. जोशी और जयश्री सिक्का गुजराती कॉलेज इंदौर में वनस्पति विज्ञान पढ़ाते हैं।

चित्रांकन: लक्ष्मी मूर्ति, उदयपुर