अरविंद गुप्त

भ्रूण से जीव तक : मुर्गी के अंडे के अंदर चूज़े के विकास की विभिन्न अवस्थाएं - 1.15 दिन बाद अंडे के अंदर की स्थिति। आंखे लगभग पूरी बन चुकी हैं। चोंच इतनी विकसित हो चुकी है कि खुल और बंद हो सकती है। 2.17 दिन बाद - चूज़े का विकास लगभग पूरा हो चुका है। वह सांस लेने के लिए चोंच खोल और बंद कर सकता है, अंडे के बाहर से उसकी सांस लेने की आवाज़ सुनी जा सकती है। 3. 21 दिन बाद - चूज़े ने चोंच से अंडे का बाहरी खोल तोड़ दिया है। इसके बाद भी ज़रूरी नहीं कि चूज़ा तुरंत बाहर निकल आएगा, उसे इसमें एक घंटे से लेकर दो दिन का समय तक लग सकता है।

जब किसी बच्चे का जन्म होता है तो उसे देखने वाले लोग हमेशा ऐसी बातें करते मिल जाएंगे - अरे .... ! इसकी नाक तो पिता से मिलती है और रंग बिल्कुल मां पर गया है ........। जब वह थोड़ा बड़ा होता है तो लोग उसकी आदतों के बारे में टिप्पणी करते हैं - इसका गुस्सा तो बिल्कुल उन .... जैसा है, या फिर चलने, खाने-पीने, आदि का तरीका उन....जैसा। करीब से जानने वाले 'लोग तो चाचा, दादा, मामा तक के कुछ गुण बच्चे में खोज निकालते हैं। हम शायद ही सोचते हों कि नए जन्मे बच्चे के पास पीढ़ियों के गुण कैसे आए।

इसका कारण है अनुवांशिकी - यानी गुणों का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जाना। यह होता है गुणसूत्रों के कारण। इसका भी पूरा का पूरा अपना एक चक्र है। आइए देखें कैसा।

कुछ दिनों पहले की बात है। बुलबुल के एक जोड़े ने मेरे घर में घोंसला बनाना शुरू किया। सुरक्षित ऊंचाई पर टंगे टेलीफोन के तार के सहारे उन्होंने एक सप्ताह के भीतर तिनकों का एक सुघड़ प्याला बनाया और बारी-बारी से उसमें बैठना शुरू किया। एक बार मैंने चुपके से उनके घोंसले में झांककर देखा - दो सुंदर अंडे घोंसले में रखे थे। 8-10 दिनों के बाद दिखाई दिया कि दोनों पक्षी काफी उत्तेजित होकर घोंसले के आसपास मंडरा रहे थे। पता चला कि अंडों में से दो नन्हें बच्चे निकल आए हैं। उनकी आंखें बंद थीं और शरीर नंगे। शीघ्र ही उनके माता-पिता ने उन्हें खिलाना शुरू किया और देखते-देखते बच्चे बड़े होने लगे।

वैसे देखा जाए तो यह कोई बड़ी घटना नहीं थी। इस प्रकार के जीवनचक्र हमारे चारों ओर लगातार चलते रहते हैं, किन्तु मेरे लिए यह कभी समाप्त न होने वाले उस विस्मयकारी नाटक का एक छोटा-सा दृश्यमात्र था जिसे हम जीवन कहते हैं। ज़रा सोचिए, करोड़ों वर्षों पूर्व पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत हुई और शुरू हुआ जीवन और मृत्यु का यह क्रम जो अब तक अविरल गति से चला आ रहा है।

बुलबुल का ही उदाहरण लें। उन्हें कैसे पता चला कि घोंसला बनाने का समय आ गया है? प्याले के समान सुंदर घोंसला बनाना उन्हें किसने सिखाया? उन्होंने गौरेया जैसा बेतरतीब घोंसला क्यों नहीं बनाया? अंडों से उनके समान ही बच्चे क्यों निकले? अपने माता-पिता से बहुत भिन्न क्यों नहीं निकले? अचंभित कर देने वाली ये सब बातें उस प्रक्रिया का भाग हैं जिसे हम प्रजनन कहते हैं और जिसके कारण पृथ्वी पर निरंतर जीवन चल रहा है। आइए, इस प्रक्रिया को थोड़ा विस्तार से देखें।

गुणसूत्रों में छुपा राज़

प्रजनन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि संतान अपने माता-पिता के समान होकर भी उनसे कुछ भिन्न होती है। इस समानता - भिन्नता का राज़ छुपा है। गुणसूत्रों में, जिन्हें अंग्रेजी में chrom

नर मनुष्य के गुणसूत्रों का फोटो: ऊपर के फोटो में गुणसूत्र दिख रहे हैं। नीचे के फोटो में इन्हीं गुणसूत्रों को जोड़ियों में क्रमवार रखकर दिखाया गया है। नर मनुष्य की साधारण कोशिका में 23 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं - जिनमें से एक जोड़ी लिंग गुणसूत्रों ( नर में x और y) की होती है।

Osomes कहते हैं। गुणसूत्र एक रासायनिक पदार्थ के बने लम्बे धागों के समान होते हैं जिसका नाम है - डीऑक्सी राइबोज़ न्यूक्लिक एसिड या संक्षेप में डी.एन.ए.। यदि मुझसे पूछा जाए कि प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले रासायनिक पदार्थों में सबसे चमत्कारी, सबसे अद्भुत और जीवन के रंगमंच पर सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले पदार्थ कौन-से हैं? तो मैं तीन पदार्थों - डी.एन.ए., पानी और क्लोरोफिल के नाम सूची में रखूंगा और डी.एन.ए. को सबसे ऊपर को स्थान दूंगा। यह पदार्थ, जिसकी रासायनिक संरचना काफी जटिल है, उस अदृश्य पुल का काम करता है जिस पर से होकर एक पीढ़ी के गुण दूसरी पीढ़ी में जाते हैं। यानी गाय का बच्चा गाय के समान होता है - खरगोश के समान नहीं, मक्खी के अंडे से मक्खी ही निकलती है - मच्छर नहीं; नीम के बीज से नीम का ही पेड़ बनता है - पीपल का नहीं। बात सिर्फ यहीं तक नहीं रुकती। हम और आप की आवाज़, बालों का रंग, कद-काठी, आदि अपने-अपने माता पिता से मिलते हैं तो इसका रहस्य डी.एन.ए में ही छुपा है।

जंतु शरीर की इकाई
डी.एन.ए. और गुणसूत्रों के बारे में अधिक विस्तार से समझने से पहले यह ज़रूरी है कि हम उन इकाइयों की रचना समझ लें जिनसे सब जीवधारियों के शरीर बने होते हैं और जिनमें डी.एन.ए और गुणसूत्र पाए जाते हैं। इस इकाई को कोशिका ( cell ) कहते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि कोशिका में बह गुण होता है जो किसी भी निर्जीव वस्तु में नहीं पाया जाता। कोशिका में प्रजनन की क्षमता होती है - यानी वह पोषण ग्रहण कर सकती है और बढ़ती है। कालांतर में कोशिका का विभाजन होकर उससे दो कोशिकाएं बन जाती हैं। हम कह सकते हैं कि यदि हमारे शरीर में कहीं जीवन है तो वह प्रत्येक कोशिका में है।

जंतुओं के शरीरों में बहुत भिन्न भिन्न प्रकार की छोटी-बड़ी कोशिकाएं पाई जाती हैं। कोशिका की रचना उसके काम पर निर्भर करती है। रक्त में पाई जाने वाली कोशिकाएं मस्तिष्क की कोशिकाओं से एकदम भिन्न होती हैं तो मस्तिष्क और फेफड़ों की कोशिकाओं में कोई समानता नहीं होती। आमतौर पर कोशिकाएं आकार में इतनी छोटी होती हैं कि उन्हें केवल सुक्ष्मदर्शी से देखा जा सकता है। एक आलपिन के सिर पर हज़ारों कोशिकाओं को रखा जा सकता है। अपवाद स्वरूप ही कुछ कोशिकाएं बड़ी होती हैं। पक्षियों के अंडे में पाए जाने वाला पीला भाग एक कोशिका ही होता है। हां एक बात ज़रूर है बाहर से देखने में कोशिकाएं चाहे जितनी भिन्न हों - बड़ी हों या छोटी, लंबी हों या गोल, शरीर के किसी भी भाग में पाई जाती हों, उनकी भीतरी बनावट में काफी समानता होती है।

डी.एन.ए. और अनुवांशिकी
प्रत्येक जंतु की कोशिकाओं में गुणसूत्रों की एक निश्चित संख्या पाई जाती है। कोशिका में ये गुणसूत्र केंद्रक के अंदर पाए जाते हैं। किसी जन्तु में इनकी संख्या


आसान नहीं है अध्ययन

जब हम कोशिका की रचना का विवरण पढ़ते हैं तो आमतौर पर यह धारणा बन जाती है कि कोशिका के विभिन्न अंगों को देखने के लिए केवल एक सूक्ष्मदर्शी की ही आवश्यकता है। लेकिन ऐसा नहीं है। कोशिका के विभिन्न अंगों को देखने और उनके कार्यों को समझने में कठिनाईयां आती हैं। सबसे पहले तो यह कि कोशिका का आकार बहुत छोटा होता है और उसे देखने के लिए शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी की आवश्यकता होती है। दूसरी कठिनाई यह है कि जीवद्रव्य, केन्द्रक, तथा अन्य अंग पारदर्शी होते हैं और इसलिए ये सरलता से दिखाई नहीं पड़ते। वैज्ञानिकों ने इसका उपाय रंजकों के रूप में ढूंढा है। रंजक, ऐसे पदार्थ होते हैं जो कोशिका के विभिन्न भागों के साथ रासायनिक क्रिया करके उन्हें रंगीन बना देते हैं जिससे उन्हें आसानी से देखा जा सकता है।


4 होती है, किसी में 16 तो किसी अन्य जन्तु में 60 तक। मनुष्य में यह संख्या 46 होती है। हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका में पाए जाने वाले इन 46 गुणसूत्रों में हमारी पूरी जन्मपत्री संकेतबद्ध की हुई होती है। इसका मतलब यह है कि इन गुणसूत्रों की वजह से हम मनुष्य के समान दिखाई देते हैं, इनकी वजह से हममें, हमारे माता-पिता के लक्षण होते हैं और इनकी वजह से हमारे शरीर की क्रियाएं मशीन की तरह चलती रहती हैं। यही नहीं, ये गुणसूत्र यह भी निर्धारित करते हैं कि हमारी अगली पीढ़ी कैसी होगीं। चित्र-1(पेज नं. 20) में मनुष्य के गुणसूत्र दिखाए गए हैं। यह चित्र बहुत शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी से लिया गया है और गुणसूत्र अपने वास्तविक आकार से कई हज़ार गुना बड़े दिखाए गए हैं।

प्रत्येक जोड़ी का एक गुणसूत्र पैतृक यानी पिता से आया हुआ और दूसरा मातृक यानी माता से आया हुआ होता है। डी.एन.ए. से बने इन लम्बे तंतुओं के अलग-अलग खंड अलग-अलग लक्षणों के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। किसी खंड़ के कारण बालों का रंग निर्धारित होता है तो किसी खंड से आंखों का रंग तो किसी और से कद। इन खंडों को जीन ( Gene ) कहते हैं। प्रत्येक जोड़ी के दोनों गुणसूत्रों में एक स्थान पर एक ही लक्षण का जीन होता है। जाहिर है कि संतान को प्रत्येक लक्षण के लिए दो जीन मिलते हैं - एक माता से और एक पिता से। इन दोनों की परस्पर क्रिया से यह निर्धारित होता है कि संतान में कौन-सा लक्षण दिखाई देगा। संतान को माता-पिता की ओर से लक्षणों का मिलना अनुवांशिकी कहलाता है।

अनुवांशिकी और प्रजनन के लिए मूलभूत जरूरत है कोशिका विभाजन - एक कोशिका से दो कोशिकाएं बनना। आइए देखें, कैसे-कैसे होता है कोशिका विभाजन।

कोशिका विभाजन

जब किसी कोशिका का विभाजन होकर दो नई कोशिकाएं बनती हैं तब प्रत्येक नई कोशिका की रचना उसकी मातृ कोशिका के समान ही होती है। उसमें मातृ कोशिका के ही समान कोशिका झिल्ली, केन्द्रक, माइटोकॉन्ड्रिया तथा अन्य अंग पाए जाते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि पुत्री कोशिकाओं में ठीक उतने हीं, ठीक उसी प्रकार के गुणसूत्र पाए जाते हैं जितने और जिस प्रकार के मातृ कोशिका में होते हैं।

1.  समसूत्री कोशिका विभाजन

कोशिका विभाजन के समय एक जटिल प्रक्रिया के द्वारा केन्द्रक में स्थित प्रत्येक गुणसूत्र खड़ी दिशा में विभाजित होकर दो भागों में बंट जाता है। इस प्रकार गुणसूत्रों की संख्या दुगनी हो जाती है। इसी अवधि में जीवद्रव्य और अन्य अंगों का विभाजन भी होता रहता है और जब तक यह प्रक्रिया पूरी होती हैं। गुणसूत्र भी अलग-अलग हो जाते हैं।

इसे समसुत्री कोशिका विभाजन क्यों कहते हैं? सुत्र का अर्थ होता है धागा। गुणसूत्र धागों जैसे दिखते हैं। इसलिए अगर कोशिका विभाजन के बाद भी इन धागों की संख्या उतनी ही रहे जितनी पहले थी - तो उसे समसूत्री कोशिका विभाजन कहते हैं। यह प्रक्रिया चित्र-2 ( पेज नं. 24 ) में दिखाई गई है। यह एक ऐसी कोशिका में दिखाई गई है जिसमें गुणसूत्रों की सामान्य संख्या - 6 यानी ३ जोड़ी होती है। चूंकि इस प्रकार के विभाजन के बाद गुणसूत्रों की संख्या में परिवर्तन नहीं होता, इसे समसूत्री कोशिका विभाजन कहते हैं।

सभी पौधों और जंतुओं में समसूत्री कोशिका विभाजन इसी प्रकार होता है - चाहे उनमें गुणसूत्रों की संख्या कितनी भी होकोशिकाओं में पाए जाने वाले गुणसूत्रों की सामान्य संख्या को द्विगुणित (Diploid) या 2n कहते हैं।

जैसे कि मनुष्य की कोशिका में 23 जोड़ी ( 2 X 23 ) गुणसूत्र होते हैं और समसूत्री कोशिका विभाजन के बाद बनी दोनों कोशिकाओं में भी, प्रत्येक में 23 जोड़ी ( 2 X 23 ) गुणसूत्र होंगे।

2.  अर्धसूत्री कोशिका विभाजन

प्रजनन के संदर्भ में यहां एक दिलचस्प प्रश्न से हमारा सामना होता है। प्रजनन की प्रक्रिया में नर की एक कोशिका ( शुक्राणु ) और मादा की एक कोशिका ( अंडाणु) के मेल से संतान बनती है। प्रश्न यह है कि यदि अंडाणु और शुक्राणु में भी 2n गुणसूत्र होते हैं तो अगली पीढ़ी में गुणसूत्रों की संख्या 4n और उसकी अगली पीढ़ी में 8n क्यों नहीं हो जाती है?

जब अंडाणु और शुक्राणु बनते हैं। तब एक विशेष प्रकार का कोशिका विभाजन होता है, जिसके द्वारा गुणसूत्रों की संख्या ठीक आधी हो जाती है। उदाहरण के लिए मनुष्य के शुक्राणु और अंडाणु में गुणसूत्रों की संख्या 46 के स्थान पर 23 होती है। इस संख्या को अगुणित ( Haploid ) या n कहते हैं।

  1. कोशिका के केंद्रक के अंदर गुमसूत्र गट्ठर के रूप में मौजूद। इस स्थिति में ने अलग-अलग नहीं दिखते। केंद्रक के बाहर कोशिका द्रव में एक दूसरे के पास-पास दो छोटी-छोटी नलाकार रचनाएं - जिन्हें सेंट्रिओल कहते हैं।
  2. सेंट्रिओल एक दूसरे से दूर जाने लगते हैं। गुणसूत्र लंबे पतले धागों जैसे दिखने लगते है। कुल 3 जोड़ी यानी 6 गुणसूत्र।
  3. सेंट्रिओल और दूर जाते हुए। इन जलाकार रचनाओं को जोड़ते हुए धागे बनने की शुरुआत। गुणसूत्र मोटे छड़नुमा से बन जाते हैं। हर गुणसूत्र अपनी अपनी एक-एक नकल छवि बना लेता है। इसलिए प्रत्येक गुणसूत्र की दो-दो शाखाएं दिखने लगती हैं-जो बीच में से जुड़ी होती हैं।
  4. सेंट्रिओल केंद्रक के दोनों तरफ पहुंच जाते है। इनके बीच धागे पुरी तरह से खिंच जाते हैं। केंद्रक की झिल्ली ओझल होने लगती है। गुणसूत्र बीच की तरफ आने लगते हैं।
  5. केंद्रक की झिल्ली पूरी तरह से खत्म हो जाती है। सेंट्रिओल से निकलने वाली धागेनुमा रचनाएं हरेक गुणसूत्र के साथ जुड़ जाती हैं। सब गुणसूत्र बीच मे आ जाते हैं और एक तकलीनुमा रचना बन जाती है।
  6. गुणसूत्र बीच में से अलग-अलग होकर दोनों तरफ के सेंट्रिओल की ओर जाने लगते हैं।

  7. गुणसूत्रों के दोनों समूह अपने-अपने ध्रुवों ( सेंट्रिओल ) के पास पहुंच जाते हैं। कोशिका विभाजन की शुरुआत।
  8. दोनों गुणसूत्रों के समूहों के चारों तरफ नई केंद्रक झिल्लियां बनने लगती है। गुणसुत्र पतले और लंबे होने लगते हैं। दोनों सिरों के सेंट्रिओल अपनी एक-एक नकल और बना लेते हैं। कोशिका विभाजन अंतिम चरण में।
  9. नई बनी कोशिकाओं में केंद्रक के चारों तरफ झिल्ली पूरी तरह से बन जाती है। गुणसूत्र फिर से एक गट्ठर जैसा बना लेते हैं। कोशिका विभाजन पूर्ण।

प्रत्येक कोशिका में 3 जोड़ी यानी 6 गुणसूत्र। इसलिए इसे समसूत्री कोशिका विभाजन कहते हैं।

इस प्रकार के कोशिका विभाजन को अर्धसूत्री कोशिका विभाजन कहते हैं। यानी कि इसमें धागों की संख्या आधी हो जाती है - इसलिए अर्धसूत्री।

चित्र-3,( पेज नं. 26 ) में अर्धसूत्री विभाजन की प्रक्रिया दिखाई गई है। यह विभाजन की प्रक्रिया भी बहुत व्यवस्थित होती है और प्रत्येक जोड़ी का एक-एक गुणसूत्र एक-एक पुत्री कोशिका में चला जाता है। जब अंडाणु और शुक्राणु का मेल होता है तब गुणसूत्रों की संख्या फिर से दुगुनी हो जाती है।

लैंगिक प्रजनन
जब शुक्राणु का मेल अंडाणु से होता है। तब एक नए जंतु की शुरूआत भ्रूण के रूप में होती है। इस प्रकार के प्रजनन को लैंगिक प्रजनन कहते हैं क्योंकि इसमें नर और मादा दोनों लिंगों के जंतुओं का होना ज़रूरी होता है।

आमतौर पर शुक्राणु छोटे लम्बे और गतिशील होते हैं जब कि अंडाणु आकार में बड़े गोल और स्थिर होते हैं। शुक्राणु को अंडाणु तक कैसे पहुंचाया जाए? यह प्रक्रिया अलग-अलग जंतुओं में बहुत ही अलग-अलग तरह से होती है। पानी में रहने वाले अधिकांश बिना रीढ़ की हड्डी वाले जंतु अरबों की संख्या में शुक्राणु बनाते हैं और उन्हें पानी में छोड़ देते हैं। शुक्राणु आकार में बहुत छोटे होते हैं कि इसके विपरीत अंडाणु तुलनात्मक दृष्टि से बड़े होते हैं और उनमें भोजन पदार्थ इकट्ठा होता है। इन जंतुओं में अंडाणु कम यानी हजारों की संख्या में बनते हैं। और इन्हें भी पानी में छोड़ दिया जाता है। शुक्राणु पानी में इधर-उधर तैरते रहते हैं और उनकी संख्या बड़ी होने के कारण कोई-न-कोई शुक्राणु किसी न किसी अंडाणु तक पहुंच ही जाता है। फिर यह शुक्राणु अपनी पूंछ बाहर छोड़ देता है। और अंडाणु के भीतर धंस जाता है। जब अंडाणु और शुक्राणु के केन्द्रक आपस में मिल जाते हैं तब एक नए जंतु या भ्रूण की शुरुआत होती है। अंडाणु और शुक्राणु के मेल की इस क्रिया को निषेचन कहते हैं।

ज़मीन पर रहने वाले जंतु अपने अंडाणु-शुक्राणु को ज़मीन पर तो नहीं छोड़ सकते। उनमें निषेचन कुछ अन्य तरीकों से होते हैं।

नर और मादा मेंढक ( और उनके वर्ग के अन्य जंतु ) प्रजनन के समय पानी में चले जाते हैं। पहले मादा अपने

  1. तीन जोड़ी गुणसूत्र अलग-अलग बिखरे लंबे-लंबे तन्तुओं जैसे दिखने लगते हैं। गुणसूत्रों में दो-दो शाखाएं नहीं दिख रही परंतु ऐसे सबूत मिले हैं कि इस स्थिति में प्रत्येक गुणसूत्र अपनी एक नक्ल बना चुका है।
  2. एक जैसे गुणसूत्र एक-दूसरे के पास आ जाते हैं और जोड़ियां बना लेते हैं। गुणसूत्र छोटे और मोटे हो जाते हैं।
  3. प्रत्येक गुणसूत्र की नकल ( प्रतिकृति ) भी स्पष्ट दिखने लगती हक की झिल्ली ओझल होने लगती है।

  4. तंतुनुमा धागों से जुड़ी गुणसूत्रों की प्रत्येक जोड़ी बीच में आ जाती है और तकनीनुमा रचना बन जाती है।
  5. गुणसूत्र और उसकी प्रतिकृति एक दूसरे से अलग नहीं होते - परंतु प्रत्येक जोड़ी में से एक-एक गुणसूत्र अलग-अलग ध्रुवों की तरफ जाने लगते हैं।
  6. नए केंद्रक बन जाते हैं जिनमें 3. जोड़ी गुणसूत्रों की जगह सिर्फ 3 गुणसुत्र हैं। गुणसूत्र और उसकी प्रतिकृति अभी भी साथ-साथ है।

7-12. गुणसूत्रों की और प्रतिकृतियां (नकल) नहीं बनती। समसूत्री कोशिका विभाजन की तरह इन दो कोशिकाओं की चार कोशिकाएं बन जाती है। प्रत्येक कोशिका में सिर्फ 3 गुणसूत्र होते हैं। इसीलिए इसे पूरी कोशिका विभाजन होते हैं।


मैराथन दौड़

मनुष्य के शुक्राणुओं के सूक्ष्मतम आकार को देखते हुए एक शुक्राणु को अंडाणु तक पहुंचने के लिए उतनी दूरी तय करनी पड़ती है जितनी एक स्वस्थ मनुष्य को बिना रूके 100 किलोमीटर दौड़ने के लिए करनी पड़ेगी


अंडाणुओं को पानी में छोड़ देती है और फिर नर अपने शुक्राणु इन अंडाणुओं पर छोड़ता है। शुक्राणुओं की संख्या करोड़ों में होने के कारण हर अंडाणु का निषेचन लगभग निश्चित होता है। इसके बाद नर और मादा संतान की चिंता किए बिना अपने-अपने रास्ते चले जाते हैं। इन भ्रूणों में से अधिकांश मौत का शिकार हो जाते हैं। सिर्फ 10-20 प्रतिशत ही वयस्क हो पाते हैं। अधिकांश मछलियां भी इसी प्रकार प्रजनन करती हैं।

कुछ बिना रीढ़ की हड्डी वाले जंतुओं (कीट ) और कुछ रीढ़ की हड्डी वाले जंतुओं ( सांप, छिपकली, पक्षी, स्तनधारी ) में निषेचन को सुनिश्चित करने के लिए शुक्राणुओं को सीधे मादा के शरीर में पहुंचाने के तरीके हैं। मादा अंडाणुओं को अपने शरीर में ही रख लेती है और संभोग क्रिया के द्वारा नर शुक्राणुओं को उसके शरीर में पहुंचा देता है। इस प्रकार ऋण सुरक्षित भी रहते हैं और अंडाणु कम संख्या में पैदा करने पड़ते हैं। किन्तु शुक्राणुओं का बड़ी संख्या में बनना अभी भी जरूरी होता है। मनुष्य को ही उदाहरण लें तो हम देखते हैं कि मादा में एक बार में प्रायः एक ही अंडाणु बनता है किन्तु एक बार में नर, मादा के शरीर में जो वीर्य छोड़ता उसमें शुक्राणुओं की संख्या लगभग 10 करोड़ होती है। मादा के शरीर में पहुंचते ही शुक्राणुओं में अंडाणु तक पहुंचने की दौड़ शुरू हो जाती है।

कुछ जंतुओं के अंडाणु कुछ ऐसे रसायन छोड़ते हैं जिनके कारण शुक्राणु उनकी ओर आकर्षित होते हैं। इससे निषेचन सुनिश्चित हो जाता है। अन्य जंतुओं में अंडाणु और शुक्राणु इतनी संख्या में पैदा किए जाते हैं कि बिना रसायन के भी कुछ शुक्राणु प्रत्येक अंडाणु तक पहुंच ही जाते हैं।

यद्यपि कई शुक्राणु एक साथ अंडाणु तक पहुंच जाते हैं किन्तु यह मुनासिब नहीं होता कि एक से अधिक शुक्राणु एक अंडाणु को निषेचित करे। ( ऐसा प्रयोगशाला में किया जा सकता है किन्तु एक से अधिक शुक्राणुओं से बना भ्रूण जीवित नहीं रहता। ) जैसे ही अंडाणु के पास पहुंचने वाला पहला शुक्राणु उसे छूता है, अंडाणु की बाहरी झिल्ली का ऋणात्मक आवेश एकदम धनात्मक हो जाता है।

इस धनात्मक आवेश के रहते चाहे जितने शुक्राणु, अंडाणु के पास पहुंच जाएं, वे उसे छू नहीं सकते। यह धनात्मक आवेश कुछ ही समय तक रहता है और इतने समय में अंडाणु के चारों ओर एक ऐसी परत बन जाती है जो शेष शुक्राणुओं का अंडाणु से मिलने का रास्ता हमेशा के लिए बंद कर देती है। जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, शुक्राणु के x और अंडाणु के x मिलकर भ्रूण में गुणसूत्रों की संख्या फिर से 2x हो जाती है और यहां से एक नए जंतु की शुरूआत होती है। भ्रूण का विभाजन होकर एक कोशिका से दो कोशिकाएं बनती हैं और फिर दो से चार, चार से आठ, आठ से सोलह और इस प्रकार लाखों कोशिकाएं बनती जाती हैं। ये सारी प्रक्रिया समसूत्री विभाजन से होती हैं। जैसे-जैसे कोशिकाएं बनती जाती हैं, वे जंतु के शरीर में अपना स्थान ग्रह करती जाती हैं और उनकी रचना भी उस अंग के अनुसार होती है जिस अंग को वे बनाती हैं। इस प्रक्रिया को परिवर्धन कहते हैं।

परिवर्धन के बारे में पढ़ते समय एक और सवाल हमारे सामने आ जाता है। लगभग सभी जंतुओं के ऋण एक जैसे दिखाई पड़ने हैं। फिर इनसे इतने भिन्न भिन्न दिखाई देने वाले जंतु कैसे बन जाते हैं?

इस प्रश्न का उत्तर भी डी.एन.ए. की विस्मयकारी रचना में छुपा है। गुणसूत्रों में लिपिबद्ध किए हुए निर्देशों के अनुसार जंतु का शरीर बनता जाता है। जाहिर है कि मछली के गुणसूत्रों वाले भ्रूण से मछली और मुर्गी के गुणसूत्रों वाले भ्रूण से मुर्गी बनेगी। चित्र-5 में यह दिखाया गया है कि प्रारंभिक अवस्थाओं में एक समान दिखने वाले भ्रूणों में किस प्रकार धीरे-धीरे अंतर आता जाता है।

अब आप सोचिए कि अगर प्रजनन समसूत्री कोशिका विभाजन द्वारा होता तो क्या होता? एक बात तो हमने पहले ही देख ली है कि लैंगिक प्रजनन में ऐसा होना संभव नहीं है क्योंकि उससे हर बार प्रजनन होने पर गुणसूत्रों की संख्या दुगुनी हो जाएगी। परन्तु अलैंगिक  प्रजनन मैं तो समसूत्री कोशिका विभाजन संभव है और कई जीव-जंतुओं खासतौर पर पेड़-पौधों में होता भी है।

चित्रः 4. अंडाणु का फोटोः एक समुद्री जीव का अंडाणु। उसकी ओर आकर्षित कई शुक्राणु। इनमें से कोई एक ही अंडाणु को निषेचित करेगा।

रीढ़धारी प्राणियों के आग की तीन अवस्थाओं के बीच की तुलनाः 1. पहली अवस्था में मछली, सरीसृप, पक्षी और स्तनधारी सबके भ्रूण एक जैसे दिखते हैं। 2. दूसरी अवस्था में मली और मेंढक के समान प्राणी के भ्रूण अलग दिखने लगते हैं, पर अन्य भ्रूण अभी भी एक जैसे। गलफड़ों और पूंछ की वजह से यह अंतर पर नज़र आता है। 3. तीसरी अवस्था आते-आते प्रत्येक भ्रूण में उसकी अपनी प्रजाति की विशेषताएं दिखने लगती है।

चित्र: 5 भ्रूणों की विभिन्न अवस्थाएं

समसूत्री कोशिका विभाजन में नई कोशिका एकदम मातृ-कोशिका जैसी होती है इसलिए संतान सदा एकदम माता पिता जैसी होगी। इस संसार के सब जीव अगर इसी तरह के अलैंगिक प्रजनन से पैदा हुए होते तो शायद हमें वह विविधता देखने को नहीं मिलती जो आज चारों तरफ फैली हुई नज़र आती है।


किसका खून

बोलचाल की भाषा में अक्सर माता-पिता कहते हैं कि उनके बच्चे की रगों में उनका खून दौड़ रहा है। किन्तु खून का आनुवांशिकी से कोई संबंध नहीं होता। खून तो हर व्यक्ति का अपना ही होता है, उसे पूर्वजों से नहीं मिलता। हां, यदि माता-पिता कहें कि हमारे बच्चे के शरीर में हमारे गुणसूत्र काम कर रहे हैं तो वे ज़्यादा सही होंगे।

संतान को माता-पिता की ओर से लक्षणों का मिलना अनुवांशिकी कहलाता है। वैज्ञानिकों ने पौधों और जंतुओं की आनुवांशिकी का काफी अध्ययन किया है और इसके फलस्वरूप जीवशास्त्र की एक नई शाखा आनुवांशिकी विज्ञान विकसित हुई है।


मनुष्य की संतान मनुष्य जैसी होते हुए भी अलग होती है, कुत्ते के कोई भी दो पिल्ले या बिल्ली के बच्चे एकदम एक जैसे नहीं होते।

इस विविधता के पीछे एक बहुत बड़ा कारण लैंगिक प्रजनन और अर्धसूत्री कोशिका विभाजन का तरीका है - जिसमें अंडाणु और शुक्राणु बनते समय, जिस तरह से यह विभाजन की प्रक्रिया होती है उसमें नए गुणसूत्र अपने मातृ-पैतृक गुणसूत्रों से थोड़ा-सा अंतर लिए होते हैं। और फिर आधे गुणसूत्र माता और आधे पिता से आने के कारण - संतान में आने वाले गुण इन में से किसी में से भी आ सकते हैं - जिससे विविधता की संभावना इतनी बढ़ जाती है कि कोई भी दो बच्चे एकदम एक जैसे हों ऐसा अभी तक तो नहीं देखा गया है।


(अरविंद गुप्ते - प्राणीशास्त्र के प्राध्यापक, होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से संबद्ध )

मदद चाहिए तो . . .

वैसे तो मगर के बच्चों के पास भी अंडे का खोल तोड़ कर बाहर आने के लिए एक दांत होता है। लेकिन इसके बावजूद खोल तोड़ने में यदि उन्हें कोई दिक्कत आ जाए तो परेशान होने की बात नहीं है। मादा मगर यानी मां, मुंह में अंडे रख हल्के से दबा कर खोल चटका देती है, बाकी तो बच्चे खुद कर ही सकते हैं, मतलब बाहर आना।