हाल के एक समीक्षा अध्ययन से पता चला है कि मानव जेनेटिक्स से सम्बंधित शोध पत्रों में ‘नस्ल' (रेस) शब्द का उपयोग बहुत कम होने लगा है। खास तौर से मानव आबादियों या समूहों का विवरण देते समय उन्हें नस्ल कहने का चलन कम हुआ है। और इसका कारण यह लगता है कि जीव वैज्ञानिकों में आम तौर पर यह समझ विकसित हुई है कि नस्ल वास्तव में जीव वैज्ञानिक नहीं, बल्कि एक सामाजिक रूप से निर्मित श्रेणी है।
उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में कई आनुवंशिकीविदों की यह धारणा थी कि मानव नस्लें वास्तव में होती हैं - जैसे नीग्रो या कॉकेशियन - और ये जीव वैज्ञानिक समूह की द्योतक हैं। इस आधार पर विभिन्न जनसमूहों के बारे में धारणाएं बना ली जाती थीं। अलबत्ता, अब वैज्ञानिकों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि नस्ल जैसी धारणा का कोई जीव वैज्ञानिक आधार नहीं है।
इस संदर्भ में समाज वैज्ञानिक वेंस बॉनहैम देखना चाहते थे कि क्या इस बदलती समझ का असर शोध पत्रों में नज़र आता है। इसे समझने के लिए उन्होंने अमेरिकन जर्नल ऑफ ह्युमैन जेनेटिक्स (AJHG) में प्रकाशित शोध पत्रों को खंगाला। यह जर्नल जेनेटिक्स विषय का सबसे पुराना जर्नल है और 1949 से लगातार प्रकाशित हो रहा है। बॉनहैम और उनके साथियों ने 1949 से 2018 के बीच AJHG में प्रकाशित 11,635 शोध पत्रों को देखा। उन्होंने पाया कि जहां इस अवधि के पहले दशक में 22 प्रतिशत शोध पत्रों में नस्ल शब्द का उपयोग किया गया था वहीं पिछले दशक में मात्र 5 प्रतिशत शोध पत्रों में ही यह शब्द प्रकट हुआ।
इसके अलावा, अध्ययन में यह भी देखा गया कि प्रथम दशक में नस्लीय समूहों से सम्बंधित शब्दों - नीग्रो और कॉकेशियन - का इस्तेमाल क्रमश: 21 और 12 प्रतिशत शोध पत्रों में हुआ था। 1970 के दशक के बाद से इसमें गिरावट आई और आखिरी दशक में तो ऐसे शब्दों का उपयोग एक प्रतिशत से भी कम शोध पत्रों में किया गया।
आजकल जब शोध पत्रों में नस्ल शब्द का उपयोग किया जाता है तो उसके साथ ‘एथ्निसिटी' या ‘एंसेस्ट्री' शब्दों को जोड़ा जाता है। अन्य विशेषज्ञों का मत है कि इसकी एक वजह यह हो सकती है कि जेनेटिक्स विज्ञानी अभी भी किसी परिभाषा पर एकमत नहीं हो पाए हैं। इस संदर्भ में यूएस की नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्स, इंजीनियरिंग एंड मेडिसिन विचार-विमर्श कर रही है। अलबत्ता, एक बात साफ है कि शोधकर्ता अब मानते हैं कि नस्ल कोई जीव वैज्ञानिक धारणा नहीं बल्कि एक सामाजिक धारणा है जिसके जैविक असर होते हैं। (स्रोत फीचर्स)
-
Srote - March 2022
- कोविड-19 के एंडेमिक होने का मतलब
- टीकों को चकमा देता ओमिक्रॉन
- महामारी से उपजता मेडिकल कचरा
- अंग दाएं-बाएं कैसे जम जाते हैं?
- हींग के आणविक जीव विज्ञान की खोजबीन
- वृद्धावस्था में देखभाल का संकट और विकल्प
- इस वर्ष चीन की जनसंख्या घटना शुरू हो सकती है
- बालासुब्रमण्यम राममूर्ति: भारत में न्यूरोसर्जरी के जनक
- राजेश्वरी चटर्जी: एक प्रेरक व्यक्तित्व
- जेनेटिक अध्ययनों में ‘नस्ल’ शब्द के उपयोग में कमी
- जीवाश्म रिकॉर्ड का झुकाव अमीर देशों की ओर
- अमेज़न के जंगलों में पारा प्रदूषण
- भू-जल में रसायनों का घुलना चिंताजनक
- जलकुंभी: कचरे से कंचन तक की यात्रा
- मनुष्यों में खट्टा स्वाद क्यों विकसित हुआ
- शिशु जानते हैं जूठा खा लेने वाला अपना है
- बर्फ में दबा विशाल मछली प्रजनन क्षेत्र
- मनुष्य निर्मित पहला संकर पशु कुंगा
- हरी रोशनी की मदद से जंतु-संरक्षण
- बच्चों को बचाने के लिए मादा इश्क लड़ाती है
- शीतनिद्रा में गिलहरियां कैसे कमज़ोर नहीं होतीं?
- मस्तिष्क बड़ा होने में मांसाहार की भूमिका
- तेज़ी से पिघलने लगे हैं ग्लेशियर