मत्स्याखेट के दौरान जाल में अनचाहे जीवों का फंस जाना एक बड़ी समस्या है। इनमें कछुए, स्टिंग रे, स्क्विड और यहां तक कि शार्क जैसे जीव फंसकर बेमौत मारे जाते हैं। इस समस्या के समाधान के लिए हाल ही में किया गया शोध काफी आशाजनक प्रतीत होता है। इस नई तकनीक में मछली पकड़ने के जाल में हरी एलईडी लगाने से शार्क और स्क्विड जैसे गैर-लक्षित जीवों के जाल में फंसने की संभावना कम हो जाती है और इससे ग्रूपर और हैलिबट जैसी वांछित मछलियों की गुणवत्ता और मात्रा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
आम तौर पर मछुआरों द्वारा गिलनेट का उपयोग किया जाता है जो पानी में एक कनात के रूप में लटकी रहती है। इसमें कई अनचाही प्रजातियां भी फंस जाती हैं जिन्हें ‘बायकैच' कहा जाता है। यह बायकैच डॉल्फिन और समुद्री कछुओं सहित कई प्रजातियों के विनाश में योगदान देने के अलावा मछुआरों का काम बढ़ा देता है क्योंकि जाल की सफाई मुश्किल हो जाती है।
पूर्व में एक टीम द्वारा किए गए एक प्रयोग में जाल में हरे प्रकाश का उपयोग करने से कछुए के बायकैच में 64 प्रतिशत की कमी आई थी। इसके बाद इसे अन्य जीवों पर भी आज़माने का प्रयास किया गया। उसी टीम ने मेक्सिको स्थित बाजा कैलिफोर्निया के तट पर ग्रूपर और हैलिबट मछली पकड़ने वालों के साथ मिलकर काम किया। इस क्षेत्र को चुना गया क्योंकि मछलियों के साथ यहां बड़ी मात्रा में कछुए और अन्य बड़े समुद्री जीव पाए जाते हैं। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 28 जोड़ी जाल डाले। प्रत्येक जोड़ी में एक-एक जाल पर 10-10 मीटर की दूरी पर एलईडी लाइट लगाई गई थी। अगले दिन सुबह जालों में फंसे जीवों को तौला गया और पहचान की गई।
करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार प्रकाशित जालों में 63 प्रतिशत कम बायकैच पाया गया (51 प्रतिशत कम कछुए और 81 प्रतिशत कम स्क्विड)। शार्क और स्टिंग रे समूह के साथ किए गए एक अन्य अध्ययन में अधिक बेहतर परिणाम देखने को मिले। इस तकनीक का उपयोग करने से शार्क बायकैच में 95 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि कैसे कुछ जीव खुद को हरे प्रकाश से बचा पाते हैं। इस सम्बंध में कई परिकल्पनाएं हैं।
बहरहाल, कारण जो भी हो लेकिन अब मछुआरों को जाल ढोने और सुलझाने में कम समय लगता है। हालांकि इन जालों की ऊंची लागत एक बड़ी बाधा है। एक जाल को रोशनी से लैस करने के लिए लगभग 140 डॉलर (लगभग 10000 रुपए) तक लागत आती है। कुछ मछुआरों के लिए यह बहुत महंगा है। फिलहाल शोधकर्ता सौर उर्जा से चलने वाली एलईडी का परीक्षण कर रहे हैं जो बैटरी चालित एलईडी की तुलना में अधिक समय तक चलती है। इसके साथ ही प्रति जाल कम संख्या में एलईडी के साथ भी प्रयोग किए जा रहे हैं ताकि लागत को कम किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)
-
Srote - March 2022
- कोविड-19 के एंडेमिक होने का मतलब
- टीकों को चकमा देता ओमिक्रॉन
- महामारी से उपजता मेडिकल कचरा
- अंग दाएं-बाएं कैसे जम जाते हैं?
- हींग के आणविक जीव विज्ञान की खोजबीन
- वृद्धावस्था में देखभाल का संकट और विकल्प
- इस वर्ष चीन की जनसंख्या घटना शुरू हो सकती है
- बालासुब्रमण्यम राममूर्ति: भारत में न्यूरोसर्जरी के जनक
- राजेश्वरी चटर्जी: एक प्रेरक व्यक्तित्व
- जेनेटिक अध्ययनों में ‘नस्ल’ शब्द के उपयोग में कमी
- जीवाश्म रिकॉर्ड का झुकाव अमीर देशों की ओर
- अमेज़न के जंगलों में पारा प्रदूषण
- भू-जल में रसायनों का घुलना चिंताजनक
- जलकुंभी: कचरे से कंचन तक की यात्रा
- मनुष्यों में खट्टा स्वाद क्यों विकसित हुआ
- शिशु जानते हैं जूठा खा लेने वाला अपना है
- बर्फ में दबा विशाल मछली प्रजनन क्षेत्र
- मनुष्य निर्मित पहला संकर पशु कुंगा
- हरी रोशनी की मदद से जंतु-संरक्षण
- बच्चों को बचाने के लिए मादा इश्क लड़ाती है
- शीतनिद्रा में गिलहरियां कैसे कमज़ोर नहीं होतीं?
- मस्तिष्क बड़ा होने में मांसाहार की भूमिका
- तेज़ी से पिघलने लगे हैं ग्लेशियर