वैकासिक चिकित्सा विज्ञान (जिसमें जैव विकास के नज़रिए को शामिल किया गया हो) एक उभरता क्षेत्र है जो कई व्याख्याएं प्रस्तुत करता है और दर्शाता है कि हम जैव विकास की समझ का इस्तेमाल बीमारियों की रोकथाम और उपचार में कैसे करें।
1990 के दशक के उत्तरार्ध में मैंने रैडोल्फ एम. नेसे और जॉर्ज सी. विलियम्स की पुस्तक पढ़ी थी, जिसका शीर्षक बहुत रोमांचक था – व्हाय वी गेट सिक (हम बीमार क्यों पड़ते हैं)।
मैं नहीं जानता था कि रैडोल्फ नेसे कौन हैं लेकिन यह जानता था कि जॉर्ज विलियम्स मशहूर वैकासिक जीव विज्ञानी हैं जिन्हें उनकी उत्कृष्ट पुस्तक एडाप्टेशन एंड नेचुरल सिलेक्शन (1974) के लिए जाना जाता है। इस पुस्तक में आम लोगों और विशेषज्ञों दोनों में व्याप्त प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया के अधकचरे सोच की सशक्त आलोचना की गई थी। पुस्तक के पहले पैराग्राफ में कहा गया था:
“उत्कृष्ट बनावट वाले शरीर में क्यों हज़ारों खामियां और दुर्बलताएं हैं जो उसे बीमारियों के प्रति संवेदनशील बना देती हैं? यदि प्राकृतिक वरण के माध्यम से होने वाला विकास आंख, हृदय और मस्तिष्क जैसी नफीस व्यवस्थाओं को आकार दे सकता है तो उसने निकटदृष्टि दोष, हार्ट अटैक और अल्ज़ाइमर जैसे रोगों से बचाव के उपाय क्यों नहीं गढ़े? यदि हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली करोड़ों पराए प्रोटीन्स को पहचानकर उन पर आक्रमण कर सकती है, तो हमें निमोनिया क्यों हो जाता है? यदि डीएनए की एक कुंडली खरबों विशेषीकृत कोशिकाओं को अपने-अपने उचित स्थान पर जमाकर एक वयस्क जीव की योजना विश्वसनीय ढंग से कूटबद्ध कर सकती है, तो हम एक क्षतिग्रस्त उंगली को फिर से क्यों नहीं उगा सकते? यदि हम सौ साल जी सकते हैं, तो दो सौ साल क्यों नहीं?”
जैसे-जैसे मैं पढ़ता गया, विडंबना धीरे-धीरे उजागर होती गई। पहले पैराग्राफ में प्राकृतिक वरण की जिन ‘असफलताओं’ की बात की गई थी, वे इस सोच के पक्ष में सबसे सशक्त दलीलें थीं कि हमारे शरीर को प्राकृतिक वरण के माध्यम से हुए विकास ने आकार दिया है! क्या कोई दैवी सृष्टा या बुद्धिमान रचयिता ऐसे घपले करता? नेसे और विलियम्स के शब्दों में:
“हमारे शरीर की बनावट एक साथ असाधारण रूप से सटीक और अविश्वसनीय रूप से फूहड़ दोनों है। ऐसा लगता है कि ब्रह्मांड के सर्वश्रेष्ठ इंजीनियर्स सात दिनों में एक बार छुट्टी पर जाते थे और उस दिन सारा काम अनाड़ी नौसिखियों को सौंप देते थे।”
दूसरी ओर, यदि हम प्राकृतिक वरण के माध्यम से विकास के परिणाम हैं तो हमें ऐसी खामियों और दुर्बलताओं की अपेक्षा करनी ही चाहिए। लेकिन क्यों?
एक नए विषय-क्षेत्र का जन्म
अधिकांश वैज्ञानिक मानते हैं कि वे इतने व्यस्त हैं कि उनके पास विज्ञान के सामाजिक पक्ष या दर्शन की बात तो दूर, इतिहास पर ध्यान देने की फुरसत भी नहीं है। वास्तव में युवा वैज्ञानिकों में इन विषयों के प्रति दिलचस्पी को प्राय: यह कहकर खारिज कर दिया जाता है कि यह गंभीर काम के प्रति उत्साह या क्षमता के अभाव का परिणाम है। फिर भी हम इतिहास से बहुत कुछ सीखते हैं – अतीत की गलतियों को दोहराने से कैसे बचें और प्रतिकूल हालात में भी अच्छा विज्ञान कैसे करें। तो यह देखना उपयोगी होगा कि वैकासिक चिकित्सा का जन्म कैसे हुआ।
कहानी कुछ इस तरह है। रैडोल्फ नेसे मिशिगन विश्वविद्यालय मेडिकल स्कूल के मनोचिकित्सा विभाग में चिकित्सक थे। एक ओर तो वे “मनोचिकित्सा में सैद्धांतिक बुनियाद न होने को लेकर हताश” थे तथा दूसरी ओर वे “जंतु व्यवहार के क्षेत्र में जैव विकास के विचारों के आधार पर हुई असाधारण प्रगति से अचंभित” भी थे। इसके चलते वे उन सहकर्मियों के साथ समय बिताने लगे जो जैव विकास और मानव व्यवहार में रुचि रखते थे। इन सहकर्मियों ने सुझाव दिया कि उन्हें जॉर्ज सी. विलियम्स नाम के एक जीव विज्ञानी से संपर्क करना चाहिए, जिन्होंने बुढ़ाने की एक वैकासिक व्याख्या प्रस्तावित की थी। नेसे ने इस सुझाव को मान लिया।
जॉर्ज सी. विलियम्स स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क के इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन विभाग में समुद्र वैज्ञानिक थे। उन्होंने 1957 में एक शोध पत्र लिखा था – प्लायोट्रॉपी, नेचुरल सिलेक्शन, एंड दी इवोल्यूशन ऑफ सेनेसेंस (एक जीन के एकाधिक प्रभाव, प्राकृतिक वरण और जरावस्था का विकास)। स्वयं विलियम्स मानते हैं कि चिकित्सा में वैकासिक सोच में उनकी रुचि युनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन के पक्षी विज्ञानी पौल एवाल्ड के एक शोध पत्र से जन्मी थी: “इवोल्यूशनरी बायोलॉजी एंड दी ट्रीटमेंट ऑफ साइन्स एंड सिम्पटम्स ऑफ इंफेक्शियस डिसीज़” (वैकासिक जीव विज्ञान तथा संक्रामक रोगों के चिंहों व लक्षणों का उपचार, जर्नल ऑफ थियरेटिकल बायोलॉजी, 1980)। इस शोध पत्र में एवाल्ड ने दलील दी थी कि
“जैव विकास के परिप्रेक्ष्य से देखा जाए, तो संक्रामक रोगों के लक्षणों को निम्नानुसार वर्गीकृत किया जा सकता है:
1. बीमारी के हानिकारक पहलुओं का सामना करने के लिए मेज़बान में अनुकूलन
2. मेज़बान में छेड़छाड़ करने के लिए रोगजनक में अनुकूलन
3. बीमारी के साइड प्रभाव, जो न तो मेज़बान के लिए और न ही रोगजनक के लिए कोई अनुकूली भूमिका निभाते हैं।”
पर्चे के अंत में उन्होंने कहा था: “उपचार की पसंद इन तीन व्याख्याओं की वैधता के आकलन पर निर्भर है।”
पीछे मुड़कर देखें, तो यह कहा जा सकता है कि वैकासिक चिकित्सा के तीन अभिभावक हैं: एक पक्षी विज्ञानी (एवाल्ड), एक मनोचिकित्सक (नेसे) और एक समुद्र जीव विज्ञानी (विलियम्स)। ऐसा विचित्र अभिभावकत्व विज्ञान के विचारों के इतिहास में बार-बार नज़र आता है। लेकिन यह एक ऐसी चीज़ है जिसे अकादमिक जगत की रुढि़वादी और अकल्पनाशील मूल्याकंन प्रक्रिया प्रारंभिक अवस्था में ही खत्म कर सकती है।
विलियम्स, बुढ़ापे के उद्विकास में अपनी रुचि के चलते, एवाल्ड की सूझबूझ को समझने व सराहने के लिए तैयार थे। ऊपर बताए गए कारणों के चलते, नेसे भी जैसे तैयार बैठे थे विलियम्स के साथ हाथ मिलाकर स्वास्थ्य, बीमारी और चिकित्सा की वैकासिक व्याख्या की खोज में जुटने को।
स्वास्थ्य व बीमारी में वैकासिक सूझबूझ
संक्रामक रोगों के लक्षणों के एवाल्ड के वर्गीकरण से स्पष्ट हो जाता है कि हमें अंधाधुंध ढंग से उन सबका शमन करने की ज़रूरत नहीं है। उदाहरण के लिए, यदि हम उन लक्षणों को दूर करने की कोशिश करें, जो बीमारी से लड़ने हेतु शरीर के अनुकूलन हैं, तो हम फायदे की बजाय नुकसान ज़्यादा करेंगे।
नेसे और विलियम्स ने स्वास्थ्य और बीमारी के मामले में वैकासिक सोच के दायरे को काफी विस्तार दिया। हालात का आकलन करने के लिए उन्होंने 1991 में क्वार्टरली रिव्यू ऑफ बायोलॉजी में एक पर्चा प्रकाशित किया था – दी डॉन ऑफ डारविनियन मेडिसिन (डारविनवादी चिकित्सा का उदय)। उन्होंने स्पष्ट किया कि उनका लक्ष्य मात्र बीमारियों के संदर्भ में वैकासिक समझ को निरूपित करना नहीं है बल्कि वे चाहते हैं कि डॉक्टर भी ऐसा करें। अपने पर्चे की शुरुआत उन्होंने इस दावे के साथ की थी:
“चिकित्सा शिक्षा भौतिकी, रसायन शास्त्र और जीव विज्ञान की उन शाखाओं पर ज़ोर देती है जिनका सम्बंध तात्कालिक क्रियाविधि से है। जीव विज्ञान और चिकित्सा में इस ज्ञान के उपयोग के चलते मानव रोगों की रोकथाम और उपचार में प्रभावशाली प्रगति हुई है। अलबत्ता, जैव विकास को चिकित्सा पाठ्यक्रम में महत्व नहीं मिला है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि चिकित्सकीय समस्याओं पर वैकासिक सिद्धांतों के नए अनुप्रयोग दर्शाते हैं कि यदि चिकित्सा पेशेवर डारविन के साथ वैसा ही तालमेल बना पाते जैसा उन्होंने पाश्चर के साथ बनाया है तो तरक्की और भी तेज़ होती।”
वे जानते थे कि वैकासिक चिकित्सा अभी ज्ञान का ऐसा परिपक्व खजाना नहीं था जिसे तत्काल डॉक्टरों को सौंपा जा सके। यह तो सोचने का एक नया ढंग था जो उल्लेखनीय लाभ तभी दे सकता था जब चिकित्सक स्वयं इसे अपनाते। लिहाज़ा, उनका काम था कि वैकासिक सोच का विचार डॉक्टरों को बेचा जाए, कुछ प्रारंभिक समझ के साथ उनकी भूख को बढ़ाया जाए।
शुरुआत में ही नेसे और विलियम्स ने प्राकृतिक वरण की उस प्रचलित धारणा में ज़रूरी सुधार किए, जो ‘सर्वोत्तम की उत्तरजीविता’ जुम्ले में प्रकट होती है। वे इस समझ के लिए रास्ता तैयार करना चाहते थे कि प्राकृतिक वरण कभी-कभी हमें कम फिट भी बना सकता है।
मोटे तौर पर ‘सर्वोत्तम की उत्तरजीविता’ का आशय होता है एक पर्फेक्ट शरीर, जो ‘एक ऐसे शरीर से मेल नहीं खाता जिसमें हज़ारों खामियां और कमज़ोरियां हों जो उसे बीमारियों के जोखिम के प्रति दुर्बल बना दें।’ 
अब हम समझते हैं कि प्राकृतिक वरण जीवों की इस क्षमता को अधिकतम करता है कि वे अपने जीन्स की प्रतिलिपियां भावी पीढ़ियों के शरीरों में छोड़कर जाएं। इसे जैव विकास का जीन्स आई व्यू भी कहते हैं और यह जुम्ला जी. सी. विलियम्स ने दिया था। इसके आधार पर यह संभावना बनती है कि किसी जीव को दीर्घायु, रोग-मुक्त और शारीरिक क्षति का प्रतिरोधी बनाए बगैर भी जेनेटिक हस्तांतरण को अधिकतम करना संभव है।
इसके अलावा, दो प्रतिस्पर्धी जीवों में से जो अपने जीन्स की ज़्यादा प्रतिलिपियां छोड़ जाता है, प्राकृतिक वरण उसे वरीयता देता है, भले ही दोनों अपने आप में बहुत फिट न रहे हों।
दरअसल, यह समझना ज़रूरी है कि ‘फिट’ और ’फिटनेस’ शब्दों के कई अर्थ हैं। आम बोलचाल में हम फिट का मतलब समझते हैं शक्तिशाली और बीमारियों से मुक्त – उन ‘हज़ारों खामियां और कमज़ोरियों’ से मुक्त शरीर जो ‘बीमारियों के जोखिम के प्रति दुर्बल बनाती हैं’। चलिए, इसे फिटनेस की डॉक्टरी परिभाषा कहते हैं। दूसरी ओर, अभी हाल तक वैकासिक जीव विज्ञानी फिटनेस को इस आधार पर नापते थे कि कोई जीव अपने जीवन काल में कितनी संतानें पैदा करता है। इसे आजीवन प्रजनन सफलता भी कहते हैं। इसे हम शास्त्रोक्त डारविनी फिटनेस कहेंगे।
ज़्यादा हाल के समय में, वैकासिक जीव विज्ञानी समझ पाए हैं कि प्राकृतिक वरण का एक प्रकार (सहोदर वरण या किन सेलेक्शन) ऐसे गुणों को भी बढ़ावा दे सकता है जो उस जीव को प्रत्यक्ष रूप से तो कम संतानें उत्पन्न करने देते हैं लेकिन वह निकट जेनेटिक सम्बंधियों की देखभाल व जीवित रहने में मदद करते हैं। इसका कारण यह है कि निकट जेनेटिक सम्बंधी भी हमारे जीन्स की प्रतिलिपियां रखते हैं। अत:, स्वयं की संतानों की संख्या और सम्बंधियों को जीवित रहने में मदद मिलकर समावेशी फिटनेस कहलाते हैं।
दरअसल, जैसा कि हम आगे देखेंगे, डॉक्टरी अर्थ में कमतर फिटनेस कई बार प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया का अपरिहार्य परिणाम होता है जब वह प्राकृतिक वरण डारविनी या समावेशी फिटनेस को बढ़ाने की दिशा में काम करे।
लिहाज़ा, डॉक्टरी फिटनेस तथा वैकासिक जीव विज्ञानी की फिटनेस की परिभाषाओं के बीच अंतर ही स्वास्थ्य व बीमारियों के मुद्दों पर वैकासिक तर्क को लागू करने का आधार बनता है। अपनी पुस्तक व्हाय वी गेट सिक में नेसे और विलियम्स पांच कारणों की चर्चा करते हैं कि क्यों प्राकृतिक वरण के बावजूद या उसके कारण हम कमज़ोर हो जाते हैं, बीमारियों के प्रति संवेदी हो जाते हैं।
इतिहास का अभिशाप
हमारे शरीरों में नज़र आने वाली संरचनागत खामियों का अस्तित्व इस बात का परिणाम है कि प्राकृतिक वरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो वैकल्पिक फीनोटाइप्स के बीच उत्तरजीविता का निर्धारण करती है जब वे किसी स्थान या समय पर एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं। उनमें से जो बेहतर होता है वह विजयी रहता है, चाहे वह एब्सोल्यूट रूप से कितना ही बुरा क्यों न हो। तो जब जीव किसी भिन्न पर्यावरण में पहुंचते हैं, तो प्राकृतिक वरण उन्हें वरीयता देता है जिनमें छोटे-छोटे उत्परिवर्तनों ने नए पर्यावरण के प्रति उन्हें बाकी से बेहतर अनुकूलित कर दिया हो।
दरअसल, प्राकृतिक वरण बुरी स्थिति में सर्वोत्तम प्रदर्शन करता है। उसके पास ऐसा कोई तरीका नहीं होता कि लौटकर मूल स्थिति में जाए और फिर से शुरू करे, जैसा कि इंजीनियर करते हैं। और तो और, हर मध्यवर्ती अवस्था को पिछली अवस्था से बेहतर नहीं तो कम से कम उतनी अच्छी तो होना ही चाहिए। इसके चलते अच्छे से बेहतर की ओर बढ़ने के मार्ग की सख्त सीमाएं तय हो जाती हैं। इसलिए हम कहते हैं कि प्राकृतिक वरण में कोई पूर्वानुमान नहीं होता। वह किसी कमतर जीव को सिर्फ इसलिए वरीयता नहीं दे सकता कि वह भविष्य में कहीं बेहतर साबित होगा। प्राकृतिक वरण एक अंधी यांत्रिक प्रक्रिया है जो इस क्षण और इस जगह काम करती है।
संभवत: इतिहास के अभिशाप की वजह से सबसे मशहूर संरचनागत खामी, जिसे फायलोजेनेटिक जड़त्व या फायलोजेनेटिक अड़चन कहते हैं, वह है हमें खाने-पीने से लगने वाला ठसका। स्वयं डारविन ने भी ध्यान दिया था:
“...यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि भोजन या पेय पदार्थों का जो एक-एक कण हम निगलते हैं, उसे सांस नली (ट्रेकिया) के प्रवेश छिद्र पर से गुज़रना पड़ता है, जिसमें हमेशा यह जोखिम रहता है कि वह हमारे फेफड़ों में पहुंच जाएगा, चाहे कंठद्वार (ग्लॉटिस) को बंद करने वाली व्यवस्था कितनी भी बढ़िया क्यों न हो।”
इसका कारण यह है कि हम ‘संशोधनों के साथ अवतरित’ (descended with modification) हुए हैं। यह डारविन का प्रिय जुम्ला था। हमारा क्रमिक विकास उन नन्हे कृमियों से हुआ है जो उनके शरीर में प्रवेश करने वाले पानी से भोजन के कण छानकर पोषण प्राप्त करते थे और उसी पानी में से ऑक्सीजन भी ले लेते थे। जब इन कृमियों के वंशज हवा में सांस लेने लगे, तो मौजूदा पाचन तंत्र में से एक मार्ग का निर्माण हुआ जो हवा को फेफड़ों में ले जाता था। सारे कशेरुकी जीवों की तरह हम भी इस डिज़ाइन से बंधे हैं जिसमें हवा और भोजन के रास्ते एक-दूसरे को काटते हैं और ठसका लगने का खतरा पैदा करते हैं। ऐसा अनुमान है कि एक लाख में एक व्यक्ति हर साल इसके कारण मौत का शिकार होता है।
यह एक फायलोजेनेटिक अड़चन है कि हम छानकर भोजन ग्रहण करने वाले कृमियों से छोटे-छोटे परिवर्तनों के माध्यम से अवतरित हुए हैं। इसके चलते ऐसा कोई तरीका नहीं है कि प्राकृतिक वरण भोजन और वायु के लिए दो अलग-अलग मार्ग बनाकर इस समस्या को सुलझा लेता – जैसा कि उसने कीटों और मोलस्क जीवों के मामले में किया है।
परजीवी-मेज़बान प्रतिस्पर्धा
वैकासिक परिप्रेक्ष्य से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राकृतिक वरण सारे परजीवियों का खात्मा करके हमें रोगमुक्त नहीं बना सकता। सीधा-सा तथ्य यह है कि प्राकृतिक वरण की वही प्रक्रिया निरंतर काम करते हुए रोगजनक परजीवियों को भी यथासंभव सफल बनाती है। अर्थात हम रोगजनकों के साथ निरंतर प्रतिस्पर्धा में हैं। और कई मायनों में रोगजनक प्राकृतिक वरण की ताकत का उपयोग करने के लिहाज़ से फायदे में हैं।
चूंकि प्राकृतिक वरण वैकल्पिक फीनोटाइप के बीच प्रजनन में विविधता के आधार पर काम करता है, इसलिए जैव विकास की रफ्तार मात्र समयावधि पर नहीं बल्कि पीढ़ियों की संख्या पर निर्भर करती है। चूंकि आम तौर पर परजीवी अपने मेज़बान की तुलना में कहीं अधिक रफ्तार से प्रजनन करते हैं, इसलिए वे मेज़बान की तिकड़मों का जवाब अधिक तेज़ी से दे सकते हैं। अधिकांश रोगजनक हमारे शरीर में सैकड़ों-हज़ारों नहीं बल्कि लाखों पीढ़ियां गुज़ारते हैं। और हमें तो उनसे संघर्ष में कोई वैकासिक लाभ पूरी एक पीढ़ी बाद ही मिल सकता है जो शायद 20-30 साल बाद सामने आए।
लिहाज़ा, हम परजीवियों के लिए आसान शिकार हैं क्योंकि वे हमारे द्वारा विकसित सुरक्षा उपायों के विरुद्ध रणनीतियां विकसित करते रह सकते हैं।
एक मान्यता है कि लैंगिक प्रजनन का विकास परजीवियों से लड़ने के लिए हुआ है: लैंगिक प्रजनन के दौरान माता-पिता के जीन्स का सम्मिश्रण होता है और पुनर्मिश्रण के ज़रिए जीन्स को नए ढंग से संयोजित किया जाता है। परिणाम यह होता है कि हमारा शरीर परजीवियों के लिए एक नया जेनेटिक परिवेश उपस्थित करता है जिसके वे आदी नहीं हैं। सुरक्षा उपायों से बचने के लिए परजीवियों को नए सिरे से शुरू करना होगा और इस तरह हमें थोड़ा समय मिल जाता है। 
हाल के समय में पता चला है कि परजीवी न सिर्फ हमारी कुदरती सुरक्षा व्यवस्था के खिलाफ विकसित होते हैं बल्कि वे हमारे द्वारा विकसित टेक्नॉलॉजी (जैसे एंटीबायोटिक्स) से बच निकलने के रास्ते भी विकसित कर लेते हैं।
मेज़बान-परजीवी सम्बंधों को लेकर एक वैकासिक नज़रिया न सिर्फ बीमारियों की एक नई समझ उपलब्ध कराता है बल्कि यह हमें बीमारियों से निपटने के लिए सर्वथा नए व सहजबोध के विपरीत नीतिगत सुझाव भी प्रदान करता है। याद कीजिए एवाल्ड ने संक्रामक रोगों के लक्षणों का वर्गीकरण करते हुए कहा था कि हमें किसी बीमारी के लक्षणों को दबाने से पहले यह सोचना चाहिए कि उनमें से कुछ लक्षण शरीर की सुरक्षा क्रियाएं भी हो सकते हैं। हमें शरीर के इन सुरक्षा प्रयासों के खिलाफ काम करने की बजाय उनमें मदद देनी चाहिए।
इसके लिए न सिर्फ जैव विकास के ज्ञान की ज़रूरत होती है, बल्कि वैकासिक विवेक की भी। डॉक्टरों को थोड़ा विनम्र होना चाहिए और यह समझना चाहिए कि चिकित्सकीय हस्तक्षेप शरीर में लाखों वर्षों में विकसित सुरक्षा व्यवस्था में एक छोटा-सा योगदान भर है।
बुखार क्यों आता है?
उदाहरण के तौर पर यह सवाल लीजिए कि संक्रमण होने पर बुखार क्यों आता है। बढ़ते क्रम में इस बात के प्रमाण मिल रहे हैं कि सारे समतापी (गर्म खून वाले) जीवों में बुखार संक्रमण के विरुद्ध एक अनुकूली प्रतिक्रिया होती है, न कि शरीर के ताप-नियमन तंत्र की कोई गड़बड़ी। यानी बुखार का इलाज करना, दरअसल, शरीर द्वारा बीमारी से लड़ने के प्रयासों में बाधा पहुंचा सकता है, फायदे की बजाय नुकसान कर सकता है।
आश्यर्यजनक रूप से बुखार के फायदे-नुकसान को लेकर अध्ययन बहुत कम हुए हैं। इसके मद्देनज़र, विलियम और नेसे यह सलाह नहीं देते कि डॉक्टर बुखार का इलाज करने से बचें, बल्कि ज़्यादा अनुसंधान की सलाह देते हैं। उन्हें स्पष्ट है कि वे
“…सपने में भी यह सलाह देने की नहीं सोचेंगे कि लोग बुखार कम करने के लिए दवा न लें। यदि कई सारे अध्ययन निर्विवाद रूप से यह साबित कर देते हैं कि बुखार आम तौर पर संक्रमण से लड़ने में महत्वपूर्ण होता है, फिर भी वे ऐसी किसी नीति का समर्थन नहीं करेंगे कि बुखार को प्रोत्साहित किया जाए या उसे अपने कुदरती स्तर तक बढ़ने दिया जाए।“
एक वैकासिक नज़रिया बुखार जैसे किसी अनुकूलन की लागत और लाभ दोनों की ओर ध्यान खींचता है। यदि मनुष्य के शरीर को 40 डिग्री सेल्सियस (103 डिग्री फैरनहाइट) पर बनाए रखने का कोई नुकसान न होता, तो उसे सदा इसी तापमान पर बने रहना चाहिए ताकि संक्रमण की शुरुआत ही न हो पाए। लेकिन इतने हल्के बुखार की भी कीमत होती है: इस तापमान पर शरीर के पोषण भंडार 20 प्रतिशत अधिक तेज़ी से कम होते हैं और पुरुष में अस्थायी वंध्यता पैदा होती है। इससे अधिक बुखार हो तो सन्निपात की स्थिति आ सकती है या शायद दौरे पड़ने लगें और ऊतकों की स्थायी क्षति हो जाए।
यह भी समझने की ज़रूरत है कि नियमन की कोई भी प्रणाली सारी परिस्थितियों का अंदेशा नहीं कर सकती। हम अपेक्षा करेंगे कि संक्रमण से लड़ने के लिए तापमान एक यथेष्ट स्तर तक बढ़ेगा, लेकिन नियमन प्रणाली की सटीकता सीमित है, इसलिए कभी-कभी बुखार बहुत अधिक बढ़ जाएगा या कभी पर्याप्त न बढ़ पाए।
इसी तरह की दलील एनीमिया के बारे में भी दी जा सकती है। एनीमिया कई बार संक्रमण के खिलाफ शरीर की सुरक्षा के रूप में पैदा होता है – यह बैक्टीरिया के लिए निहायत ज़रूरी लौह तत्व की उपलब्धता को कम करने का एक तरीका है।
ज़ाहिर है, और अधिक अनुसंधान की ज़रूरत है, लेकिन हो सकता है कि चिकित्सा शोधकर्ताओं को बुखार या एनीमिया के अनुकूली महत्व और इस तरह के अनुकूलन की सीमाओं की छानबीन करने में रुचि न हो, जब तक कि वैकासिक जीव विज्ञान उनकी शिक्षा का हिस्सा न बने। जब वे जैव विकास का अध्ययन करेंगे और उसे समस्त जीव विज्ञान का एकीकरण करने वाले सूत्र के रूप में समझ पाएंगे, तब वे शरीर की विकसित सुरक्षा प्रणाली के प्रति अधिक सचेत होंगे और खुद को शरीर के बीमारी से लड़ने के प्रयासों का एक पार्टनर मानेंगे।
तो, लगता है कि प्राकृतिक वरण हमें बीमार करता है (या कम फिट बनाता है) क्योंकि यह रोगजनक जीवों के पक्ष में काम करता है और शायद एक स्तर की अस्थायी रुग्णता बीमारी से संघर्ष के लिए ज़रूरी हो सकती है। लिहाज़ा यह समझना बीमारी की हमारी समझ और उनसे लड़ने की हमारी काबिलियत को प्रभावित कर सकता है कि प्राकृतिक वरण रोगजनकों को उनके कामकाज में बेहतर बनाता है और बीमारी के कुछ लक्षण हमारे शरीर की सुरक्षा प्रणाली के परिणाम हो सकते हैं।
अगली किश्त में हम देखेंगे कि हमारी कई स्वास्थ्य समस्याएं जैव विकास से प्राप्त जैविकी और संस्कृति के बीच असामंजस्य का परिणाम होती हैं। (स्रोत फीचर्स)