लेखक : वसंता सूर्या
अनुवाद: संदीप राउज़ी   [Hindi,PDF 496 KB]

सुरेश जब निर्मल सर की ट्यूशन क्लास से निकला उस समय भीड़ भरी सड़क पर सूरज की आखिरी रोशनी झिलमिला रही थी। जैसे ही वो बिल्डिंग कॉम्प्लेक्स से बाहर निकला, उसने देखा कि शहर की दक्षिणी दिशा की ओर से आ रहे बगुलों के झण्डों में से पहला झुण्ड एक छोटे ‘V’ के आकार में उसके ऊपर से उड़ा जा रहा था। इसके बाद एक-एक कर आसमान में ‘V’ और ‘W’ और बड़े होते गए।
ये बगुले अडयार नदी के मुहाने की ओर अपने घर लौट रहे थे। यह वही जगह है जहाँ उनके घोंसले बने हैं। अपनी एक अन्य ट्यूशन क्लास से पहले, सुबह-सुबह वो इन्हीं झुण्डोें को दूसरी ओर, शहर से दूर मैदानों की ओर उड़ते देखता।
उसके और उन बगुलों के दिन एक जैसे थे। लम्बे दिन।
अगर वो अगले 15 मिनट में घर पहुँच जाता है और अम्मा के रोकने से पहले वह घर से बाहर निकल जाता है तो बैटिंग करने के लिए न सही, कम-से-कम फील्डिंग के लिए तो उसे पर्याप्त समय मिल सकता है। खाक। उनको धोखा देना मुश्किल था। अब, जल्द ही उसके दोस्त स्टम्प उखाड़ना शु डिग्री कर देंगे, जिसे उसने टीम के लिए नारियल के पत्तों के तनों से बनाया था। क्रिकेट समय और पैसे की बर्बादी है, ये कहते हुए अम्मा ने स्टम्प खरीदने से मना कर दिया था।
निर्मल सर की इमारत के सामने वो स्कूल बैग के भार से झुका हुआ  संकरे, टूटे हुए फर्श पर सन्तुलन बनाए खड़ा था। काफी अँधेरा हो चुका था। उसे ऐसा लगा जैसे वो बहुत लम्बे समय से उधर खड़ा है और उसके  सामने  से ट्रैफिक   तेज़ी   से गुज़रता  जा  रहा था... एक पल के लिए एक घड़ी की चाहत ने उसके मन को कुरेद दिया  और  उसकी आँखों से आँसू आ गए। ये गुस्से के आँसू थे, क्योंकि रमेश के पास घड़ी थी, लेकिन उसके पास घड़ी नहीं थी। उसे नहीं पता था कि इस वक्त क्या समय हो रहा होगा। उसे लगा ज़रूर इस समय साढ़े सात बज गए होंगे। मोटर-साइकिलों  और  स्कूटरों  का  शोर मचाती कतारों की कतारें गुज़र रही थीं लेकिन उनमें से कोई भी नहीं रुकी।

रमेश को देर हो गई थी। शायद वो भूल गया था। ये भी हो सकता है कि उसने किसी फास्ट-फूड की दुकान पर अपने दोस्तों के साथ गपशप करते हुए अपने भाई को इन्तज़ार कराने का  मन बना लिया हो। वे सब, रमेश और उसके पैसे वाले दोस्त, चाट और आइसक्रीम से अपना पेट भर रहे होंगे। और यहाँ सुरेश ने स्कूल में दोपहर के खाने के बाद से कुछ भी नहीं खाया था....सिवाय उन बिस्किटों के जो अम्मा ने ट्यूशन क्लास से पहले खाने के लिए रख दिए थे।
उसने अपनी अम्मा से विनती की थी कि आज वो ट्यूशन नहीं जाएगा, क्योंकि मैच जो है। आखिरकार ये शुक्रवार की शाम थी! लेकिन नहीं, अम्मा ने साफ मना कर दिया था।
“क्रिकेट बेकार का खेल है...तुम्हें इतिहास की ट्यूशन लेने की ज़रूरत है...नहीं तो आठवीं में फेल हो जाओगे।”
हालाँकि उसने इसका विरोध किया था, “मैं खुदबखुद किताबें पढ़ सकता हूँ! और क्रिकेट कोई फालतू की चीज़ नहीं है!!”

“मुझसे बहस मत करो...तुम खुद तो पढ़ते नहीं हो, यही तो समस्या है! मैं ये मानती हूँ कि अन्य विषय में तुम बुरे नहीं हो, लेकिन तुम इतिहास के लिए कभी भी समय नहीं निकालते हो! तुम किसी भी अध्याय के बारे में नहीं जानते और अपनी कक्षा में पूछे गए सारे टैस्ट में तुम फेल हो चुके हो। विद्या मैडम कहती हैं कि ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि तुम समझते नहीं हो, बल्कि तुम बिलकुल भी कोशिश नहीं करते। और चूँकि तुम खुद कोशिश नहीं करोगे और बेकार के क्रिकेट खेलने के लिए भागते रहोगे तुम्हें ट्यूशन जाना ही पड़ेगा।”
रुआँसे सुरेश ने कहा, “सुबह और शाम, दोनों समय? क्रिकेट कोई बेकार की चीज़ नहीं! इतिहास विषय से मुझे नफरत है।”
“निर्मल सर ने इतिहास से एम.ए. की पढ़ाई की है। और वो आई.ए.एस. की तैयारी करने वालों को पढ़ाते हैं। तुम खुशकिस्मत हो कि वे तुम्हें पढ़ाने के लिए तैयार हो गए हैं। तुम्हारी परीक्षाओं में बस दस दिन बचे हैं। बस 20 ट्यूशन और तुम इतिहास विषय में अव्वल आओगे। वे रमेश के कॉलेज के बहुत पास रहते हैं। तुम्हारा भाई तुम्हें अपनी मोपेड पर बैठाकर घर ले आएगा।”
सुरेश दोबारा रोते हुए बोला, “मुझे इतिहास पसन्द नहीं!”

अम्मा ने कहा, “शश्श्....ज़िन्दगी में बहुत-सी चीज़ें होती हैं जो हमें पसन्द नहीं होतीं, लेकिन वो हमारे लिए अच्छी होती हैं।” किसी ऐसे काम को करवाने के लिए, जिसे वो करना नहीं चाहता, अम्मा ऐसे ही पागल कर देने वाले दार्शनिक अन्दाज़ में समझातीं।
“और कुछ ऐसी चीज़ें होती हैं, जिन्हें हम पसन्द करते हैं। देखो! जैसे खजूर की चटनी के साथ आलू के पराठे?” बड़ी सफाई से पैक किया लंचबॉक्स दिखाते हुए अम्मा ने उसे चूम लिया। अम्मा कितनी अच्छी हैं...वो जानती थीं कि उसे आलू के पराठे और खजूर की चटनी कितनी पसन्द है। हर बार वो खाने में बहुत मज़ेदार चीज़ें बनाती थीं, और तरह-तरह के नाश्ते भी।
असल में वह थोड़ा मोटा भी हो रहा था...उसे व्यायाम की ज़रूरत थी! उसे क्रिकेट खेलने की भी ज़रूरत थी!
अम्मा से दूर हटते हुए उसने कहा, “मुझे परवाह नहीं! मैं क्रिकेट खेलना चाहता हूँ! मेरी शर्ट देखो, यह छोटी होती जा रही है! स्कूल में सभी मुझे मोटा बुलाते हैं!!”
“बकवास!  इस  उम्र  में  सभी सेहतमन्द बच्चे मोटे होते हैं। इसके बाद वे तेज़ी-से लम्बे होते हैं! अगले साल तुम विनीत मामा जैसे लम्बे हो जाओगे। और तुम्हें उनकी तरह ही तेज़-तर्रार बनना है! तुम्हें आई.आई.टी. में दाखिला पाना है।”
एक बार फिर अम्मा की नज़रें तीखी और कड़ी हो गईं।
“तुम्हें इतिहास में अव्वल आना है!”

आज शाम ट्यूशन खास भयानक रही। निर्मल सर ने तारीखों पर टैस्ट दिया था: लॉर्ड कर्ज़न, बंगाल का बँटवारा, गोखले, तिलक, लाला लाजपत राय, रॉलेट एक्ट, असहयोग आन्दोलन, गांधी का डाण्डी मार्च, मुस्लिम लीग, माउंटबैटेन, पंडित नेहरू का भाषण -  ‘...ठीक बारह बजे भारत आज़ाद हो उठेगा...’  
बँटवारा...पाकिस्तान, कश्मीर की समस्या,  भारत-पाकिस्तान  युद्ध, बांग्लादेश का निर्माण...और साम्प्रदायिक दंगे, साम्प्रदायिक दंगे, साम्प्रदायिक दंगे...। सुरेश साम्प्रदायिक दंगों के बारे में पढ़-पढ़कर थक चुका था। इनकी संख्या बहुत सारी थी और वो इनके स्थान और तारीखों को याद नहीं रख पा रहा था। ये वाकई हुए होंगे, इस पर विश्वास करना मुश्किल था। एक ही शहर और कस्बे में रहने वाले लोग अचानक पागल हो जाते हैं और एक-दूसरे को मारने-काटने लगते हैं, वो भी केवल धर्म की खातिर? हास्यास्पद है! इतिहास की किताबों में कुछ भी वास्तविक नहीं लगता। कम-से-कम परियों की कहानियाँ काल्पनिक होने के अलावा और कोई ढोंग नहीं करतीं। इतिहास सच लगने वाली तारीखों से भरा पड़ा था!
उसे उलझाने के लिए निर्मल सर जानबूझकर इन तारीखों को मिला देते थे और जब सुरेश कोई गलती करता तो वे दाँत पीसने वाली आवाज़ में उसकी खिंचाई करते, “नहीं नहीं नहीं! ये क्या है, क्या तुम इतना तक याद नहीं रख सकते? तुम्हारा ध्यान कहाँ है?”

उसका ध्यान? असल में उसका ध्यान बज्जी (पकौड़े) की खुशबू की ओर था, जिसे निर्मल सर की पत्नी प्लेट में लेकर कमरे में ला रही थीं। वह उनकी तरफ पीठ करके बैठ गईं और टीवी चालू कर दी। कुछ समय बाद उसने पूछा, “सर, क्या मुझे एक ग्लास पानी मिलेगा?” निर्मल सर ने ऐसे देखा मानो उन्होंने सुना ही न हो। उन्होंने उससे देश विभाजन के दौरान हुए दंगों के बारे में ज़ोर-से पढ़ने को कहा, और फिर किताब बन्द कर उसे दुहराने को कहा। बीच में वे वहाँ से उठ खड़े हुए और बज्जी खाने पत्नी के साथ बैठ गए। जब भी सुरेश रुकता, मुँह में भरी बज्जी चबाते-चबाते ही वो बोल उठते, “मम्म्म, बोलते जाओ।” इसके बाद वे सुरेश के लिए एक ग्लास पानी के साथ मेज़ के पास वापस आए! सिर्फ पानी!
वही पानी अब उसके पेट में हिल-डुल रहा था। वह टूटे फर्श पर अपनी एड़ियों के सहारे आगे-पीछे डोल रहा था। अँधेरा होने लगा था। रमेश अभी नहीं आया था। क्या उसे घर के लिए बस पकड़ लेनी चाहिए? लेकिन घर के लिए सीधी जाने वाली कोई बस नहीं थी। उसे दो बार बदलना पड़ेगी और हाउज़िंग कॉलोनी तक जाने वाले अँधेरे रास्ते को पार करने के लिए पाँच मिनट चलना पड़ेगा। पिछली बार जब उसने ऐसा किया था, कोई व्यक्ति बहुत तेज़ी-से उसके पास से गुज़रा और उसकी शर्ट की ऊपरी जेब से बड़ी सफाई से कलम उड़ा ले गया...            
उसे हल्के-से छूते हुए कोई निकला। फिर कोई और। कहीं से लोग दौड़े चले आ रहे थे...बहुत सारे लोग! दौड़ता-हाँफता एक आदमी वहाँ से निकला - दौड़ते-दौड़ते उसकी चप्पल टूट गई और उसने उसे फेंक दिया और सुरेश को लगभग नीचे गिराते हुए टूटे हुए फर्श पर नंगे पैर ही दौड़ता चला गया। बहुत दूर से कोई चिल्ला रहा था, “पिडिडा! पिडिडा! (पकड़ो! पकड़ो!)” उसके पीछे गुस्से में दिखने वाले लोगों की भीड़ हाथ में लाठी और हसिया लिए भाग रही थी...। सुरेश बहुत फुर्ती से बगल की गली में पीछे मुड़ गया। उसे दीवार की मोड़ में कचरे से लबालब भरे एक कूड़ेदान के पीछे जगह मिल गई। वह सिकुड़ गया और नीचे झुक गया, उसने दिखाई न देने के लिए अपने गाढ़े नीले रंग के बैग के पीछे छिपने की हर सम्भव कोशिश की। अचानक उसके करीब वाली सड़क पर जल रही बत्ती बुझ गई।

बाकी सारी बत्तियाँ भी बुझ गईं...हर चीज़ अँधेरे में खो गई। दूसरी तरफ की बड़ी-बड़ी दुकानों जैसे मुरुगन रेडीमेड स्टोर, जैसमिन फैंसी आइटम्स और दुरई मेडिकल्स आदि के शटर लोगों ने नीचे गिरा दिए। हज्जाम की दुकान कामालिक अपने दरवाज़े को फुर्ती-से बन्द कर रहा था, और उसके ठीक बगल में सड़क के किनारे अपनी लकड़ी की छोटी-सी   गुमटी   से निकलकर दर्जी ने दुकान पर पर्दा खींच दिया। जल्द ही तेज़ी-से आ रही भीड़ ने उन्हें ढँक लिया। लोगों ने दुकानों के दरवाज़ों पर टक्कर मारनी शुरु कर दी। किसी ने ताले तोड़ दिए। भीड़ का काला साया अन्दर घुस गया, वे सामान फेंक रहे थे और दुकान के अन्दर लगे शेल्फों को अस्त-व्यस्त कर रहे थे।
भीड़ का एक हिस्सा सड़क के डिवाइडर को खींचने और रास्ता रोकने के लिए सड़क के बीचों-बीच उनका ढेर लगाने में व्यस्त था। बाकी लोग ट््रैफिक के सामने लाठियाँ भांज रहे थे। “अय्यो! अय्यो!” की चीख-पुकार मची थी और लाठियों की आवाज़ें आ रही थीं...। कारें, मोटर-साइकिलें और गाड़ियाँ पलटकर वापस चली गईं और सड़क खाली हो गई। सुरेश ने ये सब बड़ी दहशत से देखा।
दूसरी ओर गुस्साए लोगों की एक और भीड़ दिखी। सुरेश की आँखों के सामने दोनों तरफ के लोग भिड़ गए और उसने देखा कि आदमी और लड़के एक-दूसरे पर डण्डों और पाइप से हमला कर रहे थे। उसने पुरुषों, महिलाओं और बच्चों से भरी एक बस को हसिया से लैस लोगों द्वारा धमकाकर खाली कराते हुए देखा। उस बस को आग लगाते हुए देखा। बाहर निकलने के लिए लोग एक-दूसरे पर गिर-पड़ रहे हैं, दर्द से लोग चीख रहे हैं, उनके सिर से खून बह रहा है। लोग गिरे जा रहे थे और जैसै-तैसे वहाँ से भागने की कोशिश कर रहे थे। लगभग रमेश जितने बड़े एक लड़के को लाठी लगी और वो ज़मीन पर गिर पड़ा, उसकी आँखें बन्द हो गईं...रमेश कहाँ है? सुरेश ने सोचा, ओह, उसे यहाँ नहीं आना चाहिए! लेकिन अगर रमेश नहीं आया तो वो घर कैसे जाएगा? एक बस जल जाने के बाद क्या और बसें आएँगी?          

कोई इन लोगों को लड़ने से क्यों नहीं रोक रहा था? अभी सुरेश यह सोच ही रहा था कि मटमैले रंग की बड़ी-सी वैन उसके सामने शोर करती हुई आई और कुछ गज दूर ही ज़ोर की आवाज़ करती हुई रुक गई। सुरेश ने पढ़ा, ‘पुलिस: दंगा नियंत्रण वाहन।’ इसमें से पुलिसकर्मी निकले और उन्हें देखते ही दंगाई हर दिशा में भागने लगे।
सुरेश ने फुर्ती-से कूड़ेदान से नारियल का एक सूखा पत्ता निकाल लिया और इससे खुद को ढँक लिया...यह लगभग एक तम्बू जैसा था, जिसके पीछे  दीवार  थी। यह  लगभग आरामदायक था... सिवाय इसके कि कूड़ेदान से दुर्गन्ध आ रही थी।
लंगड़ाते भारी कदम उसकी ओर आए। एक विशाल काया उस पर मण्डराई और एकदम से दुबककर बैठ गई। उसके कान के पास फुसफुसाती आवाज़ आई, “हटो!” जितना हो सकता था, सुरेश ने खुद को और सिकोड़ लिया। “आईई...!” पैर फैलाते हुए वो आदमी कराह उठा। उसकी टाँग में एक तिरछा गहरा ज़ख्म था जिससे खून बह रहा था। उस आदमी की आँखें सुरेश से मिलीं। उसकी आँखों से दर्द झलक रहा था... अचानक सुरेश ने अपने स्कूल बैग को उतार लिया और उस छोटे-से तौलिये को निकालने लगा जो उसकी माँ खाने के साथ हमेशा रख देती थी। उसने तौलिया बढ़ाया। उस आदमी की आँखें नरम हो गईं और उसने तौलिये को अपने घाव पर रख कर दबाया। अभी वे दोनों नारियल के पत्ते को अपने ऊपर और ज़ोर-से खींच ही रहे थे कि किसी ने पत्ते को झटके-से हटाया और उसके नीचे सरक कर सुरेश के दूसरी तरफ बैठ गया। घबराई हुई काँपती-सी एक और फुसफुसाहट सुनाई दी, “हटो!”
अगले ही पल वह व्यक्ति सुरेश पर लुढक गया। उसका लम्बा-दुबला शरीर सुरेश की गोद में निर्जीव गिर  पड़ा। उसका सिर असहाय तरीके से, दूसरी तरफ बैठे आदमी के पैरों पर लुढ़क रहा था। दोनों अँधेरे में उसे ताकते रहे -- चिकनी त्वचा वाला चेहरा, काँपती हुई आधी बन्द पुतलियाँ। यह तो एक लड़का था, शायद रमेश की उम्र का...ओह, इस सब भागम-भाग में रमेश के साथ क्या हुआ? सुरेश के पेट में जैसे एक साँप लोट रहा था, डर का साँप!

इधर-उधर देखते हुए आदमी ने फुसफुसाते हुए कहा, “उसे पानी की ज़रूरत है...जल्दी।” काँपते हुए हाथों से सुरेश ने अपनी पानी की बोतल निकाली। सुरेश के हाथ से बोतल छीनते हुए आदमी ने लड़के के चेहरे पर पानी उड़ेल दिया। आँखें हल्की-सी खुलीं। आदमी ने उसे सांत्वना दी, “इंशाअल्लाह, तुम बिलकुल ठीक हो जाओगे।” आदमी ने अपने हाथों से उसके गीले चेहरे को पोंछा तो लड़के ने दम लिया। आदमी की आँखें चिन्ता से भरी थीं। सुरेश ने उन दोनों को देखा। क्या वे एक-दूसरे को जानते थे?
ऐसा ही था। वरिष्ठ आदमी दर्जी था, जबकि नौजवान सड़क के उस पार उजाड़ झोपड़ियों में रहने वाला नाई था।
सुरेश ने पूछा, “झगड़ा किस बात का था?”
नाई ने कहा, “मुझे नहीं मालूम। कुछ लोगों ने आकर बताया कि फसाद करने वाले कुछ लोग हमें खोज रहे हैं, और हम दौड़ पड़े... उनके अलावा अन्य लोग भी थे... मुझे नहीं मालूम कि फसाद करने वाले कौन थे...।”
दर्जी ने ज़ोर-से कहा, “भयावह! बाहर से आकर लोगों को भड़काते हैं... उनसे झूठी बातें कहते हैं।”
तभी अचानक टायर के घिसटने  की और फिर एक घबराई आवाज़ सुनाई दी, “मेरे पास इंस्पेक्टर की ओर से दिया गया पास है! सर, कृपया मेरे भाई को खोजने में मदद करें। वो केवल 11 साल का है! मुझे इधर से जाने नहीं दिया गया, इसलिए मैं उसकी ट्यूशन के बाद उसे लेने नहीं आ सका। क्या पता उसके साथ क्या हुआ होगा।”
“सुरेश! सुरेश!” पुकारते हुए रमेश फुर्ती-से आसपास खोज रहा था। सड़क के सारे अँधेरे-से-अँधेरे कोनों में  पुलिसकर्मी भी फैल गए। तेज़ रोशनी  वाली टॉर्च से रोशनी डाल वे “सुरेश! ए, सुरेश!” पुकार रहे थे। कुछ पल तो सुरेश बदबूदार कूड़ेदान के पीछे बैठा रहा, अपने दो नए साथियों की धीमी साँसों को सुनता रहा। दोनों ही उसकी ओर बड़ी उम्मीद से देख रहे थे। वो धीरे-से उठा। चौंधियाने वाली रोशनी उस पर पड़ी और अगले ही पल उसका भाई उसकी ओर दौड़कर आया और उसके कँधे पकड़कर अपनी ओर खींच लिया।
उसे कसकर पकड़े गहरी साँस लेते हुए रमेश ने कहा, “क्या तू ठीक है?”
इंस्पेक्टर ने उन दोनों लोगों को घेर लिया, वे अपना हाथ पीछे मोड़कर खड़े थे। इंस्पेक्टर ने दोनों के नाम पूछे।
वरिष्ठ आदमी ने कहा, “सईद।”
नौजवान   साथी   ने   कहा, “दिवाकरन!”

इंस्पेक्टर ने उन पर डण्डा फटकारते हुए कहा, “तो...एक मुस्लिम नाम और दूसरा हिन्दू नाम और सिर्फ इसलिए तुम लड़ते और खून बहाते हो? क्या तुम लोग शान्ति से साथ-साथ नहीं रह सकते? इस शहर में साम्प्रदायिक दंगा? मैं तुम लोगों को जेल में डाल दूँगा!”
सुरेश ने ऊँची आवाज़ में कहा, “सर, प्लीज़! मैं दूसरों के बारे में नहीं जानता, लेकिन ये दोनों एक-दूसरे से लड़ नहीं रहे थे।”
दिवाकरन ने कहा, “सर, हम पड़ोसी हैं।”
सईद ने कहा, “इसकी बाल काटने की दुकान के पास ही मेरी कपड़े सिलने की दुकान है। यह मेरे बाल काटता है और मैं इसकी शर्ट सिलता हूँ।”
दिवाकरन ने कहा, “कभी-कभार जिस तरह मैं इसके बाल काटता हूँ, इसे पसन्द नहीं आता! और कभी-कभार मुझे उसकी सिलाई करने का तरीका पसन्द नहीं आता! लेकिन इसके बावजूद हमारे बीच कोई समस्या नहीं है!”
रमेश ने अपने छोटे भाई को उठाया और मोपेड पर पीछे बैठाया, और उसी समय एम्बुलेंस आ गई।
अपने दर्द के बीच मुस्कराने की कोशिश करते हुए दिवाकरन ने सुरेश से कहा, “शुक्रिया यार।”
सईद ने सुरेश और रमेश से कहा, “अपना-अपना ख्याल रखना।”
घर के रास्ते में रमेश ने बताया, “मैंने बहुत भयंकर चीज़ें देखीं...एक पूरी तरह जली बस और घायल पड़े लोग, टूटी हड्डियाँ, बहता हुआ खून। भयानक!”
दोनों चुप हो गए। रमेश ने कहा, “सुरेश! तू ठीक है न? चोट-वोट तो नहीं लगी?”
सुरेश ने जवाब दिया, “मैं... इतिहास के बारे में सोच रहा हूँ कि इतिहास  कैसे  घटित  नहीं  होना चाहिए... कि कैसे सईद और दिवाकरन दोनों घायल हुए।”
इस घटना के बाद से अम्मा को कभी सुरेश को इतिहास पढ़ने के लिए नहीं कहना पड़ा


वसंता सूर्या: खोजी पत्रकार, कवि, अनुवादक व लेखक। 300 से भी ज़्यादा लेख, किताबें व समीक्षाएँ लिखी हैं। अँग्रेज़ी और तमिल, दोनों भाषाओं में लिखती हैं। तमिल की कई उल्लेखनीय किताबों का अँग्रेज़ी में अनुवाद किया है और बच्चों के लिए भी लिखती हैं।   
अँग्रेज़ी से अनुवाद: संदीप राउज़ी: वरिष्ठ पत्रकार। विभिन्न हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन और अनुवाद कार्य। कई राष्ट्रीय हिन्दी अखबारों के अलावा बीबीसी हिन्दी सेवा में कार्य कर चुके हैं।
सभी चित्र: शिवांगी: अम्बेडकर युनिवर्सिटी, दिल्ली से विज़्युअल आर्ट्स में स्नातकोत्तर। लोक कथाओं की चित्रकारी पर शोध कर रही हैं। स्वतंत्र रूप से चित्रकारी करती हैं। दिल्ली में निवास।