मनोहर चमोली

आप अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान इमला लेखन की प्रक्रिया से तो अवश्य ही होकर गुज़रे होंगे। भाषा शिक्षण में इस्तेमाल किया जाने वाला बहुत ही पुराना तरीका है, इमला बोलना और लिखना। इमला का परम्परागत तरीका बेहद नीरस और थका देने वाला होता है। इमला, अध्यापक बोलते हैं और छात्र सुनते हैं। इस दौरान सुनने के साथ-साथ छात्रों को तेज़ गति से लिखना भी होता है। उसके बाद अध्यापक छात्रों के लिखे हुए को जाँचते हैं। सामान्यतया अध्यापक गलतियों पर लाल स्याही का गोल घेरा बना देते हैं या गलत लिखे गए शब्दों पर गलत वाला निशान लगा देते हैं। कुछ अध्यापक टिप्पणी भी लिख देते हैं - ‘मात्राओं पर ध्यान दो’, ‘दोबारा लिखो’, ‘गलत लिखे शब्दों को दस-दस बार लिखो’। कई बार शिक्षक इमला लिखवाते तो हैं, लेकिन उसे जाँचते नहीं जिसके चलते छात्रों के लेखन में समस्या बनी रहती है।

सामान्यतया इमला कक्षा का रोज़ का हिस्सा नहीं होती। इमला लिखाने का अवसर अक्सर तब आता है, जब कक्षाएँ ज़्यादा हों और शिक्षक कम। कुछ अध्यापक नए सत्र के आरम्भ में किताबें उपलब्ध न होने के चलते इमला का सहारा लेते हैं।

इमला और मेरा अनुभव
मैं माध्यमिक विद्यालय में हिन्दी पढ़ाता हूँ जहाँ 6 से 10 तक की कक्षाएँ संचालित होती हैं। अप्रैल माह में कक्षा 6, 7, 8 के छात्रों को पढ़ाने का मौका मिला। एक दिन ऐसी स्थिति आई कि तीनों कक्षाओं को एक साथ बिठाना पड़ा। बहुकक्षा के सिद्धान्त से पढ़ाने का मन ही बना रहा था कि अचानक ख्याल आया, क्यों न इमला का उपयोग कर लिया जाए। मन में यह भी था कि इसी बहाने इनका लेखन कौशल भी जान लिया जाएगा और आकलन भी हो सकेगा कि आखिर किस कक्षा के साथ मुझे किस स्तर से आरम्भ करना होगा।
मैंने भी इमला का परम्परागत तरीका अपनाया - मैंने बोलना आरम्भ किया और छात्रों ने लिखना। अप्रैल का महीना था सो मैंने वसन्त और महीनों से आरम्भ किया। अचानक मेरी नज़र एक छात्रा की कॉपी पर पड़ी। वह चौदह को ‘चौद्दा’ और शाम को ‘श्याम’ लिख रही थी। दूसरी छात्रा की कॉपी पर महीना को ‘मईना’ लिखा देखा। एक छात्र ने वसन्त को ‘बसन्त’ लिखा था। मैंने इमला कहना वहीं पर रोक दिया और छात्रों से कहा कि वे अपनी-अपनी पाठ्य-पुस्तक पढ़ें। नए सत्र की पाठ्य पुस्तकें नहीं आईं थीं। पिछले बरस की पुरानी पाठ्य-पुस्तकों से वे पढ़ने लगे। इस दौरान मुझे सोचने का वक्त मिल गया। मैं सोचता रहा। छुट्टी के बाद भी और स्कूल की घण्टी बजने के बाद भी। घर लौट आने के बाद भी।

इमला बोली नहीं, पढ़ी जाती है
जब मैंने अपने मन से सोचकर वसन्त पर इमला बोला था तो मेरा स्थानीय लहज़ा और मेरी निजी शैली छात्रों ने सुनी। परिणाम यह हुआ कि उन्होंने जैसा सुना, वैसा लिखा। मसलन मेरी टोन ही ऐसी है कि बच्चे चौदह को चौद्दा, शाम को श्याम, महीना को मईना, वसन्त को बसन्त सुन और लिख रहे थे।
बात समझ में आ चुकी थी। अब मैं किसी भी किताब में छपा सरल पैरा पढ़कर इमला बोलता हूँ। अब मैं इमला बोल नहीं रहा होता, पढ़ रहा होता हूँ। अब मैं जैसा लिखा होता है, उसे वैसा पढ़ता हूँ। जैसा पढ़ता हूँ, छात्र वैसा ही सुनते हैं। छात्र जैसा सुनते हैं, वैसा ही लिखते हैं। मैंने पाया कि अधिकतर मामलों में छात्रों द्वारा शब्दों के गलत लिखने की संख्या स्वत: ही कम हो गई है।
मन से यूँ ही बोली गई इमला में परेशानी होती है। यदि बच्चे बीच में दोबारा किसी वाक्य या शब्द को दोहराने का अनुरोध करते हैं तो अध्यापक ही भ्रमित हो जाते हैं। अध्यापक का ध्यान भंग होता है। उसे बार-बार सोचना पड़ता है कि उसने पहला वाक्य क्या बोला था। छात्र बीच में पूछते हैं तो कई बार अध्यापक छात्रों के समक्ष दोबारा एक नया वाक्य रख देते हैं। पढ़कर लिखने के लिए दी जाने वाली इमला में यह समस्या भी नहीं होती।

इमला छोटी और गति धीमी
इमला दस से बारह पंक्तियों की या अधिकतम आधा पृष्ठ हो तो बेहतर परिणाम सामने आते हैं। एक तो इमला का आकलन करना आसान होता है और छात्र भी सुनकर लिखने की प्रक्रिया से ऊबते नहीं। जितनी लम्बी इमला होगी, छात्रों में गलती करने की सम्भावना और भय अधिक बना रहेगा। वे गलतियाँ भी करेंगे और मनोबल टूटेगा, सो अलग। छोटी इमला में छात्र यह मान लेते हैं कि उनसे कम शब्द ही गलत लिखे गए हैं। लम्बी इमला में छात्रों की एकाग्रता भी नहीं बनी रहती। वे लिखते तो हैं, लेकिन बेमन से और ऐसे में गलतियों की सम्भावना और बढ़ जाती है।
इमला पढ़ने में सरल हो। छात्रों के स्तर के अनुकूल हो। वाक्य छोटे हों। जैसे आज... फिर... बारिश... होने... वाली... है...। विराम चिन्हों को शब्दों से अलग पढ़कर बोला जाना बेहतर होता है। जब छात्र इमला पढ़कर सुनने के अभ्यस्त हो जाते हैं, तो पूरा वाक्य पढ़कर लिखने के लिए कहा जा सकता है।

हर छात्र की क्षमता भिन्न होती है
इमला लिखते समय दस फीसदी छात्र औसत से धीमा लिखते हैं। वे बार-बार शब्दों को सुनकर आश्वस्त होना चाहते हैं कि उन्होंने जो सुना है अध्यापक वही कह रहा है या नहीं। कई बार वह किसी शब्द को सुनकर भ्रमित भी हो जाते हैं जैसे वाक्य, ‘पर पक्षियों के पर नोच लिए गए थे’ बोलने के दौरान एक छात्र को समझ नहीं आया कि पहले पर और पक्षियों के बाद सुना गया पर, दोनों लिखे जाने हैं। यहाँ पूरा वाक्य छात्रों को आश्वस्त करने के लिए पढ़ा जाना बेहतर होगा।
अध्यापक यदि आतुर न हों और पढ़कर बोले जाने वाले हर शब्द का स्पष्ट उच्चारण करें, उसे दो-तीन बार दोहरा भी लें तो वह भी छात्र हित में है। एक पूरा वाक्य लिख लेने के बाद उसे दोहराना आवश्यक है। यह कहना अच्छा होगा कि चलिए मिलान करते हैं, ‘पर पक्षियों के पर नोच लिए गए’ (पूर्ण विराम को बाकायदा बोला जाए)।

इमला को श्यामपट्ट पर लिखना
इमला पढ़ दी गई। छात्रों ने उस इबारत को सुनकर लिख भी लिया। उद्देश्य पूरा हो गया? जी नहीं। यदि इसके उपरान्त अध्यापक उसी पैराग्राफ को श्यामपट्ट पर लिख दे तो बेहतर होगा। छात्र अभी-अभी सुनकर लिखी गई इबारत का मिलान श्यामपट्ट पर लिखी गई इबारत से करते हैं। वे जहाँ-जहाँ सुनकर लिखी गई इमला में गलतियाँ करते हैं, उन्हें तत्काल उन गलतियों को सुधारने का मौका मिल जाता है। वे स्वत: जान लेते हैं कि उन्होंने सुनकर जो इबारत लिखी और श्यामपट्ट पर लिखी गई इबारत में कहाँ-कहाँ और क्या-क्या अन्तर हैं। गलत शब्द को तुरन्त सुधार लेने से सही शब्द की छवि स्थाई तौर पर मन-मस्तिष्क में अंकित हो जाती है।

छात्र ही एक-दूसरे के परीक्षक
परम्परागत इमला में अध्यापक ही परीक्षक होते हैं। अध्यापक अक्सर उदारवादी नहीं होते। वे बड़ी निर्ममता से गलतियों पर घेरा करते हैं और लम्बे निर्देश भी लिख देते हैं। मैंने छात्रों से कहा कि वे एक-दूसरे की इबारत को ध्यान से देखेंे, पढ़ें और जाँचें। जाँच में लिखे गए शब्दों पर सही का निशान लगाएँ। छात्रों ने एक-दूसरे के लिखे को गौर से जाँचा और इस दौरान उनकी समझ और पक्की हुई। कई बार छात्रों ने श्यामपट्ट से देखकर उतारी इबारत में भी गलतियाँ कीं।

कहन और लेखन में सुधार
जैसा पहले ज़िक्र किया गया कि इमला कहने में अध्यापक की अपनी टोन भी त्रुटिपूर्ण हो सकती है। ज़रूरी नहीं कि अध्यापक हर वर्ण, शब्द और हर वाक्य का सही उच्चारण करते हों। परन्तु जब वह पढ़कर बोलेंगे तो यह समस्या काफी हद तक दूर हो जाती है। पर यहाँ दूसरी समस्या शिक्षक के श्यामपट्ट लेखन की है। कई बार अध्यापक की लिखावट स्पष्ट नहीं होती। छात्र भी वैसा ही उतार लेते हैं, जैसा शिक्षक ने श्यामपट्ट पर लिखा। जैसे, खबर को छात्रों ने ‘रवबर’ लिखा, फरेब को ‘करेब’ लिखा, शरबत को ‘शखत’ लिखा गया, रकम को ‘खकम’ लिखा, गरीब को ‘मरीब’ लिखा, सहना को ‘सेना’ लिखा, डगर को ‘उमर’ लिखा, उखड़ को ‘उरवउ’ लिखा गया। समझने में देर तो लगी, लेकिन यह भी समझ में आया कि दोष तो अध्यापक की लिखावट में भी हो सकता है। लिखावट की बनावट सही नहीं है तो छात्र इसे ‘लिरवावव’ भी लिख सकता है। एक बात और समझ में आई कि श्यामपट्ट पर लिखा स्पष्ट है, लेकिन तब भी कुछ बच्चों को देखने में दिक्कत होती है। पर्याप्त रोशनी न हो या बाहर से आ रही रोशनी श्यामपट्ट पर सीधे चमक रही हो तो यह समस्या आती है। श्यामपट्ट से अधिक दूरी भी बाधक है।

पढ़कर लिखने के लाभ
* छात्रों का सुनने का कौशल बढ़ता है। अब वे हर शब्द को ध्यान से सुनने का प्रयास करते हैं।
* अध्यापक के उच्चारण के साथ वे भी बुदबुदाते हैं। अध्यापक के उच्चारण को अपनाने का प्रयास करते हैं। छात्र भी अध्यापक की शैली का अनुकरण करने लगते हैं।
* छात्र स्वयं एक-एक वर्ण को न केवल गौर से पहचानने की कोशिश करते हैं बल्कि उस वर्ण की दूसरे वर्ण से बनावट में भिन्नता को भी समझने लगते हैं।
* पढ़ते-पढ़ते वे शब्द की छवि अपने मन-मस्तिष्क में बिठाते हैं।
* बार-बार सुनकर लिखने की इस आदत के परिणामस्वरूप वे ‘जैसा सुना जाता है, वैसा ही लिखा जाता है’ की अवधारणा समझ लेते हैं और वे भी सही उच्चारण का अभ्यास करने लगते हैं।
* अध्यापक द्वारा श्यामपट्ट पर इमला के दोहराव के बाद अपनी गलतियों को पहचानने के साथ-साथ छात्र स्वत: यह समझ बना लेते हैं कि हस्तलेख पठनीय होना चाहिए। वे अपने लेख की बनावट को हर सम्भव तरीके से अच्छा बनाने की दिशा में आगे बढ़ने लगते हैं।
* एक-दूसरे की इबारत को जाँचने की आदत से छात्रों का आत्मविश्वास बढ़ता है। वे खुद पर भरोसा करने की स्थिति में आने लगते हैं।
* यहाँ अंक हासिल करने की होड़ नहीं होती इसलिए भयमुक्त वातावरण में छात्र आनन्द के साथ सीखते हैं।
* विराम चिन्हों की समझ बनती है। छात्रों में उद्धरण, विस्मयादिबोधक चिन्हों, विराम, अर्द्धविराम से लेकर योजक चिन्हों की बेहतर समझ बनती है।
* छात्र अपने अनुभव से ज़्यादा सीखते हैं। उनके पास हर नए शब्द को समझने, जानने-मानने का अपना दृष्टिकोण होता है।
भले ही इमला के प्रत्यक्ष परिणाम में भाषा सीखने के सिद्वान्त का प्रयोग नहीं होता लेकिन छात्रों में एक बार पुन: वर्ण, शब्द और शब्दों से पूर्ण वाक्य की प्रत्यक्ष समझ बनती है। वे सुनने, बोलने और लिखने के साथ-साथ पढ़ने के कौशल में भी पारंगत होते हैं।


मनोहर चमोली: शिक्षा विभाग, विद्यालयी शिक्षा, उत्तराखण्ड में भाषा शिक्षक हैं। कहानियाँ लिखते हैं। कई कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। साहित्य के अनेक राजकीय पुरस्कारों से सम्मानित। पौड़ी (गढ़वाल) में निवास।
सभी चित्र: तनुश्री रॉय पॉल: आई.डी.सी., आई.आई.टी. बॉम्बे से एनीमेशन में स्नातकोत्तर। स्वतंत्र रूप से एनीमेशन फिल्में बनाती हैं और चित्रकारी करती हैं।