मुकेश मालवीय

बात पुरानी है। उन दिनो मैं पावरझण्डा में था। शहर से बहुत दूर जंगल से घिरा यह छोटा-सा गाँव है। गाँव में नदी के किनारे मेरा स्कूल था। स्कूल से थोड़ी दूर एक बड़ा पहाड़ है। पहाड़ का नाम भवरगढ़ है। गाँव के लोग अपने से जुड़ी हर चीज़ के अनोखे नाम रखते हैं। नदी का नाम झिरना था, जंगल का नाम गुन्दी और डगलाबड़ था, पर स्कूल का नाम स्कूल ही था। स्कूल की खिड़की से भवरगढ़ ऐसे दिखाई देता जैसे दीवार पर कोई काल्पनिक पहाड़ की तस्वीर लगी हो। बरसात के मौसम में इस पहाड़ के बीचों-बीच एक सफेद लाइन दिखाई देने लगती। यह हमारे स्कूल के बाजूवाली झिरना नदी ही होती। बच्चों को मालूम था कि झिरना का घर भवरगढ़ में है पर मुझे तब मालूम चला जब मैंने पहली बार बारिश के बाद इस सफेद लाइन को भवरगढ़ पर देखा। मेरे स्कूल आने वाले बच्चे स्कूल आने की उम्र के पहले ही बीसियों बार इस पहाड़ पर चढ़ चुके होते। गुन्दी और डगलाबड़ के रास्तों से उनकी जान-पहचान पक्की हो जाती और झिरना तो उनके साथ-साथ ही बड़ी होती। इन यायावर बच्चों को जब मैं एक कमरे में बैठाकर कुछ किताबी और अजनबी-सी ज्ञान की बातें बताता तो उनका ध्यान जल्दी ही गुन्दी, डगलाबड़, भवरगढ़, झिरना में भटकने लगता। धीरे-धीरे इन बच्चों की देखा-देखी मैं भी समझदार होने लगा। अब हम स्कूल में से कभी भवरगढ़ के पेड़ों को गिनते, उनका नया नाम रखते तो कभी झिरना के केकड़ों की बात करते। कहानियाँ कभी पहाड़ से उतरतीं तो कोई ख्ेाल कभी जंगल से निकल आता। कल्पनाएँ तो नदी की धार में दूर तक बह जातीं। आपको यकीन नहीं हो रहा न? तो चलो एक कहानी है, जो झिरना नदी में बह रही थी उसे मेरे स्कूल के बच्चे बाहर निकालकर अपने स्कूल में ले आए, उसे सुन लो।

हुआ यूँ कि एक बार जब झिरना में बाढ़ आई हुई थी तो हम सब पूर को देखने में लगे हुए थे। पावरझण्डा में बाढ़ को ‘पूर’ कहते हैं। उस पूर में हमने देखा कि एक छीन्द/ताड़ का पेड़ बहकर जा रहा था। पेड़ अच्छा लम्बा था। हमारे स्कूल के पास नदी के किनारे आम के दो पेड़ लगे हैं। इनमें आकर ये छीन्द का पेड़ फँस गया। हम सब इस छीन्द के पेड़ के पास इकट्ठे हो गए। पेड़ के एक सिरे पर खूब सारी झबरीली जड़ें थीं, दूसरे सिरे पर कोई डाली या पत्तियाँ नहीं थीं। पूरे गोल तने पर खाँचे बने हुए थे जो डालियों के झड़ने की वजह से बने होंगे। समूचा पेड़ बहुत ही आकर्षक था। शाम को मैं तो घर चला गया पर कुछ बच्चे पेड़ से दोस्ती करते रहे।

अगले दिन जब मैं स्कूल पहुँचा तो देखा कि बच्चे छीन्द के पेड़ को घेरे हुए खड़े थे। वे छीन्द के पेड़ को अपने स्कूल में लाना चाहते थे इसलिए हम सबने मिलकर छीन्द के पेड़ को लुढ़काया, सरकाया, घसीटा और खींचा। तमाम जुगत लगाकर जैसे-तैसे हम इसे अपने स्कूल के किनारे तक ले आए। छीन्द का पेड़ अब हमारे स्कूल की सम्पत्ति बन गया।
जैसा कि मैंने पहले भी बताया कि गाँव के लोग अपने से जुड़ी हर चीज़ के अनोखे नाम रखते हैं, बच्चे इस नए मेहमान पेड़ को भी अलग-अलग नाम से पुकारते। कोई इसे छीन्दू कहता, कोई झबरू। कारू, घसीटा, अटका-भटका, कटीला आदि कई सारे नाम थे इसके। पर एक दिन एक लड़की ने इसे नया नाम फंगसु दिया। उसकी फ्रॉक इसके खाँचेनुमा फंगसों में फँसकर फट गई थी। तब से फंगसु को सब ‘फंगसु’ ही कहने लगे। आड़ा लेटा फंगसु स्कूल की पहचान बन गया। कुछ दिनों बाद किसी बच्चे को सूझा कि फंगसु को खड़ा करना चाहिए। उसका यह विचार जाने कैसे सारे बच्चों के पास पहले से मौजूद था। मुझे सूचना लगी तो मैंने वह जगह सुझाई जहाँ फंगसु को खड़ा किया जाना चाहिए।

अगले दिन से गड्ढा खुदना चालू हुआ। तीन-चार दिन में तीस-चालीस बच्चों ने तीन-चार फीट का गड्ढा खोद लिया। अब फंगसु को गड्ढे में खड़ा करना था। स्कूल के बच्चों से दोस्ती के कारण फंगसु उनसे हिल-डुल तो सकता था पर उसे खड़ा करना कोई बच्चों का खेल तो था नहीं। तब बच्चों ने अपने-अपने घरों से बड़ों को बुलाया। अगले दिन बच्चों के साथ बड़े भी स्कूल आ पहुँचे। बड़ों को मालूम था कि अगर बच्चों के साथ गुरुजी भी फंगसु को खड़ा करना चाहते हैं तो ज़रूर ये पढ़ाई से जुड़ा ही कोई मकसद होगा।

इस गाँव के बड़ों के पास कई सारे हुनर थे। उन्होंने पहले उस गड्ढे को थोड़ा चौड़ा और गहरा किया फिर फंगसु को लुढ़काकर उसका निचला सिरा गड्ढे के मुँह के पास लाए। फंगसु के ऊपरी सिरे पर एक मोटी रस्सी बाँधी। एक रस्सी फंगसु के बीचों-बीच बाँधी गई। अब दोनों रस्सियों को पास के आम के पेड़ की मोटी डाली के ऊपर से नीचे फेंका गया। इन रस्सियों को अब बड़ों ने खींचना शुरु किया। कुछ लोगों ने लकड़ी की मदद से इसके निचले हिस्से को सम्हाला। बच्चों के और मेरे हिस्से में कोई काम नहीं था तो हमने उत्साह में चिल्लाना शुरु  किया।
ज़ोर लगा के हैया हैया।
खड़ा हो गया फंगसु भैया।
ज़ोर लगा के हैया हैया।
खड़ा हो गया फंगसु भैया।
और इस तरह फंगसु भैया स्कूल के आँगन में मज़बूती से खड़े हो गए। हम सबको पता था फंगसु खड़े ही इसलिए हुए हैं कि बच्चे इस पर चढ़ सकें पर सबसे पहले इस पर कौन चढ़ेगा, यह तय करना था। तय हुआ कि वह लड़की जिसकी फ्रॉक फंगसु ने फाड़ी थी वह चढ़ेगी सबसे पहले। अगले पल ही फंगसु के फंगसों पर पैर जमाती हुई वह लड़की ऊपर चढ़ी जा रही थी।


मुकेश मालवीय: शासकीय माध्यमिक शाला, पहावाड़ी (शाहपुर, बैतूल, म.प्र.) में बहुत साल पढ़ाया है। वर्तमान में ज्ञानोदय विद्यालय, होशंगाबाद में पदस्थ हैं।
सभी चित्र: नीना भट्ट: चित्रकारी और लेखन कार्य करती हैं। वडोदरा में रहती हैं।