सुशील जोशी

भाग-2

हमने देखा कि इस बात का अन्दाज़ सत्रहवीं सदी में लगने लगा था कि पृथ्वी हमारी कल्पना से बहुत-बहुत पुरानी है। इसके बाद उन्नीसवीं सदी में इसकी उम्र का निर्धारण करने के प्रयास शुरू हुए। सारे प्रयासों की मूल बात यह रही कि आपको किसी गुणधर्म के सन्दर्भ में पृथ्वी की आज की स्थिति पता है, आप जानते हैं कि वह गुणधर्म किस/किन प्रक्रियाओं के अधीन है और आप यह मानकर चलते हैं कि ये प्रक्रियाएँ अतीत में भी इसी तरह चलती रही होंगी। फिर आपको कुछ मानना पड़ता है कि पृथ्वी के शुरुआती दौर में क्या स्थिति रही होगी। इनके आधार पर आप गणना करते हैं कि शुरुआती स्थिति से वर्तमान स्थिति तक पहुँचने में कितने साल लगे।

केल्विन ने माना था कि शुरुआत में पृथ्वी का तापमान लगभग सूर्य के बराबर रहा होगा। इसके बाद पृथ्वी लगातार ठण्डी हुई - उसकी ऊष्मा केन्द्रीय भाग से चालन विधि से सतह पर आकर अन्तरिक्ष में बिखरती गई। उन्होंने यह भी माना कि सूर्य के विपरीत पृथ्वी पर ऊष्मा का अपना कोई स्रोत नहीं था। जैसा कि हमने देखा था केल्विन ने इन मान्यताओं के आधार पर जो गणनाएँ कीं उनसे पृथ्वी की उम्र 10-40 करोड़ वर्ष के बीच निकली। आगे चलकर तो केल्विन ने यह दायरा घटाकर 10-20 करोड़ वर्ष कर दिया था।
किसी ने भी उनकी विधि पर सवाल नहीं उठाए। सवाल उठे उनकी मान्यताओं पर।

जैसा कि हमने देखा था केल्विन के मुताबिक धरती और सूरज साथ-साथ बने थे। यानी धरती का प्रारम्भिक तापमान सूरज के बराबर रहा होगा। दूसरी बात उन्होंने यह मानी थी कि सूरज की गर्मी का एकमात्र नहीं, तो प्रमुख स्रोत गुरुत्वाकर्षण की वजह से हो रहा संकुचन है। तीसरा उन्होंने यह माना कि धरती में ऊष्मा का कोई अन्दरूनी स्रोत नहीं है। और आखिरी मान्यता यह थी कि पृथ्वी के केन्द्रीय भाग से सतह तक ऊष्मा के पहुँचने की प्रमुख विधि चालन है।
तो सबसे पहला सवाल तो यही था कि पृथ्वी पर ऊष्मा के स्रोत क्या हैं। धीरे-धीरे पता चला कि पृथ्वी पर ऊष्मा का एकमात्र स्रोत सूरज से मिलने वाली गर्मी नहीं है।
पृथ्वी पर गर्मी के कई स्रोत हैं। इनमें से पहला तो वही है - पृथ्वी के निर्माण के समय मौजूद ऊष्मा। इसके बाद धरती ठण्डी होने लगी मगर शुरुआत में यह तरल अवस्था में थी। अत: संकुचन की वजह से थोड़ी गुरुत्व ऊष्मा पैदा हुई होगी।

ऊष्मा का नया स्रोत
उन्नीसवीं सदी के अन्तिम वर्षों में ऊष्मा का तीसरा प्रमुख स्रोत पहचाना गया। यह पता चला कि कई तत्वों के परमाणु टूटते रहते हैं। परमाणु के टूटने की वजह से नए तत्वों का निर्माण होता है और काफी सारी ऊष्मा निकलती है। इस प्रक्रिया को रेडियो विखण्डन या परमाणु विखण्डन कहते हैं। रेडियो विखण्डन नाम रेडिएशन यानी विकिरण के आधार पर है। जब परमाणु का विखण्डन होता है तो विकिरण के रूप में ऊर्जा निकलती है। पृथ्वी पर इस तरह विखण्डित होने वाले प्रमुख तत्व हैं युरेनियम, थोरियम और पोटेशियम। जल्दी यह स्पष्ट हो गया कि परमाणु विखण्डन गर्मी का एक बड़ा स्रोत है जो केल्विन को ज्ञात नहीं था। 1903 में अर्नेस्ट रदरफोर्ड और फ्रेडरिक सॉडी ने यह गणना की कि रेडियो-विखण्डन की प्रक्रिया में कितनी ऊष्मा पैदा होती है। और उन्होंने तत्काल यह समझ लिया कि उनकी यह खोज ब्रह्माण्ड सम्बन्धी हमारी समझ के लिए महत्वपूर्ण है। उन्होंने स्पष्ट किया कि रेडियो-विखण्डन से उत्पन्न ऊष्मा को सारी गणनाओं में ध्यान रखा जाना चाहिए।

अर्थात् बीसवीं सदी के आरम्भ तक हम यह जान गए थे कि धरती सिर्फ ठण्डी नहीं होती गई है बल्कि गर्म भी होती रही है। इसका अर्थ है कि शुरुआती तापमान से आज के तापमान तक पहुँचने में इसे कहीं ज़्यादा समय लगा होगा।
और पिक्चर अभी बाकी है।
रोचक बात यह है कि परमाणु का टूटना इस बात पर निर्भर है कि शुरुआत में कुल कितने टूटने योग्य परमाणु हैं। किसी भी तत्व के लिए परमाणुओं के टूटने की एक निश्चित दर होती है। इस दर को थोड़ा अलग ढंग से व्यक्त किया जाता है। बताया यह जाता है कि कुल उपस्थित परमाणुओं में से आधे कितने समय में टूट जाएँगे। इसे उस तत्व की अर्धायु (half-life) कहते हैं। ज़ाहिर है कि जैसे-जैसे विखण्डन की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी, टूटने योग्य परमाणु कम होते जाएँगे। चूँकि अर्धायु निश्चित है, इसलिए विखण्डन की रफ्तार कम होती जाएगी। यानी आज के मुकाबले अतीत में रेडियो विखण्डन कहीं ज़्यादा होता होगा और कहीं ज़्यादा गर्मी पैदा होती होगी।

तस्वीर का दूसरा पहलू ऊष्मा के ह्रास से सम्बन्धित है। एक तो केल्विन ने पहचान ही लिया था - पृथ्वी के केन्द्रीय हिस्से से सतह तक ऊष्मा का चालन। मगर चट्टानें ऊष्मा की अच्छी चालक नहीं होतीं। एक अनुमान है कि यदि चालन विधि से ऊष्मा का स्थानान्तरण होता, तो पृथ्वी की शुरुआत (करीब 4.5 अरब वर्ष पूर्व) में जो ऊष्मा चन्द सैकड़ों किलोमीटर की गहराई से चली होगी वह अब जाकर सतह तक पहुँची होती।
धरती की अन्दरूनी संरचना के अध्ययन के साथ यह स्पष्ट हुआ कि धरती में ऊष्मा स्थानान्तरण की प्रमुख विधि संवहन की है। पृथ्वी के केन्द्रीय भाग मैंटल की चट्टानें काफी गाढ़े तरल के रूप में हैं और इसमें संवहन के ज़रिए ऊष्मा का स्थानान्तरण होता है। ज़ाहिर है केन्द्रीय भाग का तापमान जितना अधिक होगा चट्टानों का गाढ़ापन (श्यानता) कम होती जाएगी और संवहन में वृद्धि होगी। पृथ्वी के मैंटल में संवहन के कई प्रमाण हैं। अलबत्ता हम उसमें फिलहाल नहीं जा रहे हैं। 1895 में इस आधार पर एक अनुमान 200-300 करोड़ वर्षों का लगाया गया था।

एक अनुमान के मुताबिक उक्त सारी प्रक्रियाओं का मिला-जुला असर यह है कि धरती प्रति 10 करोड़ वर्षों में 5-6 डिग्री सेल्सियस की दर पर ठण्डी होती रही है। ऊष्मा के इन स्रोतों के पता लगने और ऊष्मा ह्रास की नई समझ के आधार पर पृथ्वी की आयु की गणना के प्रयास एक बार फिर शुरु हुए। मगर ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह रही कि जहाँं रेडियो विखण्डन की खोज ने पृथ्वी की आयु को कई गुना बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त किया वहीं इसने आयु पता करने की एक सर्वथा नई विधि को भी जन्म दिया। उसमें जाने से पहले यह देखते हैं कि पृथ्वी की आयु ज्ञात करने के शेष प्रयासों का क्या हश्र हुआ था।

हमने देखा था कि पृथ्वी की आयु पता लगाने के कई प्रयास किए गए थे। इन सभी का तर्क एक ही था। आजकल की किसी स्थिति को लें, पृथ्वी की उत्पत्ति के समय की स्थिति के बारे में कोई मान्यता बनाएँ, और फिर यह देखें कि ज्ञात प्रक्रियाओं के ज़रिए मूल स्थिति से वर्तमान स्थिति तक पहुँचने में कितना समय लगता है।

अन्य विधियाँ - चांद का दूर जाना
जैसे जॉर्ज डारविन के तर्क को ही लें। उन्होंने वर्तमान में पृथ्वी से चांद की दूरी को लिया। मान्यता यह रखी कि पृथ्वी और चांद, दोनों की उत्पत्ति लगभग एक साथ हुई थी। उन्होंने यह भी माना था कि पृथ्वी जब गैस का गोला थी तब उसके घूर्णन की वजह से एक बड़ा टुकड़ा छिटककर अलग हो गया था और वही चांद बना। मगर जल्दी ही पता चला कि चांद की उत्पत्ति इस तरह से नहीं हुई थी बल्कि पृथ्वी पर किसी विशाल उल्का पिण्ड की टक्कर के कारण हुई थी। इस नई खोज के साथ ही जॉर्ज डारविन की सारी गणनाएँ बेकार साबित हुईं। यानी उनकी प्रारम्भिक स्थिति सम्बन्धी मान्यता सही नहीं थी।

लवण की मात्रा नापकर
इसी प्रकार से, एडमंड हैली ने 1715 में यह प्रस्ताव दिया था कि समुद्रों में लवण की मात्रा के आधार पर हम पृथ्वी की उम्र का पता लगा सकते हैं। उनका मत था कि समुद्रों में सारा लवण नदियों द्वारा लाया जाता है। यदि हम यह मान लें कि प्रारम्भिक समुद्रों में लवण की मात्रा शून्य थी तो हम आसानी से गणना कर सकेंगे कि लवणों के वर्तमान स्तर तक पहुँचने में कितने साल लगे होंगे। इस विधि का उपयोग करते हुए पृथ्वी की आयु 8 करोड़ से 15 करोड़ वर्ष के बीच निकली थी। मगर दिक्कत यह थी कि जल्दी ही भूगर्भ वैज्ञानिकों ने यह समझ लिया कि समुद्रों में लवण के जमा होने के साथ-साथ उन्हें हटाने की प्रक्रियाएँ भी चलती रहती हैं। यानी जहाँ नदियाँ लवण लाकर समुद्रों में जमा करती हैं वहीं प्रकृति की अन्य प्रक्रियाएँ लवण को वहाँ से हटाती भी रहती हैं।

अवसादन की दर
यही स्थिति परतदार चट्टानों के साथ भी हुई। जैसे लवण सिद्धान्त के साथ हुआ था, ठीक उसी तरह यहाँ भी यह पता चला कि समुद्रों में गाद जमा होना, उस गाद पर दबाव बनना और इस तरह चट्टानों की परतें बनना -- यह प्रक्रिया एक सीधी रेखा में नहीं चलती। चट्टानें बनती हैं, उनका क्षरण होता है, फिर से समुद्रों में पहुँचकर जमा होती हैं, फिर से चट्टान बनती है। यह एक चक्र है। अठारहवीं सदी में भूगर्भ वैज्ञानिकों का मानना था कि समुद्र में तलछट की गहराई को नापकर, नदियों से बहकर आने वाली गाद की मात्रा के आधार पर वे बता सकेंगे कि इतनी गाद जमा होने में कितने साल लगे होंगे। इस तरीके में दो खामियाँ थीं। पहली तो यह मान्यता ठीक नहीं थी कि गाद आने की दर सदा स्थिर रहती है। दूसरी खामी यह थी कि इसमें गाद आने की बात तो की गई थी मगर यह नहीं सोचा गया था कि गाद हटती भी रहती है।

जैसे एक गणना को देखें।
1. समुद्रों में वर्तमान में पहुँचने वाली गाद की मात्रा प्रति वर्ष 27.5 x 109 टन
2. समुद्रों में वर्तमान में कुल तलछट की मात्रा 820 x 1015 टन
3. समुद्र के ऊपर महाद्वीपों का वज़न 383 x 1015 टन
इन तीन आँकड़ों के आधार पर गणना आसान है। यदि समुद्रों में तलछट की कुल मात्रा (2) में तलछट पहुँचने की दर (1) का भाग दें तो आता है 3 करोड़ वर्ष। यानी समुद्रों में इतनी तलछट जमा होने में 3 करोड़ साल लगे हैं। यदि महाद्वीपों के समुद्र से ऊपर दिखने वाले भाग की मात्रा (3) में तलछट बनने की दर (1) का भाग दें तो आता है 1.4 करोड़ वर्ष यानी वर्तमान महाद्वीपों को घटकर समुद्र तल तक पहुँचने में 1.4 करोड़ वर्ष लगेंगे।

दरअसल, ऐसी सभी परिकल्पनाओं में एक बात की कमी थी। जब ऐसी कोई प्रक्रिया चलती है, जो परस्पर विपरीत दिशाओं में सम्भव है, तो जल्दी ही एक साम्यावस्था निर्मित हो जाती है। इसके बाद प्रक्रिया दोनों दिशाओं में समान गति से चलने लगती है और प्रभावी रूप से एक स्थिर अवस्था निर्मित हो जाती है। लिहाज़ा इनकी मदद से पृथ्वी की आयु पता करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।

कुछ और प्रयास
इस तरह के कई प्रयास किए गए। जैसे पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का ह्रास (यानी यह मान्यता कि प्रारम्भ में पृथ्वी का एक अति-शक्तिशाली चुम्बकीय क्षेत्र था, जो धीरे-धीरे कम होता गया है), पृथ्वी और चम्द्रमा पर उल्का पिण्डों की टक्करों के कारण जमा हुई धूल की मात्रा (यानी पृथ्वी पर तो उल्का पिण्डों की टक्करों की वजह से उड़ने वाली धूल हवा के कारण बिखर जाती है, मगर चांद पर हवा नहीं होने के कारण इस धूल की परत मोटी होती जाती है। तो यदि यह मान लिया जाए कि पृथ्वी और चांद साथ-साथ अस्तित्व में आए थे तो चांद पर जमी धूल की परत के आधार पर उसकी आयु की गणना की जा सकती है), वातावरण में हीलियम की मात्रा वगैरह।

इन सब विधियों पर काफी कुछ लिखा गया है मगर उस सबमें जाने की ज़रूरत नहीं है। मुख्य बात यह है कि जब भी हम पृथ्वी की आयु जानने के लिए किसी प्रारम्भिक स्थिति, अन्तिम स्थिति और परिवर्तन की प्रक्रिया का सहारा लेना चाहते हैं, तो हमें यह ध्यान रखना होगा कि मूल स्थिति सम्बन्धी मान्यता सही है, प्रक्रिया की दर को लेकर पर्याप्त समझ है और इस बात की समझ है कि अन्य प्रक्रियाएँ उस स्थिति को कैसे प्रभावित करेंगी।

इसके बाद हम एक बार फिर रेडियो-विखण्डन की प्रक्रिया पर लौटेंगे। हम देख ही चुके हैं कि रेडियो-विखण्डन की प्रक्रिया ने केल्विन की ऊष्मा आधारित विधि में एक नया आयाम जोड़ने का काम किया था। इस प्रक्रिया की खोज के बाद पता चला था कि पृथ्वी पर ऊष्मा का एक शक्तिशाली स्रोत मौजूद है। इसी विधि में जब और अध्ययन हुए तो कई महत्वपूर्ण निष्कर्ष हासिल हुए जिनका सम्बन्ध वस्तुओं की प्राचीनता से स्थापित होता गया और रेडियो-विखण्डन वस्तुओं (पृथ्वी समेत) की उम्र ज्ञात करने की एक सशक्त विधि बन गई।


सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।