लेखक : विलियम डी. लैटस्पीच
अनुवाद: यशोधरा कनेरिया

जब वैज्ञानिक किसी प्रश्न-विशेष के बारे में सोचते हैं, तब शु डिग्री होती है शोध की प्रक्रिया। और इसी प्रकार के विशेष प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए वैज्ञानिक कुछ प्रयोग तैयार करते हैं।
शोध की प्रक्रिया में कई बार वैज्ञानिक अपने इच्छित परिणामों से कुछ अलग खोज लेते हैं। कभी-कभी अचानक से हुई ये खोजें वैज्ञानिक द्वारा अपेक्षित खोजों के समान या अधिक महत्व की होती हैं। एक वैज्ञानिक को यह पहचान में आना चाहिए कि कब ऐसी अनपेक्षित घटना घटित हो जाती है। उसे इन घटनाओं को अपने प्रयोग या उसकी योजना में हुई गलतियाँ न मान कर इनके महत्व को समझना चाहिए।
शोध की प्रक्रिया में संयोग से होने वाली खोजों के कई उदाहरण उपलब्ध हैं। डैनिश वैज्ञानिक हैनरिक डैम द्वारा विटामिन k की खोज संयोग से होने वाली खोज का ही एक बेहतरीन उदाहरण है।

कोलेस्ट्रॉल से शुरुआत
इस कहानी की शुरुआत 1928 में डैनमार्क के कोपनहागन शहर से होती है। डॉक्टर डैम की रुचि कोलेस्ट्रॉल नामक वसीय पदार्थ में थी। यह पदार्थ मक्खन, अण्डे व अन्य प्रकार के वसीय भोजन में पाया जाता है। यह भोजन से अवशोषित होकर खून में पहुँच जाता है। आज के डॉक्टर इसमें खास रुचि रखते हैं क्योंकि कोलेस्ट्रॉल से कुछ खास बीमारियों की प्रक्रिया के बारे में हमारी समझ बढ़ सकती है। 
डॉक्टर डैम यह जानना चाहते थे कि क्या जानवर अपना स्वयं का कोलेस्ट्रॉल बनाने में सक्षम होते हैं। यदि जानवरों द्वारा खाए जाने वाले भोजन को कोलेस्ट्रॉल-मुक्त बना दिया जाए तो ऐसी स्थिति में क्या वो स्वयं के शरीर में उपस्थित रसायनों से कोलेस्ट्रॉल बना पाएँगे?
उन्होंने अपना शोध-अध्ययन चूज़ों पर किया। उन्होंने इन चूज़ों को कोलेस्ट्रॉल-मुक्त भोजन दिया। उनकी योजना थी कि वे इन चूज़ों के शरीर में पाए जाने वाले कोलेस्ट्रॉल की मात्रा को नापेंगे। इस मात्रा की तुलना वे कोलेस्ट्रॉल-युक्त भोजन वाले चूज़ों के खून में उपस्थित मात्रा से करेंगे। इस प्रक्रिया में डैम ने किसी भी प्राकृतिक भोजन पदार्थ को शामिल नहीं किया। दुग्ध प्रोटीन, शक्कर, वनस्पति तेल, खनिजों तथा उस समय ज्ञात विटामिन के मिश्रण से भोजन बनाया गया।

प्रयोगों के दौरान डॉक्टर डैम ने संयोगवश कुछ अनपेक्षित बातें नोट कीं। वे चूज़े जिनके भोजन में कोलेस्ट्रॉल अनुपस्थित था उनकी त्वचा के नीचे, मांसपेशियों व अंगों और शरीर के अन्य हिस्सों में खून की मात्रा कम हो रही थी। उन्होंने यह भी पाया कि इन चूज़ों के खून का थक्का जमने में सामान्य खून की अपेक्षा अधिक समय लगता है। यह बात पहले ही पता थी कि इस प्रकार के लक्षण ‘स्कर्वी’ नामक रोग में दिखाई देते हैं तथा शरीर में विटामिन c की कमी होने के कारण स्कर्वी रोग होता है। अत: डॉक्टर डैम ने उन चूज़ों को विटामिन c देना शुरु किया। परन्तु उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं आया। डॉक्टर डैम को यह पता था कि ये सब कोलेस्ट्रॉल की कमी से नहीं हो रहा है क्योंकि उनके प्रयोगों से यह बात पुख्ता हो चुकी थी कि चूज़े अपना कोलेस्ट्रॉल बना रहे हैं।

एक नए विटामिन की खोज
अब उन्होंने चूज़ों को गेहूँ का तेल व मछली का तेल देना शुरु किया जो विटामिन A, C व D के समृद्ध स्रोत हैं। डॉक्टर डैम ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि जब उन्होंने चूज़ों को कोलेस्ट्रॉल-मुक्त भोजन दिया था तो उसमें ये सारे विटामिन भी अनुपस्थित थे। परन्तु ये तेल भी चूज़ों की स्थिति को सुधारने में असफल रहे।
अन्ततोगत्वा डॉक्टर डैम को वो पूरक तत्व मिल गया जिसको भोजन के रूप में देने पर प्रभावित चूज़ों का इलाज हो पाया। उन्होंने चूज़ों को बिना उपचारित किया प्राकृतिक अनाज जैसे कि गेहूँ, चावल या मक्का और कुछ खास हरी सब्ज़ियों की पत्तियाँ देना शुरु किया। उन्होंने पाया कि चूज़ों के भोजन में कोई तत्व तो पहुँच गया है जिससे वे खून की कमी से बच गए हैं। परन्तु डॉक्टर डैम इस तत्व की पहचान नहीं कर पाए थे।

उन्होंने सोचा - सम्भव है यह कोई नया विटामिन हो जिसके बारे में अभी किसी को जानकारी नहीं है। डॉक्टर डैम ने उस समय तक ज्ञात सारे विटामिन के साथ प्रयोग किए। इनमें से किसी से भी चूज़ों के खून की स्थिति में कोई सुधार नहीं आया। हालाँकि डॉक्टर डैम को एक बात पर यकीन था। उन्हें पता था कि जब भोजन में से वसा को हटाया गया उसी के साथ-साथ यह अज्ञात तत्व भी हट गया है। उन्हें यह भी पता था कि यह तत्व गेहूँ या मछली के तेल में भी अनुपस्थित है। और यह भी ज्ञात था कि इस तत्व की खून का थक्का बनने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

इन प्रयोगों के शु डिग्री होने के छह साल बाद 1934 में डॉक्टर डैम ने अज्ञात तत्व को अन्य सब्ज़ियों व कुछ खास प्रकार के माँस में खोजना शु डिग्री किया। 1935 में उन्होंने इस तत्व को विटामिन K नाम दिया। अभी तक विटामिन के नामकरण में K अक्षर का उपयोग नहीं किया गया था। यह डैनिश शब्द ‘koagulation’ का पहला अक्षर है। अँग्रेज़ी में ‘koagulation’ को ‘coagulation’ लिखते हैं। हिन्दी में इसका अभिप्राय खून के गाढ़ा होने या जमने से होता है।

थक्का बनने के लिए ज़रूरी यह विटामिन
इसके बाद और अधिक शोध की आवश्यकता थी। अब समस्या विटामिन ख़् की पहचान करना व उसे शुद्ध रूप में पृथक कर पाने की थी, ताकि उसकी रासायनिकी के बारे में पता लगाया जा सके। वैज्ञानिकों की इस बात पर भी समझ होना अनिवार्य थी कि विटामिन K की भूमिका खून का थक्का बनने में क्या और किस प्रकार रही।

डॉक्टर डैम की स्वयं की प्रयोगशाला में उन्होंने व उनके साथियों ने पहली समस्या का समाधान खोज लिया। उन्होंने एक पीले रंग के तेल के रूप में विटामिन को शुद्ध रूप में प्राप्त कर लिया। इसे एक खास किस्म की घास की सूखी पत्तियों से प्राप्त किया था। अमेरिका के दो जैवरसायनज्ञ डॉक्टर डुईस और डॉक्टर फिशर ने जल्द ही इस विटामिन के अणुओं की रासायनिक प्रकृति का पता लगा लिया। उस समय तक वैज्ञानिकों को प्रयोगशालाओं में इस विटामिन का निर्माण करना आ गया था। प्रयोगशाला में निर्मित विटामिन K की खून का थक्का बनाने की शक्ति प्राकृतिक रूप से उपलब्ध विटामिन K से अधिक थी।

लीवर की भूमिका
विटामिन K की थक्का बनने में क्या भूमिका होती है यह प्रश्न अभी तक अनुत्तरित था। खून में फाइब्रिनोजन नामक एक तरल प्रोटीन पाया जाता है। जब खून का थक्का बनता है तो फाइब्रिनोजन के छोटे-छोटे अणु आपस में जुड़ जाते हैं और ठोस अवस्था में आ जाते हैं।
फाइब्रिनोजन अणुओं के आपस में जुड़ने की प्रक्रिया के लिए खून में एक विशेष प्रकार के पदार्थ की उपस्थिति अनिवार्य होती है। डॉक्टर डैम ने अपने प्रयोगों से पता लगा लिया था कि जिन चूज़ों के साथ वो प्रयोग कर रहे थे उन सभी के खून में इस पदार्थ का अभाव था। इसी कारण उनके खून का थक्का नहीं जम पा रहा था। डॉक्टर डैम को यह पता था कि जब इन चूज़ों को भोजन में विटामिन ख़् दिया जाए तो खून में थक्का बनने के लिए आवश्यक पदार्थ की मात्रा बढ़ जाती है और थक्का बनने की प्रक्रिया सामान्य रूप से सम्पन्न होती है।
शोधों से यह ज्ञात था कि इस प्रक्रिया में लीवर की भूमिका होती है। यदि प्रभावित चूज़ों के खून में सीधे विटामिन K को प्रवेश करवाया जाए तो उनके खून में इस पदार्थ की मात्रा में वृद्धि नहीं होती है। न्यूयॉर्क के कुछ डॉक्टरों ने लीवर-रहित कुत्तों को विटामिन K दिया परन्तु कुत्तों के खून में इस पदार्थ की मात्रा में कोई परिवर्तन नहीं आया। परन्तु लीवर-सहित कुत्तों के साथ यही प्रक्रिया अपनाई गई तो पदार्थ की मात्रा में वृद्धि पाई गई।

अत: अब तक हम यह जान चुके हैं कि कुछ निश्चित भोज्य पदार्थों से विटामिन K शरीर में प्रवेश करता है। यह खून की सहायता से लीवर में प्रवेश करता है। परन्तु विटामिन K लीवर की अज्ञात पदार्थ बनाने में किस प्रकार सहायता करता है, यह प्रश्न अभी भी ज्ञात नहीं है।
डॉक्टर डैम द्वारा विटामिन K की खोज एक संयोगवश होने वाली खोज थी। विटामिन K की खून का थक्का जमने में क्या भूमिका है इस बात की समझ से शरीर क्रिया विज्ञान व चिकित्सा के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण परिणाम प्राप्त हुए। आइए, हम कुछ उदाहरणों को देखते हैं। कभी-कभी लागों की आँखों के सफेद हिस्से व चमड़ी के रंग में पीलापन आ जाता है, इस स्थिति को पीलिया कहते हैं। बहुत पुराने समय से डॉक्टर इस बात को जानते थे कि ऐसी स्थिति में प्रभावित व्यक्ति का ऑपरेशन करना सम्भव नहीं है क्योंकि यदि इनके शरीर पर चीर-फाड़ की जाएगी तो इनका खून लगातार बहता रहेगा। परन्तु विटामिन K की खोज के बाद इस स्थिति को नियंत्रित किया जाना सम्भव हो गया।
विटामिन K एक तेलीय पदार्थ है। शरीर द्वारा तेल को उपयोग में लाने के लिए लीवर के एक उत्पाद पित्त (bile) की आवश्यकता होती है। पित्त लीवर से होते हुए शरीर के अन्य भागों में पहुँचता है। यदि इसके शरीर के अन्य भागों में पहुँचने वाले मार्ग को अवरोधित कर दिया जाए तो विटामिन K का उत्पादन रुक जाता है और खून का थक्का जमने में दिक्कत आती है।

इस जानकारी के फलस्वरूप अब डॉक्टर पीलिया वाले मरीज़ों की विटामिन K की ज़रूरत के बारे में समझ रखते हैं। वे डॉक्टर पीलिया से ग्रसित मरीज़ों या अवरोधित पित्त मार्ग वाले मरीज़ों को अतिरिक्त विटामिन K की खुराक देते हैं जब तक कि इनमें खून का थक्का बनने की क्षमता सामान्य न हो जाए। ऐसी स्थिति में इन मरीज़ों के स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक ऑपरेशन व इलाज सम्भव हो पाता है।
कभी-कभी नवजात शिशु को जन्म के तुरन्त बाद ही विटामिन K के इंजेक्शन देने पड़ते हैं। इन शिशुओं के लीवर या पित्त मार्ग में भी कोई खराबी नहीं पाई गई। इनके शरीर में पर्याप्त मात्रा में विटामिन K के नहीं होने के पीछे एक विशेष प्रकार के बैक्टीरिया की अनुपस्थिति थी। वैज्ञानिक यह बात जानते थे कि एक प्रकार के बैक्टीरिया शरीर के लिए लाभदायक होते हैं क्योंकि इनमें से कुछ विटामिन ख़् का निर्माण करने में सक्षम होते हैं।

जन्म के कुछ दिनों बाद शिशु के शरीर में इन बैक्टीरिया का अभाव हो जाता है। ऐसी स्थिति में उसके पास विटामिन K के बहुत ही सीमित स्रोत होते हैं। जैसे कि जन्म के पहले माँ से प्राप्त विटामिन K या जन्म के बाद माँ के दूध से प्राप्त विटामिन ख़्। कभी-कभी इन स्रोतों से प्राप्त विटामिन की मात्रा बच्चों के लिए पर्याप्त नहीं होती है। ऐसी स्थिति में बच्चे को एक विशेष रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है जिसमें खून का बहाव बढ़ जाता है। अब जबकि डॉक्टर विटामिन K के महत्व से अवगत हैं तो वे बच्चे के जन्म से पहले ही माँ की विटामिन K की अतिरिक्त पूर्ति कर सकते हैं। वह बीमारी जो कि एक समय पर भयावह मानी जाती थी तथा समझ से परे थी, आज उसका इलाज आसानी से सम्भव था।

विटामिन K को एक अन्य स्थिति में भी उपयोग में लाया जाता है। जब आधुनिक दवाइयों का उपयोग लम्बे समय के लिए किया जाता है तो इनसे शरीर के लिए लाभदायक व आवश्यक बैक्टीरिया खत्म हो जाते हैं। उन लोगों में जो पर्याप्त भोजन नहीं कर पाते या नवजात बच्चों में अक्सर ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यदि बैक्टीरिया नहीं होंगे तो विटामिन K का उत्पादन रुक जाएगा। जब डॉक्टरों ने देखा कि सामान्य लोगों में भी यह घटना घटित हो रही है तो वे उलझन में पड़ गए। तब किसी ने इस स्थिति को विटामिन K की ताज़ातरीन खोज से जोड़कर देखा। अब डॉक्टर ऐसी स्थिति की तुरन्त पहचान कर सकते हैं तथा विटामिन ख़् की पूर्ति कर समस्या का समाधान भी कर सकते हैं।

विटामिन K, एक प्रतिविष भी है
विटामिन K की खोज की एक अन्य कहानी भी है। विस्कोसिल विश्वविद्यालय में डॉक्टर कार्ल लिंक ने अपने कार्यकाल में बहुत ही नियोजित एवं  ाृंखलाबद्ध रूप से कई प्रयोग किए। उनका शोध अन्त में आकर डॉक्टर डैम के काम से जुड़ गया, हालाँकि डॉक्टर लिंक ने जब अपना शोध शुरु किया था तब उन्हें डॉक्टर डैम के प्रयोगों के बारे में जानकारी नहीं थी।

1935 में विटामिन ख़् की खोज तो हो गई थी लेकिन 1974 में ही यह पता चला कि वह हमारे शरीर में काम कैसे करता है। यह भी पाया गया कि विटामिन ख़् कोई एक रसायन नहीं है, लेकिन कुछ अन्य विटामिन की तरह रसायनों का एक समूह है जो एक ही तरह काम करते हैं। ऐसे समूह के सदस्यों को वाइटैमर कहते हैं। किसी भी विटामिन के वाइटैमर की रासायनिक रचनाएँ समरूप होती हैं।
विटामिन ख़् स्वाभाविक रूप से पौधों और बैक्टीरिया में पाए जाते हैं जहाँ इनकी इलेक्ट्रॉन ट्रान्सपोर्ट और ऊर्जा उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ हैं। इन दोनों समूहों में विटामिन ख़् के अलग-अलग रूप उपलब्ध होते हैं। इनके अलावा, विटामिन ख़् का संश्लेषित रूप भी है जिसका चिकित्सा में इस्तेमाल होता है।

डॉक्टर लिंक चौपायों में होने वाली एक प्रकार की बीमारी के कारण और उपचार खोजने में रुचि ले रहे थे। यह बीमारी एक रहस्य बन चुकी थी। डॉक्टर लिंक की प्रयोगशाला के पास में एक फॉर्म पर प्रति वर्ष इस बीमारी से बहुत अधिक संख्या में चौपायों की मौत हो रही थी।
डॉक्टर लिंक ने जल्द ही इस बात पर गौर किया कि चौपायों की मौत सड़ी हुई घास खाने से हो रही है। यह ‘क्लोवर’ नामक एक प्रकार की मीठी घास होती है। इसे सड़े रूप में खाने से जानवरों में खून की कमी हो रही थी। डॉक्टर कार्ल ने इस घास के रस को स्वस्थ चौपायों में प्रवेश कराया। ऐसा करने से स्वस्थ चौपाये रोगी बन गए। उन्होंने इन चौपायों में विटामिन ख़् की कमी भी पाई। वे आश्चर्यचकित थे कि ऐसा कैसे सम्भव हो सकता है। उनके आश्चर्य का कारण यह था कि उस समय तक यह पता चल चुका था कि क्लोवर घास विटामिन ख़् का समृद्ध स्रोत है। तो क्या इसका अभिप्राय यह हो सकता है कि सड़ जाने पर क्लोवर में कोई नया पदार्थ बन जाता है? ऐसा पदार्थ जो कि खून में विटामिन ख़् की मात्रा बढ़ाने की बजाय घटाने का काम करता हो।

इस प्रश्न ने डॉक्टर लिंक को और अधिक शोध करने को प्रेरित किया। इसके बाद वे सड़ी हुई घास के निचोड़ से इस पदार्थ के शुद्ध रूप को प्राप्त करने के प्रयास में लग गए। अन्त में उन्हें इस काम में सफलता मिल गई। यह प्रमाणित हो गया कि चौपायों, कुछ अन्य जानवरों व मनुष्यों के खून में इस पदार्थ की उपस्थिति से खून की कमी हो जाती है। उन्होंने इस नए पदार्थ को ‘डाइकोयूमेरोल’ (dicoumarole) नाम दिया तथा यह भी घोषित किया कि चौपायों में होने वाली बीमारी के कारण की खोज हो चुकी है। परन्तु कहानी यहीं खत्म नहीं हो गई। जल्द ही चौपायों के लिए ज़हर का काम करने वाले पदार्थ का उपयोग मनुष्यों को लाभ देने के लिए किया जाने लगा। डॉक्टर लिंक ये जान चुके थे कि डाइकोयूमेरोल विटामिन K के द्वारा यकृत में बनने वाले एक विशिष्ट पदार्थ के निर्माण की प्रक्रिया को बाधित कर देता है और यह भी समझ चुके थे कि यदि विटामिन K की बहुत अधिक मात्रा रोगी को खुराक के रूप में दी जाए तो डाइकोयूमेरोल द्वारा बाधित प्रक्रिया का प्रभाव खत्म किया जा सकता है।
यह खोज बहुत लाभदायक सिद्ध हुई। बहुत सारे अवसरों पर डॉक्टर यह चाहते हैं कि खून में थक्का बनने की क्षमता कम की जा सके। डाइकोयूमेरोल की खोज से पहले केवल एक ही दवा उपलब्ध थी जो इस काम में लाई जाती थी। इस दवा के साथ यह दिक्कत थी कि कभी-कभी यह खून को अधिक पतला कर बहाव को बढ़ा देती थी अत: डॉक्टर इसके इस्तेमाल से परहेज़ करते थे। आज के समय में ऐसी स्थिति से बचने के लिए विटामिन K का प्रयोग किया जाता है।

डाइकोयूमेरोल व विटामिन K की सहायता से अब डॉक्टर जीवन व मृत्यु के बीच एक गज़ब का सन्तुलन बना सकते हैं। वे डाइकोयूमेरोल को शरीर के खून में प्रवेश कराकर खूनका थक्का बनने से रोक सकते हैं और विटामिन K प्रवेश कराकर खून को थक्का बनाने के लिए सन्देश दे सकते हैं और इस प्रकार किसी का जीवन बच सकता है। डॉक्टर लिंक ने अपनी प्रयोगशाला में डाइकोयूमेरोल की खोज के बाद एक अन्य चीज़ की खोज की। उन्होंने पाया कि डाइकोयूमेरोल के अणु रासायनिक संगठन में मामूली-सा हेर-फेर करने से एक खतरनाक ज़हर बन जाता है। आज के समय में फसलों को नुकसान पहुँचाने वाले या रोगवाहक छोटे जानवरों को नष्ट करने के लिए इस ज़हर का उपयोग किया जाता है।
यह थी विटामिन K की खोज की यादगार कहानी जो एक इत्तफाक से शुरु हुई।


विलियम डी. लैटस्पीच: मेडिक डॉक्टर, शरीर क्रियाविज्ञान के शिक्षक और शोधकर्ता रहे। अमेरिका के कई प्रख्यात विश्वविद्यालयों में कार्यरत थे। यूनिवर्सिटी ऑफ रॉचेस्टर के कॉलेज ऑफ मेडिसिन के चेयरमैन भी रहे हैं। 1968 तक शरीर क्रियाविज्ञान में 50 से अधिक शोधपत्र और विज्ञान पर कई किताबें और लेख लिखे।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: यशोधरा कनेरिया: राज्य सरकारों के लिए विज्ञान पाठ्य पुस्तकों के लिखने और शिक्षक प्रशिक्षण का काम किया है। विद्या भवन ऐजुकेशन रिसोर्स सेन्टर, उदयपुर में कार्यरत हैं।
यह लेख सन् 1965 में प्रकाशित पुस्तक ‘‘How scientists find out: A book about experimental medicine and the scientific method’ से लिया गया है।