के.आर. शर्मा    [Hindi PDF, 122 kB]

अगस्त का महीना और ज़ोरदार बारिश...! जी हाँ, मैं दक्षिणी गुजरात के धरमपुर की बात कर रहा हूँ। यहाँ काफी ज़ोर की और सतत बरसात होती है। रिकॉर्ड कहते हैं कि यहाँ हर साल लगभग 200 सेंटीमीटर बरसात होती है। इसीलिए इसे दक्षिण गुजरात का चेरापूंजी भी कहा जाता है। ज़ाहिर है कि बरसात ज़्यादा होती है तो वनस्पति भी खूब ही होनी चाहिए। हर तरफ पेड़ और ज़मीन पर हरियाली की चादर...! ज़मीन दिखाई भी नहीं देती। हाँ, अब तो सीमेंट-कॉन्क्रीट के जंगलों ने इन कुदरती जंगलों को उजाड़ना शुरू कर दिया है।
यहाँ आम के पेड़ खूब मिलेंगे। मेरा ऑफिस आम के पेड़ों से घिरा हुआ है। अभी-अभी बरसात थमी है मगर आम के पेड़ों की झुरमुट से पानी की बड़ी-बड़ी बूंदों के गिरने का सिलसिला थमा नहीं है। ज़मीन पर निगाह डाली तो पाया कि कुछ मखमली, हरे रंग के जीव रेंग रहे हैं। इन कीड़ों को एक महिला झाड़ू से इकट्ठा कर रही है। मैंने पास जाकर देखा तो पाया कि ये लगभग दो-तीन इंच लम्बे हैं जिनकी पीठ पर कत्थई रंग के चकत्ते और बगल में रोंएदार रचनाएँ हैं। मैंने जीव को हाथ में लेना चाहा तो उस महिला ने गुजराती में कहा, “भाई, तमे आ कीड़ा ने हाथ न लगाड़ो। आ जीव थी तमने खंंजवाल उपड़शे। एटले हूँ आ जीवों ने झाड़ू थी दूर करी रही छूँ।”

क्रिशा के अवलोकन
बहरहाल, महिला ने मुझे चेतावनी दे दी है। मगर फिर भी मैं उस सुन्दर-से जीव को करीब से देखना चाहता हूँ। महिला ने झाड़ू लगाकर कीड़ों की एक ढेरी बना दी। मैं इन जीवों को देखने के लिए ज़मीन पर बैठ जाता हूँ। तभी एक बच्ची जिसका नाम क्रिशा है वह भी पास आकर उन जीवों को देखने में शामिल हो जाती है। क्रिशा कहती है कि इसका नाम ‘भादवड़ा’ है। हालाँकि उसे पता नहीं कि आखिर इन्हें भादवड़ा क्यों कहते हैं। मगर उस महिला ने बताया कि ये भादों महीने में ही दिखते हैं इसलिए इनको भादवड़ा कहते हैं। झाड़ू लगाने वाली महिला ने बताया कि इसको ‘पान चूँचड़ा’ भी कहते हैं। पान चूँचड़ा का अर्थ - जो पत्तों को चूस जाता है। वैसे भी ये जीव पत्तों को इस कदर कुतर-कुतरकर खाते हैं कि उनकी सख्त-मोटी शिराएँ ही शेष बची रह पाती हैं।

आम की पत्ते पर टहल रहे इस पान चूँचडे का सिर किस ओर है?
अब तक मैं समझ चुका हूँ कि यह किसी कीट का लार्वा ही है। मुझे कौतूहल में देखकर क्रिशा ने बताया कि हर साल आम के पेड़ से कैरी तोड़ने के बाद जैसे ही बरसात शुरू होती है कि पान चूँचड़े पत्तों पर आ जाते हैं।
उसने मुझे पेड़ के पत्ते देखने को कहा। जब आम के पेड़ पर नज़र डाली तो पत्तों पर मुझे कुछ दिखाई नहीं दिया। मैं एक...दो...तीन पत्ता-दर-पत्ता देखना शुरू करता हूँ। मैं बुुदबुदाया, “कहाँ चले गए सब के सब?” अबकी बार क्रिशा ने हँसते हुए कहा, “अंकल, पत्तों के ऊपर कुछ दिखाई देने का नहीं। ...पत्तों को उलटकर देखो।”

क्रिशा ने आम की डाली को पकड़ा और पत्तियों को घुमाकर नीचे की ओर करके चिपके हुए जीव को दिखाया। “ओह! ये तो पत्ती के नीचे बैठा है,” मैंने ताज्जुब करते हुए कहा।
शायद बरसात की बूंदों से बचने में, पत्ते की निचली सतह पर रहना मदद करता होगा। और भी दिलचस्प बात है कि ये जीव आम के पत्तों की बीच वाली मोटी शिरा पर इस कदर अपने आपको फिट कर लेते हैं कि पता ही नहीं चलता कि कोई जीव यहाँ है भी। एक बात तो समझ में आई कि पत्ती की निचली सतह इन जीवों को सुरक्षा प्रदान करती होगी।

क्रिशा जो कि नौ साल की बच्ची है उसको यह तो पता नहीं कि आखिर ये कहाँ से आते हैं और ये किसी कीट के लार्वा हैं; मगर सीधे-सीधे जो देख सकती है या उसने जो अनुभव किया उसका बखान वह बड़े अच्छे से कर रही थी। क्रिशा ने बताया कि ये आम के पत्तों को खाते हैं। उसने उँगली से इशारा करते हुए बताया, “इस पत्ती को इन्हीं जीवों ने चट कर डाला है।”

...शाम हो चली है। मैं देखता हूँ कि कई सारी गौरैया कोलाहल कर रही हैं। क्रिशा और मैं कुछ देर तक उनकी अठखेलियों को निहारते रहे। तभी क्रिशा ने मुझे इशारा करते हुए धीरे से कहा, “वो चरकली उस कीट को खा रही है।”
गौरैया कीट को चोंच में दबा उसे ज़मीन पर पटककर मारने की कोशिश में लगी हुई है। गौरैया ने बड़ी तरकीब से लार्वा को अपनी चोंच में पकड़ा और फिर उसे करारा झटका दिया ताकि उसकी माँसपेशियाँ और अंग ढीले पड़ जाएँ। करीब 5-7 झटकों के बाद लार्वा अधमरा हो चुका है। अब गौरैया उस लार्वा के अन्दर चोंच घुसाकर खाने पर तुली हुई है।

सिर किस तरफ
अब तक यह समझ में आ चुका था कि यह किसी तितली का लार्वा (केटरपिलर) है। ध्यान से देखा तो पाया कि छोटे लार्वा के शरीर पर पाई जाने वाली काँटे जैसी रचनाएँ नरम होती हैं मगर बड़े लार्वा में ये कड़क और काले रंग के हो जाते हैं। ज़रा सावधानी से इन काँटों को छुआ तो पाया कि ये काफी नुकीले हैं। अब हमारे सामने यह जानने की चुनौती थी कि आखिर इसका सिर किस तरफ है। दरअसल, हमें लार्वा के दोनों ही सिरों पर नुकीले उपांग बराबर की संख्या में मिले। आप स्वयं ही देखें कि दोनों सिरों पर दो-दो जोड़ी उपांग और इन पर खूब सारी काँटे जैसी रचनाएँ। हमें लगा कि यह भी एक अजीब पहेली है। इस लार्वा के दुश्मनों के लिए यह पता करना आसान नहीं होगा कि आखिर मुँह किस दिशा में है।

हमने अनुमान लगाया कि ये जिधर को खिसकते हैं वही इनका मँुह वाला हिस्सा होगा। ये ज़मीन पर चौड़े सिरे से आगे की ओर बढ़ रहे थे, एकदम धीरे-धीरे।

पान चूँचड़ा - तितली का लार्वा
बहरहाल, मुझे इतना ही पता था कि चूँकि यह लार्वा है इसलिए इससे प्यूपा ज़रूर बनेगा जो लार्वा की बनिस्बत व्यवहार और आकार आदि में एकदम फर्क होता है।

जब इसके बारे में किताबों को टटोला तो पता चला कि यह किसी तितली का लार्वा है। मगर एक बात तो साफ थी कि तितली को इन दिनों तो क्या और दिनों में भी आम के पेड़ पर मैंने कभी नहीं देखा। इतना ही नहीं जब आम पर बौर आते हैं तब भी नहीं। इसका मतलब यह है कि तितली अपना भोजन-पानी कहीं और से पाती है, मगर अण्डे आम की पत्तियों पर देती है। बेशक, कायान्तरण की अजीब कहानी होती है -- वयस्कों का भोजन, उनका आकार और रहवास आदि अपनी सन्तानों से एकदम जुदा।


के.आर.शर्मा: जशोदा नरोत्तम ट्रस्ट, धरमपुर (गुजरात) में विज्ञान शिक्षण पर काम कर रहे हैं। लेखन में रुचि। 
सभी फोटो: के. आर. शर्मा।
संदर्भ अंक 30, नवम्बर-दिसम्बर 1999 में भी ऐसे ही एक लार्वा के बारे में पढ़िए।