अलेक्ज़ेंडर पेटरूनकेविच                                                                                                                                   [Hindi PDF, 905 kB]

बेशक, सभी जीवों को अपना अस्तित्व बरकरार रखने के लिए नियमित रूप से भोजन की आवश्यकता होती है। कुछ सजीव अपना भोजन बनाते हैं और बाकी भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हैं क्योंकि वे स्वयं के लिए भोजन बना नहीं सकते। अधिकांश प्राणी वनस्पतियों या अन्य जीवों को खाकर अपनी भोजन की समस्या से निजात पा लेते हैं। लेकिन अगर कोई जीव दूसरे जीव को अपना भोजन बना रहा हो और भोजन बनने वाला जन्तु खुद के भोजन के लिए किसी और जन्तु पर निर्भर रहे तो पहले वाली प्रजाति के अस्तित्व का सन्तुलन और भी नाज़ुक व पेचीदा बन जाता है। ज़ाहिर है कि कोई भी शिकारी अपने शिकार के बिना ज़िन्दा नहीं रह सकता। लिहाज़ा, शिकार ही अगर इस पृथ्वी से गायब हो जाए तो शिकारी का अस्तित्व भी संकट में पड़ जाएगा।

कीटों की दुनिया में इस प्रकार की मिसालें भरी पड़ी हैं। आगे दिए गए उदाहरण में परिस्थितियों की जटिलता देखिए। पिंपला इंक्वीज़ीटर नामक एक ततैया की प्रजाति का लार्वा टसर सिल्क मॉथ के लार्वा को अपना आहार बनाता है। पिंपला ततैया का लार्वा भी किसी और ततैया के लार्वा का आहार बनता है। और पिंपला लार्वा को खाने वाला लार्वा भी किसी और ततैया का आहार बनता है। अब आप ही सोचिए, इन चारों प्रजातियों के प्रजनन और मृत्यु दर में कैसा सूक्ष्म सन्तुलन बना रहता होगा ताकि चारों विनाश (extinction) से बची रह सकें। अगर इन चारों में से किसी एक भी प्रजाति की मृत्यु दर में (प्रजनन दर की तुलना में) अतिवृद्धि हो जाए तो चारों प्रजातियों का अन्तत: सफाया समझो।

जिस ततैया का ज़िक्र यहाँ किया जा रहा है, वह कोई एकमात्र अनूठा उदाहरण हो, ऐसा नहीं है। कीट समूह में, खासकर हायमेनोप्टेरा (ततैया, चींटी) और डायप्टेरा (मक्खी) में ऐसे आपसी रिश्तों के कितने ही उदाहरण भरे पड़े हैं। और मकड़ियाँ जो कीट की श्रेणी में नहीं आतीं, कीटों का शिकार भी करती हैं और उनका आहार भी बन जाती हैं।

परिस्थिति इस वजह से और भी जटिल बन जाती है क्योंकि ऐसी प्रजातियाँ जिनकी लार्वा-अवस्था मांसाहारी होती है, उसके लिए उनकी शाकाहारी-माँ द्वारा आहार का जुगाड़ करना होता है। इन लार्वा-शिशुओं का ज़िन्दा रहना इस पर निर्भर करता है कि माँ उनके लिए सही भोजन चुने, ऐसा भोजन जिसे वह खुद नहीं खाती।

अपनी सन्तान के आहार और सुरक्षा के लिए, कीट और मकड़ियाँ विवेक-शीलता और अन्धसहजवृत्ति के कुछ अनूठे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। मैं यहाँ पर जो उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ वह टैरंटुला मकड़ी और उसकी महाशत्रु पेप्सिस वर्ग की गड्ढा-खोदू ततैया का है। इस निराले उदाहरण में ऐसा लगता है जैसे बुद्धिमत्ता और सहजवृत्ति के बीच में रस्साकशी हो रही है - एक विचित्र परिस्थिति जिसमें शिकार जो अपनी सुरक्षा करने में पूरी तरह सक्षम है, किसी अनजानी वजह से अपने विनाश का विरोध बिलकुल भी नहीं करती।

एक नज़र विशाल टैरंटुला पर
टैरंटुला अमूमन भूमध्यरेखीय क्षेत्र में रहती हैं मगर इनकी कई सारी प्रजातियाँ शीतोष्ण प्रदेशों में भी पाई जाती हैं, और कुछ तो दक्षिणी अमरीका में भी होती हैं। इसकी कुछ किस्में विशालकाय होती हैं जो मज़बूत विषदन्त लिए होती हैं। ये मकड़ियाँ अपने मज़बूत विषदन्तों की बदौलत गहरे घाव कर सकती हैं। हालाँकि, दिखने में डरावनी और खूंखार टैरंटुला इन्सानों पर हमला नहीं करतीं। अगर टैरंटुला को हौले-से, बिना कोई तकलीफ पहुँचाए, अपने हाथों में उठाएँ तो ये आपको काटेगी भी नहीं। वैसे इसका दंश किसी कीट या चूूहे, गिलहरी जैसे छोटे स्तनधारी के लिए खतरनाक होता है। मगर इन्सान के लिए इसका दंश बर्र के दंश से ज़्यादा कुछ नहीं।

टैरंटुला ज़मीन के अन्दर गहरे, बेलनाकार बिल बनाकर रहती हैं। अँधेरा होते ही ये अपने बिल से बाहर आ जाती हैं और जैसे ही भोर होने को होती है कि ये वापस बिल के अन्दर लौट जाती हैं। अँधेरा होने पर वयस्क नर, परिपक्व मादाओं की तलाश में इधर-उधर मण्डराते रहते हैं और कभी-कभी भूले-भटके घरों में भी दिख जाते हैं। नर और मादा के मिलन के कुछ हफ्तों बाद नर की मौत हो जाती है। मगर मादा टैरंटुला सालों तक ज़िन्दा रहकर, कई बार नए-नए नर टैरंटुलाओं के साथ मिलकर अण्डे देने का सिलसिला जारी रखती है। पेरिस के एक म्यूज़ियम में उष्णकटिबंधीय टैरंटुला का एक जीवित नमूना रखा गया था जो पच्चीस साल से ज़िन्दा है, ऐसा कहा जाता है।

मादा टैरंटुला एक बार में लगभग 200-400 अण्डे देती है। इस तरह से कहा जा सकता है कि एक टैरंटुला अपने जीवनकाल में हज़ारों नए टैरंटुलाओं को जन्म देती है। मगर मादा टैरंटुला अपने अण्डों की परवरिश की ज़हमत नहीं उठातीं। बस, अपने अण्डों को रेशम के धागे में जड़कर ककून का रूप दे देती है जिसमें अण्डों का विकास होता रहता है। जब अण्डों में से बच्चे निकलते हैं तो वे अपने हिसाब से कोई सुरक्षित जगह ढूँढ़कर अपना बिल बनाते हैं और एकान्त जीवन जीने लगते हैं। टैरंटुला ज़्यादातर कीटों और गिंजाइयों को अपना भोजन बनाती हैं। एक बार जब ये पेट भरकर शिकार कर लेती हैं तो फिर उस भोजन को कई दिनों तक पचाती रहती हैं और उसके बाद ही दोबारा शिकार करती हैं। इनकी दृष्टि काफी कमज़ोर होती है। ये तो बस रोशनी की तीव्रता में कमी या अधिकता अथवा कोई हिलती हुई चीज़ का अहसास कर पाती हैं। स्पष्ट तौर पर इनमें सुनने की क्षमता न के बराबर या बिलकुल ही नहीं होती। ंिपंजरे में रखी गई एक भूखी टैरंटुला के आस-पास झींगुर ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ करता रहा मगर उसकी आवाज़ को सुनकर उसने हमला नहीं किया। पर जैसे ही झींगुर ने उसकी टाँग को छुआ तो उसने उस पर झपट्टा मारा और खा लिया।

लगभग सभी मकड़ियों, खास तौर पर वो जिनके शरीर रोम-युक्त होते हैं, में स्पर्श की ज़बर्दस्त संवेदना होती है। टैरंटुलाओं पर प्रयोगशालाओं में किए गए अध्ययनों से ज़ाहिर होता है कि ये तीन प्रकार की स्पर्श संवेदनाओं को न केवल महसूस कर पाती हैं बल्कि उनमें फर्क भी कर सकती हैं। पहला, मकड़ी की त्वचा पर कोई दबाव, दूसरा, शरीर पर मौजूद बालों को छूना और तीसरा, खासकर टाँगों पर मौजूद महीन रोमों (ट्राइकोबोथरिया) पर हौले-से सहलाने से होने वाला स्पर्श। अगर उँगली या पेंसिल की नोक को छुआएँ तो टैरंटुला धीरे-से उस जगह से खिसककर थोड़ी दूर चली जाती है। स्पर्श की प्रतिक्रिया में वह तब तक कोई रक्षात्मक कार्यवाही नहीं करती जब तक कि स्पर्श करने वाली वस्तु ऐसी दिशा से न आए जिसे वह देख पा रही हो। ऐसे में वह अपनी पिछली टाँगों को फैलाकर अगली टाँगों पर खड़ी हो जाती है। और अपने विषदन्तों को बाहर निकालकर तब तक गुस्सैल और धमकी भरे अन्दाज़ में खड़ी रहती है जब तक कि हिलने-डुलने वाली चीज़ उसको दिखाई देती रहे। जब हिलना-डुलना बन्द हो जाए तो वह ज़मीन पर कुछ देर तक शान्त बैठी रहती है और फिर वहाँ से धीरे-से खिसक जाती है।

टैरंटुला का पूरा बदन और खासकर, टाँगें घने रोमों से ढँकी रहती हैं। रोमों की बात करें तो कुछ तो छोटे व मुलायम जबकि कुछ लम्बे और सख्त होते हैं। इन रोमों को छूने पर दो अलग परिस्थितियों में टैरंटुला दो भिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएँ देती हैं। अगर टैरंटुला का पेट भरा होता है तो वह केवल उस टाँग को झटकारती है जिसके बालों में छुअन महसूस हुई है। लेकिन अगर मकड़ी भूखी है तो स्पर्श के प्रति तुरन्त और उतावली प्रतिक्रिया देती है। अगर कोई झींगुर अपने स्पर्शक (एंटिना) से भूखी मकड़ी के बालों को छू जाए तो वह उसको फुर्ती-से अपनी गिरफ्त में ले लेती है। टैरंटुला कीट को इतनी तेज़ी से पकड़ती है कि अगर एक सेकण्ड में 64 फोटो की दर से उसकी फिल्म खींची जाए तो भी टैरंटुला की शिकार पकड़ने की इस अदा का हमें केवल परिणाम ही दिखाई देता है, प्रक्रिया नहीं। परन्तु अगर मकड़ी भूखी न हो तो बालों की छेड़-छाड़ पर वह केवल छुए जाने वाले अंग को झटकार भर देती है। उस समय उसके रोएँदार पेट के नीचे से कीट सुरक्षित बच कर निकल सकता है।

दरअसल, ट्राइकोबोथरिया नामक मुलायम रोएँ मकड़ी की टाँगों की तश्तरीनुमा झिल्लियों पर उगे होते हैं। पहले ऐसा माना जाता था कि टाँगों के ये रोएँ मकड़ियों को सुनने में मदद करते होंगे। मगर अब यह साबित हो चुका है कि इनका सुनने से कोई लेना-देना नहीं है। मुलायम रोएँ दरअसल, हवा की तरंगों को महसूस कर सकते हैं या उनके प्रति संवेदी होते हैं। मसलन, हवा का हल्का-सा झोंका बड़े और सख्त बालों को तो हिला-डुला नहीं पाता मगर इन मुलायम रोओं में कम्पन पैदा कर देता है। जब इन मुलायम रोओं पर हल्के-से फूँक मारें तो टैरंटुला झटके के साथ अगली चार टाँगों के साथ प्रतिक्रिया व्यक्त करती है। अगर आगे और पीछे की टाँगों के रोओं पर एक साथ छेड़-छाड़ किया जाए तो टैरंटुला अचानक उछल पड़ती है। इस प्रकार की प्रतिक्रिया का टैरंटुला के भूखे रहने या न रहने से कोई लेना-देना नहीं होता।

छुअन की ये तीनों प्रतिक्रियाएँ - बदन की चमड़ी पर दबाव, सामान्य बालों का हिलना-डुलना और ट्राइको-बोथरिया में कम्पन - एक-दूसरे से इतनी अलग हैं कि मकड़ी को इनमें भ्रम की कोई गंुजाइश नहीं होती। ये टैरंटुला की ज़्यादातर ज़रूरतों और उसे छेड़खानी व खतरों से बचाने के लिए पर्याप्त होती हैं। परन्तु उसके महाशत्रु डिगर वास्प (ततैया) के सामने ये बिलकुल भी काम नहीं आतीं।

विवेकशील डिगर ततैया
डिगर ततैया एकान्तवासी होते हैं। वैसे तो ये काफी सुन्दर होती हैं मगर काफी भयानक। ये ज़्यादातर चमकीले-गहरे-नीले रंग की होती हैं। मगर कुछ के पंखों का रंग कुछ ऐसा होता है कि मानो जंग लगा हुआ हो। इस ततैया (डिगर वास्प) के पंखों का फैलाव लगभग चार इंच तक हो सकता है। उल्लेखनीय है कि ये शाकाहारी होती हैं और फूलों के मकरन्द को आहार बनाती हैं। अगर ततैया के साथ छेड़खानी करके उकसाया जाए तो ये तीखी, बदबूदार गन्ध छोड़ती हैं। तब समझो कि ततैया ने आक्रमण की चेतावनी दे दी है। ततैया का दंश, बर्र या मधुमक्खी से कहीं ज़्यादा खतरनाक, सुजाने वाला व लम्बे समय तक दर्द देने वाला होता है।

ततैया में वयस्कता की उम्र कुछ महीनों की ही होती है। मादा ततैया ज़्यादा अण्डे नहीं देती। यह एक बार में एक ही अण्डा देती है और फिर अगला अण्डा दो-तीन दिन के अन्तराल में देती है। ततैया को अपने प्रत्येक अण्डे बनाम लार्वा के लिए एक ज़िन्दा मगर मूर्छित (paralyzed) टैरंटुला का इन्तज़ाम करना पड़ता है। यह तो स्पष्ट है कि ततैया के लार्वा के लिए टैरंटुला प्रजाति की मकड़ी ही सही पोषण उपलब्ध करा सकती है, और कोई नहीं। दरअसल, मादा ततैया अपने अण्डे को मूर्छित हुई टैरंटुला के पेट वाले हिस्से में चिपका देती है। ततैया का लार्वा बेबस, मूर्छित टैरंटुला मकड़ी से सैकड़ों गुना छोटा होता है। ततैया का यह लार्वा कोई और चीज़ को आहार नहीं बनाता, न ही पानी पीता है। इस दौरान नन्हा लार्वा दैत्याकार भोजन को चूसकर एक सम्पूर्ण ततैया का रूप ले लेता है और आखिर में बचता है टैरंटुला का न पचने योग्य काईटिन का खोल!

टैरंटुला की खोज से कब्र तक
जब मादा ततैया के अण्डाशय में परिपक्व अण्डे भरे होते हैं और वह इन्हें देने की तैयारी में ही होती है तभी वह टैरंटुला के शिकार के लिए निकल पड़ती है। ततैया दोपहरी के बाद, सूर्य की रोशनी में यहाँ-वहाँ ज़मीन से कुछ ऊँचाई पर उड़ान भरकर टैरंटुला या उसके बिल को खोजना शु डिग्री कर देती है। दरअसल, टैरंटुला के बिल का मुँह गोल और रेशम के धागों से बुना हुआ होता है। ततैया को और उसके लार्वा को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि टैरंटुला मकड़ी नर है या मादा। हाँ, ततैया इस बात का काफी ख्याल रखती है कि टैरंटुला की सही प्रजाति होनी चाहिए। क्योंकि वास्तव में, ततैया की अलग-अलग प्रजाति को टैरंटुला की अलग-अलग प्रजाति की दरकार होती है। इस दौरान अगर मकड़ी की कोई और प्रजाति ततैया के रास्ते में आती है तो वह उस पर आक्रमण नहीं करती। एक पिंजरे में इतर प्रजाति की टैरंटुला मकड़ी को रखा जाए तो ततैया उस पर आक्रमण नहीं करती, और अक्सर रात के दौरान मकड़ी का शिकार बन जाती है।

शिकार करना और अण्डे सहेजना
यहाँ रेखाचित्रों के माध्यम से मादा ततैया मकड़ी का किस तरह शिकार करती है, इसे दिखाने की कोशिश की गई है। आम तौर पर मादा ततैया अपनी ज़रूरत की टैरंटुला प्रजाति की मकड़ी को ढूँढ़ने के बाद ही, घात लगाने की कोशिश में जुट जाती है। आक्रमण की मुद्रा में खड़ी मकड़ी के आस-पास मिट्टी में गड्ढ़ा बनाते हुए मादा ततैया बीच-बीच में गड्ढे से झाँककर शिकार आस-पास है या नहीं, इसे सुनिश्चित करती रहती है।
जब कोई टैरंटुला मकड़ी अपनी टांगों पर शरीर को ऊपर की ओर खींचे हुए हो तो यह एक बेहतरीन मौका हो सकता है कि टांगों के बीच से गुज़रते हुए मकड़ी पर नीचे से हमला किया जाए। ततैया ऐसा ही करते हुए मकड़ी को दंश चुभो देती है। इस हमले से हक्की-बक्की मकड़ी चारों खाने चित हो जाती है। आसमान ताकती मकड़ी के पेट पर बने घाव से एक बूँद खून चूसकर ततैया, मकड़ी के पेट पर अण्डा देती है।ततैया मकड़ी के शरीर को कुछ ही देर पहले खोदे गए गड्ढे में खींच लाती है। अण्डे से निकलने वाले लार्वा के लिए भोजन की व्यवस्था हो गई है।

आखिरकार जब ततैया सही प्रजाति की मकड़ी को खोज निकालती है तो यह समीकरण एकदम बदल जाता है। टैरंटुला की सही प्रजाति को जाँचने के लिए ततैया अपने स्पर्शक (antenae) का इस्तेमाल करती है। हैरानी की बात है कि इस गहन जाँच के दैरान टैरंटुला किसी भी प्रकार का विरोध नहीं जताती। बिना किसी प्रतिरक्षात्मक प्रतिक्रिया के, ततैया मकड़ी के पैरों के बीच से गुज़रती है, उसके ऊपर चढ़कर जाँच-पड़ताल करती है। इस दौरान ततैया के द्वारा की जा रही छेड़छाड़ इतनी चरम पर होती है कि अक्सर टैरंटुला अपनी आठों टांगों पर ऐसे खड़ी हो जाती है मानो लकड़ी की खपच्चियों पर खड़ी हो। टैरंटुला अपनी जगह पर इसी मुद्रा में कई मिनटों तक खड़ी रहती है। इस बीच जब ततैया को तसल्ली हो जाती है कि शिकार सही है तो वह कुछ इंच दूर खिसककर टैरंटुला के लिए कब्र खोदने चली जाती है। ततैया अपनी टांगों और जबड़ों का इस्तेमाल करके लगभग 8-10 इंच गहरा, मकड़ी के आकार से थोड़े बड़े आकार का गड्ढा खोदती है। खुदाई के दौरान ततैया बार-बार अपने द्वारा खोदे जा रहे गड्ढे में से ऊपर की ओर लपककर यह पक्का करती रहती है कि मकड़ी आस-पास मौजूद है या नहीं।

जब कब्र खोद ली जाती है तो ततैया अपने भयावह कार्य को अंजाम देने टैरंटुला के पास वापस लौटती है। ततैया एक बार पुन: अपने स्पर्शक से टैरंटुला को जाँचती है। इसके बाद ततैया का व्यवहार कहीं अधिक उग्र हो जाता है। ततैया अपने उदर को मोड़कर डंक बाहर निकाल लेती है। अब ततैया टैरंटुला के बदन में दंश को चुभोकर ज़हर डालने के लिए वो नाज़ुक जगह ढूँढ़ती है जहाँ मकड़ी की टाँगें बदन से जुड़ती हैं। केवल इसी जगह पर वह मकड़ी के कड़क खोल को भेद सकती है। इस जाँच-पड़ताल से परेशान मकड़ी ज्यों ही हिलती-डुलती है तो ततैया अपनी पीठ पर पलटकर, पंखों की मदद से सरकते हुए मकड़ी के नीचे घुसने की कोशिश करती है, दंश चुभोने के लिए। यह तिकड़मबाज़ी कई मिनटों तक जारी रहती है और इस दौरान टैरंटुला अपने बचाव के लिए कोई प्रयास भी नहीं करती। ततैया आखिरकार, टैरंटुला को ज़मीन पर पड़ी किसी चीज़ से अटकाकर उसकी एक टाँग को अपने मज़बूत जबड़े में दबा लेती है। आखिरकार हताश हो चुकी टैरंटुला इस बार बचाव की एक कोशिश करती है जो व्यर्थ जाती है। गुत्थमगुत्था हुए दोनों प्रतिद्वन्द्वी ज़मीन पर लुढ़कने लगते हैं। यह अपने आप में एक भयानक दृश्य होता है और इसका नतीजा हर बार इकतरफा रहता है। आखिरकार, ततैया अपने डंक को नाज़ुक जगह पर चुभोने में कामयाब हो जाती है और उसे कुछ सेकण्ड चुभोकर रखती है। इस प्रक्रिया में वह टैरंटुला के बदन में ज़हर डाल देती है। डंक चुभोने के तुरन्त बाद ही टैरंटुला मूर्छित हो पीठ के बल गिर जाती है। दंश का असर इतना त्वरितहोता है कि टैरंटुला टाँगें फड़फड़ाना बन्द कर देती है और उसके दिल की धड़कन भी मन्द हो जाती है। हालाँकि, टैरंटुला अभी मृत्यु को प्राप्त नहीं हुई है। यह इससे पता चलता है कि एक मूर्छित टैरंटुला को ततैया से छुड़ाकर जब एक नमीदार कक्ष में रखा गया तो कई महीनों के बाद उसमें कुछेक संवेदनाएँ फिर से लौट आईं।

टैरंटुला कोे मूर्छित कर देने के बाद ततैया अपने बदन को ज़मीन से रगड़कर और फिर अपनी टाँगों को आपस में रगड़कर साफ करती है। ततैया निढाल और बेबस पड़ी टैरंटुला पर बने घाव से निकल रहे खून के कतरे को पीती है। फिर उसकी एक टाँग को अपने जबड़े में भींचकर ततैया, टैरंटुला को खोदी गई कब्र में घसीटकर ले जाती है। इसके बाद वह कुछ समय गड्ढे के अन्दर ही रुकती है। कभी-कभी यह भी देखा गया है कि वह कई घण्टों तक टैरंटुला के लिए खोदे गए गड्ढे में बनी रहती है। इस दौरान वह उस अँधेरी जगह पर क्या कर रही होती है, इसके बारे में कुछ पता नहीं है। बहरहाल, इसी दौरान ततैया कब्र में दफन टैरंटुला के बदन पर एक अण्डा देती है जिसको खुद के द्वारा स्त्रावित चिपचिपे पदार्थ से चिपका देती है। इसके बाद वह आस-पास बिखरी मिट्टी के नन्हें ढेलों को अपने जबड़ों में पकड़-पकड़कर गड्ढे बनाम कब्र को पाट देती है और अन्त में वह बन्द किए गड्ढे की मिट्टी को अपने पैरों से रौंदकर बराबर कर देती है जिससे कि किसी शिकारी को सुराग भी न लग पाए। बस, अब ततैया अपने वंश को सुरक्षित रूप से जीवन जीने के लिए छोड़कर यहाँ से उड़ान भर लेती है।

विवेकशीलता बनाम सहजवृत्ति
इस पूरे मामले में, स्पष्ट तौर पर ततैया का बर्ताव टैरंटुला से गुणात्मक रूप से काफी फर्क होता है। दरअसल, ततैया विवेकशीलता से कार्य करती है। इसके ये मायने नहीं कि ततैया सहजवृत्ति से काम लेती ही नहीं या वह वैसे ही सोच-विचार करती है जैसे कि इन्सान करते हैं। मगर उसके क्रियाकलाप बड़े ही नपे-तुले होते हैं। और ऐसे भी नहीं कि हर परिस्थिति में एक-से स्वचलित होते हैं बल्कि इस सन्दर्भ में वह अपने क्रियाकलापों को अलग-अलग परिस्थिति में बदल सकती है। हालाँकि, हम यह नहीं जानते कि ततैया टैरंटुला को पहचान कैसे पाती है। सम्भवतया वह घ्राणशक्ति (ऑलफेक्ट्री) या किमो-टेक्टाइल संवेदनाओं से पहचानती है। मगर इस मामले में जो भी करती है, वह उद्देश्यपरक होता है। और इस मकसद में वह कभी भी बेसमझ होकर मकड़ी की गलत प्रजाति को नहीं चुनती।

तस्वीर का दूसरा पहलू है कि टैरंटुला का व्यवहार काफी उलझन में डालने वाला है। स्पष्ट तौर पर ततैया की छेड़खानी टैरंटुला को अच्छी नहीं लगती क्योंकि वह उससे दूर जाने की कोशिश करती है। यह भी स्पष्ट है कि ततैया टैरंटुला में यौन उत्तेजना नहीं पैदा कर रही क्योंकि उसकी छेड़खानी से नर व मादा टैरंटुला, दोनों एक-सा व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। कहीं ततैया द्वारा छोड़े गए किसी गंधरहित रसायन से मकड़ी मदहोश तो नहीं हो गई? इसे जाँचने के लिए अगर हल्के-से फूँक मारते हैं तो मकड़ी एकदम से उचक जाती है। तो आखिर ऐसा क्या है कि टैरंटुला विवेकशील ततैया के सामने मूर्ख-सा बर्ताव करती है?

मृतप्राय: टैरंटुला मकड़ी को पहले से तैयार गड्ढे की ओर ले जाती हुई ततैया।
इसका कोई स्पष्ट जवाब उपलब्ध नहीं है। सम्भवतया किसी पेंसिल की नोक से मकड़ी के शरीर पर जितना दबाव डाला जाता है वैसे किसी दबाव के कारण ततैया के स्पर्शकों की छुअन की अनुभूति मकड़ी को नहीं होती। मगर स्पष्टीकरण और भी जटिल हो सकता है। दरअसल, टैरंटुला के स्वभाव में हमला करने की पहल नहीं होती है; कुछ प्रजातियाँ उसी हालत में हमला करती हैं जब वे कठिनाई में होती हैं और बचकर निकल पाना असम्भव होता है। टैरंटुला के वंशानुगत पैटर्न में हमला करने के बदले, हमले को टालना होता है। इसका अर्थ यह है कि टैरंटुला जो कुछ भी करती है वह नैसर्गिक होता है। उसमें विवेक-शीलता नहीं होती। एक उदाहरण से साबित होता है कि टैरंटुला जो रेशम का जाला बुनती है वह त्रिआयामी होता है। टैरंटुला अगर किसी जगह पर जाला बुनना प्रारम्भ कर दे और उसे पर्याप्त त्रिआयामी जगह न मिले तो वह एक ही तल में जाला नहीं बुन पाती। ऐसे में वह उस जगह को छोड़ देती है। कई बार तो वह आधे बुने हुए जाले को छोड़कर कोई दूसरी जगह तलाशने जाती है। कहा यह जा रहा है कि लगभग यही हालात उसके जीवन के हर चरण में होते हैं और वह विवेकशीलता को अपनाने की बजाय हर ऐसी स्थिति में बचने की फिराक में रहती है। मकड़ी के लिए अपने जाले के पैटर्न को बदलना सम्भव नहीं होता।

एक तरह से निकल भागने की स्वाभाविक इच्छा सिर्फ आसान ही नहीं बल्कि तर्क की तुलना में शायद ज़्यादा कार्यक्षम भी है। टैरंटुला भी हर मामले में ठीक वही करती है जो सबसे उचित हो - सिर्फ एक बेरहम और पक्के इरादे से हमला करने वाली ततैया के साथ भिड़न्त को छोड़कर, जो अपनी प्रजाति के अस्तित्व को बचाने के लिए इस चीज़ पर निर्भर करती है कि वह उतनी ही टैरंटुलाओं को मार भी सके जितने अण्डे वो देती है। शायद इस मामले में टैरंटुला अपनी सामान्य परिपाटी के अनुसार बच निकलने की कोशिश करती है, ततैया की हत्या करने या उसे दबोचने की बजाय क्योंकि उसे खतरे का अहसास नहीं होता। मगर हर हाल में टैरंटुला प्रजाति का अस्तित्व इस वजह से बना हुआ है क्योंकि इसकी जनन क्षमता, ततैया की बनिस्बत कहीं अधिक होती है।


अलेक्ज़ेंडर पेटरुनकेविच (1875-1964): दुनिया के जाने-माने मकड़ी विशेषज्ञ। सन् 1911 से लगातार मकड़ी के विषय में लिखते और पढ़ते रहे। मूलत: रूसी किन्तु 1920 के दशक से ही अमेरिका में रहने लगे थे।
अँग्रेज़ी से प्राथमिक अनुवाद: के. आर. शर्मा: जशोदा ट्रस्ट, धरमपुर, ज़िला - वलसाड में शिक्षा कार्यक्रम से जुड़े हैं। निरन्तर रूप से लेखन में व्यस्त।
मूल लेख एवं सभी चित्र साइंटिफिक अमेरिकन, अगस्त 1952, वॉल्यूम 187 से साभार।