डी. एन. मिश्रराज

जीव-जगत में वनस्पतियाँ हों या जन्तु, सभी के जीवन का एक ही लक्ष्य होता है - कठिन परिस्थितियों में भी संघर्ष करते हुए नई पीढ़ी को जन्म देना। इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जन्तुओं-वनस्पतियों में शिकार करने, शिकारी से बचने, समूहों में रहने, बड़ी संख्या में अण्डे देने या बीज बिखेरने, जल-थल-नभ में लम्बी दूरी का प्रवास करने जैसी रणनीतियाँ विकसित हुई हैं। इन्हीं के चलते कई दफा कुछ वनस्पतियों और जन्तुओं का जीवन इस हद तक एक-दूसरे पर आश्रित (इन्टरडिपेन्डेण्ट) होकर रह जाता है कि यह कहना पड़ता है कि वे एक दूजे के लिए बने हैं।
इन्टरडिपेन्डेण्ट जीवन के कई उदाहरण हमारे आस-पास बिखरे पड़े हैं। जैसे देवदार के नए अंकुरित पौधे तब तक आगे वृद्धि नहीं करते जब तक कि उनके आस-पास ज़मीन में पाए जाने वाले कुछ विशेष प्रकार के कवक (आहार और आवास के लिए) उनकी जड़ों में घुसकर, कुछ विशेष एंज़ाइम जड़ों को प्रदान नहीं करते।
इसी प्रकार दीमक अपने द्वारा खाए गए लकड़ी के टुकड़ों को तब तक नहीं पचा सकती जब तक कि उसकी आहार नाल में निवास करने वाले एक कोशीय प्राणी (प्रोटोज़ोआ) इन टुकड़ों से अपना भोजन निकालने की प्रक्रिया में उन्हें पाचन योग्य नहीं बना देते।
एक वनस्पति और एक जन्तु के बीच ऐसे अन्योन्याश्रित सम्बन्ध का ऐसा ही एक उदाहरण है - पुष्पीय पौधे युक्का (वैज्ञानिक नाम युक्का फिलामेन्टोसा) और एक पतंगे युक्का मॉथ (टैजेटीक्यूला युक्कासिला) के आपसी सम्बन्ध का।

युक्का पौधा अमेरिका के दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र का मूल निवासी है, परन्तु अपनी सुन्दरता और विषम पर्यावरण में भी जी लेने के गुण के कारण भारत सहित विश्व भर के बाग-बगीचों और खासकर कब्रिस्तानों में यह खूब उगाया जाता है। युक्का लिलियेसी परिवार (प्याज़, ग्वारपाठा आदि का परिवार) का सदस्य है। इसमें सीधे ज़मीन से निकलती दो-ढाई इंच चौड़ी और कोई डेढ़-दो फुट लम्बी रामबाण (अगेव) के जैसी, मोटी और सुई जैसे तीखे सिरे वाली पत्तियों के कई घने चक्र होते हैं। नुकीली पत्तियों के कारण अँग्रेज़ी में इसे एडम्स नीडिल (आदम की सुई) कहते हैं। कई साल का हो जाने पर गर्मियों में इसमें काफी मोटा, कई फुट ऊँचा एक पुष्पवृन्त निकलता है जिसके सिरे पर फूलों का एक विशाल गुच्छा लगता है। इसके डेढ़-दो इंच लम्बे सफेद-झक फूल घण्टियों जैसे नीचे लटके रहते हैं। फूल के बीचों-बीच एक काफी बड़ा अण्डाशय (ओवरी) एवं त्रिशाखी वर्तिकाग्र (स्टिग्मा) युक्त स्त्रीकेसर (पिस्टिल) लटका रहता है। इनके चारों ओर पंखुड़ियों से लगे छ: पुंकेसर (स्टेमन) कुछ ऊपर लटके होते हैं। अण्डाशय में तीन प्रकोष्ठ होते हैं और हरेक में सैकड़ों बीजाण्डों (ओव्यूल) की दो पंक्तियाँ रहती हैं। वर्तिकाग्र की ग्राह्य सतह नीचे की ओर होने से फूल के पुंकेसर से परागकण उसी फूल के वर्तिकाग्र की सतह पर नहीं गिर सकते। परागकण चिपचिपे होने से वे हवा में उड़कर भी वहाँ नहीं पहुँच सकते। इन फूलों में न सुगंध होती है न मधु, इसलिए इन पर तितलियाँ या मधु मक्खियाँ नहीं आतीं। फिर भी इसमें बीज बनते हैं, तो आखिर इनमें बीज बनने के लिए ज़रूरी परागण होता कैसे है?

सन् 1876 में इसी गुत्थी को सुलझाने में मिस्सौरी (अमेरिका) के नौजवान कीट विशेषज्ञ डॉ. चार्ल्स वेलेन्टाइन रिले जुट गए। कोई सोलह वर्षों तक रात-दिन इस समस्या से जूझते रहने के बाद उन्होंने युक्का के पौधों का एक कीट - युक्का मॉथ से एक ऐसा अन्तरंग सम्बन्ध खोज निकाला, जो लाखों वर्षों के सह-उद्विकास (कोइवोल्यूशन) के फलस्वरूप विकसित हुआ था।
अपने इस अध्ययन के दौरान डॉ. रिले ने उद्विकास के जनकद्वय चार्ल्स डार्विन और एल्फ्रेड रसैल वैलेस से भी गहन विचार-विमर्श किया। 1892 में उन्होंने इस सम्बन्ध का जो सविस्तार विवरण प्रकाशित किया, वह इतना सटीक है कि तब से निरन्तर प्रयासरत शोधकर्ता आज तक उसमें कुछ भी नया नहीं जोड़ पाए हैं। इस प्रकाशन के मात्र तीन वर्ष बाद एक दुर्घटना के दौरान सिर पर गहरी चोट लग जाने से डॉ. रिले की मृत्यु हो गई। तब वे मात्र बावन वर्ष के थे।
आकार में आधे इंच से भी छोटे, चार पंख वाले युक्का मॉथ गर्मियों में युक्का पौधों के आस-पास ही प्यूपा अवस्था में से जन्मते हैं और ज़्यादातर वहीं मण्डराते रहते हैं। ये निशाचर कीट दिन में अक्सर युक्का के फूलों के गुच्छों में ही छुपे रहते हैं। नर और मादा के समागम के बाद गर्भवती युक्का मॉथ रात्रि होने पर युक्का के किसी एक फूल पर जाकर पराग कोषों को, खाने के लिए अपने अंग-विशेष (मेक्सीलरी पाल्प) से काटकर चिपचिपे पराग कणों की एक गोली-सी बना लेती है। इस गोली को वह अपने पाल्पों में दबाकर उड़ती-उड़ती किसी दूसरे फूल पर जा उतरती है। यहाँ अब इस फूल के अण्डाशय को अपने कटार जैसे ओवीपोज़ीटर (अण्डे देने का अंग विशेष) से छेदकर उसके प्रत्येक प्रकोष्ठ में मात्र दो अण्डे देती है। इसके बाद वर्तिकाग्र पर परागकणों की गोली को रगड़ती है।

लो, हो गया परागण। इसके बाद यही प्रक्रिया दोहराने वह दूसरे फूलों पर भी जाती है। कभी-कभी यह गोली वर्तिकाग्र (स्टिग्मा) में उलझकर वहीं रह जाती है। इधर इन छोड़े गए अण्डों में से कैटरपिलर (इल्ली) निकलते हैं। उधर परागण और निषेचन के बाद बीजाण्ड बीजों में विकसित होने लगते हैं। युक्का मॉथ की इल्लियाँ केवल युक्का के अण्डाशय में विकसित होते इन बीजाण्डों को खाकर ही जीती-बढ़ती हैं। पूर्ण विकसित हो जाने पर ये इल्लियाँ अण्डाशय की दीवार छेदकर बाहर ज़मीन पर आ गिरती हैं और प्यूपा बनकर बाद में नई युक्का मॉथ बनती हैं। एक अण्डाशय में ज़्यादा-से-ज़्यादा छ: इल्लियाँ पनपती हैं। मादा अण्डे देने के बाद मानो अण्डाशय की बाहरी दीवार पर कुछ रासायनिक सन्देश छोड़ जाती है, ‘अब यहाँ और अण्डों के लिए जगह नहीं है’, जिससे इन इल्लियों की संख्या छ: से अधिक नहीं हो पाती। सैकड़ों की तादाद में उपस्थित बीजाण्डों को ये इल्लियाँ पूरा नहीं खा पाती हैं और काफी सारे बीजाण्ड बीजों में विकसित होने के लिए बच जाते हैं।
सारे व्यवहार से स्पष्ट है कि युक्का मॉथ और युक्का का पौधा दोनों अपना जीवन चक्र पूरा करने के लिए पूर्णतया एक-दूसरे पर निर्भर हैं।
भारत जैसे देशों में जहाँ युक्का मॉथ नहीं पाया जाता, वहाँ युक्का में बीज नहीं बनते। बिना युक्का के पौधे के, युक्का मॉथ के अण्डों से इल्लियाँ और फिर नए मॉथ विकसित नहीं हो सकते और बिना युक्का मॉथ के युक्का के पौधों में नई पीढ़ी के लिए बीज नहीं बन सकते। यह अनोखा ‘जीना एक-दूसरे के लिए’ सचमुच प्रकृति का एक अद्भुत करिश्मा है।


डी. एन. मिश्रराज: होल्कर साइंस कॉलेज में वनस्पतिशास्त्र के वरिष्ठ प्राध्यापक रह चुके हैं। मध्य प्रदेश के अनेक स्नातकोत्तर महाविद्यालयों के प्राचार्य भी रह चुके हैं। पक्षी दर्शन में गहरी रुचि है और आपके अधिकतर लेख प्रकृति से सम्बन्धित रहते हैं। इन्दौर में निवास।