के. आर. शर्मा

अंडे के भीतर 21 दिनों तक पलने वाला चूजा आखिर सांस कैसे लेता है? क्या अंडे के कड़े खोल में छिपा है वह नाजुक राज़?
गल ही में एक बच्चे ने मुझसे पूछा कि अंडे में चूजे को श्वसन के लिए ऑक्सीजन की जरूरत भी होती होगी, यह ऑक्सीजन उसको कहां से और कैसे मिलती है? इस सवाल को लेकर जब थोड़ा सोचा और किताबों को उल्टा-पल्टा तो काफी रोचक जानकारियां हाथ लगीं।
वास्तव में अंडे की अपनी एक दुनिया होती है। इसमें भीतर पलने वाले चूजे के लिए भोजन की व्यवस्था तो होती ही है, साथ ही सुरक्षा के इंतजामात भी होते हैं। लेकिन अंडे के अंडों के साथ एक और खासियत जुड़ी है कि इनमें भ्रूण के विकास के लिए एक विशेष तापक्रम की जरूरत होती है। यही वजह है कि पक्षी अपने अंडों को सेने के दौरान अपने शरीर की गर्मी देते हैं। कई मुर्गी पालन केन्द्रों में जहां पर सैकड़ों की संख्या में अंडों में से चूजे निकालने का कारोबार होता है, वहां अंडे सेने के लिए मुर्गी को ज़हमत नहीं उठानी पड़ती बल्कि इंक्यूबेटर का उपयोग किया जाता है।

वैसे अंडे में कोई ऐसा अंग या तंत्र तो नहीं दिखता जिसके माध्यम से भीतर का भ्रूण सांस ले सके। अंडे के कड़े बाहरी खोल में ही वह राज छिपा है। अंडे का कड़ा खोल जो अंदर के भ्रूण और उसके भोजन को बाहरी खतरों से सुरक्षा प्रदान करता है वह हवा के लिए पारगम्य होता है। सरसरी तौर पर देखने पर अंडों को बाहरी आवरण चिकना व कड़ा नजर आता है, लेकिन इस पर हजारों की तादाद में सूक्ष्म छिद्र होते हैं। इन सूक्ष्म छिद्रों के जरिए ही भ्रूण श्वसन के लिए हवा लेता है और छोड़ता है। यदि अंडे के खोल पर ग्रीज़ या कोई क्रीम चुपड़कर उन छिद्रों को बंद कर दिया जाए तो भ्रूण का विकास नहीं हो पाएगा।

अंडे के भीतर क्या है?   
चलिए सबसे पहले मुर्गी के अंडे को खोलकर देखा जाए कि आखिर इसके अंदर ऐसा क्या है?
मुर्गी के अंडे के अध्ययन के लिए उसे खोलकर देखना होगा। एक निषेचित अंडे को आड़ा लिटाकर उसको किसी नुकीली चीज मसलन चिमटी या कील से धीरे-धीरे ठोककर खोल में छेद कीजिए। इस तरह से झरोखा बन जाने के बाद लैंस से अंडे के भीतर देखिए।
अंडे में एक तो तरल-सा पारदर्शक पदार्थ भरा होता है। यह पारदर्शक तरल पदार्थ एलब्यूमिन है। एलब्यूमिन भ्रूण को बाहरी झटकों से बचाता है और सुरक्षा प्रदान करता है। एलब्यूमिन एक तरह का प्रोटीन है जो अंडे में पल रहे भ्रूण का पोषण नहीं करता है, बल्कि उसको सुरक्षा प्रदान करता है। इसमें काफी मात्रा में पानी होता है और गर्म करने पर यह ठोस में बदल जाता है। इस तरल के साथ ही पीले रंग की एक गोलाकार रचना भी दिखाई देती है। इसे योक (Yolk) कहते हैं। हम उबले अंडे को काटकर इन दोनों हिस्सों को आसानी से देख सकते हैं। आप योक को थोड़ा और गौर से देखेंगे तो योक पर एक सफेद रंग का धब्बा-सा दिखेगा, दरअसल यही भ्रूण है और इसी से चूजा बनता है।

अंडे में योक का काफी अहम रोल है। योक में प्रोटीन, चर्बी, विटामिन और लवण जैसे कई प्रकार के पोषक पदार्थ भरे होते हैं। दरअसल योक ही अंडे में विकसित हो रहे भ्रूण के लिए पोषण उपलब्ध करवाता है। अलगअलग जंतुओं के अंडों में योक की मात्रा कम-ज्यादा होती है। वे जंतु जो बच्चों को पैदा करते हैं उनके अंडों में योक की मात्रा काफी कम होती है। वहीं पक्षियों के अंडों में एक लंबे समय तक भूण अंडे के भीतर पनपता है तो उसके पोषण की व्यवस्था तो होनी चाहिए। इस लिहाज से मुर्गी के अंडे में योक इतनी मात्रा में होता है। कि अंडे में से चूजा बाहर निकलने तक उसका पोषण हो सके।
जब हम अंडे को फोड़कर उसका अध्ययन कर रहे थे तब एक बच्ची ने सवाल पूछा कि आखिर इस अंडे में ऐसी क्या व्यवस्था है कि इसके अंदर की चीजें एक खास स्थिति में टिकी रहती हैं? वास्तव में अंडे में अंदर योक को बांध कर रखने वाली दो सफेद मुलायम ऐंठी हुई रस्सी जैसी रचनाएं होती हैं। इनको ‘चेलेजा' कहा जाता है और ये रचनाएं अंडे में मौजूद चीजों को साधे हुए रखती हैं। देखिए चित्र।

हवा की थैली  
कवच के अंदर सटी हुई एक सफेद रंग की झिल्ली होती है। पहली नज़र में यह झिल्ली एक ही लगती है लेकिन थोड़ा गौर से देखने पर समझ में आता है कि यहां दो झिल्लियां आपस में चिपकी हुई हैं। इन्हें हम बाहरी झिल्ली और भीतरी झिल्ली भी कह सकते हैं।
अंडे के चौड़े सिरे की ओर हवा की थैली होती है। इसी थैली के माध्यम से अंडे के भीतर विकसित हो रहे भ्रूण को श्वसन के लिए ऑक्सीजन मिलती है। यदि हम मुर्गी के द्वारा सेए, जा रहे अंडे को फोड़कर देखें तो चौड़े सिरे पर इस हवा की थैली की झिल्ली पर काफी सारी खून की नलियां फैली दिखती हैं। जाहिर है कि भूण इन नलियों के माध्यम से श्वसन के लिए ऑक्सीजन लेता है और कार्बन डाइ ऑक्साइड छोड़ता है।
यह हवा की थैली बाहरी और भीतरी झिल्ली के बीच होती है। दरअसल यही वो स्थान है जहां हम भीतरी और बाहरी झिल्ली को स्पष्टतः अलग-अलग देख पाते हैं। जैसे-जैसे अंडा पुराना होता जाता है, हवा की थैली का आकार भी बढ़ता जाता है।
यह तो हम जानते ही हैं कि अंडे के ऊपर का कड़ा आवरण कैल्शियम कार्बोनेट का बना होता है। लेकिन रोजाना अंडे देने वाली मुर्गियां या नियमितता से अंडे देने वाले अन्य पंछी भी इतने सारे कैल्शियम कार्बोनेट की व्यवस्था कैसे करते होंगे, यह काफी रोचक पहलू है। इस विषय पर रोचक जानकारी के लिए देखिए बाद में दिया गया बॉक्स।

अंडे में छेद - हवा की आवाजाही   
यह देखा गया है कि जो जंतु जमीन पर अंडे देते हैं उनके अंडों का कवच कठोर होता है। जहां यह कवच बाहरी खतरों से सुरक्षा प्रदान करता है वहीं इसी के माध्यम से हवा का आना-जाना संभव हो पाता है। इस कवच में खूब सारे सूक्ष्म छिद्र होते हैं। इनकी संख्या लगभग दस हज़ार होती हैं। और प्रत्येक छिद्र का साईज लगभग 0.017 मिमी, होता है। सामान्यतः अंडे के कवच का क्षेत्रफल लगभग 70 वर्ग सेंटीमीटर होता है इसलिए उस पर प्रति वर्ग मिलीमीटर पर 1.5 छिद्र पाए जाते हैं। इन सब छिद्रों को मिलाकर हवा की आवाजाही के लिए लगभग 2-3 वर्ग मिलीमीटर क्षेत्रफल मिलता है। भ्रूण और बाहरी वातावरण में इन्हीं छिद्रों से गैसों का आदान-प्रदान विसरण (Diffusion) के मार्फत होता है।

ऊपरः अंडे के खोल का एक्स रे माइक्रोग्राफ, जिसमें कैल्शियम कार्बोनेट का क्रिस्टलीय रूप - केल्साइट दिखाई दे रहा है। चित्र में बीच के हिस्से में गहरे रंग का धब्बा सूक्ष्म छिद्र है। जिससे होकर वायुमंडलीय ऑक्सीजन अंडे के भीतर प्रवेश करती है. और भीतर की कार्बन डाइ ऑक्साइड बाहर निकलती है। इस छिद्र का व्यास लगभग 0.017 मि. मी. होता है। नीचेः अंडे के खोल की खड़ी काट दिखाई गई है। इसमें केल्साइट की परत के अलावा केल्साइट के क्रिस्टलों के बीच बना सूक्ष्म छिद्र दिखाई दे रहा है। चित्र में नीचे की ओर अंडे के कवच की अंदरुनी रचनाएं दिख रही हैं जो दोनों झिल्लियों को पकड़े रहती हैं।

अब हम अपने मूल सवाल पर आ जाते हैं। आखिर हवा इन छेदों में से अंदर कैसे जाती है? जैसा कि जानते हैं कोई भी गैस अधिक सान्द्रता से कम सान्द्रता की ओर विसरित होती है। मतलब यह कि अंडे के भीतर ऑक्सीजन की सांद्रता कम होगी तभी इन छिद्रों के माध्यम से ऑक्सीजन अंदर जा सकती है। यानी जब चूजा ऑक्सीजन ग्रहण करती है तो बाहर से हवा अंदर जाती है। और इस प्रकार खून की नलियों में बह रहा खून ऑक्सीजन ग्रहण कर लेता है, और कार्बन डाइऑक्साइड त्याग देता है।
ऑक्सीजन की खपत  
अंडे में जैसे-जैसे चूजे का विकास होता है वैसे-वैसे ऑक्सीजन की खपत बढ़ती जाती है और चूजा कार्बन डाइ ऑक्साइड भी ज्यादा छोड़ता है। चूंकि अंडे के भीतर हवा की थैली में कार्बन डाइ ऑक्साइड का प्रतिशत चल्ले के विकास के साथ कम होता जाता है - इसलिए विसरण की दर भी बढ़ती जाती है। यानी अंडे के खोल में से इन गैसों का आदान-प्रदान तेजी से होने लगता है। अंडे से चूजे के बाहर आने के लगभग 28 घंटे पहले चूजा अंडे के भीतर मौजूद हवा की थैली को फाड़ देता है और वो फेफड़ों से श्वसन करना शुरू कर देता है। इस समय तक हवा की यह थैली धीरे-धीरे बढ़ते हुए लगभग 10 घन सें. मी. तक पहुंच गई होती है।
ऊंचाई पर जहां ऑक्सीजन की मात्रा कम होती है वहां भ्रूण की

अंडा बनने की प्रक्रियाः अंडे के बीच का पूरा पीला भाग एक अंडाणु होता है, यानी अंडाशय से बाहर निकलते समय यह पीला हिस्सा पूरी तरह बन चुका होता है। नया जीवन बनने की प्रक्रिया (निषेचन) तभी सफल होती है जब अंडाणु अंडाशय से बाहर निकलते ही शुक्राणु से मिल जाए। ऐसी स्थिति में भ्रूण का निर्माण होता है। यदि निषेचन न हो पाए तब भी अंडाणु अपना सफर पूरा करके मुर्गी के शरीर से बाहर निकल जाता है। अंडाशय से बाहर निकला अंडाणु जब निषेचित या अनिषेचित रूप में अंडवाहिनी में से गुजरती है तो मैग्नम तक पहुंचते-पहुंचते उस पीले हिस्से पर रंगहीन एलब्यूमिन (जो अंडा उबालने पर सफेद हो जाता है) की परत चढ़ती है। अंडवाहिनी में प्रवेश करने के लगभग तीन घंटे बाद अंडाणु मैग्नम तक पहुंचता है। इसके बाद अंडाणु लगभग सवा घंटे का समय इस्थेमस में गुजारता है। यहां इस पर दो झिल्लियां चढ़ती हैं। बाद में यही दो झिल्लियां भ्रूण तक हवा पहुंचाने में मददगार साबित होती हैं।
अंडा अपने सफर का सबसे बड़ा हिस्सा गर्भाशय में गुजारता है तकरीबन 20-21 घंटे। यहां अंडे का बाहरी कड़ा आवरण तैयार होता है तथा कुछ अन्य परिवर्तन भी होते हैं। पूर्ण रूप से तैयार अंडा मुर्गी के प्रजनन छिद्र यो अवस्कर से बाहर निकलता है।
 
ऑक्सीजन की पूर्ति काफी कठिनाई भरा काम होता है। ऐसी समस्या कैलिफोर्निया के व्हाईट रिसर्च स्टेशन (समुद्र सतह से 3800 मीटर ऊंचाई पर) में देखी गई। सफेद मुर्गी पर बहुत साल तक किए गए शोध से यह देखा गया कि शुरुआत में जब वहां पर मुर्गी अंडों को सेती थी तो उनमें से सिर्फ 16 फीसदी अंडों में ही चूज़े बनते थे। जबकि इन्हीं अंडों को अगर समुद्र की सतह पर सेया जाए तो 90फीसदी अंडों में से चूजे निकलते हैं। लेकिन इस ऊंचाई पर भी जैसे-जैसे परिवेश के साथ उनका अनुकूलन होता गया अंडों में से बच्चे निकलने की दर में बढ़ोतरी हुई। आठ पीढ़ी के बाद यह दर 16 से बढ़कर 60 प्रतिशत तक पहुंच गई

उल्लेखनीय घटना ये है कि वायु के दबाव में कमी के साथ-साथ इन अंडों के गैस के विसरण सूचकांक (Diffusion coefficient) में बढ़ोतरी होती है। 3800 मीटर की ऊंचाई पर गैस विसरण सूचकांक में 1.5 गुना बढ़ोतरी होती है। जिससे कम वातावरणीय दबाव के बावजूद भ्रूण

मुर्गी द्वारा 21 दिनों तक अंडे को सेने के दौरान ऑक्सीजन और कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा में आए उतार-चढ़ाव

 
कैल्शियम आए कहां से?     
एक सामान्य अंडे के खोल का भार लगभग 5 ग्राम का होता है। इसे बनाने के लिए वजन के हिसाब से 2 ग्राम कैल्शियम की जरूरत होती है। मुर्गी के गर्भाशय में कैल्शियम कार्बोनेट का स्राव करने वाली ग्रंथियां होती हैं जो अंडे के खोल को बनाने के लिए जरूरी कैल्शियम कार्बोनेट मुहैया करवाती हैं। इन ग्रंथियों तक कैल्शियम पहुंचाने का रास्ता है खूनी मुर्गी के खून में किसी भी समय औसतन 25 मिलीग्राम कैशियम मौजूद होता है। जब अंडे को आवरण बनाने की प्रक्रिया पूरे शबाब पर हो तब 25 मिलीग्राम कैल्शियम लगभग हर अरह मिनट में खून से निकाल लिया जाता है (यानी 125 मिलीग्राम वैल्शियम/घंटा)। 
कड़ा आवरण बनाने के लिए कैल्शियम तीन स्केलिया, लेकिन मुर्गी को कैल्शियम तो ‘भोजन' के मार्फत से मिलता है। मुर्गियों पर किए गए प्रयोगों से पता चलता है कि जब अंडे का खोल बन रहा हो उस समय मुर्गी की आंत लेज़ी से कैल्शियम का अवशोफ्या कर पाने में असमर्थ रहती है। भले ही मुर्गी के भोजन में ढेर सारा कैल्शियम सौजूद हो, आंत कैल्शियम ग्रंथियों की मांग के अनुरूपः कैल्शियम का अशोषण नहीं कर पाती। ऐसे समय कैल्शियम ग्रंथियों को कैल्शियम उपलब्ध करवाने का में मुर्गी की हड्डियां करती हैं।
कई प्रयोगों से यह भी पता चला है कि यदि मुर्गी को कम कैल्शियम वाली खुराक दी जाती रही तो कुछ समय तो हड्डियों से कैल्शियम की पूर्ति होती रहती है लेकिन बाद में हड्डियां भी कैल्शियम ग्रंथियों को कैल्शियम की पूर्ति नहीं करवा पाती, फलस्वरूप अंडे का खोल काफी पतला हो जाता है। कम कैल्शियम वाला ऐसा पोषण बरकरार रहे तो कुछ समय बाद मुर्गी, बिना कठोर कवच के अंडे देने लगती है; और उसके बाद अंडे देने की प्रक्रिया ही पूर्णतः रुक जाती है।

को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन मिल पाती है। गैसों के विसरण सूचकांक में बढ़ोतरी का प्रभाव जलवाष्प के ऊपर भी होता है, और इसके कारण अंडे के सूख जाने का खतरा बढ़ जाता है।
जो पक्षी बहुत ऊंचाई पर अंडे देते है उनके अंडे का आकार तुलनात्मक रूप से छोटा होता है. और उनकी अंडा सेने की अवधि भी समुद्र सतह की अपेक्षा लंबी होती है। एक और बात देखी गई कि ऊंचाई पर पक्षियों के अंडों के कवच में छेदों की संख्या तुलनात्मक रूप से कम होती है। गैस विसरण सूचकांक में बढ़ोतरी के साथ

 
अंडे के वज़न में अंतर    
निषेचित यानी फर्टिलाइज्ड अंडा बाहर निकलने के बाद मुर्गी उसे 21 दिन तक सेती है। एक सवाल यह भी है कि इन 21 दिनों के दौरान अंडे का वज़न उतना ही बना रहता है या फिर घटता-बढ़ता है?
इस संबंध में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि जिस निषेचित अंडे को वज़न शुरुआत में 60 ग्राम था 21 वें दिन तौलने पर उसका वज़न 51 ग्राम ही बचा था, यानी इन इक्कीस दिनों में 9 ग्राम की कमी आई।
इस अवधि में अंडे ने लगभग 6 लीटर ऑक्सीजन अवशोषित की और 4.5 लीटर कार्बन डाइ ऑक्साइड बाहर निकाली। चूंकि कार्बन डाइ ऑक्साइड ऑक्सीजन की तुलना में भारी होती है यानी उसका घनत्व ज्यादा होता है इसलिए वज़न की दृष्टि से देखें तो अंडे ने 8.6 ग्राम ऑक्सीजन सोखी और 8.8 ग्राम कार्बन डाइ ऑक्साइड छोड़ी। इन दो गैसों के अलावा इन इक्कीस दिनों में अंडे में से 11 लीटर जलवाष्प बाहर निकली। जिसका कुल वज़न 8.8 ग्राम था।
अंत में जो चूज़ा बाहर निकला उसका वज़न 39 ग्राम था और शेष बचे । कवच और झिल्ली का वज़न 12 ग्राम, यानी कुल मिलाकर 51 ग्राम।

छेदों की संख्या में कमी होने के कारण अंडे के खोल में से गैसों का आना-जाना समुद्र सतह और ऊंचाई पर बराबर हो जाता है। कहने का मतलब यह है कि ऊंचाई पर अंडे में कम छेद होना एक तरह का अनुकूलन है। अगर ऐसा नहीं होता तो अंडे में से अधिकतर पानी भाप बनकर उड़ जाता और अंडे के सूखने का भय बना रहता।

अब सवाल यह उठता है कि उन पक्षियों में जो आमतौर पर ऊंचाई पर रहते हैं --- क्या उनमें भी विसरण की दर यही होती है? लगभग 2800 मीटर की ऊंचाई पर रहने वाली 6 प्रजातियों के पक्षियों के अंडों के अध्ययन से यह साबित हुआ कि अधिक ऊंचाई पर निवास करने वाले पक्षियों के अंडों के कवच की गैसों के प्रति पारगम्यता कम होती है। परन्तु उनमें भी गैस विसरण सूचकांक ज्यादा होने के कारण भ्रूण को पर्याप्त ऑक्सीजन मिल जाती है। कवच की पारगम्यता कम होने के कारण अंडे के भीतर की जल वाष्प का ह्रास भी कम होता है।
यह जरूर कहा जा सकता है कि अधिक ऊंचाई पर एक तरफ पानी का कम नुकसान और दूसरी तरफ भ्रूण की ज़रूरत की ऑक्सीजन के बीच जैव विकास के दौरान खींचतान होती रही होगी।


के. आर. शर्मा: गुजरात के वलसाड़ जिले में 'आर्च' संस्था के साथ विज्ञान शिक्षण पर काम करते हैं। साथ ही विज्ञान व शिक्षा पर नियमित लेखन में रुचि।
मुर्गी के निषेचित और अनिषेचित अंडों के बारे में और विस्तृत जानकारी के लिए संदर्भ के अंकः 18 में प्रकाशित लेख 'रोशनी और मुर्गी का अंडा' देखिए।