डी. बालसुब्रमण्यन

बात कुछ साल पहले की है। था अखबारों में एक दिलचस्प खबर छपी थी, तिरुपति के सरकारी अस्पताल में ऑक्सीजन का एक भी सिलिंडर न होने के कारण संकट पैदा हो गया था। अस्पताल प्रशासन बाजार से ऑक्सीजन नहीं खरीद सका क्योंकि शासकीय खज़ाने ने ऑक्सीजन संबंधी बिल पास करने से इंकार कर दिया। शासकीय खज़ाने ने बिल पास न करने का आधार यह बताया कि प्रावधान मात्र दवाएं खरीदने के लिए है, ऑक्सीजन के लिए नहीं। उनके मुताबिक ऑक्सीजन कोई दवा नहीं है। अस्पताल के अधिकारियों का कहना था कि ऑक्सीजन एक जीवनदायी पदार्थ होने के नाते निश्चय ही एक दवा है। 

इस कार्यप्रणाली के चक्कर में अस्पताल में एक महीने तक ऑक्सीजन का अभाव रहा और सारा झगड़ा इस बात को लेकर चला कि ऑक्सीजन दवा है या नहीं। इस मामले में नौकरशाही की लापरवाही की बात के अलावा मेरी दिलचस्पी इस बात में भी रही कि आखिर दवा की सटीक परिभाषा क्या हो।

क्या है दवा के मायने   
रेंडम-हाउस डिक्शनरी से पता चला कि दवा कोई भी ऐसा रासायनिक पदार्थ है जिसका उपयोग किसी व्यक्ति या जानवर की किसी बीमारी का इलाज, रोकथाम करने या किसी अन्य तरह से उसकी शारीरिक या मानसिक सेहत बेहतर बनाने के लिए किया जाता है। इस परिभाषा के आधार पर मुझे विश्वास है कि तिरुपति उपकोषालय के लोग इस बात पर सहमत होंगे कि ऑक्सीजन वाकई एक ऐसा पदार्थ है जो किसी व्यक्ति की शारीरिक या मानसिक सेहत को सुधार सकता है। यदि इसका उपयोग न किया जाए तो व्यक्ति या पशु की बेहतरी खतरे में पड़ सकती है। इसमें कोई संशय नहीं है कि ऑक्सीजन से एनोरेक्सिया एस्फिक्सिएशन (ऑक्सीजन की कमी से दम घुटना) नामक बीमारी की रोकथाम ब इलाज हो सकता है। और वैसे भी ताज़ा हवा की मांस से जब हम तरोताजा महसूस करते हैं, वह दरअसल हवा में मौजूद ऑक्सीजन की वजह से ही होता है।

प्रीस्टली के निष्कर्ष   
यह बात सबसे पहले ब्रिटिश वैज्ञानिक जोसेफ प्रीस्टली ने बताई थी। यह करीब दो सदी पहले की बात है। पाठकों को शायद मालूम हो कि इससे पहले हवा को एक तत्व समझा जाता था। प्रीस्टली ने सन् 1774 में एक प्रयोग द्वारा सिद्ध किया था कि हवा में ऑक्सीजन भी मौजूद होती है। प्रीस्टली ने यह भी दिखाया कि मोमबत्ती हवा के बजाए ऑक्सीजन में बेहतर जलती है और चूहे को यदि ऑक्सीजन से भरे बर्तन में रखा जाए तो वह मजे में सांस लेता है। बेंजामिन फ्रेंकलिन को लिखे अपने प्रसिद्ध पत्र में प्रिस्टली ने कहा था कि आज तक सिर्फ दो चूहों को और खुद उन्हें ऑक्सीजन सूंघने का गौरव प्राप्त हुआ है, शेष लोग हवा में सांस लेते हैं। ये प्रीस्टली ही थे जिन्होंने सबसे पहले यह खोज निकाला कि धूप में पौधे ऑक्सीजन छोड़ते हैं। आज हम इसे प्रकाश संश्लेषण के नाम से जानते हैं। उन्होंने अपने समकालीन वैज्ञानिकों से काफी पत्र व्यवहार किया था।
फ्रांस के एंतॉन लेवाइज़े ने भी प्रीस्टली से सुना था कि कैसे उन्होंने हवा में से ऑक्सीजन अलग की और ऑक्सीजन के गुण क्या हैं। लेवाइज़े ने ही स्वतंत्र रूप से प्रीस्टली के प्रयोगों की पुष्टि की। इसके साथ ही रसायन शास्त्र के एक युग का अंत और दूसरे की शुरुआत हुई। ऑक्सीजन की खोज के साथ ही अनावश्यक व रहस्यमय पदार्थ ‘फ्लॉजिस्टॉन' का देहावसान हुआ और परिमाणात्मक रसायन शास्त्र का आगमन हुआ। इसके कुछ ही समय बाद यह पता लगा कि पानी का एक अवयव ऑक्सीजन है, और हाइड्रोजन को हवा या ऑक्सीजन में जलाने पर पानी प्राप्त होता है। नामकरण पद्धति के अजीबो-गरीब घालमेल के कारण हाइड्रोजन को नाम मिला पानी पैदा करने के गुण से और ऑक्सीजन का नाम आया अम्ल पैदा करने के गुण से।

धरती पर ऑक्सीजन का आगमन  
हम आमतौर पर ऑक्सीजन को अपनी वास्तविकता का अभिन्न अंग मानकर चलते हैं। यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि हमारी धरती पर ऑक्सीजन हमेशा से नहीं रही है। दरअसल यह तो हमारे वायुमंडल में देर से आगमन करने वालों में से है - करीब 2 अरब वर्ष पूर्व। समयावधि का थोड़ा अंदाज़ रखने के लिए आपको शायद मालूम हो कि हमारा ब्रह्मांड करीब 15 अरब वर्ष पहले एक महाधमाके से शुरू हुआ। हमारी पृथ्वी मात्र साढ़े चार अरब वर्ष पहले अस्तित्व में आई। बचपन में हमारी पृथ्वी सचमुच एक आण्विक बगीचा थी। सरल अणुओं से क्रमिक रूप में जटिल अणु विकसित हो रहे थे। जो अणु उस समय के तापमान, दबाव और पर्यावरण के अन्य कारकों को झेल सकते थे, वे स्थाई व टिकाऊ रहे। जो नहीं झेल पाए, वे अन्य पदार्थों में बदल दिए गए।
चार्ल्स डार्विन ने जिस तरह की चयन प्रक्रिया सुझाई है कुछ वैसी ही प्रक्रिया वास्तव में पहले आण्विक स्तर पर हुई। इसी आण्विक व रासायनिक विकास के आधार पर बाद में जीवन की उत्पत्ति हुई और जैव-विकास संभव हुआ। करीब 4 अरब साल पहले इस दौर में, विश्वास किया जाता है कि पृथ्वी का वायुमंडल अवकारक (रिड्युसिंग यानी अनॉक्सीकारक) था

और इसके प्रमुख घटक मीथेन, हाइड्रोजन सल्फाइड, नाइट्रोजन, कार्बन डायऑक्साइड, अमोनिया और पानी थे। कुछ मात्रा में शायद हाइड्रोजन रही हो पर हमारी पृथ्वी इतनी विशाल नहीं है कि हाइड्रोजन जैसी हल्की गैस को अपने गुरुत्वाकर्षण से बांधे रख सके। ज्यादातर हाइड्रोजन अंतरिक्ष में पलायन कर गई। तो ऐसे सरल रसायनों के इस्तेमाल से पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई। करीब साढ़े तीन अरब साल पहले तालाबों और झीलों के किनारे की हरी काई और नीली-हरी शैवालें उसी दौर की विरासत हैं। तब से लेकर आज तक उनके टिक पाने का कारण है उनकी न्यूनतम जरूरतें - उन्हें सिर्फ थोड़ी धूप, थोड़ा पानी, थोड़ी कार्बन डायऑक्साइड और थोड़ी-सी मिट्टी चाहिए, और इस सबसे वे खुद अपना भोजन बना लेते हैं; मजे में जीते हैं और प्रजनन करते हैं। इसके विपरीत हम इंसानों को मात्र जिंदा रहने को दर्जनों चीजें लगती हैं और प्रजनन में पूरा एक साल। इतनी सादगी, और एक घंटे से भी कम की प्रजनन अवधि के रहते कोई अचरज की बात नहीं कि बैक्टीरिया करोड़ों वर्षों के उपलब्ध समय में पृथ्वी पर प्रमुख जीव बन गए। इन बैक्टीरिया ने प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए अपना भोजन बनाते हुए प्रशंसनीय संघर्ष किया और धरती को वह हरा रंग दिया जिसे आज हम वनस्पति से जोड़ते हैं। इन प्राचीन पौधों का एकमात्र अवशिष्ट या गौण पदार्थ ऑक्सीजन तत्व था।

ऑक्सीजन का साम्राज्य  
साढ़े तीन करोड़ साल से ढाई करोड़ साल पहले के बीच के दौर की ज़रा कल्पना कीजिए। शैवाल, मॉस, बनस्पतियां और झाड़ियां इस दौर में फली-फूली क्योंकि उस वक्त के हालातों से यही जूझ पाईं। इनमें से हरेक ने कार्बन डायऑक्साइड, पानी और कुछ तत्वों को जोड़ा और सूर्य के प्रकाश का उपयोग करते हुए ऑक्सीजन छोड़ी। एक अरब साल की प्रकाश संश्लेषण की क्रिया का समग्र प्रभाव यह हुआ कि पूरा वायुमंडल ऑक्सीजन से ‘प्रदूषित हो गया। यह करीब 2 अरब साल पहले की बात है। और यह प्रदूषण कोई कम नहीं था, हवा के आयतन का करीब 20 प्रतिशत ऑक्सीजन ने घेर लिया। हाइड्रोजन एवं हीलियम की तरह ऑक्सीजन पलायन नहीं कर सकती क्योंकि यह हाइड्रोजन की। बनिस्बत सोलह गुना भारी होती है। और इसलिए इसकी गति हाइड्रोजन की तुलना में मंद होती है। ऑक्सीजन कभी भी इतनी गति हासिल नहीं कर सकती कि पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से पार पा सके और इसलिए यह हमेशा हमारे वायुमंडल में कैद रहती है।
जब हम ऑक्सीजन को प्राणदायी गैस कहते हैं तो हम एक विचित्र तरह के अहंकार का प्रदर्शन करते हैं जिस पर प्राचीन बैक्टीरिया और सूक्ष्मजीवों को निश्चय ही आपत्ति हो सकती है। क्योंकि कार्बन डायऑक्साइड, नाइट्रोजन और पानी की तुलना में ऑक्सीजन तो डायनामाइट है, यह बहुत क्रियाशील है। थोड़ा-सा प्रोत्साहन मिलने पर यह कई पदार्थों से क्रिया करके उन्हें ऑक्सीकृत कर सकती है। कोई भी केमिकल इंजीनियर आपको बताएगा कि ऑक्सीकरण दरअसल जलने या दहन का ही आकर्षक नाम् है। ऑक्सीजन के उदय के साथ ही पृथ्वी का वातावरण अवकारक से बदलकर ऑक्सीकारक हो गया।
इस प्रकार से करीब दो अरब साल पहले पृथ्वी पर एक महान संकट पैदा हुआ - उन प्रजातियों के लिए जो अब तक की ऑक्सीजन रहित परिस्थितियों के लिए अनुकूल थीं। इन प्रजातियों को अब पर्यावरण के नए घटक से जूझना था जो धीमे किंतु निश्चित तौर पर उनकी कोशिकाओं के कई पदार्थों से क्रिया कर सकता था। जो जीव इस जहरीली ऑक्सीजन को झेल पाए वे तो फले-फूले, परंतु जो इसे सहन नहीं कर सके वे नेस्त-नाबूद हो गए।

जीव वैज्ञानिक इस प्रक्रिया के लिए कई शब्दों का उपयोग करते हैं - प्राकृतिक चुनाव, चयन का दबाव, अनुकूलन, सर्वश्रेष्ठ का चुनाव, आदि। यदि करोड़ों शैवालों में से 10-20 भी ऐसे हों जो ऑक्सीजन को सहन कर सकें तो ये 10 विचित्र शैवाल ऑक्सीजन को पचाकर जीवित रहेंगे और लंबी दौड़ में यही 'विजेता बनेंगे।
इनमें से कुछ शैवाल ऐसे भी हो सकते हैं जो ऑक्सीजन का इस तरह उपयोग करें कि इससे उन्हें ज्यादा ऊर्जा मिलने लगे; और जब इस सबके लिए करोड़ों साल का समय हो और प्रति

धरती पर शुरुआती जीवन की खोजबीन के दौरान 1993 में पश्चिमी आस्ट्रेलिया की चट्टानों में कुछ जीवाश्म मिले हैं। ये जीवाश्म साढे तीन अरब साल पुराने हैं। इसे जे. विलियम स्कूप ने खोज निकाला था। स्कूप यह मानते हैं कि ये जीव साइनोबैक्टिरिया समूह से संबंधित है और संभवतः प्रकाश-संश्लेषण भी करते थे। यहां चित्र में जीवाश्म के माइक्रोफोटोग्राफ के साथ उसका रेखाचित्र भी बना है।

घंटे कोशिकाएं एक से दो, दो से चार हो रही हों, तो कुछ भी, वाकई कुछ भी संभव है; और हुआ भी यही, माइटोकोंड्रिया के रूप में बिल्कुल यही हुआ। माइटोकोंड्रिया वाकई एक ऑक्सीजन आधारित व्यवस्था है। जो ऑक्सीजन एक ऑक्सीजन रहित व्यवस्था के लिए जहर है वहीं माइटोकोंड्रिया के लिए अमृत है। और सबसे जबर्दस्त रणनीति तो यह उभरी कि ऑक्सीजन युक्त और ऑक्सीजन रहित वातावरण दोनों से सामंजस्य - ऐसे जीवों का विकास हुआ जो माइटोकोंड्रिया पर कब्जा करके एक सहयोगी सहजीवी अस्तित्व बना लेते हैं। ऑक्सीजन रहित राह पर चलकर वे भोजन को लेक्टिक अम्ल या ज्यादा से ज्यादा अल्कोहल में बदल लेते हैं; और फिर बंधक माइटोकॉड़िया की। मदद से इन अणुओं को आगे कार्बन डायऑक्साइड में बदलते हैं और सोलह गुना ज्यादा ऊर्जा प्राप्त कर लेते हैं। हम इंसान ऐसे जीव हैं जिन्होंने बाहरी हवा की ऑक्सीजन का उपयोग करना कुछ इस कदर सीखा है कि इसके बिना हम मर ही जाएंगे। ग्रीक भाषा के मुताबिक ऑक्सीजन को अम्ल जनक गैस कहना इसका अपमान होगा। हम भारतीय लोग इसे प्राणवायू के आदरसूचक नाम से पुकारते हैं। मुझे आशा है कि तिरुपति उप-कोषालय के हमारे अधिकारी मित्र अब आश्वस्त होकर ऑक्सीजन का बिल औषधि समूह के तहत पास कर देंगे।


डी. बालसुब्रमण्यनः प्रसिद्ध आण्विक जैव-भौतिक शास्त्री। सी सी.एम बी. हैदराबाद के पूर्व डायरेक्टर। फिलहाल एल वी. प्रसाद आई रिसर्च इंस्टीट्यूट में डायरेक्टर हैं।
स्रोत के दिसंबर 1989 अंक से साभार