सवालीराम

पिछले अंक में मयंक गुप्ता, होशंगाबाद; ने सबालीराम से एक सवाल पूछा था कि अक्सर घर पर मुझे रोज़ नहाने के लिए कहा जाता है। साथ ही कहा जाता है साबुन लगाकर नहाओ, सारे जीवाणु मर जाएंगे। मैं यह जानना चाहता हूं कि साबुन कैसे बनाया जाता है, क्या साबुन से सच में जीवाणु मरते हैं?
जवाबः जब भी साफ-सफाई या नहाने की बात चले तो साबुन का जिक्र ज़रूर होता है। साबुनों में भी कई तरह के साबुन शामिल हैं: नहाने का, कपड़े धोने का, दाढ़ी के लिए, बाल सफा करने वाला, और भी न जाने कितने किस्म के साबुन हैं। लेकिन हम यहां सिर्फ नहाने के साबुन तक ही अपनी बात को सीमित रखेंगे।

सबसे पहले तो इस बात को समझना ज़रूरी है कि साबुन का प्रचलन पिछले 50-60 सालों में ज्यादा बढ़ा है। इससे पहले भी लोग रेह, मिट्टी, रीठा, शिकाकाई आदि का इस्तेमाल नहाने में करते रहे हैं। लेकिन जब साबुन निर्माताओं ने साबुन, शैम्पू आदि का शरीर की साफ-सफाई से बढ़-चढ़कर नाता जोड़ा तो साबुन एक खास जरूरत बनकर उभरा।
खैर, आपके सवाल पर आते हैं। हमारे शरीर पर कई किस्म के सूक्ष्मजीव, धूलकण, लवण, तेलीय पदार्थ, पसीना, मृत कोशिकाएं वगैरह जमा होते रहते हैं। नहाते समय साबुन इस्तेमाल करने से ये सब भी साबुन के साथ जुड़कर पानी के साथ धुल जाते हैं। जिन सामान्य साबुनों का हम रोज़ नहाने में इस्तेमाल करते हैं वे इन को तो पानी के साथ निकाल बाहर करते ही हैं, साथ ही कुछ सुक्ष्मजीवों को भी बहाकर शरीर से अलग कर देते हैं। कुछ सामान्य साबुनों में एंटिसेप्टिक पदार्थ भी मिलाए जाते हैं। इन साबुनों से थोड़ी देर के लिए, कुछ सूक्ष्मजीवों से मुक्ति मिल सकती है। लेकिन हमारी त्वचा पर तो सदैव सूक्ष्मजीवों की बहुत बड़ी भीड़ लगी रहती है।

साबुन के कारखाने के भीतर का एक नज़ारा: तकनीकी रूप से थोड़ा पुराने किस्म का कारखाना। भाप के पाइप से जुड़े हुए स्टील के बड़े बर्तन में तेन और कास्टिक मोड़े को गर्म किया जा रहा है। कुछ घंटे तक गर्म करने के बाद दहीनुमा पदार्थ बनता है जिसका शुद्धिकरण करके साबुन को पृथक किया जाता है। तकनीकी परिवर्तनों के चलते साबुन बनाना अब कुछ घंटों का नहीं बल्कि मिनटों का काम हो चला है, लेकिन प्रक्रिया और सिद्धांत लगभग वही है।

कुछ ऐसे खास साबुन जिनमें ऐंटीबैक्टेरियल पदार्थ मिलाए गए हों, वे शरीर को संक्रमण रहित करने के साथ बैक्टेरिया को मार भी सकते हैं। परन्तु ऐसा करने की ज़रूरत कुछ खास परिस्थितियों में ही होती है जैसे कि डॉक्टर ऑप्रेशन से पहले कोशिश करते हैं कि उनकी त्वचा जीवाणु रहित हो ताकि रोगी को खतरा न हो। या फिर चमड़ी के कुछ विशेष रोगों में ऐसी सफाई की जरूरत पड़ सकती है।
वैसे भी हमारी त्वचा पर मौजूद बैक्टेरिया में से बहुत से हमारी सेहत के लिए हानिरहित हैं। और कुछ इस मायने में फायदेमंद भी, कि वे अपनी मौजूदगी से रोगजनक बैक्टेरिया को चमड़ी पर आसानी से पैर जमाने नहीं देते। इसलिए सामान्य नित्य-कर्म के लिए ऐसे पदार्थों की कोई ज़रूरत नहीं है जो हमारे शरीर पर रह रहे समस्त जीवाणुओं को नष्ट करने में सक्षम हों।
जहां तक सवाल है कि रोज नहाना चाहिए या नहीं? इस पर बहस से कोई लाभ नहीं है क्योंकि यह तो विभिन्न संस्कृतियों की परम्पराओं और लोगों के पास उपलब्ध पानी की मात्रा पर निर्भर करता है। एक ओर बर्फीले इलाके हैं जहां रोज़ स्नान का रिवाज नहीं है तो दूसरी ओर रेगिस्तानी इलाकों में कई जगह लोग हफ्ते में एक बार ही नहाते हैं परन्तु फिर भी हमारे-आपके जितनी ही सफाई से रहते हैं। 
 
साबुन बनानाः कारखानों में साबुन तैयार करते समय विविध चरणों से गुजरते हुए साबुन का निर्माण होता है। आकार, प्रकार, खुश्बू में अलग-अलग होने के बावजूद साबुन बनाने के लिए कास्टिक सोडा, बसा आदि को मिलाना, गर्म करना, धोना, शुद्धिकरण, ठंडा करना, मिलिंग आदि शामिल हैं। अंतिम चरण में अपने-अपने व्यवसायिक उत्पाद बनाने के लिए एवं मार्केटिंग की जरूरत के अनुसार साबुन में रंग, खुश्बू आदि के लिए अन्य पदार्थ मिलाए जाते हैं।

आइए साबुन बनाएं
अगली बात है साबुन कैसे बनाते हैं? हम यहां साबुन बनाने की जिस विधि की बात कर रहे हैं वह बड़े कारखानों वाली विधि नहीं है लेकिन सिद्धांत लगभग वही है। साबुन बनाने के लिए सोडियम या पोटेशियम हाइड्रॉक्साइड, तेल, इत्र, रंग, जैसे पदार्थों की जरूरत होती है।
नहाने के साबुन में आमतौर पर सोडियम हाइड्रॉक्साइड (कास्टिक सोड़ा) का इस्तेमाल किया जाता है। तेलों के लिए नारियल, महुआ, जैतून, अलसी, अंडी, बिनोले, निबोली, तिल का इस्तेमाल किया जाता है। तेलों के अलावा पशुओं की चर्बी (Fat) का इस्तेमाल भी किया जा सकता है।
रसायन विज्ञान की भाषा में इन तेलों को फैटी एसिड कहा जाता है। फैटी एसिड और कास्टिक सोड़े की परस्पर क्रिया से साबुन और ग्लिसरीन बनता है। यह रासायनिक क्रिया इस प्रकार है:


उपरोक्त क्रिया देखने में एकदम आसान लगती है लेकिन इसको सम्पन्न करवाने की विधि काफी लंबी है।
चित्र में साबुन बनाने की प्रक्रिया को कुछ चरणों में बांटने की कोशिश की गई है। पहले तेल या वसा, कास्टिक सोड़ा और कुछ अन्य पदार्थों को एक बड़े बर्तन में गर्म करते हैं। इस प्रक्रिया से बर्तन में दहीनुमा पदार्थ बनने लगता है जिसे अलग करके पानी से धोया जाता है, फिर इसे उबाला जाता है। कुछ समय के बाद इसे एक दूसरे बर्तन में लाया जाता है जहां इसमें नमक (Brine) मिलाया जाता है जिससे दहीनुमा पदार्थ से ग्लिसरीन को अलग किया जा सके। यहां तक आते-आते साबुनीकरण की प्रक्रिया पूरी हो चुकी होती है। इसके बाद शुद्ध साबुन और अशुद्ध पदार्थों को अलग कर लेते हैं। इन अशुद्ध पदार्थों को दोबारा साबुनीकरण की प्रक्रिया में शामिल किया जा सकता है।

उसके बाद शुद्ध साबुन को ठंडा किया जाता है जिससे पपड़ीनुमा पदार्थ मिलता है। साथ ही दो विकल्प भी मौजूद हैं - यदि साधारण वॉशिंग पाउडर या साबुन की बट्टी बनानी है तो साबुन में सोडियम कार्बोनेट और अन्य पदार्थ मिलाने होंगे। यदि नहाने का साबुन बनाना है तो साबुन में मनमोहक रंग, खुशबू आदि मिलाते हैं जिससे साबुन में मोगरे-केवड़े से लेकर नीम-तुलसी तक की खुश्बू आ सकती है।
इन दिनों साबुन उद्योग में पेट्रोकेमिकल्स (डिटरजेंट) का इस्तेमाल काफी हो रहा है इसलिए हमारे आसपास शैम्पू, लिक्विड सोप, लिक्विड डिटरजेंट जैसे सफाई के कई सारे साधन मौजूद हैं।
 
सवालीराम
इस बार का सवालः सवालीराम से इस बार यह सवाल पूछा गया है कि जैसे गाय, भैंस और इसी तरह के अन्य प्राणी आसानी से घास खा सकते हैं। और आसानी से पचा पाते हैं तो मनुष्य ऐसा क्यों नहीं कर पाता?

अभिजीत सराठे  
कक्षा 9वीं, बैतूल

शायद आपने भी गौर किया होगा कि गाय-भैंस जैसे पशु घास, भूसा आदि मजे से खाते हैं। इन प्राणियों के पाचन तंत्र में ऐसा क्या खास है जो इंसानी पाचन तंत्र में नहीं है?
आपने जबाब हमारे पास जल्द-से-जल्द भेजिए।

जरा सिर खुजलाइए

इस बार का सवालः
ऊपर बने चित्र को देखिए। यहां 6 माचिस की तीलियां दी गई हैं। इन तीलियों की मदद से आपको 4 संगत (एकरूप) समबाहु त्रिभुज बनाने हैं। तीलियों को तोड़ना-मोड़ना नहीं है।

यदि सवाल कठिन लगे तो साथ में फेविकोल जरूर रखिए शायद काम आ जाए। अपने जवाब जल्द हमारे पास भेजिए। हमारा पता तो आपको मालूम ही है।