विक्रम चौरे

जो लोग समुद्र से काफी दूर रहते हैं उनका ज्वार-भाटे से पहला परिचय पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से ही होता है। स्कूली पाठ्य  पुस्तकों में ज्वार-भाटे के संबंध में सामान्यतः काफी संक्षिप्त जानकारी दी जाती है। विशेष तौर पर कुछ स्वाभाविक सवालों को तो अक्सर छोड़ ही दिया जाता है - चौबीस घंटों में दो बार क्यों आता है ज्वार या चांद की उलटी ओर का पानी भी क्यों ऊपर उठ जाता है, सूर्य का असर चांद की तुलना में कम क्यों होता है। इस लेख में ज्वार-भाटे के ऐसे कई उलझे पहलुओं को सुलझाने की कोशिश की गई है।

यूंतो हम सब अपनी स्कूली पढ़ाई 1 के दौरान ज्वार-भाटे के बारे में कुछ-न-कुछ जरूर पढ़ते हैं, लेकिन जैसा कि अक्सर हमारी पाठ्य पुस्तकों के साथ होता है किसी भी विषय की गहराई में जाने के बजाए आधे-अधूरे ज्ञान के साथ छोड़ दिया जाता है हमें। स्कूली शिक्षा में ज्वार - भाटे का अध्ययन इसका एक बहुत ही अच्छा उदाहरण है क्योंकि इस प्राकृतिक घटना में छिपी विभिन्न संभावनाओं को स्कूली किताबों में हम बिल्कुल ही नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
इस लेख की शुरुआत मद्रास विश्वविद्यालय की एक प्रयोगशाला से करते हैं। किस्सा लगभग 40 साल पहले का है। उन दिनों एक शोध-छात्र एम. के. चंद्रशेखरन ने एक बित्ते-भर गहरे समुद्र में रहने वाले समुद्री केकड़े पर शोध करते हुए देखा कि ये केकड़े समुद्र में ज्वार के समय समुद्र की ओर मुंह करके तैरते हुए धीरे-धीरे पीछे खिसक कर, खुद को रेत में दबा लेते हैं। और भाटे के समय ये केकड़े निष्क्रिय से पड़े तली के साथ चिपके रहते हैं। हर बार जब ज्वार आने को होता तो केकड़े हरकत में आ जाते थे, और पीछे को खिसकने लगते थे।
 
चंद्रशेखरन ने समुद्र से पकड़े इन केकड़ों के साथ प्रयोग करते हुए एक हैरतअंगेज़ बात पता लगाई कि मद्रास के समुद्र में जब ज्वार उठता था तब प्रयोगशाला में रखे उनके केकड़े भी पीछे की ओर तैरते हुए खुद को रेत में दबा लेने की कोशिश करते थे! गौर करने लायक बात यह है कि उनकी प्रयोगशाला समुद्र से दो किलोमीटर की दूरी पर थी।
कई दिनों के अवलोकन के बाद यह भी स्पष्ट हुआ कि जिस तरह हर दिन ज्वार 50 मिनट की देरी से शुरू होता है, उसी तरह इन केकड़ों की हलचल में भी रोज़ 50 मिनट का विलंब दर्ज हो रहा था। यानी कि समुद्री ज्वार-भाटे की लय उनके जीवन में समा गई थी। इस प्रयोग का जिक्र यहां सिर्फ इसलिए किया जा रहा है ताकि इस बात का अंदाज़ा लग सके कि उथले समुद्रों के जीवन का कितना घनिष्ठ संबंध हो सकता है ज्वार-भाटे के साथ।

क्यों आता है ज्वार?
यह तो सबको मालूम है कि एक नियमित समय अंतराल के बाद समुद्र का जलस्तर बढ़ जाना, और फिर कुछ समय के बाद जलस्तर कम हो जाना, क्रमशः ज्वार और भाटा कहलाते हैं।
न्यूटन द्वारा गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत प्रतिपादित करने के बाद, आकाशीय पिंडों से जुड़ी हुई अन्य बहुत-सी घटनाओं की तरह, पहली बार ज्वारभाटे की तार्किक व्याख्या भी संभव हो पाई। गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के अनुसार किन्हीं भी दो पिंडो के बीच गुरुत्वाकर्षण बल उन दोनों के द्रव्यमान एवं उनके बीच की दूरी पर निर्भर करता है।* यानी कि गुरुत्वाकर्षण की वजह से पृथ्वी व चांद एक दूसरे को आकर्षित कर रहे हैं, खींच रहे हैं। इस आकर्षण का असर पृथ्वी की विशाल पानी की परत पर चांद की ओर उभार के रूप में दिखाई देता है क्योंकि कोई भी द्रव अपना आकार (अपनी आकृति) आसानी से बदल देता है, विशेष तौर पर ठोस पदार्थों की तुलना में।**
पृथ्वी के अपनी धुरी पर चौबीस घंटों में चक्कर लगाने के कारण उसका कोई एक हिस्सा लगातार चंद्रमा की तरफ नहीं रहता बल्कि हर क्षण चांद के सामने एक नया हिस्सा होता है।

*दोनों पिंडों के बीच:    बल α (पहले पिंड का द्रव्यमान × दूसरे पिंड का द्रव्यमान)/(दोनों के बीच की दूरी)2     
** चंद्रमा के खिचाव  की वजह से जहां पृथ्वी के समुद्रों के तन में औसतन 5-10 का असर पड़ जाता है, पृथ्वी का ठोस भाग केवल 15-20 से. मी. ही ऊपर उठता है।
 
इसी वजह से पृथ्वी की सतह पर पानी का यह उभार यानी कि ज्वार किसी एक स्थान पर नहीं बना रहता परन्तु जैसे-जैसे पृथ्वी घूमती जाती है, ज्वार लगातार आगे की ओर बढ़ता रहता है।
चांद की तरह सूर्य भी पृथ्वी पर यही प्रभाव पैदा करता है यानी कि ये दोनों आकाशीय पिंड ज्वार के लिए ज़िम्मेदार हैं। अगर तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो चांद सूर्य के बनिस्बत धरती के पानी को ज्यादा उभार पाता है यानी कि बड़ा ज्वार लाने में सक्षम है। चांद से कई गुना विशाल होने के बावजूद चांद की तुलना में ज्यादा दूर स्थित होने व अन्य कारणों की वजह से सूर्य उतना प्रभाव नहीं डाल पाता।

यानी ज्वार के बारे में पहली बात तो यह कि ये चांद और सूरज के धरती पर लगने वाले गुरुत्वाकर्षण बल की वजह से आता है। गुरुत्वाकर्षण बल तो धरती की ठोस सतह, वायुमंडल और जलमंडल सब पर समान रूप से लगता है लेकिन जिस तरह पानी में उभार आता है उसके मुकाबले ठोस सतह काफी कम खिंचती है।
इसलिए सबसे ऊंचा ज्वार तभी आता है जब सूर्य और चांद दोनों एक ही दिशा में हों, जैसा कि हर अमावस्या को होता है। ऐसी स्थिति में ज्वार सबसे ऊंचा होता है और भाटा सबसे नीचा, इसे दीर्घ ज्वार कहते हैं। जब सूर्य और चांद एक दूसरे के समकोण पर हों तो सबसे छोटा ज्वार देखने को मिलता है, उस समय भाटा सबसे बड़ा होता है। इस स्थिति को लघु ज्वार कहते हैं। पृष्ठ 20-21 पर दिए गए चित्रों में 29 दिन के एक ज्वारीय चक्र के साथ-साथ दीर्घ ज्वार व लघु ज्वार की स्थितियों को भी दर्शाया है।

ज्वार-भाटा समुद्र तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों के जीवन का अंग है, उन्हें मालूम होता है कि अगर आज ज्वार ठीक बारह बजे आया है। तो कल भी ठीक उसी वक्त नहीं आएगा, बल्कि 50 मिनट देरी से आएगा। ऐसा इसलिए क्योंकि पृथ्वी तो अपनी धुरी पर घूम ही रही है, पर चांद भी स्थिर नहीं है।
चंद्रमा लगभग 29 दिन में पृथ्वी का एक पुरा चक्कर काटता है इसलिए जब तक पृथ्वी अपनी धुरी पर एक चक्कर लगाती है, चांद थोड़ा आगे खिसक गया होता है। पृष्ठ 22-23 पर दिए गए चित्रों में इसी घटना को विस्तार से समझाने की कोशिश की गई है।

ज्वार दूसरे सिरे पर क्यों?
संभव है कि यहां तक पहुंचते-पहुंचते आपके मन में ये दो सवाल उठ आए हों। पहला कि 24 घंटे में एक बार ज्वार और एक बार भाटा तो समझ में आता है परन्तु असलियत में तो 24 घंटे में दो बार ज्वार आता है और दो बार भाटा। ऐसा क्यों?
29 दिनों का ज्वारीय चक्र: चांद 29 दिनों में धरती के चारों ओर एक चक्कर पूरा करता है। इस पूरे चक्र में सूर्य और चांद की स्थिति से यह तय होता है कि धरती के समुद्र में कब कितना ऊंचा ज्वार उठेगा। इन चित्रों में चांद और सूरज की कुछ स्थितियों को दर्शाया गया।

चित्रः1
यह अमावस की स्थिति है। सूरज और चांद धरती के एक ही ओर हैं जिससे समुद्र में उठने वाला ज्वार अधिकतम ऊंचाई का होता है, और भाटा अपने निम्नतर स्तर पर होता है। यह दीर्घ ज्वार की स्थिति है।
चित्र:2 यह स्थिति अष्टमी की है जब सूरज और चांद का गुरुत्वाकर्षण बल एक-दूसरे के समकोणीय होता है। इस समय ज्वार अपने न्यूनतम स्तर पर होता है तो भाटा अपनी अधिकतम ऊंचाई पर होता है। इस समय लघु ज्वार देखने को मिलता है।

चित्र:3
यह पूर्णिमा की स्थिति है। एक बार फिर ज्वार अपने उच्चतम स्तर पर होता है और भाटा अपने निम्नतर स्तर पर। यहां आपके मन में सवाल उठना चाहिए कि इस स्थिति में आखिर ज्वार क्यों उठता है (वह भी दीर्घ ज्वार) जबकि चांद और सूर्य विपरीत दिशा में गुरुत्वाकर्षण बल लगा रहे हैं।
चित्र:4 एक बार फिर अष्टमी वाली स्थिति निर्मित होती है।
चित्र:5 फिर शुरुआती अमावस वाली स्थिति पर वापस आ गए हैं।

इन चित्रों में सूर्य नहीं दिखाया गया है लेकिन तीर की दिशा सूर्य की दिशा इंगित कर रही है। पृथ्वी की सतह पर बनाई गई काली रेखा एक स्थान विशेष को प्रदर्शित करती है, हवाई द्वीप समूह। जब यह स्थान सुर्य की सीध में आ जाए तो हमें पता चल जाएगा कि 7 दिन, या 14 दिन, या 21 दिन पूरे हो गए है।

दो बार ज्वार, दो बार भाटा: 24 घंटे 50 मिनट की अवधि में किस तरह दो बार और दो भाटे आते हैं यह दिखाने के लिए यहां हवाई द्वीप और जापान को बतौर उदाहरण लिया गया है। चित्रः1 में ठीक दोपहर के 12 बजे हवाई द्वीप जो पृथ्वी के चांद से दूर वाले सिरे पर है वहां उच्च ज्वार आया हुआ है तथा जापान में निम्न भाटा है। चित्र:2 में शाम के 6 बजकर 12 मिनट पर (यानी 12 मिनट की देरी से) हवाई में निम्न भाटा चल रहा है, जबकि जापान में बार अपने उच्चतम उत्थान पर है। चित्रः3 रात के 12 बजकर 25 मिनट पर हवाई द्वीप पर दूसरी बार बार आया हुआ है। जापान में भी दूसरी बार भाटा चल रहा है। इस बात पर भी गौर


करें कि इन बारह घंटों में चांद अपनी दोपहर 12 बजे वाली स्थिति से कुछ आगे की ओर खिसक गया है। चित्रः4 अगले दिन सुबह 6 बजकर 37 मिनट पर हाल यह है कि हवाई द्वीप पर भाटा है और जापान में ज्वार अपने शबाब पर है। चित्रः 5 यह वही स्थिति है जो पिछले दिन दोपहर को थी। अंतर यही है कि समय 12 बजकर 50 मिनट हुआ है, यानी बीती दोपहर के मुकाबले आज हवाई द्वीप पर ज्वार 50 मिनट की देरी से आया है। इसी तरह यही हाल जापान का भी है। इन चित्रों में हमने केवल चांद के प्रभाव से उत्पन्न ज्वार की चर्चा की है, सूर्य के प्रभाव को नज़रअंदाज़ किया है।

फंडी की खाड़ी ज्वार और भाटे के दो दृश्य। परिस्थितियों की वजह से इन दोनों मे 60 फिट का अंतर देखने को मिलता है।

ज्वार और भाटे की स्थिति मे स्पष्ट अंतर प्रदशित करते हुये दो और चित्र।

और दूसरा सवाल कि पृथ्वी का जो हिस्सा चांद की ओर है वहां का पानी तो गुरुत्वाकर्षण बल की वजह से ऊपर उठ गया; पर सब पुस्तकों में तो यही लिखा होता है और चित्रों में दिखाया जाता है कि पृथ्वी के दूसरी ओर, यानी कि जो हिस्सा चांद से दूर है, वहां भी पानी ऊपर उठ जाता है। इस लेख में भी अभी तक जितने चित्र बनाए गए हैं उनमें भी ऐसा ही दिखाया गया है। यह कैसे संभव है?
17वीं सदी के पहले भी लोगों ने यह अंदाज़ा तो लगा लिया था। कि धरती का जो हिस्सा चांद के सामने होता है, समुद्र में ज्वार वहीं आता है। लेकिन धरती के वे इलाके जो चांद से विपरीत हिस्से में मौजूद हैं, वहां ज्वार क्यों आते हैं इस बारे में कोई समाधानकारी जबाब तब नहीं था।

इन दोनों सवालों के हल ढूंढने से पहले यह समझना होगा कि चांद पृथ्वी का चक्कर नहीं काटता बल्कि पृथ्वी व चंद्रमा दोनों पृथ्वी-चांद तंत्र के गुरुत्व केन्द्र के इर्द-गिर्द चक्कर काटते हैं। पृथ्वी चंद्रमा की तुलना में बहुत ही अधिक विशाल है (पृथ्वी का द्रव्यमान चांद से लगभग 80 गुना है) इसलिए पृथ्वी-चांद तंत्र का गुरुत्व केन्द्र पृथ्वी के केन्द्र के अत्यन्त नजदीक है; पृथ्वी के केन्द्र से लगभग 4700 किमी दूर, यानी कि पृथ्वी की सतह से तकरीबन 1700 किमी अंदर।
दूसरा, इस घटना को केवल गुरुत्वाकर्षण बल के सहारे नहीं समझा जा सकता। पृथ्वी चूंकि पृथ्वी-चंद्रमा तंत्र के गुरुत्व केन्द्र के इर्द-गिर्द घूम रही है इसलिए पृथ्वी की सतह के पानी पर अपकेन्द्रीय बल (Centrifugal Force) भी लग रहा है। एक सिरे पर पत्थर बांधे हुए रस्सी को घुमाते वक्त जिस तरह से पत्थर छिटक कर दूर जाने की कोशिश करता है, वैसा ही प्रभाव  धरती की सतह पर मौजूद जल भंडार पर भी पड़ता है। रस्सी जितनी लंबी होगी उतना ही ज्यादा लगेगा यह बल।

आइए देखें कि बिंदु A, B व c पर इन दोनों बलों का कुल परिणामी प्रभाव क्या होता है। देखिए चित्र एवं तालिका अगले पृष्ठ पर।
पृथ्वी का बिंदु 'A' चांद से सबसे करीब है इसलिए उस पर गुरुत्वाकर्षण बल सबसे अधिक लगेगा। यह बिंदु A तंत्र के गुरुत्व केन्द्र के काफी नजदीक है इसलिए वहां पर अपकेन्द्रिय बल कम लगेगा, परन्तु वह होगा चांद के गुरुत्व बल की ही दिशा में। इन दोनों बलों का प्रभाव यह होगा कि चांद की ओर पानी अंडाकार आकृति बनाते हुए उठ आएगा और उस तरफ ज्वार की स्थिति बनेगी।

यहां दिया गया रेखाचित्र प्रतीकात्मक है। इसमें धरती, चांद के अलावा धरती पर कुछ बिन्दु दर्शाए गए हैं। बिन्दु ) धरती-चांद तंत्र का गुरुत्व केन्द्र है जिसके इर्द-गिर्द ये दोनों पिंड घूमते हैं। 'A' वह बिन्दु है जो चाँद से सबसे करीब है। बिन्दु 'c' चांद से सबसे अधिक दूरी वाला बिन्दु है और बिन्दु 'B' पृथ्वी का केन्द्र दर्शाता है। नीचे दी गई तालिका में बिन्दु 'A', 'B' और 'c' पर कार्यरत गुरुत्व व अपकेन्द्री बलों की तुलना करके ज्वार-भाटे को समझाने का प्रयास किया गया है। तीरों की लंबाई बल की एकदम सटीक मात्रा नहीं दर्शाती।

बल बिन्दु 'C' पर बिन्दु 'B' पर बिन्दु 'A' पर
गुरुत्व बल →→ →→→
अपकेन्द्री बल ←←←←← ←←
परिणामी बल ←←←← शून्य  →→→→

बिंदु B पृथ्वी का केन्द्र बिंदु है। यहां पर बिंदु 'A' की तुलना में गुरुत्वाकर्षण बल कम लग रहा है परन्तु अपकेन्द्रीय बल ज्यादा। दोनों का मान लगभग बराबर है यहां पर, लेकिन ये विपरीत दिशा में लग रहे हैं इसलिए एक दुसरे को संतुलित कर देंगे।
पृथ्वी पर चांद की विपरीत दिशा में मौजूद बिंदु 'c' पर गुरुत्वाकर्षण बल और भी कम लगेगा चूंकि चांद से उसकी दूरी सबसे ज्यादा है। परन्तु इसी बिंदु C पर अपकेन्द्रिय बल ज्यादा लगेगा क्योंकि यह तंत्र के गुरुत्व केन्द्र यानी वह बिंदु जिसके इर्द-गिर्द पृथ्वी और चांद दोनों चक्कर लगा रहे हैं, से ज्यादा दूर है। यहां पर भी ये दोनों बल एक दूसरे के विपरीत दिशा में हैं। परन्तु अपकेन्द्रीय बल गुरुत्वाकर्षण बल से अधिक है, इसलिए इन दोनों का परिणामी बल जो अपकेन्द्रीय बल की दिशा में होगा, पानी को चांद के विपरीत दिशा में ऊपर को उठा देगा। यही वजह है कि ज्वार न सिर्फ पृथ्वी पर उस तरफ आता है जिस तरफ चांद हो बल्कि उसकी उलटी तरफ का समुद्र भी ऊपर को उठ जाता है। और इसीलिए पृथ्वी पर स्थित समुद्रों में किसी भी एक जगह 24 घंटे में दो बार ज्वार आता है और दो बार भाटा एक ही जवाब से दोनों सवाल हल हो गए!

कितना ऊँचा ज्वार
ज्वार पर इतनी चर्चा के बाद एक दो बातें और बच जाती हैं जैसे चांद के बल के बावजूद किसी समुद्र या खाड़ी में कितनी ऊंचाई वाला ज्वार आएगा, यह तय होता है कुछ भौगोलिक कारकों से। जैसे कोई खाड़ी या सागर कितना गहरा या उथला है, संकरा है या चौड़ा है, किसी खाड़ी या सागर में समुद्री पानी की आवक-जावक की लय (रिदम), समुद्री जनधाराओं से आने वाला और जाने वाला पानी, समुद्र तटीय इलाका कैसा है, हवा के दबाव में कितना परिवर्तन हो रहा है, समूह या खाड़ी में चलने वाली हवाएं आदि वो सब कारक हैं। जो ज्वार-भाटे को नियंत्रित करते हैं। जिसकी वजह से दुनिया के सागरों, समुद्रों, खाड़ियों में ज्वार-भाटे में भिन्नता दिखाई देती है।
अटलांटिक महासागर के इलाके में रोज़ दो समान ऊंचाई के ज्वार और दो लगभग समान ऊंचाई के भाटे आते हैं। ऐसे ज्वार को अर्ध-दैनिक ज्वार (Semidiurnal Tide) कहा जाता है। प्रशांत महासागर, हिन्द महासागर के इलाकों में एक चंद्र दिवस (24 घंटे 50 मिनट) में दो ज्वार लगभग बराबर ऊंचाई के आते हैं तथा दो भाटे असमान ऊंचाई के आते हैं। वैसे इसका उलट भी हो सकता है यानी दो समान ऊंचाई के भाटे और दो असमान ऊंचाई के ज्वार। इस तरह के ज्वार को मिश्रित ज्वार (Mixed Tide) कहा जाता है।

मेक्सिको की खाड़ी, चीन सागर तथा कुछ और इलाकों में (Diurnal Tide) ज्वार आते हैं। यानी एक चंद्र दिवस में सिर्फ एक ऊंचा ज्वार और एक निम्न भाटा। आमतौर पर 6 घंटे 12 मिनट के अंतराल से दिखने वाले ज्वार-भाटा-ज्वार-भाटा इस क्रम में से बीच वाला 'भाटा-ज्वार' यहां लगभग गायब हो जाता है। शायद

सूरज का ज्वार छोटा क्यों?
ज्वार-भाटे के संबंध में कक्षा में एक और सवाल उठ सकता है जो थोड़ा पेचीदा है - ऐसा क्यों है कि इस घटना पर चांद का प्रभाव ज्यादा होता है और सूर्य का कम? यह सही है कि चांद की तुलना में सूर्य बहुत ज्यादा दूर है परन्तु दूसरी ओर सूर्य चांद की अपेक्षा अत्यन्त विशालकाय है। धरती से चांद और सूरज की दूरी क्रमशः 3,84 लाख किलोमीटर और 15 करोड़ किलोमीटर है। दूसरी ओर सूर्य का द्रव्यमान चांद से तकरीबन ढाई करोड़ गुना ज्यादा है।
अगर केवल गुरुत्वाकर्षण को ही देखा जाए तो चांद के मुकाबले सूर्य पृथ्वी पर लगभग 1 86 गुना ज्यादा बल लगाता है परन्तु फिर भी ज्वार के मामले में कमजोर पड़ जाता है। इस प्रश्न को हल करने के लिए भी हमें उसी तरह से पृथ्वी के विभिन्न बिंदुओं पर लग रहे बलों का विश्लेषण करना होगा जैसे हमने पृथ्वी-चांद के तंत्र के लिए किया था। इस बार हमें पृथ्वी-सूर्य तंत्र को जांचना होगा।
इस वक्त हम पृथ्वी की सतह के केवल दो बिंदुओं की चर्चा करेंगे - सूर्य के नजदीक का A, व सूर्य से दूर का c ये दोनों बिंदु सूर्य से इतनी दूर हैं कि दोनों जगह पर गुरुत्वाकर्षण की वजह से खिंचाव में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। सामने दी गई तालिका से भी यह बात स्पष्ट होती है।
परन्तु जहां पृथ्वी-सूर्य तंत्र के गुरुत्व केन्द्र की बात आती है, तो अब मामला एकदम बदल जाता है। पृथ्वी-चांद तंत्र का गुरुत्व केन्द्र पृथ्वी के अंदर था परन्तु पृथ्वी-सूर्य तंत्र का गुरुत्व केन्द्र सूर्य के अंदर है जिसके इर्द-गिर्द ये दोनों पिंड घूम रहे हैं। यानी कि इस गति के कारण पृथ्वी पर स्थित दोनों बिंदुओं A व C पर अपकेन्द्रीय बल बाहर की दिशा में लगेगा, और उसमें बहुत ज्यादा अंतर नहीं होगा। यही बात तालिका में दर्शाई गई है।

इसकी वजह इन सागरों की भौगोलिक बनावट से जुड़ी है जिससे यहां ज्वार का पानी जल्दी से वापस नहीं लौट पाता, और इस वजह से बीच का एक ज्वार और भाटा लगभग खत्म हो जाता है।
आखिरी बात यह कि हमारे सौर्य मंडल में बुध और शुक्र ग्रह के सिवाय सभी के पास उपग्रह हैं। कुछ के पास तो उपग्रहों की फौज है लेकिन जिस तरह का ज्वार धरती-चांद के तंत्र में, धरती पर देखने को मिलता है वैसा ज्वार सौर्य मंडल में दुर्लभ है। अभी भी ज्वार के बारे में शोधकार्य चल रहे हैं, पानी के उतार-चढ़ाव के लिए

अब तालिका में परिणामी बल की स्थिति देखनी होगी। बिंदु A पर गुरुत्वाकर्षण बल सूर्य की ओर है, परन्तु अपकेन्द्रीय बल उसके विपरीत दिशा में है। गुरुत्व बल अपकेन्द्रीय बल से थोड़ा ज्यादा है इसलिए इस बिंदु पर कुल मिलाकर सूर्य की ओर बल लगेगा। इस परिणामी बल की वजह से समुद्री जल सूर्य की ओर थोड़ा उठ जाता है।
बिंदु c' पर भी बलों की दिशाओं की यही स्थिति है परन्तु यहां गुरुत्व बल कुछ कम हो गया है, अपकेन्द्रीय बल कुछ ज्यादा है जिससे कुल मिलाकर अपकेन्द्रीय बल गुरुत्व बल से अधिक है। परिणामी बल सूर्य की विपरीत दिशा में भी एक छोटा भार पैदा करता है।
चित्र मे धरती-सूर्य के आकार व दूरियाँ अनुपातिक नहीं है।

बल बिन्दु 'C' पर बिन्दु 'A' पर
गुरुत्व बल →→→→→→→ →→→→→→→→
अपकेन्द्री बल ←←←←←←←← ←←←←←←←
परिणामी बल ←  
 

संतुलन बिंदु यानी गुरुत्व केन्द्र 

धरती और चांद एक दूसरे को अपने गुरुत्वाकर्षण बल से आकर्षित कर रहे हैं। चूंकि इन दोनों की संहतियां भिन्न-भिन्न हैं इसलिए संहतियों का गुरुत्व केन्द्र बड़ी संहति वाले पिंड के आसपास होता है। इस बात को झूले के उदाहरण से भी समझा जा सकता है।
मान लीजिए किसी मैदान में लकड़ी की एक बूंटी पर एक लंबा-सा पटिया लगा हुआ है। अगर वज़न में काफी अंतर वाले दो लड़कों को इसे संतुलित करना है तो बराबर दुरी पर बैठने से काम नहीं चलेगा। पटिए को खुटी पर संतुलित करने के लिए ज्यादा वज़न बाले लड़के को खुटी के एकदम करीब बैठना पड़ेगा और दुबले लड़के को बूंटी से काफी दूर। अगर दोनों के वजन में अंतर और भी अधिक हो तो हो सकता है ज्यादा वजन वाले को पटिए पर खूटी के लगभग ऊपर ही बैठना पड़े।
धरती-चांद के तंत्र के साथ यही होता है। बस थोड़ा-सा फर्क यही है कि बंटी यानी गुरुत्व केन्द्र धरती के केन्द्र से लगभग 4700 किलोमीटर की दूरी पर है जिसके चारों ओर ये दोनों चक्कर लगा रहे हैं। इस अदृश्य झूले पर धरती का जो हिस्सा चांद के सामने होता है वहां पर चांद का गुरुत्वाकर्षण ज्यादा लगता है, इसलिए समुद्र में ज्वार उठते हैं। धरती का वह हिस्सा जो चांद से दुर है, वहां चांद का गुरुत्वाकर्षण बल कम लगता है परन्तु वहां केन्द्र से दूर भागने की प्रवृति ज्यादा दिखती है। इसलिए उस ओर भी एक ज्वार उठता है।

जिम्मेवार कारकों की सूक्ष्मता से पडताल हो रही है। साथ ही ज्वारभाटे और समुद्री जीवों के सहसंबंध पर भी रोचक शोध हो रही है। यकीनी तौर पर इन सबकी वजह से हमारी समझ और भी पुख्ता होगी।


विक्रम चौरे: होशंगाबाद में एक स्कूल का संचालन करते हैं। विज्ञान लेखन में रुचि रखते है।

दूर जाता हुआ चांद
चांद के गुरुत्वाकर्षण बल का प्रभाव सिर्फ ज्वार-भाटे के रूप में ही नहीं देखा जाना चाहिए। इस बल से ज्वार तो आते ही हैं पर साथ ही ज्वार के कारण धरती की अपने अक्ष पर घूमने की गति भी प्रभावित होती है। नई तकनीकों के इस्तेमाल से यह पता चला है कि पृथ्वी की अपने अक्ष पर घूमने की गति धीरे-धीरे कम होती जा रही है और चांद धरती से लगातार दूर होता जा रहा है।
लाखों साल पुराने नॉटिलॉइड्स और कोरल के जीवाश्म; जो अपनी हर रोज़ की या हर महीने की वृद्धि में मौसमी विभिन्नता दर्शाते हैं। इनके अध्ययन में यह भी मालूम हुआ है कि करोड़ों साल पहले चांद धरती के काफी करीब होता था - आज के मुकाबले। और उन दिनों धरती भी अपने अक्ष पर काफी तेजी से घूमती थी। गणनाओं से यह पता चला है कि प्रति 100 साल में धरती की अक्षीय गति एक सेकेंड के एक हजारों हिस्से के बराबर धीमी हो जाती है। एक बिलियन यानी 1 अरब साल पहले धरती अपने अक्ष पर आज के मुकाबले काफी तेजी से घूम रही थी, फलस्वरूप अपनी धुरी पर एक चक्कर पूरा करने में उसे लगभग 22 घंटे का समय लगता था। यानी उस समय एक दिन सिर्फ 22 घंटे का होता था। आज धरती को अपने अक्ष पर एक पूरा चक्कर लगाने में 24 घंटे का समय लगता है, तो कुछ लाख साल बाद 24 घंटे और कुछ मिनटों का समय लगा करेगा।
यदि धरती ऐसी ही धीमी होती गई तो भविष्य में क्या होगा? एक अनुमान यह है कि धरती अपने अक्ष पर लगातार धीमी होती जाएगी और एक स्थिति ऐसी आएगी कि धरती अपने अक्ष पर एक चक्कर उतने ही दिनों में पूरा करेगी जितने दिनों में चांद धरती का एक चक्कर पूरा करेगा। इस स्थिति में धरती का एक ही हिस्सा हमेशा चांद के सामने होगा, जैसा कि आज हम धरती से चांद का सिर्फ एक ही हिस्सा देख पाते हैं। (हमारे सौर्य मंडल में अभी तक प्लूटो और उसके उपग्रह चेरॉन ने इस स्थिति को प्राप्त किया है।) लेकिन फिक्र मत कीजिए ऐसा होने में अरबों साल लग जाएंगे।

विभिन्न स्रोतों से संकलित