पूर्णिमा भार्गव

अभिव्यक्ति हमारी पहचान है। कोई व्यक्ति अपने को किस तरह अभिव्यक्त करता है यह उसके व्यक्तिगत गुणों पर निर्भर करता है; और हमारे गुण इस बात पर निर्भर करते हैं कि हमारे जीन अपने को कैसे अभिव्यक्त करते हैं। क्या हैं ये जीन, इनकी अभिव्यक्ति कैसे हमारे गुण बदल सकती है? क्या यह अभिव्यक्ति नियंत्रित है, क्या हम इसे नियंत्रित कर सकते हैं? क्या यह अभिव्यक्ति सदैव वैसी ही होती है जैसा उसे होना चाहिए: या कभी-कभी यह मनमाने तरीके से चलकर कुछ बीमारियों आदि को भी जन्म दे सकती है? ऐसी हालत में क्या ये बीमारियां सिर्फ संबंधित जीन्स के कान ऐंठकर ठीक की जा सकती हैं?
ऐसे ही तथा इससे संबंधित कुछ और प्रश्न हैं जो हमारे क्षेत्र में शोध करने वाले वैज्ञानिकों को परेशान करते हैं, लेकिन ये हमारे लिए प्रिय भी हैं। हमारे लिए हर जीन एक व्यक्ति के समान है। जिस तरह हर एक व्यक्ति की अपनी विशेषताएं होती हैं, हर जीन भी अपने-आप में अनूठी होती है। पर जैसा कि हम जानते हैं, सब व्यक्ति - स्त्री हो या पुरुष, मूलतः एक ही तरह के प्राणी हैं। ऐसे ही सभी जीन्स की संरचना में समानता है। तो आइए सबसे पहले देखें कि यह जीन आखिर क्या है?

शुरुआत कोशिका से  
सभी प्राणियों के शरीर कई छोटी-छोटी इकाइयों से मिलकर बने होते हैं। सबसे छोटी इकाई को कोशिका कहते हैं। जीवन एक अकेली कोशिका से शुरू होता है और इस कोशिका का आकार इतना छोटा होता है कि आप एक अकेली साधारण कोशिका को बिना किसी यंत्र की मदद के नहीं देख सकते। परन्तु फिर भी इस एक कोशिका में इतनी क्षमता और इतनी सारी आवश्यक सूचनाएं होती हैं कि वह अपने जैसी एक और कोशिका तैयार कर सकती है। एक कोशिका से दो, फिर चार और फिर अनगिनत कोशिकाएं तैयार हो जाती हैं। इन सब में उस पहली कोशिका के गुण होते हैं। और कोशिका विभाजन के बाद बनने वाली इन सब कोशिकाओं की विशेषताएं तथा स्वरूप कैसे होने चाहिए, यह भी पहली कोशिका ही तय कर देती है। तो इस तरह चलती है कोशिका की यात्रा।

कोशिका विभाजन की तैयारी: डी. एन. ए. की प्रतिकृति तैयार हो रही है ताकि नई कोशिका को भी बिल्कुल वैसा ही डी. एन. ए. का तंतु मिले।

अगला प्रश्न आता है कि कैसे यह पहली कोशिका बाद वाली कोशिकाओं का स्वरूप तय कर देती है? नई कोशिका में ऐसा क्या है। जो पुरानी कोशिका से अलग हो जाने पर भी उसे मातृ कोशिका के निर्देशों से बांधे रखता है? यह वही पदार्थ है जो हम सब के शोध का अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसकी खोज और पहचान ने हमारी समझ में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिए। जी हां, हमारा आनुवंशिकी पदार्थ यानी डी. एन. ए. आज हम डी. एन. ए. की रासायनिक संरचना जानते हैं और उसे परखनली में बना सकते हैं। हम जानते और मानते हैं कि हर व्यक्ति की हर कोशिका में एक ही डी. एन. ए. है पर उसमें व्यक्तिगत विशेषताएं हैं।

डी. एन. ए. की जमावट   
कल्पना कीजिए कि डी. एन. ए. एक लंबे धागे जैसी रचना है और हर व्यक्ति एक धागा है, जो लंबाई में बराबर है। पर हर एक का रंग भिन्न है, अनगिनत लोग अनगिनत रंग के धागों से बने हुए -- जितने भी रंगों और उनके शेड्स की आप कल्पना कर सकते हैं।

डी. एन. ए. का तंतुः यह फोटो फेज पी. एम-2, के डी. एन. ए. का है। इसमें डी. एन. ए. के धागे सुलझा हुआ छ्ल्ला दिख रहा है; चित्र में ऊपर की। ओर लिपटे हुए सुपर कॉयल स्वरूप में डी. एन. ए. का तंतु भी दिख रहा है।

हमें मालूम है कि डी. एन. ए. कोशिका के अंदर पाया जाता है। जब कोशिका दो में विभक्त होती है तो वह बिलकुल अपने जैसा एक डी. एन. ए. बना कर नई कोशिका को देती है। मातृ कोशिका के सारे निर्देश और सूचनाएं इस तरह नई कोशिका को भी मिल जाते हैं। कोशिका के पास अपना सुविकसित तंत्र होता है जो डी. एन. ए. पर कोड में लिखे संदेशों को पढ़ सकता है। 

डी. एन. ए. के तंतु की चरणबद्ध जमावटः डी. एन. ए. के तंतु की मोटाई लगभग 20-30 A" (एंगस्ट्रॉम) होती है। पहले चरण में यह तंतु हिस्टोन प्रोटीन पर लिपटकर लगभग 100 A" की मोटाई के न्यूक्लियोसोम बनाता है। फिर न्यूक्लियोसोम की यह माला मुड़-मुड़कर तह लगाकर घना रूप ले लेती है जिसकी मोटाई लगभग 300 A" होती है; और अंत में इस क्रोमेटिन तंतु से जो रचना बनती है वही है क्रोमोसोम यानी रंगसूत्र। (1 एंगस्ट्रॉम यानी 10-10 मीटर या 10° से. मी.

मतलब पूरा का पूरा डी. एन. ए. का यह लंबा-सा धागा जो वास्तव में एक कोशिका से आकार में बहुत बड़ा होता है, इस तंत्र को आसानी से मिल जाना चाहिए। इसके लिए यह जरूरी है कि डी. एन. ए. बड़े ही सुचारू ढंग से कोशिका के अंदर जमा हुआ हो: नहीं तो जैसे धागा उलझ जाता है, डी. एन. ए. भी उसी तरह उलझ सकता है। और अगर डी. एन. ए. के इतने लंबे धागे को कोशिका तंत्र एक तरफ से पढ़ना शुरू करे तो अपने काम की जगह तक पहुंचने में परेशान हो जाएगा। लेकिन सब्र कीजिए, कोशिका के पास हर मुश्किल का जवाब है।

कुछ प्रोटीन उसके लिए अपनी सेवा प्रस्तुत करते हैं और अपनी पीठ पर डी. एन. ए. को संभाल कर, बिछाने का काम करते हैं। ये प्रोटीन बहुत ही छोटे-छोटे छरों जैसी गोलियों का रूप लेते हैं, जिनके ऊपर डी. एन. ए. बड़ी ही सफाई से लिपटता जाता है। एक के बाद एक - क्रम से खूब सारी गोलियां इस काम आती हैं। और यदि इस डी. एन. ए. को माइक्रोस्कोप से देखा जाए तो ऐसा लगता है जैसे एक माला के धागे में बहुत से मोती पिरोए हुए हैं।

इस माला में एक खासियत यह है कि ये गोलियां स्वतंत्र रूप से खोली या पिरोयी जा सकती हैं। एक वक्त में इसलिए केवल वही मोती टूटते हैं जहां के डी. एन. ए. को ‘कोशिका तंत्र' पढ़ता है और उसी डी. एन. ए. का संदेश प्रसारित होता है।
इस माला की दूसरी खासियत यह होती है कि बहुत ही सलीके से यह मुड़-मुड़कर, तह लगाकर लंबाई में छोटा परन्तु घना स्वरूप ले लेती है। इन मालाओं के इस घने स्वरूप से जो रचना बनती है, वही हैं क्रोमोसोम।

डी. एन. ए. की अभिव्यक्ति
अब जीन्स पर वापस आते हैं। एक लंबे डी. एन. ए. के धागे पर क्रम से बहुत से संदेश लिखे रहते हैं। ‘जीन' डी. एन. ए. की वह एक पूरी लंबाई है जिससे एक पूरा संदेश मिलता है, और एक जीन में सिर्फ एक संदेश होता है। यह संदेश पढ़कर कोशिका इसके अनुसार संदेश को एक नया रूप देती है। यह नया संदेश एक प्रोटीन हो सकता है। इस तरह कोशिका डी. एन. ए. के संदेश का प्रोटीन के रूप में अनुवाद करके उसके अनुसार अपने वह काम करती है जिन्हें हम देखते और समझते हैं।

मांसपेशियों की बनावट: मांसपेशियों की कोशिकाओं में एक खास तरह के प्रोटीन बनते हैं जिनकी वजह से इन कोशिकाओं का समूह पेशी का आकार धारण करता है। ये खास प्रोटीन क्रम में सुसज्जित होकर बहुत बारीक रेशे बना पाते हैं। ऐसे प्रोटीन बनाने वाले जान तो मनुष्य की प्रत्येक कोशिका में होते हैं परंतु ये जीन अपने आप को अभिव्यक्त केवल उन्हीं कोशिकाओं में करते हैं जिनमे मांसपेशियां बनती हैं।

आइए एक प्रक्रिया के उदाहरण से इसे समझने की कोशिश करें। हर कोशिका सांस लेती है और अपना जीवन चलाने के लिए ग्लुकोज से शक्ति प्राप्त करती है। ग्लुकोज़ से शक्ति पाने और सांस मे ली हुई ऑक्सीजन का उपयोग करने की प्रक्रिया में, कई प्रोटीन ग्लुकोज़ को पकड़ कर उसे छोटे भागों (पानी और कार्बन-डाईआक्साइड) में तोड़ देते हैं और उसमें संचित ऊर्जा को उपयोगी रूप में जमा कर लेते हैं। इन प्रोटीन्स को बनाने वाली जीन हर कोशिका में मिलती है क्योंकि प्रत्येक कोशिका को खुद को जीवित रखने और अन्य काम करने के लिए ऊर्जा की ज़रूरत होती है।

दूसरी तरफ विशेष काम करने वाली कोशिकाओं में उनके अलावा कुछ विशेष तरह के प्रोटीन भी बनते हैं। इन विशेष प्रोटीन्स की जीन भी हर कोशिका में मिलती हैं पर अपने को वे सिर्फ इन्हीं विशेष कोशिकाओं में अभिव्यक्त करती हैं।
उदाहरण के लिए मांसपेशियों की कोशिकाओं में एक खास तरह के प्रोटीन बनते हैं जिनकी वजह से इन कोशिकाओं का समूह पेशी का आकार धारण करता है, जिनमें ये प्रोटीन क्रम में मुसज्जित होकर बहुत सूक्ष्म रेशे बना पाते हैं। इन देशों में संकुचन और फैलाव होने के कारण मांसपेशियां काम करती हैं। इन प्रोटीन्स को बनाने वाली जीन्म भी प्रत्येक कोशिका में होती हैं परंतु वे अपने आपको केवल उन्ही कोशिकाओं में अभिव्यक्त करती हैं जिनमे मांसपेशियां बनती हैं।

जीवन नियंत्रण  
इस तरह हम देखते हैं कि जीन्स और उनमे बनने वाले प्रोटीन जीवन की सभी क्रियाओं को चलाने के लिए काम करते हैं। इनमें से किसी में भी, कोई एक भी छोटी-सी कमी या नुक्स होने पर गहरी समस्याएं, विकृतियों या विकारों के रूप में उभर सकती हैं। इन समस्याओं का हल ढूंढा जा सकता है, यदि हम इन प्रोटीन या जीन की संरचना समझ सकें। और जीन से प्रोटीन बनने की जटिल प्रक्रिया, जो कई चरणों में पूरी होती है, उसे भली भांति समझ सकें।

हमारे शोध समूह में हम इन्हीं जटिल प्रक्रियाओं को समझने की कोशिश में लगे हैं। हम डी. एन. ए. को उसके मोतियों में पिरोकर, परखनली में कोशिका जैसी स्थिति बनाकर देखने की कोशिश करते हैं कि ऐसी अवस्था में कोई जीन अपने आपको अभिव्यक्त करना चाहे तो उसको पहले स्तर पर कौन-सी बाधाओं का सामना करना पड़ता है; और वह कैसे इन बाधाओं को दूर कर सकता है। यदि इस प्रक्रिया को विस्तार से समझा जा सके तो एक दूसरा महत्वपूर्ण पहलू भी देखा जा सकता है। कभी कभी कोई जीन किसी गलत कोशिका में गलत वक्त पर अपने को अभिव्यक्त करने लगती है। ऐसी दशा में उस जीन को फिर से शांत करना संभव हो सकता है यदि हमें मालम हो कि वह कौन-से नियंत्रण हैं जो एक जीन की अभिव्यक्ति को रोककर रखते हैं।


पूर्णिमा भार्गवः सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मोलेक्युलर बायॉलोजी, हैदराबाद में शोध कर रही हैं।
यह लेख कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केन्द्र, भारतीय रासायनिक प्रौद्योगिकी संस्थान एवं राष्ट्रीय भौतिकीय अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद द्वारा आयोजित 'विज्ञान, साहित्य समागम कार्यशाला के दौरान दिए गए व्याख्यान पर आधारित है।
‘विज्ञान, साहित्य समागम' से साभार।