प्रदीप गोठोस्कर

एक मराठी कवि अपनी कविता में सावन के महीने के बारे में लिखते हैं:
सावन में मन हर्षाया
       चारों ओर हरियाली छाई  
              पल भर में होती बौछारें
                      पलभर में धूप खिल आई।

सावन के महीने में बादलों और धूप की लुका-छिपी के बीच इन्द्रधनुष  दिखाई देने के बारे में कवि आगे कहते है :
ऊपर देखो इन्द्रधनुष को
        मानो नभ मंडल में
               बांध दिया हो मंगल तोरण

एक बार इन्द्रधनुष दिखाई देने लगे तो क्या बड़े, क्या छोटे, सभी लोग अपने-अपने काम भूलकर आसमान में टकटकी लगाकर देखने लगते हैं। कुदरत के इस अद्भुत नजारे को देखने के लिए सभी उत्सुक रहते हैं।

इस इन्द्रधनुष का जितना करीबी रिश्ता विज्ञान से है उतना ही घनिष्ट संबंध विविध कलाओं से भी है। सात रंगों वाले इस धनुष ने कई कवियों और चित्रकारों को प्रेरणा दी है। इस धरती पर मौजूद लगभग सभी प्राचीन संस्कृतियों, पौराणिक गाथाओं, दंत--कथाओं में इन्द्रधनुष का जिक्र मिलता है। लेकिन यह भी एक मजेदार तथ्य है कि इन्द्रधनुष का जिक्र शुभ घटनाओं के संदर्भ में ही किया जाता है। शायद इन्द्रधनुष है ही इतना खूबसूरत कि किसी का भी मन उल्हास से भर जाए।

वैसे इन्द्रधनुष के बनने के रहस्य का पता लगाने में वैज्ञानिकों को सैकड़ों माल लग गए। कई नामी-गिरामी वैज्ञानिकों ने इस रहस्य को जानने की कोशिशें की। आपको यह जानकर अचरज होगा कि इन्द्रधनुष के कुछ गुणधर्मों की जानकारी 20 वीं शताब्दी में ही मिली है। प्रकाश के जो दो रूप हैं - कण और तरंग - इनका असर यहां भी देखने को मिलेगा यह किसने सोचा था!

सात रंगों की छटा  
इन्द्रधनुष से जुड़े काफी सारे प्रकाशीय गुणधर्म हम सहजता से समझ सकते हैं। यदि आपको कभी इन्द्रधनुष देखने का मौका मिले तो थोडा ध्यान से देखिए। जिसे हम इन्द्रधनुष कहते हैं। वह वास्तव में प्राथमिक इन्द्रधनुष है। प्राथमिक इन्द्रधनुष में सबसे अंदर की ओर बैंगनी रंग होता है और बाहर की ओर लाल रंग। इन्द्रधनुष में लाल, नारंगी, पीले, हरे, नीले, गहरे नीले और बैंगनी रंग की पट्टियां कमान की तरह तनी हुई दिखाई देती हैं। आमतौर पर इन्द्रधनुष सूर्य के विपरीत दिशा में दिखाई देता है और अक्सर सुबह या शाम के समय। कभी-कभी इन्द्रधनुष एकदम चटक होता है तो कभी काफी फीका। और तो और, कभी कभी तो दो इन्द्रधनुष साथ-साथ दिखाई देते हैं। और इस दूसरे इन्द्रधनुष में अन्दर से बाहर रंगों का क्रम भी प्राथमिक इन्द्रधनुष से एकदम विपरीत होता है।

इस व्दितीय इन्द्रधनुष में सबसे भीतर की ओर लाल रंग होता है तो सबसे बाहर बैंगनी रंग। यदि कभी आपको प्राथमिक और व्दितीय इन्द्रधनुष देखने का मौका मिले तो आप और भी कई रोचक तथ्य देख सकेगें। जैसे प्राथमिक इन्द्रधनुष के भीतर का आकाश काफी नमकदार और रोशन होता है जबकि व्दितीय इन्द्रधनुष के भीतर का आकाश थोड़ा अंधेरा लिए होता है। इस अंधेरी पट्टी को ‘अलेक्जेंडर बैंड या पट्टा' कहते हैं। जब इन्द्रधनुष काफी चमकदार हो तब प्राथमिक इन्द्रधनुष के भीतरी हिस्से में और व्दितीय इन्द्रधनुष के बाहरी हिस्सों में गुलाबी हरे पट्टे (बैंड्स) नज़र आते हैं। हो सकता है आपने तस्वीरों में काफी इन्द्रधनुष देखे हों, लेकिन आंखों से आसमान में इन्द्रधनुष देखने का मजा ही कुछ और है, खासतौर पर अगर दो इंद्रधनुष एक साथ दिखाई दे रहे हों।

इन्द्रधनुष इतिहास के आइने में
इन्द्रधनुष के संबंध में प्रसिद्ध दर्शनशास्त्री अरिस्टॉटल (ई.पू. 384 मे 322 ई.पू.) ने पहली बार कोई वैज्ञानिक अवधारणा देने की कोशिश की थी ऐसा मालूम पड़ता है। पहली बार उसने पहचाना कि बारिश, धूप और इन्द्रधनुष में कोई करीबी रिश्ता है। उसने बताया कि सूरज की रोशनी जब बादलों पर पड़ती है तो वह एक खास कोण से परावर्तित होती है। जिसकी वजह से जमीन पर खड़े व्यक्ति को आसमान में गोलाकार इन्द्रधनुष होने का अहसास होता है। यानी यदि सभी किरणें सूरज से एक समान कोण बनाती हुई परावर्तित होती हैं तो आकाश में उस कोण के बराबर गोलाकार इन्द्रधनुष दिखाई देगा। साथ दिए चित्र में अरिस्टॉटल की परिकल्पना को दिखाया गया है।

अरिस्टॉटल के बाद लगभग 500 सालों बाद इन्द्रधनुष का ज़िक्र ‘अलेक्जेंडर ऑफ अफ्रोडिसियस' नामक वैज्ञानिक ने किया। उसने बताया कि प्राथमिक तथा व्दितीय  इन्द्रधनुष के बीच का आसमान (बाकी आसमान की तुलना में) कालिमा लिए होता है। आज इस कालिमा लिए भाग को उसी के नाम पर ‘अलेक्जेंडर बैंड' के नाम से जाना जाता है। अलेक्जेंडर के बाद करीब हज़ार साल बाद रोजर बेकन ने इन्द्रधनुष से जुड़ी गणनाएं कीं, ऐसा ऐतिहासिक स्रोत बताते हैं। बेकन के अनुसार (सन् 1 266) प्राथमिक इन्द्रधनुष की कमान सूरज की किरणों से 42 डिग्री का कोण बनाती है। और व्दितीय इन्द्रधनुष की कमान सूर्य किरणों से 8 डिग्री ज्यादा यानी 51 डिग्री को कोण बनाती है। यदि आपको कभी आसमान में इन्द्रधनुष दिखाई दे तो आप भी एक स्केल और चांदे की मदद से इन कोणों को नाप सकते हैं। बेकन ने यह भी बताया कि प्राथमिक इन्द्रधनुष की तुलना में द्वितीय इन्द्रधनुष में रंगों का क्रम उल्टा होता है।

लेकिन ये रंग किस तरह बनते हैं, इनका क्रम उल्टा कैसे बनता है जैसे कई सवालों के जवाब अरिस्टॉटल के सिद्धांत से समझ पाना संभव नहीं है। सच बात तो यह है अरिस्टॉटल की यह धारणा कि ‘इन्द्रधनुष प्रकाश के परावर्तन से बनता है' ही गलत थी। आज हम इस बात को बखूबी जानते हैं कि आइने में दिखने वाला अक्स हुबहू होता है लेकिन उल्टा होता है यानी बायां हिस्सा दाहिनी ओर दिखता है। और आइने के सामने कुछ लिखा हुआ रखा जाए तो वह भी एकदम ही उल्टा दिखता है। आइना प्रकाश किरणों को परावर्तित करता है तब एक सीधा सिद्धांत अपनाता है - कोई भी प्रकाश विरण शीशे के साथ जितने डिग्री का कोण बनाती हुई टकराती है। शीशा उस किरण को उतना ही कोण बनाता हुआ परावर्तित करता है। चित्र में आइने से टकराने वाली प्रकाश किरण आइने के साथ 60 डिग्री का कोण बना रही है, और परावर्तन के बाद भी 60 डिग्री का कोण बना रही है। यदि आप चाहें तो कमरे में आइने और टॉर्च की मदद से इस प्रयोग को करके देख सकते हैं। सिर्फ इस बात का ध्यान रखना होगा कि कमरे में पर्याप्त अंधेरा हो। यानी सूरज की किरणें जब बादलों पर अलग-अलग कोण बनाती हुई टकराती हैं तो वे अलग-अलग कोण बनाती हुई परावर्तित होती हैं। फिर उनसे सिर्फ 42 डिग्री पर ही इन्द्रधनुष किस तरह बन पाता होगा? निश्चय ही अरिस्टॉटल की परावर्तन की परिकल्पना अधूरी थी।

विज्ञान एवं दर्शन के क्षेत्र में अरिस्टॉटल के विचारों का ऐसा प्रभाव था कि उसकी परिकल्पना को लगभग 1800 साल तक चुनौती नहीं दी जा सकी। सन् 1304 में जर्मन धर्म गुरु ‘थियोडोरिक ऑफ फ्रायवर्ग' ने। इन्द्रधनुष को लेकर एक नई परिकल्पना पेश की। सूर्य की किरणें जब पानी की। बूंदों मे अपवर्तित होती हैं तो एक खास कोण बनाती हुई बाहर निकलती हैं जिसकी वजह से इन्द्रधनुष बनता है। थियोडोरिक ने सिर्फ कल्पना ही पेश नहीं की बल्कि उसने इसे साबित करने के लिए अपने स्कूल के मैदान में कांच के गोल बर्तन में पानी भरकर उसे धूप में रखा। ऐसा करने पर उसने देखा कि सूरज की किरणें सिर्फ परावर्तित ही नहीं होती बल्कि पानी में घुसकर अपवर्तित भी होती हैं और रंगीन किरणों में तब्दील होती हैं। उसने यह भी पाया कि अपवर्तन के बाद ये किरणें एक खास दिशा में पानी से बाहर निकलती हैं। (यह प्रयोग आप भी करके देख सकते हैं - अगले पेज पर दिया गया बॉक्स देखिए)। थियोडोरिक के अनुसार (बादलों में) पानी की हरेक बूंद गोल कांच के बर्तन में रखे पानी की तरह प्रकाश किरणों का अपवर्तन करती है। इस सिद्धांत से दो बातें साफ हुईं।

1. इन्द्रधनुष की कमान प्रकाश किरणों के साथ एक निश्चित कोण बनाती है क्योंकि बूंदें गोलाकार होने के कारण सूरज से इस कोण पर आने वाली किरणें अपवर्तित होकर पानी की बूंद में घुस पाती हैं। शेष सब किरणें बूंद की सतहों से ही परावर्तित हो जाती हैं।
2. अपवर्तन की वजह से ही इन्द्रधनुष में रंगों का निर्माण होता है। लेकिन दुर्भाग्य से थियोडोरिक की मौत के बाद उसकी परिकल्पना और प्रयोगों पर परदा पड़ गया। लगभग 300 साल बाद उसी परिकल्पना की खोज एक बार फिर रेने देकार्त ने की। विज्ञान की प्रेगति का इतिहास काफी विचित्रता लिए हुए है।

जब स्पष्ट समझ बनने लगी
रेने देकार्त (सन् 1668-1744) गणित के विविध सिद्धांतों की खोज के लिए प्रसिद्ध था। अपवर्तन से जुड़े प्रकाश के गुणधर्मों की जांच करके देकार्त ने इन्द्रधनुष से जुड़े कुछ सवालों के जवाब खोज निकाले। उसने कांच के (पानी भरे) गोल बर्तन में प्रकाश किरणों के आने-जाने के रास्ते की जांच की। प्रकाश किरण जहां से गोलाकार बर्तन में प्रवेश करती है। वहां अपवर्तित होती है, फिर बर्तन के पिछले हिस्से से टकराकर परावर्तित होती है। और फिर से पानी में से होती हुए कांच के बर्तन से बाहर निकलते हुए अपवर्तित होती है। ऐसी स्थिति में वे एक खास दिशा में बाहर निकलती हैं। यदि प्रकाश किरणें पानी की बूंद में दो बार परावर्तित हो जाएं तो किरणें किसी और दिशा में अपवर्तित होकर निकल जाती हैं।

प्राथमिक तथा व्दितीय इंद्रधनुषः बारिश के दिनों में पानी की बूंदों में चित्र के अनुसार एक बार परावर्तित होने वाली किरणें प्राथमिक इंद्रधनुष बनाती हैं और दो बार परावर्तित होने वाली किरणें व्दितीय इंद्रधनुष। चित्र में दर्शक बिन्दु 'एफ' पर स्थित है। HH क्षितिज है। सूर्य, पानी की बूंद और दर्शक के बीच के कोण को नापने के लिए सूर्य की किरणों के समांतर रेखा PQ बनाई गई है।

सामने दिए चित्र में प्राथमिक और व्दितीय इंद्रधनुष बनने की प्रक्रिया को दिखाया गया है। चित्र में A B C D E F किरणों की वजह से प्राथमिक इंद्रधनुष बन रहा है। ए बी और डी एफ किरणों के बीच 42 डिग्री का कोण बन रहा है। यदि किरणें बूंद में दो बार परावर्तित हो जाए तो A B C D E F दिशा में चली जाती हैं। इन किरणों की वजह मे लगभग 51 डिग्री पर द्वितीय इंद्रधनुष बनता है।

देकार्त के अनुसार व्दितीय इंद्रधनुष बनने के लिए किरणों को दो बार अपवर्तन और दो बार परावर्तन की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, हरेक अपवर्तन और परावर्तन के दौरान किरणें कमजोर होती जाती हैं , फलस्वरूप  व्दितीय इंद्रधनुष काफी फीका दिखाई देता है। अब तक यह बात साफतौर पर समझी जा चुकी थी कि इंद्रधनुष का बनना परावर्तन, अपवर्तन और पानी की बूंदों के गोल होने से जुड़ा है। विज्ञान का इतिहास कितनी ही विचित्रता लिए हुए हो फिर भी यह तो तय है कि कल्पना की प्रत्येक उड़ान के बाद इंद्रधनुष के बारे में। कुछ-न-कुछ नई जानकारियां मिलती गईं और कुछ समस्याओं के हल भी।

अपवर्तन यानी क्या    
देकार्त के सिद्धांत से दो सवाल उठ खड़े हुए, पहला - जब हम कहते हैं कि प्रकाश किरणों का अपवर्तन होता है तो दरअसल होता क्या है? तथा दूसरा - इससे सात रंग किस तरह तैयार होते हैं।
इनमें से दूसरा सवाल थोड़ा कठिन है इसलिए इसे फिलहाल छोड़ देते हैं। देकार्त के समय पहले सवाल का जवाब मालूम था। 'विलम्रोड स्नेल' ने प्रकाश किरणों पर कुछ प्रयोग किए थे। स्नेल को मालूम था कि जब प्रकाश किरणें एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाती हैं। (उदाहरण के लिए हवा से पानी में) तो उनकी दिशा में बदलाव आता है। यह बदलाव कितना होगा यह माध्यम के गुणों पर निर्भर करती है। मान लीजिए प्रकाश किरणें पानी पर 60 अंश का कोण बनाती हुई टकरा रही हैं तो पानी में घुसने के बाद वे किरणें 40 अंश 5 मिनट का कोण बनाती हुई पानी में सफर करती हैं। लेकिन यदि कोई किरण पानी में 40 अंश 5 मिनट का कोण बनाकर सफर करती हुई पानी मे हवा में आ जाए तो हवा में ये किरण 60 अंश का कोण बनाते हुए चलती है।

कोई माध्यम किरणों को कितना अपवर्तित करेगा इससे माध्यम को अपवर्तनांक तय होता है। उदाहरण के लिए पानी का अपवर्तनांक 1.33 है। यानी अपवर्तनांक का संबंध प्रकाश किरणों की पहले वाली तथा बाद वाली दिशा के अनुपात से है।
अपवर्तनांक  = sin i /sin r
अपवर्तनांक  = sin(आपतित कोण)/sin (अपवर्तित कोण)

इंद्रधनुष बनाकर देखिए

थियोडोरिक का प्रयोग दोहराकर आप भी इन्द्रधनुष बना सकते हैं। इसके लिए कांच के एक गोलाकार फ्लास्क की ज़रूरत होगी। गोल बोतल या बल्ब से भी काम चल जाएगा।

-- सबसे पहले पानी से भरे इस कांच के बर्तन को किसी कमरे में रखते हैं। फिर कमरे की सभी खिड़कियां और दरवाजे बंद कर देते हैं। कमरा ऐसा चुनना है जहां किसी खिड़की या दरवाजे में झिरीं बनाने पर धूप कमरे में आ सके।
-- कमरे में किसी एक खिड़की या दरवाजे में झिरीं बनाकर धूप की एक पतली-सी किरण कमरे में आने देते हैं। अब जहां यह किरण पहुंच     रही है उस जगह कांच की गोल फ्लास्क हौले से रख देते हैं।

आप देखेंगे कि सूर्य की किरणें बर्तन में से होकर एक खास दिशा में निकलकर जमीन पर पड़ रही हैं। ज़मीन पर जहां ये किरणें टकरा रही हैं वहां एक इन्द्रधनुष बन जाता है।

यदि Sin क्या है यह आपको न मालूम हो तो भी कोई बात नहीं - इसे आप एक किनारे रख दीजिए। लेकिन बस एक बात याद रखिए कि किसी माध्यम का अपवर्तनांक किरणों की दिशा में हुए बदलाव पर निर्भर करता है। यदि किरणें हवा में से कांच में घूमती हैं तो उनकी दिशा में जितना बदलाव होता है वो पक्के तौर पर हवा से पानी में घुसने वाली किरणों की दिशा में हुए बदलाव से ज्यादा होगा। यानी कांच का अपवर्तनांक पानी से ज्यादा होगा। कांच का अपवर्तनांक लगभग 1.5 होता है इसलिए विविध किस्म के लेंस कांच के ही बनाए जाते हैं - क्योंकि कांच का काम ही है किरणों की दिशा में परिवर्तन करना। अपवर्तनांक का सिद्धांत और उससे जुड़े दो प्रयोग बॉक्स में दिए हैं उन्हें जरूर करके देखिए। स्नेल के अनुसार प्रकाश किरणें यदि हवा से हवा में चलती हैं तो किरणों की पहले वाली और बाद वाली दिशा समान ही रहेगी यानी हवा से हवा का अपवर्तनांक 1.0 होगा।

अलेक्जेंडर बैंड उर्फ काले पट्टे    
यहां पर हम ‘अलेक्जेंडर बैंड' के बारे में भी चर्चा कर सकते हैं। आप प्राथमिक और व्दितीय  इंद्रधनुष वाले चित्र को देखिए। चित्र में दिखाए अनुसार सूर्य की किरणें जब पानी की बूंद पर पड़ती हैं तो वे दो दिशाओं से ही बाहर निकल सकती हैं - ABCDF प्राथमिक किरण तथा ABCDEF व्दितीय किरण। इन दो दिशाओं की किरणों से 42 डिग्री और 51 डिग्री के कोण बनते हैं। पानी के विशिष्ट अपवर्तनांक के कारण 42 डिग्री और 51 डिग्री के बीच की दिशाओं में प्रकाश किरणें अपवर्तित नहीं हो सकतीं। इसीलिए इन दो इंद्रधनुषों के बीच का हिस्सा हमें काला दिखाई देता है। जिसे हम ‘अलेक्जेंडर बैंड' के नाम से जानते हैं। स्नेल के नियमों से यह पता चला कि पानी की गोल बूंदों व उनके विशेष अपवर्तनांक की वजह से इस तरह का इंद्रधनुष बनता है।

जब बारिश होती है तब लाखों की संख्या में पानी की बूंदें हवा में तैर रही होती हैं। प्रत्येक बूंद कांच के गोलाकार बर्तन की तरह सूर्य किरणों को अपवर्तित करके आप तक पहुंचाती है। बूंदों के इस सामूहिक योगदान की वजह से ही इंद्रधनुष की प्राथमिक और व्दितीय कमान दिखाई देती है।

इद्रधनुष के रंग   
अभी तक की गई चर्चा में हमने इंद्रधनुष का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यानी इंद्रधनुष के मोहक रंगों के बारे में कुछ भी बातचीत नहीं की। यदि इंद्रधनुष के सिर्फ काले या सफेद पट्टे आसमान में बनते तो शायद वे हमें इतना आकर्षित न करते। किस तरह बनते होंगे इंद्रधनुष के रंग?

यहां मुझे एक ब्रिटिश चित्रकार जॉन मिलाइस की याद आती है। मिलाइम एक प्रतिभावान चित्रकार था और अपनी युवावस्था में ही महारानी विक्टोरिया के दरबार में शाही चित्रकार के रूप में नियुक्त किया गया था। सन् 1856 में मिलाइस ने एक अंधी लड़की' शीर्षक से चित्र बनाया, जो बाद में काफी मशहूर हुआ। इस चित्र में अंधों की दुनिया और इंद्रधनुष केन्द्रीय विषय थे। इंद्रधनुष ने चित्रकारों को कितना प्रभावित किया यह इसका एक बेहतरीन उदाहरण है।

पीले रंग के सूर्य प्रकाश से इंद्रधनुष के सात रंग किस तरह बनते हैं यह बात 16वीं सदी के वैज्ञानिकों के लिए एक पहेली बनी हुई थी और इस पहेली को सुलझाने के लिए न्यूटन जैसे व्यक्ति की जरूरत थी। वैसे न्यूटन के बारे में आप थोड़ा-बहुत जानते ही होंगे। न्यूटन की लिखी किताब 'प्रिंसिपिया मैथेमेटिका' में उसने गति के नियम, गुरुत्वाकर्षण और वृताकार कक्षाओं से संबंधित नियम पेश किए। लेकिन न्यूटन की जबरदस्त कल्पना शक्ति के दर्शन उसकी दूसरी किताब 'ऑप्टिक्स' में होते हैं। न्यूटन को बचपन से ही प्रकाश को लेकर काफी उत्सुकता थी। ऑप्टिक्स में न्यूटन ने प्रकाश संबंधी परिकल्पनाएं, सिद्धांत और प्रयोग सुझाए हैं। जैसे - प्रकाश किरणें प्रकाश कणों से बनी होती हैं तथा एक सीधी रेखा में चलती हैं, सात रंगों को मिलाकर सफेद रंग बनता है, लेंस और आइने का इस्तेमाल करके दूरबीन कैसे बनाई जाती है, सड़क पर बिखरे तेल पर रोशनी पड़ने पर विविध रंग किस तरह दिखाई देते हैं? इसी तरह के कई अवलोकन न्यूटन ने किए और उनके पीछे निहित कारणों की जांचपड़ताल की। निश्चित ही न्यूटन का ध्यान इंद्रधनुष की ओर गया था। ऑप्टिक्स में न्यूटन ने इंद्रधनुष बनने के कारणों के बारे में लिखा है। ‘प्रकाश किरणें अलग-अलग रंगों के कणों से मिलकर बनी हैं' न्यूटन की यह परिकल्पना थोड़ी गलत साबित होने के बावजूद न्यूटन की किताब ऑप्टिक्स आज भी प्रासंगिक है।

न्यूटन ने सन् 1666 में एक प्रिज्म का इस्तेमाल करके यह साबित किया कि सूरज की रोशनी सात रंगों में विभाजित होती है। उसने यह दिखाने की कोशिश की कि यदि पानी का अपवर्तनांक बैंगनी किरणों के लिए ज्यादा हो और लाल रंग की किरणों के लिए कम हो तो बैंगनी किरणों के मार्ग में विचलन या बदलाव ज्यादा होगा, लाल किरणों के विचलन के मुकाबले। अर्थात पानी में घुसने पर अलग-अलग कोण से अपवर्तित होने के कारण विभिन्न किरणें एक-दूसरे से थोड़ी फर्क दिशा में गमन करती हैं।

दो अलग-अलग रंगों की किरणों की दिशा में विचलन कितना होगा यह इन किरणों के लिए माध्यम के अपवर्तनांक पर निर्भर करता है। न्यूटन ने प्रिज्म से बाहर आ रही किरणों में बैंगनी व लाल किरणों का अपवर्तनांक पता किया। पानी में लाल किरणों के लिए अपवर्तनांक 1.32 था तथा बैंगनी किरणों के लिए 1.336 इस तरह उसने इंद्रधनुष की मोटाई (यानी लाल रंग से बैंगनी रंग तक की मोटाई) दो डिग्री होती है यह पता लगाया। इस गणना के लिए न्यूटन ने सूर्य के आकार पर भी विचार किया था क्योंकि सूर्य किरणें किसी एक बिन्दु से आती प्रतीत नहीं होती, बल्कि आसमान में सूर्य की चकती लगभग आधा डिग्री का कोण बनाती है। इन सब तथ्यों का इस्तेमाल भी उसने अपनी गणनाओं के लिए किया।

अपवर्तन  
प्रकाश किरणें जब एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाती हैं तो उनकी दिशा में परिवर्तन होता है। इसे प्रकाश का अपवर्तन कहते हैं। आइने में होने वाले परावर्तन से तो हम सभी लोग बखूबी वाकिफ हैं लेकिन अपवर्तन थोड़ी फर्क चीज़ है। अपवर्तन की घटना से संबंधित आसानी से हो सकने वाले दो मजेदार प्रयोग यहां दे रहे हैं।

टूटी हुई पेंसिल
कांच के एक साफ गिलास में पानी भरो और एक पेंसिल लो। इस बात का ध्यान रखना होगा कि पेंसिल गिलास से लंबी हो। अव इस पेंसिल को पानी से भरे गिलास में रखते हैं। गिलास और पेंसिल को एक तरफ से देखिए। यह क्या! पेंसिल टूटी हुई क्यों दिख रही है? घबराइए नहीं पेंमिल मही सलामत है। बस प्रकाश किरणों ने थोड़ा मज़ाक किया है आपके साथ। पेंसिल से टकराकर आने वाली किरणे जब पानी में से बाहर निकलती हैं तो अपवर्तन के कारण उनकी दिशा में परिवर्तन होता है जिसकी वजह से पेंसिल का पानी के भीतर वाला हिस्सा पेंसिल के बाकी हिस्से से हटा हुआ दिखता है।

छिपा हुआ सिक्का
एक खाली कप या कटोरी लेते हैं। इम वर्तन के बीचों-बीच एक रुपए का सिक्का रखना होगा। उसके बाद इस बर्तन को किसी टेबल या तिपाई पर रखकर आप किसी ऐसी  जगह बैठ जाइए जहां में मिक्का न दिग्वता हो। या फिर ऐसा भी कर सकते हैं कि अगर बर्तन में रखा सिक्का दिख रहा हो तो थोड़ा-थोड़ा पीछे हटते जाइए जब तक कि सिक्का दिखना.. बंद न हो जाए। अब अपने किसी साथी से कहिए कि वह इस बर्तन को धीरे-धीरे पानी से भरना शुरू करे। जैसे-जैसे बर्तन में पानी भरता जाता है सिक्का आपको दिखना शुरू हो जाता है।
अब आप ही सोचिए कि जब खाली बर्तन में आपको सिक्का नहीं दिख रहा था तो पानी भरने के बाद वह कैसे दिखने लगा, जबकि आप भी जानते हैं कि सिक्का पानी में तैर नहीं रहा है।

खाली बर्तन में सिक्के से परावर्तित होने वाली किरणें बर्तन के किनारों से टकराकर वहीं रुक जाती थीं, वे हम तक नहीं पहुंच पा रही थीं। लेकिन पानी भरने के बाद पानी मे हवा में जाते वक्त किरणों की दिशा बदल जाती है जिसके फलस्वरूप मिक्का हमें दिखने लगता है। इसी तरह अपवर्तन की वजह से कम गहरे तालाब या स्वीमिंग पुल की तली ऊपर उठी हुई दिखती है।

सफेद प्रकाश सात रंगों में विभाजित होता है। यदि इन्हीं सात रंगों को फिर इकट्ठा किया जाए तो सफेद रंग बनना चाहिए। यह प्रयोग बॉक्स में दिया गया है इसे जरूर करके देखिए। इस प्रयोग में जिस सात रंगों वाली चकती का इस्तेमाल किया गया है उसे न्यूटन की रंगीन चकती कहते हैं।
जब अपवर्तन और रंगों का बनना इन दोनों बातों को जोड़कर देखते हैं। तो प्राथमिक और व्दितीय इंद्रधनुष के रंगों के बारे में काफी सारी बातें उजागर होती हैं। सूर्य की किरणें जब पानी की बूंदों में से दो बार परावर्तित होर्ती हैं तो लाल और बैंगनी रंग को क्रम भी उल्टा हो जाता है। पानी की बूंद में से अपवर्तन के बाद बाहर निकलने वाली किरणों से बने इंद्रधनुष में बैंगनी रंग बाहर की ओर तथा अंदर की ओर लाल रंग होता है। यानी व्दितीय इंद्रधनुष में रंगों का क्रम प्राथमिक इंद्रधनुष से उल्टा होता है। या दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि व्दितीय इंद्रधनुष प्राथमिक इंद्रधनुष का प्रतिबंब होता है। इसी तरह के अनेक प्रयोग न्यूटन ने किए थे। इस सब से न्यूटन की सोच-विचार की क्षमता का आभास मिलता है।

इंद्रधनुष की पहेली 1800 सालों में यहां तक तो सुलझ गई थी लेकिन इस बीच इंद्रधनुष के सूक्ष्मता और बारीकी से किए गए अवलोकनों से और भी कई मजेदार तथ्य सामने आ रहे थे; जैसे इंद्रधनुष से सटकर दिखाई देने वाली गुलाबी-हरी पट्टियां जो यदाकदा दिखाई देती हैं। ऐसा लग रहा था कि मानो प्रकृति के चमत्कार और मानवीय कल्पना शक्ति में एक जोरदार मुकाबला चल रहा हो। इन नए अवलोकनों के पीछे काम कर रहे कारणों की खोज के लिए कल्पना की एक लंबी छलांग लगानी पड़ी। पिछले कुछ दशकों में ही इन सब को लेकर समझ बन सकी है। ये कल्पनाएं समझने में कठिन हैं इसलिए इनके विस्तार में न जाते हुए कुछ मोटी-मोटी बातें ही करेंगे।

न्यूटन की सात रंगों वाली चकती  
सूर्य की किरणों को पानी की बूंद या प्रिज्म सात रंगों में विभाजित करते हैं यह तो आपको पता ही है। न्यूटन के अनुसार इन्हीं सात रंगों को यदि इकट्ठा किया जाए तो उनसे सफेद रंग तैयार होता है। एक सरल से प्रयोग से इस बात को परखा जा सकता है।
 -- इसके लिए सबसे पहले हमें सात रंगों की जरूरत होगीः लाल, नारंगी, पीला, हरा, नीला, गहरा नीला और बैंगनी।।
 -- अब गत्ते की एक गोलाकार चकती पर पेंसिल से सात समान हिस्से बनाइए।
 -- चकती पर हरेक हिस्से में एक रंग भरिए। इस प्रकार चकती के सातों हिस्सों पर एक-एक रंग आ गया।    
 -- अब चकती के बीचों-बीच कील से एक छेद करके कील फंसा लीजिए। और चकती को ज़ोरों से घुमाइए। चकती पर आपको सात रंग दिखते हैं क्या? ऐसा क्यों हुआ होगा, जरा सोचिए।

प्रकाश: कण है या तरंग  
न्यूटन का मानना था कि प्रकाश के सभी गुणधर्म, प्रकाश के अलग- अलग रंगों के कणों से उत्पन्न होते हैं। उदाहरण के लिए न्यूटन के अनुसार विविध रंगों के कण अलग-अलग गति से चलते हैं इसलिए उनका अपवर्तन भी अलग-अलग दिशाओं में होता है। लेकिन इस सिद्धांत के आधार पर न्यूटन प्रकाश के सभी गुणों की व्याख्या करने में असमर्थ था; उदाहरण के लिए यदि आप किसी कपड़े में से किसी जलते हुए बिजली के बल्ब को देखते हैं तो बल्ब बहुत सारे कोनों वाले तारे की तरह दिखता है। एक और उदाहरण दिया जा सकता है--- धूप में अपने हाथ की दो अंगुलियों को काफी पास-पास लाते हुए---उन्हें बिना सटाए---  इन अंगुलियों की छाया को देखिए। छाया में अंगुलियां सटी हुई दिखती हैं। ऐसी अनेक पहेलियों के जवाब न्यूटन के सिद्धांत से नहीं मिलते।

न्यूटन के ही समकालीन एक अन्य वैज्ञानिक हाइगेन का मत था कि प्रकाश मूल रूप से कणों से नहीं बल्कि तरंगों से बना होता है। प्रकाश के अलग-अलग रंग यानी अलग-अलग तरंग लंबाई की तरंगें। हाइगेन की परिकल्पना न्यूटन की परिकल्पना से काफी फर्क थी लेकिन प्रकाश का स्वरूप क्या है यह विवाद कैसे खत्म हो?
कई सालों तक की गई कोशिशों में मैक्सवेल, मैक्सप्लांक, आइंस्टीन जैसे कई वैज्ञानिकों के नाम शुमार हुए। तब कहीं जाकर सन् 1900 में यह बताया जा सका कि प्रकाश कण और तरंग दोनों रूपों में मौजूद होता है; यानी प्रकाश में कण और तरंग दोनों ही गुण हैं।
बीसवीं सदी की शुरुआत में यह परिकल्पना थोड़ी अटपटी लग रही थी लेकिन आज यह सर्वमान्य है। इंद्रधनुष के कई सुक्ष्म तथ्यों का अध्ययन तथा व्याख्या ऊपर बताई परिकल्पना के आधार पर की जा सकती है। लेकिन फिर भी यह एक शोध का विषय है इसलिए इसे फिलहाल यहीं रोकते हैं।
    
इन दो हजार सालों में विज्ञान ने, चित्रकारों ने, कवियों ने कहां-कहां तक कल्पना की उड़ान भरी है उसे देखिए। इन दो हजार सालों में इंसानी सोच और इस्तेमाल की जाने वाली टेक्नॉलॉजी में ज़बरदस्त बदलाव आया है लेकिन इन सबके बावजूद इन्द्रधनुष को लेकर लोगों में जो आकर्षण या कौतुहल था वह आज भी बरकरार है।
इन्द्रधनुष बारिश के दिनों में भी कब दिखाई देगा यह बता पाना संभव नहीं है इसलिए यदि कभी आपको इन्द्रधनुष दिखाई दे तो अपने कामों को थोड़ी देर के लिए दर किनार करके गौर से इन्द्रधनुष को देखिए क्योंकि हो सकता है आपको व्दितीय इन्द्रधनुष भी दिखाई दे जाए। और किस्मत आप पर मेहरबान हो तो ‘अलेक्जेंडर बैंड' दिख सकते हैं! यह प्रकृति को समझने का एक शानदार मौका है इसलिए ऐसा कोई भी मौका मत गंवाइए।


प्रदीप गोठोस्करः नेशनल सेंटर फॉर रेडियो एस्ट्रोनॉमी (एन. सी. आर. ए.) में कार्यरत हैं। मराठी संदर्भ के संपादन समूह के सदस्य हैं और विज्ञान लेखन में रुचि रखते हैं।
अनुवादः माधव केलकर। संदर्भ में कार्यरत।
यह लेख मराठी शैक्षणिक संदर्भ के अंक 2, अक्टूबर - नवंबर 1999 से लिया गया है। इंद्रधनुष के संबंध में एक और लेख शैक्षिक संदर्भ के अंक 16 मार्च - अप्रैल 1997 में प्रकाशित हुआ है।

इंद्रधनुष का विहंगम दृश्य: प्राथमिक व व्दितीय इंद्रधनुष किसी को कब और कहां दिखेंगे ? चित्र में खड़े व्यक्ति के पास वायुमंडल में विखरी पानी की गोल बूंदों में अपवर्तित होकर केवल वही किरणें पहुंचेगी जो 42 अंश का कोण बना रही हैं। इसीलिए उसे आकाश में इंद्रधनुष  दिखता है, जिसे हम प्राथमिक इंद्रधनुष कहते हैं। ऊपर वाली बूंदों से प्रकाश की किरणें अपवर्तित होकर इस व्यक्ति की दिशा में आती ही नहीं हैं इसलिए वहां पर रंग नहीं दिखते। ये हिस्सा अलेक्जेंडर बैंड कहलाता है, और कई बार थोड़ी सी कालिमा लिए होता है। कभी-कभी इम हिस्से के ऊपर की तरफ प्राथमिक इंद्रधनुष में काफी हल्का व्दितीय इंद्रधनुष दिखता है जो उन किरणों मे बनता है जो और ऊपर की बूंदों के अंदर दो बार टकराकर, फिर अपवर्तित होकर 51 अंश का कोण बनाती हुई दर्शक तक पहुंचती हैं।

एक और बात गौर करने लायक है कि हर दर्शक को जो इंद्रधनुष दिखता है वह उसका एकदम अपना इंद्रधनुष होता है क्योंकि वही' इंद्रधनुप और किसी को नहीं दिख सकता! वैसे तो यह बात देखने की हर क्रिया के लिए सही है; एक ही वस्तु को देखते हुए भी उस वस्तु से आप तक पहुंचने वाली और आपके दोस्त तक पहुंच रही किरणें तो अलग ही होती हैं। फिर भी जब इंद्रधनुष के संबंध में यह बात कहते हैं तो कुछ अलग ही रोमांच महसूस होता है!