जॉन होल्ट
अनुवाद : सुशील जोशी

मैं अपने एक दोस्त के घर की छत पर बैठा हूं। पास में लिज़ा है। सोलह महीने की होशियार और दिलेर बच्ची। उसने एक बहुत सी विविधितापूर्ण छद्म बोली ईजाद की है जिसे वह सारे समय इस्तेमाल करती है। कई ध्वनियां वह बार-बार बोलती है गोया उन ध्वनियों का कुछ अर्थ हो। उसे चीज़ों को छूना व हैण्डल करना अच्छा लगता है और वह बहुत हस्तकुशल है, वह पेंच व इसी तरह की छोटी चीज़ों को उनके लिए बनाए गए छेद में फिट कर सकती है। क्या यह संभव है कि छोटे बच्चे उतने अकुशल नहीं होते जितना हम सोचते हैं?

विज्ञान और मानव के इस दूषित नज़रिए की बात को यहीं छोड़ते हुए आइए अब कुछ बातें अच्छे विज्ञान की करें। खासकर अमेरिकी जीववैज्ञानिक मिलिसेन्ट वॉशबर्न शिन के काम पर गौर किया जाए, जिनकी एक किताब “बायोग्राफी ऑफ ए बेबी” (एक शिशु की जीवनी) हॉफटन मिफ्लिन ने सन् 1900 में प्रकाशित की थी और जिसे अर्नो प्रेस ने कुछ वर्ष पहले फिर से छापा था। यह शिशु उनकी (मिलिसेन्ट की) भतीजी थी। किताब में वह इस कदर सजीव हो उठी है कि यह विश्वास करना मुश्किल है कि आज वह एक शिशु या बच्ची नहीं बल्कि अस्सी बरस से ज़्यादा की महिला है। यह किताब उन्होंने क्यों व कैसे लिखी, इसके बारे में मिलिसेन्ट शिन का कहना है:

बच्चों को लेकर किए गए अधिकतर अध्ययनों का संबंध देर बचपन से यानी स्कूली वर्षों से होता है। प्राय- सभी अध्ययन सांख्यिकीय होते हैं और इनमें किसी एक बच्चे पर ध्यान नहीं दिया जाता। मेरा अपना अध्ययन शैशव से संबंधित रहा है और अध्ययन का तरीका जीवनीनुमा रहा, यानी शिशु के विकास को दिन-व-दिन देखना और रिकार्ड करना।

मुझसे अक्सर यह पूछा जाता है कि क्या इस तरह से प्राप्त परिणाम भ्रामक नहीं होंगे, क्योंकि हर बच्चा अन्य बच्चों से बहुत भिन्न होता है। बेशक, एक बच्चे के आधार पर सामान्य निष्कर्ष निकालने में बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। परन्तु कई बातों में सारे शिशु एक जैसे होते हैं और आपको यह अहसास आसानी से हो जाता है कि वे बातें कौन-सी हैं। शैशव मूलत: व्यापक, सामान्य क्षमताओं के विकास में गुजरता है; बचपन की तुलना में इस समय निजी भिन्नताएं कम महत्वपूर्ण होती हैं। और बाल अध्ययन के जीवनीनुमा तरीके का एक अतुनीय लाभ यह है कि इसमें विकास की प्रक्रिया उजागर होती है, एक मुकाम में से दूसरा मुकाम उभरता नज़र आता है और यह भी पता चलता है कि ये परिवर्तन किन चरणों के माध्यम से होते हैं। तुलनात्मक सांख्यिकी आंकड़ों से यह कदापि सम्भव नहीं हैं। मान लीजिए मैं यह पता लगा भी लूं कि एक हज़ार शिशु औसतन 46 हफ्ते और 2 दिन की उम्र में खड़े होना सीख जाते हैं। इससे मुझे मानव विकास के एक मुकाम के तौर पर खड़े होने के बारे में वे सारी अहम बातें उतनी पता नहीं चलेंगी, जिनती कि एक शिशु को अपने नन्हें तलुओं पर संतुलन बनाते ध्यान पूर्वक देखने से पता चलेगी।

मुझसे अक्सर यह पूछा जाता है कि मुझे शिशु जीवनी की रचना का काम कैसे सूझा। अत: इस सम्बंध में दो शब्द लाज़िमी हैं। मैंने यह काम किसी वैज्ञानिक मकसद से नहीं किया है क्योंकि मैं अपने आपको वैज्ञानिक महत्व के अवलोकन करने में सक्षम नहीं पाती। परन्तु मेरी बरसों की लालसा थी कि मुझे एक नवजात शिशु की अपाहिज बेबसी में से मानव क्षमताओं के आश्चर्यजनक विकास को देखने का अवसर मिले ताकि मैं विकास के इस मनमोहक नाटक को रोजाना, हर पल देख सकूं और अपने आनन्द व जानकारी के लिए इसे यथासम्भव समझने की कोशिश कर सकूं.....।

शिशु जीवनी को लेकर एक सवाल मुझसे सैंकड़ों बार पूछा गया है: “क्या इससे बच्चों का थोड़ा नुकसान नहीं होता? क्या वे नर्वस नहीं हो जाते? कहीं इसके कारण वे झेंपू तो नहीं हो जाते?”  पहले तो मुझे यह थोड़ी अजीव-सी शंका लगती थी - गोया लोग यह मान रहे हैं कि बच्चों का अवलोकन करने का मतलब यही है कि आप उन्हें कुछ करेंगे। परन्तु मुझे इस बात में कोई शक नहीं कि यदि इस काम को फूहड़ ढंग से किया जाए तो बच्चे का नुकसान हो सकता है। हज़ारों पालक साल हर रोज़ अपने बच्चों के सामने उनके बारे में किस्से सुनाते रहते हैं। यदि ऐसा कोई पालक बच्चों का अध्येता बन गया तो कहना मुश्किल है कि वह बच्चे के दिमाग का खुला विच्छेदन करने के लिए क्या कुछ नहीं कर डालेगा। वह उस नन्हें बच्चे से खुद (बच्चे) के बारे में तरह-तरह के सवाल पूछेगा और उसके विचारों और भावनाओं के साथ प्रयोग करेगा। परन्तु ऐसा अवलोकन बच्चे के लिए बुरा होने के साथ-साथ वैज्ञानिक दृष्टि से निरर्थक भी है: जिस बात का अवलोकन किया जा रहा है, यदि उसकी सादगी और सहजता खत्म हो जाए, तो उस अवलोकन का महत्व भी तत्काल समाप्त हो जाता है। यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि कोई भी सक्षम अवलोकन-कत्र्ता बच्चे के साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ नहीं करता।.....यदि मैं खिड़की में बैठकर नीचे खेलती अपनी भतीजी की बालसुलभ बातों को अपनी पेंसिल से कैद करती हूं - और बाद में यदि वह (भतीजी) बिगड़ जाती है, तो इसका दोषी मेरी खामोश नोटबुक को नहीं, किसी अन्य कारक को दिया जाना चाहिए।

1980 में एक किताब छपी थी - ग्लेण्डा बिसे (Glenda Bissex) की Gnys at Wrk (हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, कैम्ब्रिाज, 1980)। इसे पढ़कर जिस तरह मैं आनन्दित हुआ, मुझे यकीन है कि मिलिसेन्ट शिन को भी आनन्द मिलता। भूमिका के शुरू में ही ग्लेण्डा बिसे लिखती हैं:

यह एक बच्चे द्वारा, पांच वर्ष की उम्र में साक्षरता से शुरू करके ग्यारह वर्ष की उम्र तक, पढ़ना-लिखना सीखने का ब्यौरा है। जब मैंने अपने नन्हें बेटे के विकास के बारे में नोट्स लेना शुरू किए, तब मुझे नहीं पता था कि मैं ‘अनुसंधान’ के लिए ‘आंकड़े’ इकट्ठे कर रही हूं। मैं तो एक मां थी जिसे चीज़ें लिख डालने का चस्का था। हार्वर्ड में कोर्टनी कैस्डेन के बाल-भाषा पाठ्यक्रम के अपने अनुभव की वजह से मुझे अपने बेटे के भाषा संबंधी विकास में खास दिलचस्पी थी, और अंग्रेज़ी की एक शिक्षक होने के नाते हाल ही में मुझे पठन के बारे में पुनप्र्रशिक्षित किया गया था, इसलिए मैं बेटे को पढ़ना सीखते हुए देखना चाहती थी। जब पॉल ने हिज्जे (स्पेलिंग) करना शुरू किया तो मैं मुग्ध और अचंभित रह गई। कुछ समय बाद ही मुझे चाल्र्स रीड के उस अनुसंधान के बारे में पता चला जो उन्होंने बच्चों द्वारा अविकृत (कल्पित) हिज्जों पर किया था। उनके काम से उत्साहित होकर मैंने अपने नोट्स को ‘शोध सामग्री’ के रूप में देखना शुरू किया।

मैं उम्मीद करती हूं कि इस अध्ययन से, अन्य बच्चों पर ‘लागू’ किए जा सकने वाले सामान्य सिद्धांतों की बजाए, सीखने की क्रिया में रत व्यक्ति (बच्चे) को देखने की प्रेरणा प्राप्त होगी और यकीन मानिए इस क्रिया में भरपूर नाटकीयता व एक्शन नज़र आएगा।

शुरुआत में तो पॉल बिल्कुल बेखबर था और मेरे टेप रिकॉर्डर और नोटबुक के महत्व के अनभिज्ञ था। छह साल की उम्र में जब वह पहली बार सचेत हुआ, तो उसे मरी दिलचस्पी और तवज्जो को देखकर अच्छा लगा। सात साल की उम्र तक वह खुद अपनी प्रगति का प्रेक्षक बन चुका था। जब मैंने पहले साल की सामग्री का प्रारम्भिक विश्लेषण करने के लिए पॉल के शुरुआती लेखन को डेस्क पर फैलाया तो मेरे साथ उसे भी उन्हें देखने में मज़ा आता था और वह उन्हें पढ़ने की कोशिश करता था। अब उसे ये गुप्त संकेतों जैसे लगते थे और उनका खुलासा करना एक चुनौती। इनमें उसकी प्रगति साफ झलकती थी क्योंकि उसी ने इन्हें लिखा था। इससे उसे उपलब्धि का एक अहसास भी मिला। एक बार उसने फरमाया, “मैं देख सकता हूं कि उस समय मुझे अनुच्चरित (अबोले) का ज्ञान नहीं था।” इस समय तक पॉल ने यह देख लिया था कि मैंने हिज्जों के बारे में उसके द्वारा पूछा गया एक प्रश्न नोट किया है। मैंने उससे पूछा कि ऐसे नोट करने के बारे में उसे क्या लगता है। उसने कहा, “मैं जानता हूं कि जब मैं बड़ा हो जाऊंगा तब मैं देख सकूंगा कि जब मैं छोटा था तब मैंने क्या पूछा था।”

आठ साल की उम्र में वह इतना सचेत हो गया था कि साफ नज़र आने वाले अवलोकन कार्य और नोट लेने को लेकर ऐतराज़ करे। अब मैंने वैसा करना बन्द कर दिया। एक दिन जब मैं उसकी पाश्र्वता को लेकर कुछ अनौपचारिक अवलोकन कर रही थी, तब उसने मेरी नोट बुक पर नज़र डाली कि मैं क्या लिख रही हूं और कहा, “मैं जो भी करूं उसे तुम लिखो, तो मुझे अच्छा नहीं लगता।” पॉल अभी भी (अपने व्यक्तिगत लेखन के अलावा) अपना लिखा सब कुछ मुझे दिखाता था। मैं उस सबको कितना महत्व देती हूं यह वह जानता था। नौ साल की उम्र में तो वह इस अनुसंधान में भागीदार बन गया। उसकी भी दिलचस्पी यह सोचने में हो गई कि एक समय पर उसने जैसा लिखा पढ़ा था वैसा क्यों किया था। एक बार जब मैंने स्फुट रूप से यह अनुमान लगाया कि शुरूआत में वह ज़ोर से बोल-बोलकर इसलिए पढ़ता था कि वयस्कों की प्रतिक्रिया मिल सके और वे उसमें सुधार करें, तो उसकी दलील थी कि वह बोल-बोलकर इसलिए पढ़ता था क्योंकि उसे ध्वनि सुनने की ज़रूरत थी ताकि उसे पता रहे कि वे सही हैं या नहीं।

यह अध्ययन हमारे बीच एक-दूसरे के काम में दिलचस्पी और पॉल के शुरूआती बचपन व उसके विकास में एक साझा आनन्द का विशेष बन्धन बन गया है। मैं अपने बेटे में कुछ ऐसे गुणों को देख पाई हूं जो शायद इस अध्ययन की आंखों के बगैर कभी न देख पाती।

1960 में जब मैंने पहले-पहल लिज़ा के बारे में नोट्स रखना शुरू किया था, तो मैंने सोचा न था कि मैं आंकड़े इकट्ठे कर रहा हूं या अनुसंधान कर रहा हूं या कोई किताब लिखने की तैयारी कर रहा हूं। मैं तो एक मुग्ध व आनन्दित वयस्क था जिसे (श्रीमती बिसे की तरह) चीज़ों को लिखकर रखने का चस्का था। यह लिखना दोस्तों को पत्र के रूप में या खुद के लिए नोट्स के रूप में होता था, जिनकी नकल कभी-कभार मैं अपने दोस्तों को भेज देता था। मेरे मन में ऐसा कोई ख्याल नहीं था कि इन चिट्ठियों और नोट्स की किताब बनाऊंगा। दरअसल जब मेरे दोस्त पेशी ह्यूजेस ने पहली बार सुझाव दिया कि ऐसा हो सकता है तो मुझे यह बात नामुमकिन और बेतुकी लगी थी।

किशोरों व दस बर्षीय बच्चों के एक शिक्षक के रूप में तथा मेरी बहन और दोस्तों के कई बच्चों के मित्र के रूप में अपने अनुभव की बदौलत मुझे ऐसा लगने लगा था और मुझे उम्मीद थी कि बहुत छोटे बच्चों से मैं बच्चों के सीखने के बारे में कुछ रोचक व महत्वपूर्ण बातें सीख सकूंगा। उसी साल बसन्त ऋतु की बात है: जिस स्कूल मैं पांचवीं कक्षा को पढ़ाता था, वहां सुबह स्कूल शुरू होने से पहले का अधिक से अधिक समय मैं नर्सरी स्कूल के तीन वर्षीय बच्चों के साथ बिताया करता था। परन्तु लिज़ा तो और भी छोटी, सिर्फ डेढ़ साल की थी। इतने छोटे बच्चे के साथ इतना समय बिताने का मौका मुझे पहले कभी नहीं मिला था। लिहाज़ा वह जो कुछ भी करती उसमें मुझे बेहद दिलचस्पी थी। उसके हुनर, धैर्य, उद्यम, अकलमन्दी और संजीदगी को देखकर मेरा विस्मय व आनन्द हर रोज़ और बढ़ जाता। मैं उसे गौर से देखता तो उस नज़र से नहीं जैसे कोई सूक्ष्मदर्शी के नीचे रखे नमूने को देखता है। मैं उसे उसी भावना से देखता था जैसे हर गर्मी में हर रोज़ वादियों के पार बर्फ से ढके कोलेरेडो पर्वत को देखता हूं -

दिलचस्पी, आनन्द, उत्साह, विस्मय और अचरज की मिली-जुली भावना। मैं एक चमत्कार को देख रहा था और एक सीमित अर्थ में उसमें भागीदार भी था।

9 अगस्त, 1960  
मैं अपने एक दोस्त के घर की छत पर बैठा हूं। पास में लिज़ा है। सोलह महीने की होशियार और दिलेर बच्ची। उसने एक बहुत सी विविधितापूर्ण छद्म बोली ईजाद की है जिसे वह सारे समय इस्तेमाल करती है। कई ध्वनियां वह बार-बार बोलती है गोया उन ध्वनियों का कुछ अर्थ हो। उसे चीज़ों को छूना व हैण्डल करना अच्छा लगता है और वह बहुत हस्तकुशल है, वह पेंच व इसी तरह की छोटी चीज़ों को उनके लिए बनाए गए छेद में फिट कर सकती है। क्या यह संभव है कि छोटे बच्चे उतने अकुशल नहीं होते जितना हम सोचते हैं?

मेरी जेब में बॉल पॉइन्ट पेन लेना, उसका ढक्कन निकालना और फिर से लगाना लिज़ा का मनपसन्द खेल है। इसमें हुनर लगता है। वह इस खेल से कभी नहीं उबती। जैसे ही उसे मेरी जेब में पेन दिखता है, वह जता देती है कि पेन उसे चाहिए। आप उसे टरका भी नहीं सकते। वह बहुत जिद्दी है और यदि मैं झूठमूठ यह बहाना करूं कि मुझे समझ ही नहीं आया है कि उसे क्या चाहिए, तो वह हंगामा खड़ा कर देगी। जब पता हो कि मुझे पेन की ज़रूरत पड़ने वाली है तो एक मात्र कारगार चाल यह होती है कि मैं अपनी जेब में एक अतिरिक्त पेन छिपाकर रख लूं।

एक दिन यह पियानों बजा रही थी। दोनों हाथ जहां-तहां मार रही थी। उस मशीन से खेलते हुए और इतनी दिलचस्प आवाजें निकालकर वह बहुत खुश थी। मैं यह जानने को बहुत उत्सुक था कि क्या वे मेरी नकल करेगी। अत: मैंने अपनी तर्जनी उंगली को पियानो के कुंजीपटल पर इधर-से-उधर फिराया। उसने देखा और ठीक वैसा ही किया।

24 जुलाई, 1961 
आज सुबह लिज़ा ने झुनकर एक गुब्बारा उठाना चाहा। जब वह झुकी, वैसे ही दरवाज़े से हवा का झोंका आया जिसने गुब्बारे को फर्श पर आगे धकेल दिया लिज़ा न #ेउसे जाते देखा। जब वह रुक गया, तो वह उसके पास गई और फूंक मारी, गोया उसे और आगे सरकाना चाहती हो। मुझे अचरज हुआ। क्या इतने छोटे बच्चे, चीज़ों को हिलाने की हवा की क्षमता और फूंक मारकार चीज़ों को हिलाने की अपनी क्षमता के बीच कड़ी मेहनत जोड़ सकते है? लगता तो यही है।

यह मुझे उस किस्म के अमूर्त चिन्तन का एक उम्दा उदाहरण लगता है, जिसके बारे में कई लोग कहते हैं कि वैसे अमूर्त बच्चे नौ या दस वर्ष की उम्र के पहले कर ही नहीं सकते।

एक खेल, जिसे लगता है लगभग सभी बच्चे पसंद करते हैं, यह है कि आप उनके हाथ या उंगली पर फूंक मारें और अपने सिर को आजू-बाजू हिलाएं ताकि हवा की धार आगे-पीछे होती रहे। वे मुस्कराएंगे, और फिर थोड़ी देर बाद यह छानबीन शुरू कर देंगे कि यह रहस्यमयी चीज़ आ कहां से रही है और अपनी उंगली आपके मुंह में डालने की कोशिश करेंगे। उन्हें यह भी बहुत मजेदार लगता है कि आप पंखे या पुष्टे को झूलाकर भी वही असर पैदा कर सकते हैं।

बाद में लिज़ा ‘रिंग-अराउण्ड-ए-रोज़ी’ का अपना निजी संस्करण गुनगुनाते हुए गुब्बारे के इर्द-गिर्द चक्कर काटती रही। गाते हुए वह गीत को बदती गई कहती, गाती या करती है,, वह इसी तरह होता है, शुरू किसी चीज़ से होती है और धीरे-धीरे बदलकर कोई और चीज़ बन जाती है। कोई संगीतकार इसे किसी ‘थीम’ को विस्तार देना कहेगा।

मैं कई और छोटे बच्चों को जानता हूं जिन्हें अंतहीन कहानियां सुनाना और अंतहीन गीत गाना अच्छा लगता है। कभी-कभी गीत, उन्होंने जो किया या जो करना चाहेंगे, उसके बारे में होता है। एक वर्षीय लड़के की सात वर्षीय बहन स्कूल जाती है। उसकी मां ने मुझे बताया कि एक दिन उस लड़के ने अपने कमरे में अकेले ही गाना शुरू कर दिया। “काश, मेरी एक बहन होती, जो न जाती स्कूल और मैं जो कहता वह करती.....।” गीत प्राय: निरर्थक होता है, बस शब्द और निरर्थक शब्दांश; कभी निरर्थक और सार्थक का मिश्रण होता है, बस शब्द और निरर्थक शब्दांश; कभी निरर्थक और सार्थक का मिश्रण होता है। कई बच्चे वयस्कों के साथ एक खेल खेलना पसन्द करते हैं जिसमें बारी-बारी से गीत में कुछ जोड़ना होता है। उतना सरल नहीं है, जितना लगता है। शब्द और संगीत, दोनों एक साथ गढ़ना कल्पना पर काफी दबाव डालता है और जो कुछ बन पाता है वह प्राय: बच्चे के लिए से बेहतर नहीं होता - यकीन मानिए उसके समान ही होता है।

ये उम्दा खेल हैं और अच्छा हो यदि स्कूल व घर दोनों जगह हम इन्हें बढ़ावा दें, इन पर ध्यान दें, इनमें शरीक हों।

यह भी सही है कि पहली बार स्कूल जाने वाले बच्चे खूब गाते हैं, परन्तु वे सब एक से गीत गाते हैं जो उन्हें शिक्षक ने सिखाए हैं और मकसद उन्हें ‘सही-सही’ गाने का होता है, मकसद कुछ नया गढ़ने का नहीं होता। कुछ बच्चों को यह अच्छा लगता है और वे इसमें प्रवीण हो जाते हैं, अन्य बच्चों के लिए यह एक और ऐसी चीज़ हो जाती है जिसे स्कूल में करना पड़ता है - जबरिया मज़ा। वैसे भी शुरूआती स्कूल के अधिकांश हिस्से को यही नाम दिया जा सकता है। इनमें से अधिकतर बच्चे गाना नहीं सीख पाते, जो कि अनावश्यक बर्बादी ही है। कार्ल ओर्फ तथा उसकी शिक्षण विधि का इस्तेमाल करने वाले अन्य लोगों के अनुभव से पता चलता है कि जब बच्चों को अपने मन से कुछ करने, अपने गीत, लय और धुन बनाने के अवसर दिए जाते हैं तब उनका शब्दिक व संगीतात्मक विकास बहुत तेज़ी से होता है।

25 जुलाई, 1961  
बैठक के कमरे से उभरता कोलाहल इस बात की घोषणा है कि लिज़ा और निजी सम्मपत्ति की धारणा के बीच फिर से टकराव हुआ है। वह जो भी देखे, उसमें उसकी रुचि होती है। वह उसकी छानबीन करना चाहेगी, उसे हैण्डल करना चाहेगी, उसकी जांच करना चाहेगी और यदि संभव हो तो उसका पुर्ज़ा-पुर्जा अलग करना चाहेगी। स्वाभाविक हे कि उसे इस बात का कोई अहसास नहीं है  कि कौन-सी चीज़ कीमती है या नाजुक है या खतरनाक है। मुझे इलेक्ट्रिक टाइपराइटर का प्लग लगाते देखने के बाद यह भी प्लग लगाना चाहती थी। जब  उसे कहा गया कि वह बिजली के सॉकेट के साथ छेड़छाड़ न करे तो उसने अपना विरोध काफी उग्र रूप में ज़ाहिर किया। एक दिन उसने गैस चूल्हे के सारे बर्नर चालू कर दिए। खुशकिस्मती से पायलट लाइट की बदौलत सारे बर्नर जलने लगे। लिज़ा को यह सुनकर कतई अच्छा नहीं लगा कि वह चूल्हे के पास न फटके। उसके लिए यह समझ पाना नामुमकिन है कि जिस चीज़ को सब लोग हाथ लगाते हैं, उसे वह क्यों नहीं छू सकती। जब वह कोई चीज़ उठाती है, तो उसे वापस अपनी जगह रखने की कभी नहीं सोचती, चाहे उसे याद हो कि वह चीज़ उसने कहां से उठाई थी।

इस समस्या का कोई अच्छा या आसान जवाब नहीं है। रोज़ाना हमें यह कहते सुना जा सकता है कि ‘नहीं, नहीं उसे मत छूना, वह बहुत गरम है, बहुत नुकीला है, चोट लग जाएगी, टूट जाएगा, मेरा है, मुझे इसकी ज़रूरत है।’ हर बार स्वाभाविक रूप से उसे लगता है कि अपने आसपास की दुनिया का ओर-छोर समझने के लिए उसके हर भाग की छानबीन करने के उसके अधिकार व ज़रूरत पर हम हमला कर रहे हैं। हर कोई इसे छूता है, मैं क्यों नहीं छू सकती? ज़ाहिर है कि यदि इस तरह का सलूक बहुत ज़्यादा किया जाए तो बच्चे की जिज्ञासा खत्म हो सकती है। शायद उसे लगने लगे कि यह दुनिया ऐसी दिलचस्प चीज़ों से नहीं बनी है जिनकी छानबीन की जाए या जिनके बारे में सोचा जाए, बल्कि यह दुनिया अदृश्य खतरों और परेशानी में फंसने से ही अटी पड़ी है।

इस समस्या को सुलझाने के लिए हम लिज़ा को उसके अपने खिलौने देकर उससे कहते हैं वह बाकी चीज़ों को बख्श दे। यह समाधान बहुत कारगर नहीं है। अव्वल तो ये खिलौने उतने दिलचस्प नहीं है। और दूसरी बात यह है कि चाहकर भी वह यह याद नहीं रख पाती कि किस चीज़ को वह छू सकती है और किसे नहीं। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बड़े लोग घर की विभिन्न चीज़ों को इस्तेमाल करते रहते हैं और इसी वजह से ये चीज़ें इतनी दिलचस्प हो जाती हैं। अन्य बच्चों की तरह, लिज़ा भी बड़े लोगों के समान बनना चाहती है और वह सब करना चाहती है जो बड़े लोग करते हैं। जब प्लेंटे धोई जाती हैं, तो वह मांग करती है कि उसकी मदद ली जाए। जब खाना पकाया जाता है तो वह इसे बनाने में मदद करना चाहती है। और उसे झूठ-मूठ के किसी काम में लगाकर नहीं टाला जा सकता।

यदि हम उस चीज़ के बारे में चिंता करने की इतनी ज़रूरत महसूस करते हैं जिसे कुछ लोग ‘स्वप्रेरणा’ कहते हैं, तो इस बात को महसूस न करना बहुत मुश्किल है कि हम जो कुछ स्कूल में करते हैं वह कहीं बहुत गलत है। एक बच्चे में इससे बढ़कर कोई आकांक्षा नहीं होती कि वह इस दुनिया का सिर-पैर समझ सके, इसमें मुक्त विचरण कर सके और वह सुब कर सके जो बड़े लोग करते हैं। समझने व दक्षता हासिल करने के पीछे यह एक बड़ी चालक शक्ति है। हम इसका उपयोग क्यों नहीं कर सकते? हम यकीनन ऐसे कई तरीके खोज सकते हैं जिनके माध्यम से बच्चे अन्य लोगों को वे हुनर के बारे में अपनाना मुश्किल होगा, जैसे अंकगणित के कुछ ‘अनिवार्य’ हुनर। आखिर वास्तविक ज़िन्दगी में कौन एक भिन्न का भाग देता है?

और घर हमें ऐसी सारी कीमती व खरतनाक चीज़ें बच्चों की पहुंच से दूर और हो सके तो नज़र से दूर रखना चाहिए। साथ ही बेहतर होगा कि हम ढेरों सस्ती टिकाऊ चीज़ें घर पर रखें जिन्हें बच्चे छू सकें, इस्तेमाल कर सकें, हमें इनकी टूट-फूट की चिन्ता न हो। कुछ साधारण घरेलू चीज़ें बच्चों के लिए अच्छा तोहफा हो सकती हैं: अण्डा फेंटने का औज़ार, कड़ाही, फ्लेशलाइट। जो परिवार आगे चलकर अपने बच्चे की शिक्षा पर दसियों हज़ार डॉलर खर्च करने वाला आखिर वह इतनी-सी बात पर क्यों कर परेशान हो और बच्चे को भी परेशान करे कि उसने पच्चीस सेन्ट की कोई चीज़ बर्बाद कर दी है। मैंने अक्सर देखा है कि दवाई की दुकानों और सुपर मार्केट में जब बच्चे चीज़ों को छूते हैं, महसूस करते हैं, उठाते हैं तो लोग खूब परेशान हो जाते हैं जबकि वहां ऐसी लगभग कोई चीज़ नहीं होती तो बच्चे तोड़ सकें, होती भी है तो ऐसी चीज़ों की कीमत बमुश्किल एकाध डॉलर होती है। बच्चे ऐसा क्यों न करें? इसी तरह तो वे उनके बारे में सीखते हैं। यदि वे चीज़ों को उनकी निर्धारित जगह से हटाएं, तो आसानी से उन्हें वापस रखा जा सकता है।

वैसे भी यह मानकर चलना शायद गलत है कि छोटे बच्चे जिस किसी चीज़ को छुएंगे, उसे नष्ट कर देंगे और इसलिए उन्हें ऐसी किसी चीज़ को नहीं छूने देना चाहिए जो उनकी नहीं है। ऐसा करने से उनकी जिज्ञासा और आत्मविश्वास को ठेस पहुंचती है। इसके अलावा वे अपनी चीज़ों को लेकर ज़्यादा ही अधिकार जताने लगते हैं उन्हें आसानी से बांटने के लिए तैयार नहीं होते। हो जाते हैं। मेरा ख्याल है कि हम उन्हें ये सिखाने की कोशिश करें कि सम्पत्ति का आद करने का मतलब यह नहीं है कि जो चीज़ तुम्हारी नहीं है उसे कभी न छुओ। इसका मतलब यह है कि चीज़ों को सावधानी से संभाला जाए, उनका उपयोग निर्धारित तरह से किया जाए और यथास्थान वापस रखा जाए। बच्चे ये बातें बखूबी सीख सकते हैं। वे हमारी कल्पना से कम विनाशकारी और बेढंगे होते हैं। और चीज़ों को हैण्डल करने का सही तरीका बच्चे तभी सीख पाएंगे जब वे उन्हें कीमती योगदान हैं। इनमें से एक यह है कि उन्होंने यह दिखा दिया कि बच्चों को अंग संचालन सिखाया जा सकता है - बर्फ मौज-मस्ती के तौर पर नहीं बल्कि प्रवीणता से, सटीकता से और आहिस्ता से।


(अनुवाद:सुशील जोशी—विज्ञान एवं पर्यावरण विषयों पर सतत लेखन, होशंगाबाद विज्ञान कार्यक्रम में सक्रिय)

‘हाउ चिलड्रन लर्न’ का हिंदी अनुवाद ‘बच्चे कैसे सीखते हैं' शीघ्र ही एकलव्य द्वारा प्रकाशित होने वाला है।


घुमक्कड़ शिक्षाविद

जॉन होल्ट दुनिया के जाने माने शिक्षाविद थे। होल्ट का देहांत 14 सितम्बर 1985 को हुआ। 1982 में उनकी बार्इं जांघ में ट्यूमर हुआ जिसका इलाज होल्ट ने स्वयं करने की ठानी आधुनिक चिकित्सा प्रणाली और संस्थाओं पर से उनका विश्वास उठ चुका था। कैंसर के इलाज के लिए उन्होंने बहुत अधिक मात्रा में विटामिन-सी खाना शुरू किया। 1984 में ट्यूमर को सर्जरी से निकालना पड़ा।

होल्ट की मृत्यु के बाद उनके लिखे लगभग 90 पत्रों का एक संलकन सिलेक्टड लेटर्स ऑफ जॉन होल्ट: ए लाइफ वर्थ लिविंग के नाम से छपा। पत्र लिखने से होल्ट माहिर थे और अपने जीवन काल में ही उन्होंने हज़ारों पत्र लिखे होगे। इन पत्रों में हमें जॉन होल्ट के जीवन के तमाम पहलुओं के बारे में