अजय शर्मा

जब हम बिजली के गिरने या बहने की बात करते हैं तो मन में यह विचार उभरता है कि - हो न हो जिस तरह पानी के बहने से हमारा तात्पर्य पानी के कणों का बहना है, उसी तरह बिजली के कण भी होते होंगे। यह बात थोड़ी सही है, और थोड़ी गलत। आइए देखें कैसे।

जनाव बड़ी अजीब शै है ये बिजली। आसमान से गिरे तो कहर बरपा दे, और तारों में बहे तो बन जाए ढेर सारी सुख-सुविधाओं का सवाब। बस समझ लीजिए पानी की ही तरह है इसकी यह फितरत। हिसाब से मिले तो सुभान अल्लाह, और बेहिसाब मिले तो हाय अल्लाह। वैसे समानताएं यहीं खत्म नहीं होतीं। मसलन जब हम बिजली के गिरने या बहने की बात करने हैं तो मन में यह विचार उभरता है कि - हो न हो, जिस तरह पानी के बहने से हमारा तात्पर्य पानी के कणों का बहना है, उसी तरह बिजली के कण भी होते होंगे जो आकाश से वज्र के रूप में गिरते हैं और तारों में विद्युत बनकर बहते हैं!

यह बात थोड़ी सही है, और थोड़ी गलत।गलत इसलिए कि जिस तरह  पानी के कण (H2O अणु) होते हैं, हां, इतना ज़रूर है कि एक खास तरह के कणें के प्रवाह को ही बिजली या विद्युत का बहना कहा जाता है। ये वो कण हैं जिनमें एक विशेष गुणधर्म होता है - आवेश। महत्व की दृष्टि से देखा जाए तो सचमुच कमाल का है यह गुणधर्म। बस समझ लीजिए इतना महत्वपूर्ण कि आवेशित कणों के बगैर सृष्टि की कल्पना करना शायद वैज्ञानिक गल्प कथाओं के भी परे होगा। अब आप सोचेंगे कि भई ऐसा क्यों?

दरअसल, बात ऐसी है कि पूरे ब्राह्यांड में पदार्थ एक दूसरे से मात्र चार (जी हां, सिर्फ चार) किस्म के मूलभूत बलों के माध्यम से ही परस्पर क्रिया करता है। ये हैं - गुरुत्व बल, विद्युत बल और दो किस्म के नाभिकीय बल - जिन्हें ‘स्ट्रांग’ और ‘वीक’ इंटरएक्शन भी कहते हैं। आवेश उनमें से एक बल, विद्युत बल को जन्म देता है। तो आखिर हुआ न आवेश एक ‘स्पेशल’ गुणधर्म? अब चूंकि विद्युत प्रक्रियाओं में आवेशित कण एक दूसरे से परस्पर क्रिया इसी बल द्वारा करते हैं, क्यों न हम अभी थोड़ी-सी चर्चा विद्युत बल की ही कर लें।

विद्युत बल की विशेषताओं पर जब हम नज़र डालते हैं, तो सबसे पहले दो खास बातें उभरकर आती हैं। पहली, यह एक अच्छा-खासा शक्तिशाली बल है। मसलन, आप इसे ज़रा भी गप्प नहीं मानिएगा अगर मैं कहूं कि यह बल गुरुत्व बल से सिर्फ 10,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,000 (1042) गुना ज़्यादा शक्तिशाली है! यह बल समान रूप से आवेशित कणों या पिंडों के बीच, एक विकर्षण बल के रूप में मौजूद रहता है; और आसमान रूप से आवेशित कणों के बीच एक आकर्षण बल की शक्ल में। अब आप पूछेंगे कि कणों के समान या असमान रूप से आवेशित होने का मतलब?

दरअसल बात यह है कि विद्युत आवेश दो प्रकार का होता है - धनात्मक और ऋणात्मक। दो धनात्मक (या दो ऋणात्मक) रूप से आवेशित पिंडों के बीच विद्युत विकर्षण होगा पर एक धनात्मक तथा एक ऋणात्मक पिंड के बीच विद्युत आकर्षण।


*विद्युत आवेश की किस्मों के नाम ‘धनात्मक’ या ‘ऋणात्मक’ रखने के पीछे कोई खास कारण नहीं है। बस बेंजामिन फ्रेंकलिन को यही नाम पसंद आए। तब से अब तक किसी को ऐसा कोई कारण नहीं दिखा कि नाम बदलना ज़रूरी लगा हो।


आकर्षण - विकर्षण  
यहां पर सवाल यह उठता है कि किसी आवेशित वस्तु में आखिर ऐसी क्या विशेषता होती है जो उसके आवेश का सबब बन जाती है। इस सवाल को समझने के लिए आइए किसी भी पदार्थ की सूक्ष्म संरचना पर गौर करते हैं। मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि प्रकृति में हरेक पदार्थ धनात्मक रूप से आवेशित प्रोटॉनों और ऋणात्मक आवेश धारण किए इलेक्ट्रॉनों के ‘मिश्रण’ से निर्मित है। ये कण एक-दूसरे को विद्युत बलों का संतुलन इतना सही और सटीक है कि अगर आप किसी के बगल में खड़े हैं तो तनिक भी आकर्षण या विकर्षण महसूस नहीं करेंगे। (कम-से-कम विद्युतजनित तो नहीं!) यानी उदासीन वस्तुओं में मौजूद इलेक्ट्रॉनों या प्रटॉनों द्वारा लगाया जाने वाला कुल विद्युत बल शून्य ही होगा।

पर मज़े की बात यह है कि सभी पिंडों में यह बल हमेशा संतुलित नहीं रहता। प्राकृतिक कारणों से या हमारे हस्तक्षेप द्वारा किसी वस्तु में यह संतुलन बिगड़ सकता है। संतुलन बिगड़ने के दो कारण हो सकते हैं। प्रथम, उस वस्तु में धनात्मक प्रोट्रॉनों की कुल संख्या, ऋणात्मक इलेक्ट्रॉनों की कुल संख्या से कम या ज़्यादा हो जाए। दूसरा, प्रोट्रॉनों और इलेक्ट्रॉनों की संख्या बराबर तो हो पर वस्तु में उनका वितरण असमान हो। इन परिस्थितियों में किन्हीं भी ऐसे दो पिंडों के बीच विद्युत बल लग रहा होगा, जो प्रयोगों से अनुभव किया जा सकता है।

यानी हम कह सकते हैं कि किसी वस्तु में आवेश उसके प्रोट्रॉनों और इलेक्ट्रॉनों के असंतुलन के कारण ही पैदा होता है। प्रोट्रॉनों और इलेक्ट्रॉनों का आवेश बराबर किन्तु विपरीत प्रकृति का है - प्रोट्रॉन का धनात्मक और इलेक्ट्रॉन का ऋणात्मक। अब अगर किसी वस्तु में (या उसके किसी हिस्से में) इलेक्ट्रॉनों की संख्या प्रोटॉनों की संख्या से ज़्यादा है तो उस वस्तु को (या उस हिस्से को) ऋणात्मक रूप से आवेशित कहेंगे। और यदि इलेक्ट्रॉनों की संख्या प्रोट्रॉनों से कम है तो उस वस्तु का (या उस हिस्से का) आवेश धनात्मक होगा।

इस संदर्भ में एक बात यह भी है कि अगर हम क्वार्क। नाम के कणों को एक अपवाद के रूप में मान लें तो किसी भी वस्तु में न तो एक इलेक्ट्रॉन से कम ऋणात्मक आवेश हो सकता है, और न ही एक प्रोट्रॉन से कम धनात्मक आवेश। यानी ये दोनों कण आवेश की सबसे छोटी इकाइयां कहे जा सकते हैं। चलिए हमने यह तो समझ लिया कि किसी वस्तु के आवेशित होने से हमारा तात्पर्य क्या है। पर बात अभी भी अधूरी ही है। अभी यह जानना बाकी है कि कोई वस्तुत आवेशित कैसे हो जाती है। किसी पदार्थ के आवेशित होने की प्रक्रिया को आवेशन कहते हैं। तीन प्रकार से हो सकती है यह प्रक्रिया:


*क्वार्क: अब ऐसा माना जाने लगा कि प्रकृति के कई मूलभूत कण जैसे प्रोटॉन और न्यूट्रॉन - और भी छोटे आवेशित कणों से निर्मित हैं। इन सूक्ष्मतम कणों को क्वार्क कहते हैं। इनके आवेश का मान इलेक्ट्रॉन के आवेश के मान से 1/3 या 2/3 माना जाता है।


1. घर्षण द्वारा आवेशन  
दो चीज़ों को आपस में रगड़ने से  (यानी घर्षण से) उत्पन्न विद्युत प्रभावों पर आपकी नज़र कभी-न-कभी गई ही होगी। मसलन, जब हम सूखे बालों को प्लास्टिक के कंघे से संवारते हैं तो अक्सर चट-चट की आवाज़ सुनाई देती है और बाल कंघे की और आकर्षित होने लगते हैं। और रात को स्वेटर उतारते वक्त ऐसी ही आवाज़ सुनने और इक्के-दुक्के स्पार्क उड़ते देखने का अनुभव भी आपको हुआ ही होगा। ये दोनों घर्षण द्वारा आवेशन के उदाहरण हैं।

इस प्रक्रिया में इलेक्ट्रॉन, घर्षण के कारण, एक वस्तु से दूसरी वस्तु में पहुंच जाते हैं। फलस्वरूप दोनों वस्तुओं में इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन का संतुलन बिगड़ जाता है। यानी जिस पदार्थ से इलेक्ट्रॉन निकलते हैं, उसमें इलेक्ट्रॉन की संख्या प्रोटॉन की संख्या से कम हो जाती है, और इस कारण उसका कुल आवेश धनात्मक हो जाता है। दूसरा पदार्थ, जो इलेक्ट्रॉन ग्रहण करता है, ऋणात्मक रूप से आवेशित हो जाता है। अब ऐसी परिस्थिति में जब विपरीत रूप से आवेशित वस्तुएं पास-पास हों, तो उनके बीच विद्युत आकर्षण होना स्वाभाविक ही है।

इस जानकारी के आधार पर आइए अब हम कंघे और बाल के उदाहरण को ज़रा और बारीकी से देखें। प्लास्टिक के कंघे से सूखे बालों को संवारने के दौरान बालों और कंघे के बीच घर्षण होता है। घर्षण के कारण कंघे के परमाणु, बालों के परमाणु के नज़दीक आ जाते हैं। अब चूंकि परमाणुओं के बनिस्बत इलेक्ट्रॉनों को अपने में बांधे रखने की ज़्यादा शक्ति है, इलेक्ट्रॉन बालों के परमाणुओं से टूटकर कंघे के परमाणुओं के साथ बंध जाते हैं। फलस्वरूप कंघे का कुल आवेश ऋणात्मक और बालों का धनात्मक हो जाता है और दोनों के बीच जन्म लेता है - विद्युत आकर्षण।


न सृजन, न विनाश

घर्षण से आवेशन की चर्चा के दौरान यह बात सामने आती है कि इलेक्ट्रॉनों का न तो सृजन होता है और न ही उनका अस्तित्व कभी खत्म होता है। वो तो बस एक पदार्थ से स्थानांतरित होते हैं। अर्थात आवेश संरक्षित रहता है। पर आवेश का संरक्षण केवल इन उदाहरणों तक ही सीमित नहीं है। हरेक घटना या प्रक्रिया में, चाहे वह बड़े पैमाने की हो या परमाणुओं के स्तर की, कुल आवेश हमेशा संरक्षित ही पाया गया है। विज्ञान जगत के पास अभी तक कोई ऐसा उदाहरण नहीं है, जिसमें आवेश का सृजन या विनाश होता है। इस रोचक तथ्य ने एक नियम का दर्जा पाया है - आवेश संरक्षण नियम। महत्व की दृष्टि से, यह नियम भौतिकी में ‘ऊर्जा संरक्षण’ और ‘संवेग संरक्षण’ के नियमों के समकक्ष माना गया है।


2. संपर्क द्वारा आवेशन  
एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में इलेक्ट्रॉनों के स्थानांतरण के लिए घर्षण का होना ज़रूरी नहीं। एक पदार्थ को दूसरे से मात्र छूने भर से भी इलेक्ट्रॉन इधर-उधर आ-जा सकते हैं। इस तरीके को संपर्क द्वारा आवेशन कहते हैं। पर इसके लिए दोनों वस्तुओं में से कम-से-कम एक का आवेशित होना ज़रूरी है। जैसे एक आवेशित छड़ को अगर हम एक उदासीन वस्तु से संपर्क कराते हैं तो कुछ आवेश उदासीन में उतर आएगा और उदासीन वस्तु आवेशित हो जाएगी।

क्यों खड़े बाल: एक अत्यंत आवेशत गोले को छूने भर से बालिका आवेशित हो जाती है। उसके बालों में एक-सा आवेश आ जाने से वे एक दूसरे को दूर धकेलने की कोशिश करते हैं। इसी वजह से वे सेही के खडे हुए बालों की तरह दिखाई दे रहे हैं।

क्यों खड़े बाल : एक अत्यंत आवेशित गोले को छूने भर से बालिका आवेशित हो जाती है। उसके बालों में एक-सा आवेश आ जाने से वे एक-दूसरे को दूर धकेलने की कोशिश करते हैं। इसी वजह से वे सेही के खड़े हुये बालों की तरह दिखाई देते हैं। 

3. प्रेरण द्वारा आवेशन  
किसी पदार्थ को आवेशित करने का एक सरल तरीका और है। वह है प्रेरण द्वारा। इस प्रक्रिया में एक आवेशित वस्तु के विद्युतीय प्रभाव के कारण उसके नज़दीक की उदासीन वस्तु के इलेक्ट्रॉनों का संतुलन बिगड़ जाता है। नतीजतन वह उदासीन वस्तु अस्थाई रूप से आवेशित हो जाती है। इस विधि को बेहतर समझने के लिए आइए हम चित्र में दिए गए उदासीन सुचालक गोले पर गौर करते हैं। इस गोले को एक कुचालक धागे से लटकाया गया है।

अब जब एक ऋणात्मक रूप से आवेशित छड़ इस गोले के समीप लाई जाती है तो विकर्षण के कारण गोले की सतह के चालक इलेक्ट्रॉन छड़ की विपरीत दिशा में इकट्ठा हो जाते हैं। इसके कारण छड़ के पास वाली गोले की सतह धनात्मक रूप से आवेशित हो जाती है और विपरीत सतह ऋणात्मक रूप से। अब धनात्मक आवेश वाली सतह गोले को छड़ की तरफ आकर्षित करती है और ऋणात्मक आवेश वाली सतह गोले को छड़ से दूर ढकेलती है। कुलंब के नियम के अनुसार दूरी बढ़ने पर विद्युत बल घटता है। इसलिए छड़ के पास वाली गोले की सतह और छड़ के बीच का विद्युत विकर्षण से ज़यादा होगा। परिणामस्वरूप गोला छड़ की ओर झूल जाएगा।

प्रेरण द्वारा आवेशन : धातु का उदासीन सुचालक गोला जिस पर धनात्मक और ऋणात्मक आवेश समान रूप से बिखरे हुए हैं। ऋणात्मक रूप से आवेशित छड़ उसके पास लाने से विकर्षण के कारण गोले की सतह के इलेक्ट्रॉन छड़ की विपरीत दिशा में इकट्ठे हो जाते हैं। इस वजह से छड़ के पास वाली गोले की सतह धनात्मक रूप से आवेशित हो जाती है और धातु का गोला छड़ की तरफ खिंच जाता है।  

आवेशन की प्रकिया को समझने के बाद हम आते हैं अपने किस्से के अंतिम पड़ाव पर1 हमने बात शुरू की थी बिजली से1 उसको समझने की कोशिश में हमारा परिचय हुआ आवेश, विद्युत बल और आवेशन की महत्वपूर्ण अवधारणाओं से। अंत में फिर से वज्रपात पर लौट आते हैं - पर इस बार एक बिल्कुल ही फर्क संदर्भ में।

वज्रपात की कीमत  
अगर मैं आपसे वज्रपात की कीमत आंकने के लिए कहूं तो? सवाल थोड़ा अटपटा है न! पर आज के उपभोक्तावादी युग में जब धीर-धीरे सभी चीज़ें बिकाऊ होती जा रही है वज्रपात की कीमत आंकना भी शायद निरर्थक नहीं हैं। - वज्रपात के लिए विद्युत ऊर्जा की आवश्यक मात्रा पता करना और यह हिसाब लगाना कि इतनी ही बिजली यदि हम अपने घर में इस्तेमाल करें तो कितना पैसा देना होगा। आगे पढ़ने से पहले आप खुद मन में अंदाज़ा लगाने की कोशिश कीजिए कि आसमान में जो एक बार बिजली चमकती है उतनी अगर घर में जलाएं तो कितना खर्चा होगा। आपका अंदाज़ा जो भी हो, हमारी गणना आपको निश्चित रूप से चौंका देगी!

हिसाब कुछ इस प्रकार है  
वज्रपात एक क्षणिक घटना है। अधिकांश तड़ित सेकेंड के मात्र हज़ारवें हिस्से तक जीवित रहते हैं। वज्रपात में विद्युत का शुरुआती विभव (वोल्टेज) करीब पांच करोड़ वोल्ट तक होता है। और इस ज़बरदस्त वोल्टेज के कारण इतने नन्हें अंतराल में ही लगभग दो लाख एम्पीयर करंट धरती में प्रवाहित हो जाता है। (याद रहे कि हमारे घरों में आने वाली बिजली की लाइन 240 वोल्ट और 20 एम्पीयर की होती है।)

वॉट की इकाइयों में शक्ति की मात्रा पता लगाने के लिए हमें वोल्टेज और करंट की संख्याओं को आपस में गुणा करना पड़ता है। पर चूंकि जब तक बिजली गिरती है उसका वोल्टेज शून्य तक उतर आता है, कुल ऊर्जा का हिसाब लगाने के लिए हमें औसत वोल्टेज (यानी प्रारंभिक वोल्टेज का आधा) लेना पड़ेगा। अर्थात

बिजली की एक चमकार में कुल ऊर्जा  =   5,00,00,000 x 2,00,000  / 2  वॉट

                                 =  50,00,00,00,00,000 वॉट

                                 =    5 अरब किलोवॉट

है न वज्रपात शक्तिशाली! भाई, इन्द्र देवता का अस्त्र जो ठहरा। अब वज्रपात की ऊर्जा को किलोवॉट घंटे (यानी यूनिटों) में व्यक्त करने के लिए समय को भी तो गणना में शामिल करना पड़ेगा। एक किलोवॉट यानी 1000 वॉट बिजली एक घंटे तक खर्च होती रहे तो उसे एक किलोवॉट कहते हैं। बिजली की एक चमकार में 5 अरब किलोवॉट जितनी बड़ी शक्ति का संचार सेकेंड के सिर्फ हज़ारवें हिस्से तक ही जारी रहता है। आइए, समय से भाग देकर पता लगाएं कि कितने यूनिट बनेंगे इसके।

5000,000,000 / (3600 X 1000)  =   1400 यूनिट

बिजली के घरेलू इस्तेमाल के लिए हमें एक यूनिट के लिए रू. 1.40 देने पड़ते हैं। इस दर से वज्रपात की कीमत हुई:

1400 X 1.40  = 1960 रूपए मात्र!

क्यों है न सस्ती का ज़माना! और आपका अंदाज़ा कैसा रहा!

क्यों गिरी बिजली

बिजली का कड़कना और गिरना भी प्रेरण द्वारा आवेशन का एक अनूठा उदाहरण है। अक्सर, बारिश के दौरान तेज़ हवाओं, पानी की बूंदों और वातावरण में आवेशित कणों की मौजूदगी के कारण बादलों में आवेश का संतुलन गिड़ जाता है। ऋणात्मक आवेश बादल की निचली सतह (धरती की ओर वाली) पर इकट्ठा होने लगते हैं और धनात्मक आवेश बादल के ऊपरी हिस्सों की ओर पलायन कर जाते हैं बादलों की निचली आवेशित सतह धरती की सतह पर धन आवेश प्रेरित करती है। और दोनों सतहों के बीच जन्म लेता है गजब का विद्युतीय आकर्षण। यह आकर्षण इतना ज़ोरदार होता है कि बादल से ऋण आवेश बहुत ज़्यादा मात्रा में धरती की ओर बहुत तेज़ी से दौड़ पड़ता है। बादलों और धरती के बीच या आपस में बादलों के बीच आवेश के इस शक्तिशाली और तीव्र प्रवाह को ही बिजली गिरना कहते हैं।

बेंजामिन फ्रेंकलिन पहले इंसान थे जो सिद्ध कर पाए कि वज्रपात एक विद्युत क्रिया है। वज्रपात से इमारतों को बचाने का कारगार उपाय भी सबसे पहले फ्रेंकलिन ने ही सुझाया था। उन्होंने पाया कि नुकीले कोनों से आवेश का डिस्चार्ज काफी आसानी से होता है। इस खोज की मदद से फ्रेंकलिन ने तड़ित चालक (लाइटनिंग रॉड) का आविष्कार किया था। इस विधि में धातु की एक नुकीली छड़ इमारत के सबसे ऊंचे स्थान पर लगा दी जाती है और उसे तार के ज़रिए धरती से जोड़ दिया जाता है। बादलों द्वारा इमारत पर प्रेरित किया गया आवेश इस छड़ के द्वारा डिस्चार्ज या लीक कर जाता है जिससे बिजली गिरने की नौबत ही नहीं आ पाती। और अगर किसी कारण से छड़ से पर्याप्त मात्रा में आवेश डिस्चार्ज नहीं हो पाता है और बिजली गिर ही जाती है, तो भी इमारत को नुकसान नहीं पहुंचता क्योंकि बिजली मकान के किसी और हिस्से के बनिस्बत, छड़ की ओर ही आकर्षित होती है और कोई क्षति पहुंचाए बिना तार के द्वारा भूमि में प्रवाहित हो जाती है।

आवेश से काम करती एक मशीन फोटो कॉपी की

जी हां, वही बेहद मामूली-सी सहूलियत जो आजकल हर गली-नुक्कड़ पे मिल जाती है फोटोकॉपी बनाने की सुविधिा। यह भी विद्युत आवेश के ज़रिए अपना सेकेण्ड वाला कमाल करती है। फोटोस्टेट मशीन की पूरी कार्य प्रणाली को मोटे तौर पर चार चरणों में बांटा जा सकता है:

1. एक सिलिकॉन की प्लेट को, अंधेरे में, धनात्मक रूप से आवेशित किया जाता है (चित्र न और ब )।

2. अब उस चित्र के प्रतिबिंब को, जिसकी हमें कॉपियां बनानी हैं, आवेशित प्लेट पर प्रोजेक्ट किया जाता है। लगभग उसी तरह जिस तरह सिनेमा हॉल में फिल्म की रील को प्रोजेक्ट के ज़रिए पर्दे पर दर्शाया जाता है। (चित्र स )

इस प्रक्रिया के द्वारा प्रकाश और छाया का एक ‘पेटर्न’ जो कॉपी किये जाने वाले चित्र का हूबहू प्रतिरूप होता है, आवेशित प्लेट पर पड़ता है। सिलिकॉन एक अर्धचालक है और अर्धचालकों में एक विशेष गुण होता है कि अगर उनकी सतह को अंधेरे में एक बार आवेशत कर दिया जाए तो आवेश सतह पर एक लंबे समय तक बरकरार रहता है। पर अगर आवेशित सतह पर (कुछ खास रंगों की ) रोशनी पड़ जाए तो आवेश पल भर में डिस्चार्ज हो जाता है। इसलिए आवेशित प्लेट के जिन हिस्सों पर रोशनी पड़ती है, वहां तो आवेश डिस्चार्ज हो जाता है, पर जहां रोशनी नहीं पड़ती वहां आवेश बरकरार रहता है।

3. तृतीय चरण में, बारीक पाउडर (टोनर) सिलिकॉन प्लेट पर सामान रूप से फैलाया जाता है। प्लास्टिक के बने इस पाउडर के बने इस पाउडर के कणों पर ऋणात्मक आवेश होता है। इसलिए पाउडर के कण प्लेट के आवेशित हिस्सों से (यानी केवल उन हिस्सों से जहां रोशनी नहीं पड़ती) विद्युत आकर्षण के कारण चिपक जाते हैं (चित्र द और इ)।

और चूंकि प्लेट पर आवेशित और आवेश रहित हिस्सों का पेटर्न कॉपी किये जाने वाले चित्र का प्रतिरूप होता है, पाउडर के कण प्लेट पर चिपकर ठीक वैसा ही चित्र बनाते हैं जैसा कि हमारी असली कॉपी पर मौजूद था।

4. आखिरी चरण में दो कियाएं होती हैं। पहली में सिलिकॉन प्लेट पर एक कोरा कागज़ बिछाकर उसे पीछे से धनात्मक आवेश से आवेशित किया जाता है। कागज़ का आवेश प्लेट के आवेश से ज़्यादा रखा जाता है, जिसके कारण प्लास्टिक के कण प्लास्टिक के कण प्लेट से उतर कर कागज़ पर चिपक जाते हैं। और इस तरह उतर जाती है एक कोरे कागज़ पर असली चित्र का हूबहू कॉपी। पर चूंकि प्लास्टिक करण कागज़ पर केवल हल्की तरह से ही चिपके हुए होते हैं, इसके बाद कागज़ को गर्म किया जाता है। इससे कण पिघलकर कागज़ पर अच्छी तरह से चिपक जाते हैं, और आपको मिल जाती है चित्र की एक फोटोस्टेट कॉपी (चित्र फ और ज)।


अजय शर्मा - एकलव्य के होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से संबद्ध।