पुस्तक अंश
     भाग - 6

शेषािगरी केएम राव

“तो क्या,” उन्होंने कहा, “तुम छोड़ना क्यों चाहते हो?”
“बच्चे तो हर जगह बच्चे होते हैं,” उन्होंने समझाया। मैं सहमत था। “लेकिन क्या हम इस गैर-बराबर और अन्यायी शिक्षा व्यवस्था से आँखें चुरा सकते हैं?” मैंने पूछा।
- वैली स्कूल में एक बातचीत

मैंने 1995 में वैली स्कूल छोड़ने का फैसला कर लिया। इसलिए नहीं कि मुझे वहाँ मज़ा नहीं आ रहा था। मज़ा तो बहुत आ रहा था। लेकिन कुछ था जो मुझे कचोट रहा था। स्कूल तो ऐसी शिक्षा को अपनाने की भरसक कोशिश करता था जो बच्चे के सर्वोत्तम हित में हो। लेकिन मुझे लगता था कि हम बाकी दुनिया से कटे हुए हैं। शहर से बाहर हरा-भरा, सुन्दर और नैसर्गिक 100 एकड़ का यह इलाका स्कूलों के एक विशाल समुद्र के बीच एक अलग-थलग टापू जैसा था। इनमें से कुछ स्कूल तो एकदम पड़ोस में भी थे। कुछ स्कूल सरकारी थे जो उपेक्षा के गवाह थे। अक्सर उनमें पर्याप्त शिक्षक नहीं होते थे, दीवारें जर्जर थीं और वे काफी मायूसी पैदा करते थे।

मुझे काफी तल्खी से लगता था कि इसके बारे में कुछ करना चाहिए। कभी-कभी मैं सोचता था कि चन्ना क्या करते। मुझे काफी निराशा हुई कि वैली में ज़्यादा लोग इस सवाल से जूझने को तैयार नहीं थे। वे कहा करते थे, “हमें तो अपना घर ठीक-ठाक रखना चाहिए।” यह तो गोल चक्कर में घूमने जैसा था, क्योंकि अपना घर ठीक-ठाक रखने जैसी कोई चीज़ थी नहीं: हमेशा कुछ-न-कुछ अधूरा रह ही जाता है।

रोज़ाना, मैं देखता था कि बच्चे नंगे पैर घाटी पार करके ताटगुणी (Thatguni) स्थित अपने मिडिल स्कूल जा रहे हैं। अधिकांश बच्चे पड़ोस के राचेनमादा (Rachenmada) गाँव के थे जहाँ सिर्फ प्राथमिक स्कूल था। एक बार तो मैं अपने सातवीं कक्षा के बच्चों को राचेनमादा ले भी गया था। कई तो पहली बार किसी गाँव गए थे। वैली में अपने दूसरे साल के दौरान हमने एक छोटा-सा कदम उठाते हुए ताटगुणी और राचेनमादा स्कूलों के छात्रों और शिक्षकों को हमारे विज्ञान दिवस जलसे में आमंत्रित भी किया था। उन्हें बहुत अच्छा लगा था, रहस्यमयी Π दुम भी। उन्होंने यही कहा था। मैं बहुत खुश था।

शिक्षा की यात्रा में बदलाव
मुझे समझ में आने लगा था कि हमारा समाज जिस ढंग से अपने बच्चों को शिक्षा देता है, उसमें गहरी गैर-बराबरी है। इधर मैं था जो एक ऐसे स्कूल में काम कर रहा था जो अपने बच्चों, जो सम्पन्न परिवारों से आए थे, को इतना कुछ देता था। लेकिन हमारे एकदम पड़ोस में ऐसे स्कूल थे जो इतने अलग लगते थे। अन्तर बहुत गहरे थे। मैं एक ऐसे स्कूल में काम करता था जिसका सरोकार यह था कि बच्चे की सम्भावनाओं को अधिक-से-अधिक साकार किया जाए। हमारे इस टापू के बाहर ऐसे कई स्कूल थे, सरकार द्वारा संचालित कई स्कूल थे, जो बच्चे के अन्दर छिपी सम्भावनाओं के प्रति बिलकुल उदासीन थे। और फिर ऐसे स्कूल थे जहाँ बच्चों को अधिक-से-अधिक अंक हासिल करने को हाँका जाता था, जो उनके लिए तथाकथित ‘बेहतर जीवन’ का पासपोर्ट माना जाता था। मैं भी ऐसे ही एक स्कूल से पास हुआ था। लेकिन वहाँ चन्ना की उपस्थिति ने फर्क पैदा किया था।

लिहाज़ा, मैंने वैली स्कूल छोड़ने का निर्णय लिया। मुझे लगा कि मैं जर्जर दीवारों और टूटे-फूटे फर्नीचर वाले स्कूलों में ज़्यादा उपयोगी रहूँगा; ऐसे स्कूल जहाँ शिक्षण साधन नहीं हैं, जहाँ गरीब परिवारों के बच्चे आते हैं और रट्टा मारकर सीखते हैं या ज़्यादा कुछ सीखते ही नहीं हैं, या वहाँ इसलिए आते हैं क्योंकि उनके पास कोई और विकल्प नहीं है। मेरे सहकर्मियों ने कहा, “तो क्या? बच्चे तो हर जगह बच्चे होते हैं।” मैंने हामी भरी। लेकिन मेरा सवाल था: क्या हम इस गैर-बराबर और अन्यायी शिक्षा व्यवस्था के बारे में कुछ कर सकते हैं? क्या हम इसे अनदेखा करने का जोखिम उठा सकते हैं?
वैली में बिताए अपने प्रारम्भिक वर्षों का शुक्रिया अदा करते हुए मैंने शिक्षा में अपनी रोमांचक यात्रा जारी रखी। छोड़ने के बाद मेरा पहला पड़ाव था उत्तरी कर्नाटक के रायचूर ज़िले का एक दूर-दराज ब्लॉक। वहाँ मैंने 60 सरकारी प्राथमिक स्कूलों के साथ काम करके गणित व विज्ञान शिक्षण को बेहतर बनाने का प्रयास किया। फिर आई एक किस्म की क्वांटम छलांग। मुझे राष्ट्रीय स्तर पर एक सरकारी कार्यक्रम में काम करने का मौका मिला। इस कार्यक्रम का उद्देश्य देश में सबके लिए प्राथमिक शिक्षा सुनिश्चित करना था अर्थात सारे बच्चों को प्राथमिक स्तर तक मुफ्त शिक्षा सुलभ कराना।
हमारे संविधान निर्माताओं ने वचन दिया था कि देश के हर बच्चे को 14 वर्ष की उम्र तक मुफ्त व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान की जाएगी। अलबत्ता, लफ्फाज़ी और हकीकत के बीच अन्तर काफी कठोर होता है। जब आपको पता चलता है कि देश के लाखों बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं। वे अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करते हैं, कचरा बीनने का काम करते हैं, रेल्वे स्टेशनों पर गुज़र करते हैं, शोषण-अत्याचार का शिकार होते हैं, फटाके बनाते हैं, अपनी नाज़ुक उंगलियों से कालीन बुनते हैं, ढाबों पर घण्टों काम करते हैं वगैरह।

हम लोग, अपने मध्यम वर्गीय सुरक्षित दायरों में स्कूली शिक्षा को तो सामान्य बात मानकर चलते हैं, गोया यह सब लोगों के जीवन में कुदरती ढंग से होती है। लेकिन ज़रूरत इस बात की है कि हम अपनी आँखें खोलकर देखें कि हमारे आसपास क्या हो रहा है और चीज़ों को ज़्यादा बारीकी-से देखने के लिए खुद को तैयार करें। मैंने यही किया और नंगी गैर-बराबरी देखी।
वैली में हम एक-एक बच्चे से सरोकार रखते थे और खुद को ऐसे वयस्कों के रूप में देखते थे जो बच्चे के जीवन में भूमिका निभाता है। हम अपने विश्वासों, डरों, पूर्वाग्रहों की छानबीन करते थे और जानने की कोशिश करते थे कि इनका हमारी आपसी अन्तर्क्रियाओं और बच्चों के साथ हमारी अन्तर्क्रियाओं पर कैसा असर पड़ता है। जब मैंने व्यापक शिक्षा तंत्र के साथ काम शुरू किया, तो मैंने सीखा कि उन बड़े-बड़े सामाजिक मुद्दों को तत्काल सम्बोधित करने की ज़रूरत है जो बच्चे की पूरी सम्भावनाओं को फलने-फूलने से रोकते हैं। मैंने व्यक्तिगत और सामाजिक के बीच के अन्तरंग सम्बन्ध को समझा। यदि शिक्षा को समतामूलक बनाना है, तो सामाजिक पहलू पर तुरन्त ध्यान देने की ज़रूरत है।

मैं आगे बढ़ा और बाल विकास के क्षेत्र में काम कर रहे कुछ अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ लम्बे समय तक काम किया। शिक्षा में मेरा काम जारी रहा - इन संगठनों को परामर्श देकर, उन्हें अपना परिप्रेक्ष्य तथा शैक्षणिक कार्यक्रम विकसित करने में मदद देकर वगैरह। फिर एक समय आया जब मैंने संगठनात्मक सम्बद्धता छोड़ दी और एक स्वतंत्र कार्यकर्ता (फ्रीलांसर) बन गया।  इसके बाद देश भर में कई सारे रोमांचक और शिक्षाप्रद काम हाथ में आए। मैंने कई छोटे, बड़े संगठनों के साथ काम किया - शैक्षिक अनुसंधान किया, प्रशिक्षण कार्यक्रम विकसित किए, खूब यात्राएँ कीं और आम तौर पर अपने भरोसे होने का लुत्फ उठाया। पाँच साल बाद मैं एक बार फिर पूर्णकालिक नौकरी में लौटा।

वैली व सरकारी स्कूलों में अन्तर
सरकारी स्कूली तंत्र की प्रकृति पर अधिकाधिक गौर करते हुए मैंने वैली के अपने अनुभव को एक सन्दर्भ बिन्दु की तरह इस्तेमाल किया। इससे एक उपयोगी, हालाँकि कभी-कभी अनुचित, तुलना का साधन मिला। वैली में शिक्षक समय पर आते थे। सरकारी स्कूलों में आप ऐसा मानकर नहीं चल सकते। कई शिक्षक मनमर्ज़ी से आते और जाते हैं। वैली में आप कह सकते थे कि अधिकांश शिक्षक अत्यन्त प्रेरित थे और उन्हें किसी तरह की निगरानी की ज़रूरत नहीं थी। सरकारी स्कूलों में ऐसा नहीं था। यहाँ अन्त:प्रेरणा एक बड़ा मुद्दा था; कुछेक शिक्षक अपवाद थे जिन्हें कुछ कहने की ज़रूरत नहीं पड़ती।

वैली में बच्चे स्कूल छोड़कर नहीं जाते थे। सरकारी स्कूलों में कक्षा-दर-कक्षा ऐसा होता था। खासकर लड़कियाँ और गरीब परिवारों के बच्चे स्कूल छोड़ते थे। स्कूल उन्हें खदेड़ देता था।
वैली में पालक बच्चों के स्कूली जीवन में काफी करीबी से जुड़े होते थे। यही बात आप सरकारी स्कूलों के बारे में नहीं कह सकते। यहाँ पालकों और स्कूलों के बीच कुछ अलग ही खिचड़ी पकती थी। ‘शाला प्रबन्धन समितियों’ का अस्तित्व सिर्फ कागज़ों पर था और चन्द अपवादों को छोड़ दें तो इनका स्कूल से कुछ लेना-देना न था। बच्चे की असफलता के लिए पालक और शिक्षक एक-दूसरे पर दोषारोपण करते रहते थे। मैं ऐसे अन्तर बताता जा सकता हूँ...।

वैली से निकलने के बाद मैंने सरकार से शिक्षा में काम करवाने की चुनौतियों का सामना करना शुरू किया। शिक्षा में राष्ट्रीय स्तर से लेकर स्कूल तक एक विशाल बहुस्तरीय ‘नौकरशाही तंत्र’ मौजूद था। हमारी चुनौती यह थी कि इस तंत्र को प्रत्येक बच्चे की शैक्षणिक ज़रूरतों को सम्बोधित करने में समर्थ बनाना। नौकरशाही में हरकत पैदा करना प्राय: हाथी को यू-टर्न करवाने जैसा होता था। अलबत्ता, यह आज भी मेरे काम का एक मज़ेदार पहलू है।

शिक्षा में शिक्षक ही वास्तविक कर्मी हैं। मैं जल्दी ही समझ गया कि नौकरशाही शिक्षकों पर भरोसा नहीं करती। प्रशासक उन पर नियंत्रण रखना चाहते हैं। शिक्षकों को बताया जाता है कि वे क्या पढ़ाएँ, कैसे पढ़ाएँ और अन्य कौन-कौन-से काम करें। उन्हें सिखाने के लिए विस्तृत प्रशिक्षण कार्यक्रम हैं। इन प्रयासों में करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं। मैंने देखा कि उन्हें तैयार करने की आपाधापी में शिक्षक विकास की दूरगामी दृष्टि विकसित करने और क्रियान्वित करने का कोई प्रयास नहीं हो रहा है। अधिकांश समय तो हम ज़ोरदार कदमताल करते रहते हैं।
इन सालों में मैंने समझा है कि हमें शिक्षकों को प्रशिक्षित करने से आगे जाकर कुछ करने की ज़रूरत है। उन्हें एक ऐसा माहौल चाहिए जहाँ वे पेशेवरों के नाते और इन्सान के रूप में विकास कर सकें। उन्हें एक-दूसरे से सीखने के, यह देखने के कि अन्यत्र क्या कुछ हो रहा है, पढ़ने के, लिखने और अपने विचार साझा करने के अवसर चाहिए। और सबसे अहम बात कि अपने विकास में उन्हें परामर्श और मदद की ज़रूरत होती है।

मैं समझ गया कि चन्ना की कहानी शिक्षकों को उनका हक लौटाने का मेरा एक छोटा-सा प्रयास हो सकता है। इसके ज़रिए इस बात को रेखांकित किया जा सकता है कि उनके प्रति एक अलग नज़रिए की ज़रूरत है और महान शिक्षक क्या करते हैं, उससे सीखा भी जा सकता है। याद रखें, विषय, उसका शिल्प और शिक्षक, ये सब आपस में गुँथे हुए हैं। हमें इन सबकी यात्रा करनी होगी।

चन्ना के अन्य छात्रों के कथन
बहरहाल, चलते-चलते एक सवाल और खड़ा हो गया: मैंने सोचा कि क्या मैं अकेला ही हूँ जो चन्ना के बारे में इस तरह महसूस करता है? तो मैंने सोचा, देखा जाए अन्य लोग उनके बारे में क्या कहते हैं। इस सवाल ने कई दिलचस्प वार्तालापों को जन्म दिया।
स्मृतियाँ विचित्र खेल दिखा सकती हैं। और हाँ, मैं हूँ जो समय और स्थान के एक विस्तार में विविध स्मृतियों को सहेज रहा हूँ।
“यहाँ यूएस में नवम्बर का महीना पारम्परिक रूप से कृतज्ञता-ज्ञापन का महीना होता है। मैं इस अवसर पर आपको धन्यवाद देना चाहूँगा कि आप मेरे सर्वोत्तम गणित शिक्षक रहे। आपने रुचि, ज्ञान और करुणा के साथ पढ़ाया और, आपकी बदौलत, मैंने विषय के प्रति एक स्वस्थ प्रेम विकसित किया, हालाँकि मैं कोई निपुण गणितज्ञ नहीं हूँ।”
- किशन भगवान, 1974 की कक्षा

“आपने कई वर्ष पहले ‘बाल्डविन बॉयस हाई स्कूल' में मुझे गणित पढ़ाया था। मैं 1974 में किशन भगवान और अन्य छात्रों के साथ पास हुआ था। मुझे आपका ईमेल आईडी किशन से मिला। मुझे पता है, अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए यह पत्र बहुत विलम्ब से, लगभग 35 वर्ष विलम्ब से, लिख रहा हूँ। मैं तो बस इतना चाहता हूँ कि आप जानें कि आपके जैसा शिक्षक पाकर मैं धन्य हो गया जिसने हमें विषयों का वास्तविक मूल्य समझाया।
हालाँकि, गणित कभी भी मेरा मज़बूत विषय नहीं रहा, लेकिन आज भी मैं सरल गणनाएँ अधिकांश लोगों की अपेक्षा ज़्यादा तेज़ी-से कर लेता हूँ उन तकनीकों की बदौलत जो हमने केल्कुलेटर से पूर्व के ज़माने में स्कूल में सीखी थीं।
धन्यवाद सर, हमारे जीवन में इतनी अद्भुत उपस्थिति के लिए। आशा करता हूँ आप स्वस्थ और प्रसन्न होंगे। आजकल मैं मुम्बई में रहता हूँ और एक नाट्य लेखक और निर्देशक हूँ। मुझे पता चला है कि आप बैंगलोर में हैं। जवाब देंगे तो बहुत अच्छा लगेगा।”
- महेश दत्तानी, 1974 की कक्षा


शेषागिरी केएम राव: यूनीसेफ, छत्तीसगढ़ में शिक्षा विशेषज्ञ हैं। प्रारम्भिक शिक्षा और बाल्यावस्था में विकास में विशेष रुचि। साथ ही, आधुनिक शैक्षिक मुद्दों पर लिखने में दिलचस्पी।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
यह लेख एकलव्य द्वारा प्रकाशित पुस्तक द मैन हू टॉट इंफिनिटी से लिया गया एक अंश है।